◆◆◆◆ श्री कृष्णाय नमः ◆◆◆◆

★★★★★ अथ दूसरा अध्याय प्रारम्भते ★★★★★

संजयोवाच- संजय धृतराष्ट्र को कहते हैं हे राजा जी! दया से भरा अर्जुन अश्रपात से पूर्ण हैं नेत्र जिसके रुदन सो करता है ऐसे विषाद से व्याकुल जो है अर्जुन, उसको श्री कृष्ण भगवान जी कहते है
श्री कृष्ण भगवानोवाच- हे अर्जुन! ऐसे विकट युद्ध के स्थान पर तुझको यह……

अर्जुन कहे श्री कृष्ण को सुनो कृष्ण भगवान।
देखा चाहूं आज मैं दोनों सेन महान दोनों सेन महान।
दोनों सेन महान वीर जो लड़ने आये।
क्या क्या तिनके नाम वीर जो लड़ने आये।
रथ मेरे को ले चलो दो सेना दरम्यान।
नेज़र मानो ममकथं सुनो कृष्ण भगवान।

….. तुझको यह दुःख कहा से आया है यह नीचो की बुद्धि तुझको न चाहिए, इस बात से संसार मे न स्वर्ग मिलता है ना कीर्ति होती है। हे अर्जुन! यह नपुंसको जैसी प्रकृति तुझे नही चाहिए और तूं तत्व की बात समझता नही परंतप अर्जुन! हृदय से इस नीच बुद्धि को त्याग उठ खड़ा हो। श्री
कृष्ण भगवान के मुखकमल से यह वचन सुन करके अर्जुन कहता है।
अर्जुनोवाच- हे मधुसूदन जी! भीष्म और द्रोणाचार्य तो पूजा योग्य हैं,इनकी पूजा करनी और कुछ भली वस्तु इनके आगे भेंट रखनी चाहिये इन पर बाणों का प्रहार किस प्रकार करिये यह तो बड़े महागुरु हैं बड़े महानुभाव है, इनके मारे से मेरा कल्याण कहा है इन्द्रियों के भोगों निमित्त इनका घात करूं तो इनको मार जो राज के भोग भोगू इनके रूधिर साथ लिपटे हुए होंगे और यह बात भी निश्चय कर जानी जाती जो सर्वथा हमारी ही जीत हो पर यह बात मैं निश्चय जनता हूं कि हमारे सन्मुख जो यह धृतराष्ट्र के पुत्र खड़े हैं सो इनके मारने से हमारा जीना भला नहीं और आपने जो कहा नीच बुद्धि को मत प्राप्त हो तो मैं नीच बुद्धि के पाप को जानता नहीं और मैं ऐसा मूर्ख हो गया हूं जो धर्म अधर्म को भी नही समझता जो धर्म मुझको किस करके हैं और अधर्म कैसे हैं ? हे प्रभु जी! मैं शिक्षा योज्ञ हूं मनसा,वाचा, कर्मणा से तुम्हारी शरण आया हूं जिससे मेरा कल्याण हो सो बात निश्चय कर मुझ को कृपा कर कहो। प्रभु जी! इस शोक से मेरी इन्द्रियां सूख गई हैं सो ऐसी बात मैं कोई नही देखता जिससे मेरा शोक दूर हो हे प्रभु जी! जो शत्रुओं को मारकर निष्कटक सारी भूमि का राज पाऊं और देवलोक जो स्वर्ग है उनकी राज्य समग्री पाऊं तो भी इनको पाकर मेरा शोक नही जायेगा भूमि के राज्य की तो कितनी बात है
संजयोवाच- हे राजन यह बात ऋषिकेशव जी को अर्जुन कहता हे गोबिन्द जी! इनके साथ युद्ध किसी प्रकार नही करूंगा यह कहकर अर्जुन चुप कर गया। संजय धृतराष्ट्र जी को कहते हैं हे राजा जी ऐसे दुःख में प्राप्त अर्जुन को श्री कृष्ण भगवान हंस कर यह बात कहते हैं।
श्री भगवानोवच- हे अर्जुन! जो विवेकी पुरुष हैं वह किसी वस्तु की चिन्ता नही करते, क्योकि जिनके मरने की चिंता तूने करी हैं सो तेरे कहे मारे नही जाते। क्या यह अभी उपजे हैं ? नही पीछे भी यही थे और अब भी हैं और आगे भी होवेंगे यह बोलने हारा आत्मा है, सो अविनाशी है और देह की जैसे तीन अवस्था है, बाल,योन,वृद्ध वैसी चौथी अवस्था देह का मरण है, यह देह के धर्म हैं सो विवेकी पुरुष आत्मा को अविनाशी मानते हैं और देह का मरण ही धर्म है। यह जानकर बुद्धिमान किसी का शोक नही करते। हे कुन्तिनन्दन अर्जुन! तुझको इन्द्रियों का ज्ञान प्राप्त भया सो यह ज्ञान सुख दुःख और शीत उष्ण का दाता है। यह सुख दुःख प्राप्त भी होता है, और मिट भी जाता है, अन्तवत। हे अर्जुन! तूं इनको सहार। हे श्रेष्ठ अर्जुन जिनको इन्द्रियों के सुख और दुःख अपनी निशचलता से चलायमान न कर सके, तिन्हीं पुरुषों ने अमृत पान किया है सो ही अमर हुए। हे अर्जुन! यह जो समस्त देह मे आत्मा व्यापी है तिसको तू अविनाशी जान। यह किसी के कहे मारा नहीं जाता। यह अनन्ता है, शरीर उपजते भी हैं और विनाश भी होते हैं और आत्मा नित्य है अमर हैं फिर कैसा है ? निराहार है, कुछ खाता पीता नहीं और आत्मा की मर्यादा भी नहीं कि कितना है, इस कारण हे अर्जुन युद्ध करके कोई कहे अमुक को मैंने मारा है सो वह दोनों कुछ नहीं समझते न कोई मरा और ना किसी ने मारा है आत्मा कैसा है। कभी जन्मता नहीं और मरता भी नहीं है और यह भी नहीं जो कभी होता है कभी नहीं होता है, आत्मा अजर है जन्म मरण से रहित है, नित्य अविनाशी है शाश्वत है और पुरातन है और किसी के कहे, मारा नहीं जाता शरीर मरते हैं जन्मते हैं जिनका मरना ही धर्म है, परंतु मरना आत्मा का धर्म नहीं। हे अर्जुन! जिन्होंने ऐसा अविनाशी आत्मा नहीं पहचाना सो पुरुष कहते हैं कि उसको हमने मारा या अमुक ने हमें मारा। देह आत्मा का सहयोग अर्थात इकट्ठा होना किसी भांति है सो सुन, जैसे पुराना वस्त्र उतारा और नया पहन लिया इसी भांति आत्मा पुरातन देह को छोड़कर नहीं देह लेता है, फिर आत्मा कैसा है शास्त्रों से काटा नहीं जाता, अग्नि से जलाया नहीं जाता और जल में डूबता नहीं और पवन से सूखता नहीं, आत्मा छेदने,कटने,जल में डूबने और सूखने से रहित है, अविनाशी है, सर्वव्यापी है, सर्वदेहों में भरपूर है। इसी में निश्चल कहा जाता है, सनातन पुरातन है, फिर कैसा है ?आत्मा अव्यय है, किसी ने देखा भी नहीं अचिंत है, चितव्या नही जाता और अकर्ता है, कुछ काम काज भी नहीं करती है, हे अर्जुन! जिन्होंने ऐसे आत्मा को पहचाना है सो किस की चिंता करें, आत्मा तो ऐसा है जैसा मैंने तुझे कहा है। हे महाबाहो! जो तू आत्मा को ऐसा न भी जाने तो भी चिंता किसी की नहीं करनी चाहिए जो जन्मा है सो निश्चय मरेगा, जो मरते हैं उनका निश्चय कर जन्म है इस भांति समझ कर चिंता नहीं करनी चाहिए अब और सुन इस सभा भूत प्राणियों शरीर धारियों का आदि अन्त जाना नहीं जाता कि कहां से आए हैं कहां जायेंगे बीच ही से देखने लगे हैं, जब शरीरों को छोड़ते तो नहीं जानते कि कहां गए जिनका आदि अन्त न जाना जाए कि कहां से आए कहां को गए उनकी चिंता क्या करें, इस भांति भी चिंता करनी उचित नहीं है अब और सुन। इस बोलन हारे आत्मा को देखा चाहे सो आश्चर्य होकर देखता है और सुनता भी आश्चर्य से है, आश्चर्य क्या है ? जिसका कुछ निर्णय किया जाए कि यह क्या है जिसके दिल में रहते ही धर्म न जानिए कि क्या है इस भांति चिंता नहीं करनी चाहिए और एक बात इस आत्मा की निश्चय कर जानिए, यह अविनाशी है इस कारण से हे अर्जुन तू किसी भूत प्राणी की चिंता मत कर, तू क्षत्रिय है युद्ध करना तेरा धर्म है तू अपने धर्म से मत गिर ऐसे युद्ध विषय कल्याण क्षत्रिय को दुर्लभ हैं अपनी इच्छा से यह सभी योद्धा आए हैं स्वर्ग के द्वार इनके लिए खुले पड़े हैं हे अर्जुन! इस युद्ध के मार्ग से सुखैन ही स्वर्ग को जो प्राप्त होंगे और जो तू यह धर्म का संग्राम न करेगा तो तेरा धर्म भी जाता रहेगा और कीर्ति भी जाएगी अपने धर्म और कीर्ति को छोड़कर पाप को प्राप्त होवेगा जो लोग तेरी कीर्ति करते हैं सो ही तेरी निंदा करेंगे कि अर्जुन कुछ नहीं बलहीन है लोगों में जिसकी निंदा हो उसके जीवन से मरण भला है और जो योद्धा तेरे से डरते हैं तुमको महारथी योद्धा कर मानते हैं सो ही योद्धा तुझको कहेंगे अर्जुन कुछ नहीं बलहीन है, तुझे बुरे वचन कहेंगे। तेरे पराक्रम की निंदा करेंगे। इसके उपरांत तुझे बड़ा दुख होगा। जो तू युद्ध विखे शरीर छोड़ेगा तो स्वर्ग में जा प्राप्त होवेगा।
दोहा-
रण में मरे तो स्वर्ग हो विजय महाराज।
उर में करी विचार यह युद्ध ही ते धनु साज।

जो जीते तो पृथ्वी के राज को प्राप्त होगा। इसलिए हे अर्जुन! तू उठ खड़ा हो, युद्ध का निश्चय कर सुख और दुख को एक समान जान लाभ और हानि को समान जानकर युद्ध कर, तुझे पाप नहीं लगेगा, हे अर्जुन! मैंने तुझको यह संख्यशास्त्र का मत सुनाया है अब बुद्धि योग सुन सो कैसा बुद्धियोग है जिसके सुनने समझने से जन्म मरण के बंधन को काट डालेंगे मुक्ति पाएंगे अब प्रथम तू मेरी बुद्धि सुन जो मैं अपने भक्तों के साथ कैसा हूं जो मेरे भक्तों मेरी सेवा पूजा, भक्ति समरण भूल कर भी करते हैं आगे का पीछे और पीछे का आगे तो तिसका पाप कुछ नहीं मैं समझ लेता हूं कि मेरा भक्त मेरे प्रेम साथ मगन हुआ इसको सुर्त नहीं है इसकी साखी सुन जैसा राम अवतार ने भी भीलना की गति प्रेम साथ जूठे बेर भोजन किए हैं। हे अर्जुन! मेरी गति देखने में थोड़ी है कि एक तुलसी दल अथवा पुष्पमाला मुझे समर्पण करें अथवा एक बार नमस्कार करें अथवा एक बार मेरा नाम लेवे, सो यह देखने को तो थोड़ी है पर इसका फल बढ़ा है क्या फल है ? जन्म मरण के दुख को काट मेरे अविनाशी पद विषे लय होता है यह जो भक़्त के साथ मेरी प्रीति है सो कही है और भक्ति का फल भी कहा है अब जैसी मेरे साथ मेरे भक्तों की बुद्धि है सो सुन मेरे भक्तों को केवल एक मेरे चरण कमलों की सेवा साथ प्रीति है मेरे बिना किसी दूसरे को नहीं मानते और मेरे नाम बिना कुछ मुख से और कहते भी नहीं और ना सुनते ही हैं केवल दृढ़ निश्चय है और जिसका निश्चय मेरे साथ नहीं तिसकी बात सुन, उनकी मति अनेक और भरमती फिरती है, जिस और किसी ने लगाई उसे और लग जाती और वह कैसे हैं जिनका निश्चय मेरे साथ नहीं मीठी वाणी से श्लोक पढ़ पढ़ कर लोगों को सुनाते हैं और देवताओं की भक्ति का उपदेश कहते हैं वह अंधे मूर्ख अपने आप को दंडित करते हैं, हे अर्जुन! वेद के विवाद से आप भी मोहे हुए हैं और लोगों को भी मोहित करते हैं। फिर वह कैसे हैं इंद्रियों के भोगों में जिनकी कामना है उन्होंने स्वर्ग को ही परमपद समझ रखा है वह ऐसे कर्म करते हैं जिनके किए से बारंबार संसार में जन्म मरण होवे और जिनके करने से कष्ट बहुत होवे और जिस कर्म का तुच्छ फल हो वह स्वर्ग को गए फिर गिर पड़े ऐसे जो बुद्धिहीन है जिनकी कामना इंद्रियों के भोगों में है और संसार में अपनी प्रभुता चाहते हैं इन बातों से बुद्धि अंध हुई है उनकी बुद्धि का निश्चय मेरे में लगता नहीं और निश्चय के लगे बिना परमसुख सुख जो है समाधि परम कल्याण सो कभी नहीं। अब अर्जुन वेद का वृतांत सुन। वेद की बुद्धि भी तीनों गुणों में है परंतु आत्मा इन तीनों गुणों से अतीत है कैसा सत्यजीत हो उष्ण हो ना जन्म हो न मरण हो ऐसा जो आत्मा सत्यस्वरूप और नित्य है तू उसके साथ जुड़। आत्मा सुख और इंद्रियों के भोगों के सुख में बड़ा भेद है। तिनका वृतांत सुन। जैसे जल का पात्र कुआं, तालाब, टोभा नदी इनके विषय एक एक ही कार्य होते है जो कुए पर जा कर यतन से जल निकालें तब ही पान कीजिए पर भली-भांति कुएं में स्नान नहीं होता वस्त्र भी धोए नहीं जाते और जो तालाब टोभे,नदी में जावे वहाँ पीने का जल नहीं स्नान करते और वस्त्र धोते हैं और जब महाप्रलय में जहां सातों ही समुद्र एक हो जाते हैं ऐसे अनन्त जल में भली-भांति स्नान भी होये, जलपान भी होय वस्त्र भी धोये जाते है इसी भांति आत्मा ब्रह्म के साथ जुड़कर अनन्त सुख पाता है इस सुख को मेरे उपासक ब्रह्मा, नारद, तपस्वी सब जानते हैं, तिस कारण हे अर्जुन! ऐसा जो आत्मा का सुख है तिस के साथ जुड़,तेरा जो क्षत्रिय धर्म है सो कर, फल कुछ न मांग। हार जीत एक समान जानकर युद्ध कर। हर्ष शोक से रहित हो इसका नाम समता योग है। हे अर्जुन! ऐसे बुद्धियोग के साथ जुड़कर पाप पुण्य दोनों को काट डाल और बुद्धियोग कर आत्मा साथ जुड़, इसका नाम कल्याण योग है। ऐसे जो विवेकी पुरुष हैं वो फल किसी कर्म का नहीं बांछते है जो फल बांछते हैं सो नीच मति है। हे अर्जुन! जब तू मेरे साथ बुद्धि को निश्चल करेगा तब जन्म मरण के बंधन काट कर मेरे अविनाशी पद को प्राप्त होगा। हे अर्जुन! जब मोह के जाल को तेरी बुद्धि तोड़ेगी तब जितने शास्त्र सुने हैं उसमें विरक्त होगा, जब तेरी बुद्धि निर्मल होगी तब तू समाधि योग के सुख को जानेगा। श्री कृष्ण भगवान के वचन सुनकर अर्जुन पूछता है
अर्जुनोवाच- हे केशव जी ? जिसकी निश्चल बुद्धि है तिसके लक्षण कृपा कर कहो,तिसकी बोली कैसी है ? समाधि कैसी है लोगों के साथ बात किस भांति करता है और वह चलता और बैठता किस भांति है ? मैं कैसे समझू कि वह निश्चल बुद्धि है। इतना सुनकर कृष्ण भगवान जी कहते हैं।
श्री भगवानोंवाच- हे अर्जुन जिस की कामना किसी बात करने पर नहीं उठी और आत्मा को पाकर संतुष्ट है, तिसकी तू निश्चल बुद्धि जान, फिर कैसे हैं जिसकी देह को यदि दुःख लगे तो चिंता ना करें और सुख की वांछा न करें किसी से जिसका मोह नहीं और किसी का भय नही, किसी के साथ वैर नहीं और किसी से क्रोधित नहीं होता, तिसकी बुद्धि निश्चल जान। फिर कैसे है ? जिसकी किसी से प्रीति नहीं, जिसे भली वस्तु पाकर हर्ष नहीं, और बुरी वस्तु पाकर शौक नहीं तिसकी बुद्धि निश्चल जान। फिर कैसा है ? जैसे कूर्म अर्थात कछुआ अपने हाथ पाव मुख्य सभी इंद्रियां अपनी खोपड़ी में चढ़ा लेता है तैसे ही जिसने सभी इंद्रियों विषयों से वर्ज के बांध रखी हैं तिसको को तू निश्चल बुद्धि जान। हे अर्जुन! यद्यपि विवेकी पुरुष इंद्रियों को जीतने का यत्न करता है तो भी इंद्रियां बलवान हैं। मन की ठोर से चल देती हैं, हे अर्जुन! इन सभी इंद्रियों को वश में कर किस भांति वश में कर सो सुन। मन का निश्चल चैता मेरे में रख। मन ही से इंद्रियां सुरजीत हैं, सो ही मेरे में भी निश्चल रख तब इंद्रिया आप ही जीती जावेगी। जिसके वश इंद्रियां हैं तिसकी बुद्धि निश्चल जान और जो मेरे नाम, मेरे ध्यान बिना और बात चितवन करता है इससे मनुष्य का किस भांति कार्य बिगड़ता है सो सुन- जो मनुष्य विषयों की बात करें उनका संग कर अथवा अपने मन में विषयों का ध्यान करें, तब विषयों का संग इस तरह होता है उस संग से मन में काम आदि कामना उपजती है, काम से क्रोध उपजता है, क्रोध से लोभ, लोभ से मोह, मोह से चैतन्य का नाश होता है, जब चैतन्य का नाश हुआ, तो बुद्धि का नाश हुआ, बुद्धि का नाश होने से मनुष्य का भी नाश हो जाता है। जब बुद्धि नष्ट हुई तब जैसे और पशु योनि है तैसे ही यह पशु हुआ। इस कारण से मेरे भक्त संसारी मनुष्य का संग कभी नहीं करते और मेरे नाम के बिना और बात नहीं करते। नाम की चितवना बिना और कुछ संकल्प नहीं करते, यह मेरे भक्तों को मेरी आज्ञा है, अब अर्जुन! मेरे भक्त भोजन छादन का अंगीकार कैसे करें सो सुन। जैसे मेरी आज्ञा से जो कुछ मिला वैसे ही शौक से रहित होकर भोग लिया और जिसके मन का निश्चल चेता मेरे में होता है तिस पर मैं कृपा करता हूं, मेरी कृपा से उनके तन और मन के छोटे बड़े जो दुख है उनका नाश होता है, उनका मन अति प्रसन्न होता है। अब जिनकी नास्तिक बुद्धि है उन की बात सुन। हे अर्जुन! नास्तिक बुद्धि किसको कहते हैं ? जो कहते हैं कि परमेश्वर कहां है किसने देखा है ? जिनकी श्रद्धा मेरे में नहीं लगती, मेरे में श्रद्धा लगे बिना शांति नहीं और शांति के बिना कोई सुख नहीं, नास्तिक बुद्धि सदा दुखी रहते हैं, हे अर्जुन! जो कहो इन्द्री विषयों की ओर चले,तिसके पीछे मन को न जाने देवें, उसकी बुद्धि कैसी है सो सुन जैसे नौका नदी के परले किनारे चलती है और पवन झखड़ आता है तो नौका को इस तट पर नहीं लगने देता, जिधर किधर जा लगती है। इसी भांति इंद्रियों के पीछे मन को न जाने दें। इसलिए हे अर्जुन! प्रथम तू इंद्रियों को वश कर, जिन पुरुषों ने इंद्रियों को अपने अर्थो से वर्ज रखा है, अपने वश करी हैं, उनकी बुद्धि निश्चल जान। हे अर्जुन! अब और सुन, मेरे स्मरण भजन की बातों का स्वाद जो है उसको संसारी मनुष्य को सूरत नहीं, तिनके भाणे मेरा भजन रात है, मेरी और से सो रहे हैं और संसार के विषय में सावधान है तिनका यह दिन होता है जिसमें मनुष्य जागते हैं और संयमी जो भक्त हैं सो उस ओर से सो रहे हैं, तिनके भाणे संसार की बात रात्रि है और जो मेरे भक्त हैं मेरे भजन में जागते हैं, सावधान हैं, मेरा जो पूर्ण भक्त है उसके लक्षण सुन! जैसे समुद्र अपने जल से पूर्ण और निश्चल है, वह कैसा है ? जिसके कामना मेरे भजन बिना किसी बात को नहीं चाहती, ऐसा जो निश्चह और अवांछी निरंहकार ममता से रहित है वह शांति पद मे लीन है और शांति उनमें लीन है, हे अर्जुन! यह मैं तुझको ब्रह्मा स्थिति कही है जो ब्रह्मय है, तिसको यह स्थिति स्वभाव है, तिसको यह स्थिति स्वभाव प्राप्त हुआ है सो फिर माया के मोह से कभी नहीं मोहा जाता, क्योंकि वह माया के पार निर्वाणब्रह्म पद मे जा प्राप्त हुआ

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे संख्या योगो द्वितीयो अध्याय।।

★★★ अथ दूसरे अध्याय का महात्म्य ★★★

श्री नारायणोवाच-
नारायण जी कहते हैं कि हे लक्ष्मी! तू श्रवण कर। दक्षिण देश में एक पूर्णा नाम नगर था, वहां देव नाम का अतीत बड़ा धन पात्र रहता था, वह साधुओ की सेवा करता था और साधुओं को कहता, हे संत जी! मुझको नारायण जी के जानने का ज्ञान उपदेश करो, जिससे मेरा कल्याण हो होवे, मैं मोक्ष पद पाऊं, ऐसे संत सेवा करते बहुत दिन बीते एक दिन वहाँ एक बाल नामा ब्रह्मचारी आया, उसकी सेवा बहुत करी और विनय करी, हे संत जी! मुझे कृपा कर श्री नारायण जी के पाने का ज्ञान उपदेश करो, जिससे मेरे जीवन का कल्याण और मुक्ति होवें, तब बाल ब्रह्मचारी ने कहा मैं तुझे गीता जी के दूसरे अध्याय का पाठ सुनाता हूं, उसके सुनने से तेरा कल्याण होगा तब देव ने कहा- श्री गीता जी के दूसरे अध्याय के सुनने से कोई पहले भी मुक्त हुआ है ? तब बाल ब्रह्मचारी ने कहा मैं तुझे एक पुरातन कथा सुनाता हूं, श्रवण करें एक अयाली वन में बकरियां चराता था और वहां मैं भजन किया करता था, एक दिन रात को अयाली बकरियां लेकर घर को चला मार्ग में एक सिंह बैठा था एक बकरी जो सबसे आगे चली जा रही थी उसको देख कर सिंह भाग गया। तब वह अयाली यह अचरज देख कर बड़ा चकित हुआ और मैं भी वहां आ खड़ा हुआ, चरवाहे नें मुझे देख कर कहा मैंने यह आश्चर्य देखा है कि बकरी को देखकर सिंह डर के भाग गया है। तुम संत त्रिकालज्ञ हो वृतांत मुझे कहो कि यह क्या चरित्र भया है ब्रह्मचारी ने कहा, हे अयाली! मैं तुझे एक पिछली वार्ता सुनाता हूं। यह बकरी पिछले जन्म में डैन थी, जाति इसकी सुंदर थी जब इसका भर्ता मर गया तब यह डैन बड़ी हो गई, जिस सुंदर लड़के को देखती उसको खा लेती और यह सिंह पिछले जन्म फंदक था, यह पक्षी पकड़ने बाहर को गया था और डैन भी वन को गई थी, वहाँ डैन ने उस फंदक को खा लिया। अब वही फंदक यह सिंह भया और वह डैन यह बकरी भई, सिंह को पिछले जन्म की खबर थी इसलिए बकरी को देखकर सिंह ने जाना कि अब भी मुझे खाने आई है। तब अयाली ने कहा मैं पिछले जन्म कौन था! तब ब्रह्मचारी ने कहा तू पिछले जन्म चंडाल था तब अयाली ने कहा- हे ब्रह्मचारी जी! कोई ऐसा उपाय भी है जिससे हम तीनों ही इस अधम देह से छूटें तब ब्रहमचारी ने कहा हम तुम्हारे तीनों का उद्धार करते हैं एक वार्ता मेरे से सुनो पर्वत के कन्द्रा में एक शिला थी जिस पर श्री गीता जी का दूसरा अध्याय लिखा हुआ था मैंने उन अक्षरों को उस शिला पर देखा था अब मैं तुम्हारे को मन वचन और कर्म करके सुनाता हूं तुम श्रवण करो! तब ब्रह्मचारी ने गीता जी के अक्षर सुनाएं तब तत्काल ही आकाश से विमान आए उन सब को विमान पर चढ़ाकर बैकुण्ठ लोक को ले गए, अधम देह से छुट कर देव देहि पाई, और देव भी गीता ज्ञान सुनकर मुक्त हुआ और देव देहि पाकर बैकुण्ठ को गया तब श्री नारायण जी ने कहा, हे लक्ष्मी! जो मनुष्य श्री गीता जी के ज्ञान को पढ़े सुने तिसका फल क्या वर्णन करिये, श्री गीता जी के श्रवण अथवा दर्शन के करने से जीव मुक्ति को प्राप्त होते है और पाठ का फल तो और अधिक है।।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम द्वितीयो अध्याय संपूर्णम् ।।