श्री कृष्णा 🌷🌷 भक्तों श्री शुकदेव जी कहते है कि ब्रह्माजी की निष्कपट तपस्या से प्रसन्न होकर आदिदेव भगवान ने उन्हें दर्शन देकर अपना रूप प्रकट किया और आत्मतत्व के ज्ञान के लिए सत्य परमार्थ वस्तु का जो उपदेश दिया उसे सुनो - ब्रह्माजी ने अपने जन्म स्थान कमल पर बैठकर सृष्टि की रचना करने का विचार किया । तब प्रलय के समुद्र में उन्होंने व्यंजनों के सोलहवें तथा इक्कीसवें अक्षर त तथा प को तप-तप ( तप करो) इस प्रकार दोबार सुना । ब्रह्माजी ने यह वाणी बोलने वाले को देखने के लिए चार मुख ग्रहण किए परन्तु उन्हें किसी के दर्शन नहीं हुए। अन्त में ब्रह्मा जी ने अपने मन को तपस्या में लीन कर लिय ... ा ।उन्होंने एक हज़ार दिव्य वर्षों तक प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को एकाग्र कर तपस्या की । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर श्रादिदेव भगवान ने उन्हें अपने लोक के दर्शन कराए। ब्रह्माजी ने देखा कि उस लोक में किसी भी प्रकार के क्लेश, मोह या भय नहीं है। वहाँ न काल का दखल है और न माया ही वहाँ प्रवेश कर सकती है। भगवान श्रादिदेव की पूजा देवता और दैत्य दोनों ही करते थे। उस लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, यज्ञपति, विश्वपति और लक्ष्मी पति भगवान विराजमान हैं। वक्षस्थल पर एक सुनहरी रेखा के रूप में श्री लक्ष्मी जी विराजमान हैं। महत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, अहंकार दस इन्द्रियाँ, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पँचभूत ये पच्चीस शक्तियाँ मूर्तिमान होकर चारों ओर उपस्थित हैं। समग्र ऐश्वर्य, श्री, कीर्ति, धर्म, ज्ञान और वैराग्य से छः नित्य सिद्ध स्वरूप भूत शक्तियों से युक्त रहते हैं। उन सबको देखते ही ब्रह्माजी का हृदय आनन्द से लबालब भर गया । भगवान श्रादिदेव ने ब्रह्माजी से हाथ मिलाया और मन्द-मन्द मुस्कान में बोले - तुमने मेरे दर्शन किए बिना ही उस सूने जल में वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है। इसी तपस्या के कारण ही मेरी इच्छा से आपको मेरे लोक के दर्शन हुए हैं। तपस्या मेरा हृदय है और मैं स्वयं तपस्या की आत्मा हूँ। ब्रह्माजी भगवान श्रादिदेव से बोले - आपने एक मित्र के समान मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र बना लिया है। इसलिए जब मैं सृष्टि की रचना करने लगूँ और सावधानी से सृष्टि के गुण कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ तब समय-समय पर दर्शन देते रहना । इस कार्य में मुझे आपकी सेवा की आवश्यकता है । भगवान श्रादिदेव ने कहा- जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मेरी उपस्थिति समझना और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह मैं ही हूँ। तुम अविचल समाधि के द्वारा मेरे इस कथन में पूर्ण निष्ठा कर लो । इससे तुम्हें कल्प-कल्प में विविध प्रकार की सृष्टि रचना करते रहने पर भी कभी माहित नहीं होगे । देखते-देखते भगवान ने अपने उस रूप को समेट लिया। Read more
प्यारे भक्तों सृष्टि का वर्णन इस प्रकार है। कि विराट भगवान जब ब्रह्माण्ड को छेदकर प्रकट हुए तो रहने के लिए स्थान को तलाशने लगे । तब उन्होंने जल की सृष्टि की। विराट पुरुष के नर से उत्पन्न होने के कारण जल का नाम नार पड़ा। एक हज़ार वर्षों तक नगर में रहने के कारण उनका नाम नारायण पड़ा । नारायण ने योग निद्रा से जागकर अपनी माया से अपने स्वर्णमय वीर्य को तीन भागों में बाँटा, जिनके नाम अधिदेव, अध्यात्म और अधिभूत थे । विराट पुरुष के हिलने-डुलने से उनके शरीर में स्थित आकाश से इन्द्रिय बल, मनोबल और शरीर बल की उत्पत्ति हुई। इन सबका स्वामी प्राण उत्पन्न हुआ। मुख से तालु और तालु से रसनेन्द्रिय प्रकट हुई । बोलने की इच्छा होने पर वाक् इन्द्रिय प्रकट हुई जिसके अधिष्ठाता देवता अग्नि हैं। जिसका विषय बोलना है प्रकट हुई। सूँघने की इच्छा होने पर "नाक" ध्राणेन्द्रिय उत्पन्न हुई। गन्ध को फैलाने हेतु वायुदेव प्रकट हुए । देखने की इच्छा होने पर नेत्रों के छिद्र जिनका अधिष्ठाता सूर्य हैं नेत्रेन्द्रिय प्रकट हुई । इन्हीं से रूप का ग्रहण होने लगा। सुनने की इच्छा होने पर कान प्रकट हुए। उष्णता, शीतलता, कोमलता और भारीपन जानने के लिए शरीर में चर्म प्रकट हुआ। जिसके चारों ओर रोम छिद्र उत्पन्न हुए | त्वचा इन्द्रिय शरीर के चारों ओर लिपट गई। कर्म करने की इच्छा से हाथ उग आए । ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए। ग्रहण रूप कर्म भी प्रकट हुआ। आने-जाने की इच्छा होने पर पैर उग आए । चरणों के साथ ही चरण इन्द्रिय के साथ ही उसके अधिष्ठाता के रूप में वहाँ स्वयं यज्ञ पुरुष भगवान विष्णु स्थित हो गए। उन्हीं से चलना रूप कर्म प्रकट हुआ। सन्तान, रति और स्वर्ग की कामना हेतु लिंग का निर्माण हुआ | उपस्योन्द्रिय और प्रजापति आदि हुए। मलत्याग की इच्छा होने पर गुदा द्वार का निर्माण हुआ। पायुन्द्रिय और मित्र देवता प्रकट हुए। अपान द्वारा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने की इच्छा से नाभिद्वार प्रकट हुआ। उसी से अपान और मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनों के आश्रय से ही प्राण और अपान का विछोह होने से मृत्यु होती है। माया का विचार करने हेतु हृदय की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार आकाश, जल और वायु इन तीनों से प्राणों की उत्पत्ति हुई। अन्न, जल ग्रहण करने हेतु कोख, आंतों और नाड़ियों का निर्माण हुआ। विराट पुरुष के शरीर में पृथ्वी, जल, तेज से सात धातुएँ ९. त्वचा, २. चर्म, ३, मांस, ४. हड्डियाँ, ५. मज्जा, मेद, ७. रुधिर प्रकट हुई। भक्तों इस प्रकार श्री शुकदेव जी ने इस सृष्टि का वर्णन किया है- Shri Krishna
प्रिय भक्तों भागवत का वर्णन इस प्रकार है कि कल्प में सत्यवती के गर्भ से व्यास के रूप में भगवान ने प्रकट होकर भागवत पुराण की रचना की थी । इसी भागवत पुराण में सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, अति, मन्वन्तर, इशानु, निरोध, मुक्ति, आश्रय इन दस विषयों का वर्णन है । भगवान की प्रेरणा से आकाश, तन्मात्राएँ, पंचभूत, महत्तत्व और अहंकार की उत्पत्ति का नाम सर्ग कहा गया है। विराट पुरुष से सृष्टियों के निर्माण को विसर्ग कहा गया है। प्रति पल नाश की ओर बढ़ने वाले सृष्टि को मर्यादा में स्थिर रहने से भगवान विष्णु की जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसे स्थान कहा गया है। भगवान के द्वारा सुरक्षित सृष्टि में भक्तों के ऊपर उनकी जो कृपा रहती है उसे पोषण कहा गया है । मन्वन्तरों के अधिपति जो भगवद् भक्ति और प्रजापालन रूप शुद्ध धर्म का अनुष्ठान करते हैं उसे मन्वन्तर कहा गया है । जीवों की वे वासनाएँ जो कर्म के द्वारा उन्हें बन्धन में डाल देती हैं उसे ऊति कहा गया है। भगवान के विभिन्न अवतारों के और उनके प्रेमी भक्तों की विविध आख्यानों से युक्त कथाएँ ईश कथा कहलाती हैं। जब भगवान योगनिद्रा स्वीकार करके शयन करते हैं, तब इस जीव का अपना वास्तविक स्वरूप परमात्मा में स्थित होना ही मुक्ति है । इस चराचर जगत की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्त्व से प्रकाशित होते हैं वह परब्रह्म ही आश्रय है ।- Shri Krishna