★★★★ श्रीमद्भभगवद्गीता ★★★★

हे भगवान अर्जुन भक़्त को आपने जो गीता जी का ज्ञान दिया!सो मुझको मिले, हे भयभंजन भगवान श्री कृष्ण जी। यह रमन आपका दास है, हे प्रभु गीता के उच्चारण करने
से भगत पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त होता है। हे प्रभु! मै आपके चरणो की शरण हूं! आप परम पूर्ण हो और मै आपकी
शरण मे पड़ा हूं! रमन कृष्ण दास दीन गरीब है और आप सन्तों की विनती मान लेते है हे कमलावल्भव श्री कृष्ण भगवान जी कृपा निधान जी तेरे भक्तों के लिए मै यह गीता ज्ञान हिन्दी भाषा मे कहता हूं। अगर मुझसे लिखने में कोई त्रुटि हो जाए तो आप और आपके भक़्त अपना दास समझकर क्षमा कर देना। मै श्री कृष्ण भगवान जी आपको और आपके भक्तों को नत्मस्तक होकर कोटि कोटि नमन करता हूं

श्री गीता के ज्ञान की कथा प्रारम्भ हुई 

पहला अध्याय – विषाद योग

जब कौरव और पांडव महाभारत के युद्ध को चले तब राजा धृतराष्ट्र ने कहा कि मै भी युद्ध का कौतुक देखने चलूं तब
श्री व्यास जी ने कहा हे राजन! तेरे तो नेत्र नहीं हैं, नेत्रों के बिना क्या देखोगे ? तब राजा धृतराष्ट्र ने कहा, हे प्रभु जी! देखूंगा नहीं, श्रवण तो करूंगा। तब व्यासदेव जी ने कहा हे राजन! तेरा सारथी संजय मेरा शिष्य हैं जो कुछ महाभारत के युद्ध की लीला कुरुक्षेत्र में होगी सो तुमको यहाँ बैठे ही श्रवण करावेगा! जब व्यासदेव जी के कमलमुख से यह वचन सुने तब संजय ने श्री व्यासदेव जी के चरणों पर नमस्कार किया और हाथ जोड़कर…….

★★ पहला अध्याय ★★

धृतराष्ट्र कहने लगे सुन संजय धीमान।
कुरुक्षेत्र की भूमि मे क्या कुछ होत सुजान।।
क्या कुछ होत सुजान पांडु सुत और सुत मेरे।
गए युद्ध के हेतु वीर बुद्धि के प्रेरे।।
दिव्यचक्षु और श्रोत्र को कर गए व्यास प्रदान।
धर्मक्षेत्र की भूमि का बेजर करो बखान।।

…….विनती की कि प्रभु जी महाभारत के युद्ध का चरित्र तो कुरुक्षेत्र में होगा और मैं हस्तिनापुर हूंगा और आपने जो आज्ञा की है कि राजन तुझको यहाँ बैठे ही युद्ध का कौतुक संजय कहेगा सो प्रभु! यहाँ हस्तिनापुर में कुरुक्षेत्र की लीला कैसे जानूंगा और राजा को किस भांति कहूँगा ? जब इस प्रकार संजय ने व्यासदेव जी से विनती की तब श्री व्यासदेव जी ने प्रसन्न होकर संजय को यह वचन कहा कि
हे संजय मेरी कृपा से तुझे यहां ही सब कुछ दिखाई देवेगा और बुद्धि के नेत्रों से सूझेगा। जब व्यास जी ने यह वर दिया उसी समय संजय को दिव्य दृष्टि हुई और बुद्धि भी उसी की दिव्य हुई! अब आगे महाभारत का कौतुक कहते हैं सो सुनो,
सात क्षोणी सेना पांडवो की और ग्यारह क्षोणी सेना धृतराष्ट्र के पुत्र कौरवों की, यह दोनों सेना इकट्ठी होकर कुरुक्षेत्र पहुँची! अब राजा धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं,

धृतराष्ट्रोंवाच- हे संजय धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मेरे और पांडव के पुत्रों ने क्या किया सो मुझे कहो ? राजा का वचन सुनकर संजय बोले!

संजयवाच- हे राजा जी! तेरे पुत्र दुर्योधन ने पांडवों की सेना देखी सो कैसी है सेना भलीभांति जिसकी पंक्ति बनी है उन पांडवों की सेना को देखकर राजा दुर्योधन ने अपने गुरु द्रोणाचार्य के निकट जाकर यह विनती की है आचार्य जी! देखो तो पांडवों की सेना का समूह और सेना की कैसी भलीभांति पंक्ति बनी है और द्रुपद का पुत्र धृष्टधुम्न जो तुम्हारा शिष्य है कैसा बुद्धिमान है जिसने पांडवों की सेना की पंक्ति ऐसी भलीभांति बनाई है और जो पांडवो की सेना के मुख्य योद्धा हैं उनके नाम दुर्योधन द्रोणाचार्य को सुनता है, इस सेना में बड़ा धनुषधारी अर्जुन,भीमसेन,राजा युयुधान, राजा विराट, राजा द्रुपद महारथी धृष्टकेतु,चेकितान और बड़ा बलवान काशी का राजा और पुरुजित कुन्ति भोज मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्ययुधामन्यु और विक्रांत बड़ा बलवान उत्तमाजा,सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु और द्रोपदी के सभी बेटे महारथी है।
अब दुर्योधन अपनी सेना के मुख्य योद्धाओं के नाम प्रमाण सुनता है,
हे आचार्य जी! अब जो मेरी सेना के मुख्य योद्धा है, ब्राह्मणों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य जी उनके नाम सुनो। प्रथम विकरण,सोमदत्त और जयद्रथ इनसे आदि लेकर और भी योद्धा हैं तो आप और भीष्म जी कर्ण कृपाचार्य जी समतींजय,अश्वत्थमा जिन्होंने मेरे निमित अपना जीवन त्याग दिया है और अनेक प्रकार के शास्त्र धारणहरें हैं युद्ध करने को बड़े प्रवीण और चतुर है हमारी सेना बहुत अर्थात ग्यारह क्षोणी पांडवों की सेना थोड़ी अर्थात सात क्षोणी हैं और हमारी सेना का अधिकारी और रक्षाकर्ता भीष्म है और पांडवों की सेना का अधिकारी और रक्षाकर्ता भीम है तब दुर्योधन ने अपनी सेना को कहा जितने तुम हमारी सेना के लोग हो सभी भीष्म की रक्षा करनेहारे हो और जितने शस्त्र आने के मार्ग हैं तिन सभी मार्गो से भीष्म की रक्षा करो! दुर्योधन के मुख से भीष्म आदि योद्धाओं ने यह वचन सुना और उसको प्रसन्न करने के लिए कौरवों में बड़े जो है वृद्धि भीष्म पितामह सो प्रथम उन्होंने सिंह की नयाई गरजकर अपना प्रतापवान शंख बजाया जिसके उपरांत सारी दुर्योधन की सेना ने शंख बजाए! भेरी ढोल और रणसिंह बजाए। दमामे और गोमुख इत्यादि से लेकर और सभी वजंत्र अनेक प्रकार के सारी सेना ने इकट्ठे बजाए। उन वजंत्रों का इकट्ठा शब्द होता भया अब पांडवों की सेना के वजंत्र सुनो-
प्रथम तो जिस रथ पर श्री कृष्ण भगवान विराजमान हैं तिस बड़े रथ की सारी सामग्री कंचन की है और सारी रत्नों से जड़ित है जैसे वर्षा ऋतु का मेघ गरजता है वैसे ही रथ के पहियों की आवाज है ऐसा तो रथ है अब घोड़ों की शोभा कहते हैं जैसे गौ का दूध होता है तैसा तो उन घोड़ों का सुंदर रंग है और जैसा कार्तिक का फूला हुआ कमल होता है ऐसा सुंदर उनका मुख है और बहुत सुंदर हैं। गरदनें जिनकी सुन्दर हैं कान और पूछें अति सुन्दर हैं। और चरणों के विखे नूपर स्वर्ण के पड़े हैं यह उन घोड़ों की शोभा है ऐसे सुन्दर रथ पर सारथी भक्त वत्सल सत्यस्वरूप आनन्दमूर्ति श्री कृष्ण भगवान जी विराजमान हैं और योद्धा के स्थान पर भक्त अर्जुन विराजमान है और उन्होंने भी दिव्य शंख बजाये प्रथम ऋषिकेश श्री कृष्ण भगवान ने अपना पँचजन्मनामी शंख बजाया और देवदत्त नामा शंख अर्जुन ने बजाया और पौडर नामा शंख भीमसेन ने बजाया सो भीमसेन कैसा है जिसका उदर बड़ा है और कमर भी बड़ी है और आनन्त विज्यमाला शंख कुंती पुत्र राजा युधिष्टर ने बजाया और सुघोष नामा शंख नकुल ने बजाया मणिपुष्प नामा शंख सहदेव ने बजाया और महारथी शिखंडी व धृष्टद्युम्न और राजा विराट ने भी शंख बजाये और अजीति सात्यकी यादव राजा द्रुपद और द्रोपदी के पुत्रों ने भी शंख बजाये जितने पांडवों की सेना के राजे थे सभी ने शंख बजाये और सुभद्रा के पुत्र महाबाहु अभिमन्यु ने भी शंख बजाया इन सभी ने अपने-अपने भिन्न भिन्न प्रकार के शंख बजाये तिन शंखों का शब्द सुनकर धृतराष्ट्र के हृदय विदार्ण हुए अर्थात फट गए, धरती और आकाश शब्दों से भर गया इसके उपरांत धृतराष्ट्र के पुत्रों की सेना अर्जुन ने देखी तब दोनों ओर की सेना के शस्त्र चलने लगे तब अपना धनुष सिर के ऊपर फेरकर अर्जुन पांडव ऋषिकेश श्री कृष्ण से बोलता भया हे अच्युत अविनाशी पुरुष जी मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले जाकर खड़ा करे तब देख हमारे साथ युद्ध करने को हमारे कौन कौन आये हैं प्राणों को और धन को त्याग कर जो आये हैं तिन सबको मै देखूंगा।
संजयोवाच- संजय राजा धृतराष्ट्र को कहता है हे राजा ऋषिकेश श्री कृष्ण भगवान को अर्जुन ने यह वचन कहे तब भक़्त वत्सल गोबिंद जी ने घोड़े प्रेर कर अर्जुन से यह वचन कहे तब भक़्त भीष्म द्रोणाचार्य के सन्मुख ले जाकर खड़ा किया और भीष्म द्रोणाचार्य के दाईं बाईं और ओर भी योद्धा थे तब श्री कृष्ण भगवान अर्जुन को बोले अर्जुन तेरा रथ मैंने कौरवों की सेना के सन्मुख खड़ा किया है तूं इनको देख तब अर्जुन ने कौरवों की सेना मे बहुत योद्धा देखे, उनमें पितामह देखे गुरू देखे मातुल देखे पुत्र देखे पोत्र देखे सखा ससुर और मित्र देखे इन दोनों सेनाओं में अपने ही कुटम्बी देख कर अर्जुन को बहुत दया उपजी तब अर्जुन श्री कृष्ण भगवान जी से बोले,
अर्जुनोवाच- अर्जुन श्री कृष्ण भगवान को कहते हैं हे श्री कृष्ण भगवान जी इस सेना विखे मैंने सब अपने सज्जन भाई बन्धु कुटम्बी देखे हैं। जो योद्धा रण में आये है तिन को देखकर मेरा शरीर बहुत दुख पाता है मुख सूख गया है और मेरी देह कांप गयी है मेरे रोम खड़े हो गए हैं और गांडीव नामक धनुष मेरे हाथ से गिर पड़ा है और त्वचा जल उठी है मैं खड़ा भी नहीं हो सकता और मेरा मन भी भ्रम में है और हे केशव जी मैं शकुन भी बुरे देखता हूँ और ऐसा निमि भी नही देखता यह विपरीत युद्ध है हे केशव जी इस युद्ध में भाइयों को मारने में मैं अपना कल्याण भी नही देखता,हे कृष्ण जी मैं अपनी जय भी नही देखता और मुझको राज्य की वांछा नहीं और ना सुख की है, हे गोबिंद जी यह राज किस काम का है और राज के भोग किस काम के हैं तिन के निमित राज लेना है वह कुटुम्ब के योद्धा लोग प्राण-धन का त्याग कर युद्ध निमित खड़े हैं सो यह कौन-कौन है गुरू हैं, पितामह हैं, पुत्र हैं, ताए हैं, मामे हैं, साले हैं, कुड़म हैं, हे मधुसूदन इनको मारने की मुझको इच्छा नही, इन पर मुझको बहुत दया आती है, धरती के धारणहारे श्री कृष्ण भगवान जी मैं इनको मारकर त्रिलोकी का राज पाऊ तो भी ना मारूंगा, भूमि के राज की तो क्या बात है, हे जनार्दन जी! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने से हमारा कल्याण नही किन्तु विपरीत होगा, इनको मारने से हमको बड़ा पाप लगेगा यद्यपि ये महापापी भी हैं, मैं इनको नही मारूंगा। हे माधव जी! सज्जन भाईबन्धु कुटम्बी इनको मारने से हमको सुख कहां ? और मुक्त्ति कहां ? यद्यपि राज के लाभ से इनकी बुद्धि अन्ध हुई है यह धृतराष्ट्र के पुत्र जो कुछ कुलनष्ट करने या मित्र के साथ कपट करने से दोष उपजते हैं इनको नही समझते तो क्या इनकी नयाई मैं भी नहीं समझता जो कुल के नष्ट करने से पाप होता है उस पाप को मैं भली भांति जानता हूं अब जो पाप कुल के नष्ट करने से लगता है उस पाप को अर्जुन भलीभांति कहते हैं हे जनार्दन जी!जब कुल का नाश किया तब जो कुल के धर्म का नष्ट हुआ तब सारे कुल में अधर्म का प्रवेश हुआ और कुल की स्त्रियां दुराचारिणी हुई तिन स्त्रियों के वर्ण संकर पराए पुरुष की सन्तान उपजी सब सन्तान वर्ण संकर भई तब पिंड और जल पितरों को पहुँचने से रह गया तो तिन के पितर स्वर्ग से गिर पड़े इस इस कारण से हे यादव वंशियों में श्रेष्ठ श्री कृष्ण भगवान जी जिसने कुल का नष्ट किया तिसने कितने पाप किये सो यह सब पाप कुल के नष्ट करने हारे के सिर पर होते है फिर वह मनुष्य उन पापों का फल क्या पाता है सो सुना है वह प्राणी सदा नर्क भोगता है न्याय शास्त्र में मैंने यह श्रवण किया है। अब अर्जुन ओर पछताता है हाथ बजाकर और सिर को फेर कर कहता है, हाहा! देखो भाई! मैंने कैसा पाप का उद्यम किया था राज सुख लोभ निमित अपने कुल का नष्ट करने लगा था अब मैं अपने हाथ में शस्त्र ना पकडूंगा और धृतराष्ट्र के पुत्रों के हाथ में शस्त्र होवेंगे और मैं उनके सन्मुख हूंगा और वह मुझको मारेंगे इससे मेरा कल्याण होगा।
संजयोवाच-संजय धृतराष्ट्र को कह रहे है हे राजन! अर्जुन ने यह वचन कहकर धनुषबाण हाथ से छोड़ दिया है और शोक समुद्र में मग्न होकर मूर्छा खाकर गिर पड़ा है

इति श्री मद्भगवद् गीता सूपनिषद सुब्रम्ह विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन संम्बादे विषाद योगोनाम प्रथम अध्याय।।

★★ अथ प्रथम अध्याय का महात्म्य ★★

एक समय कैलाश पर्वत पर महादेव और पार्वती जी की आपस में गोष्ठ हुई पार्वती ने पूछा हे महादेव जी आप अपने मन में किस ज्ञान से पवित्र हुए हो, जिस ज्ञान के बल पर आपको संसार के लोग शिव कर पूजते हैं, और तुम्हारे कर्म यह दिखाई देते है मृगछाला ओढ़े अंगों में मसानों की विभूति लगाए गले मे सर्प और मुराडों की माला पहर रहे हो इनमें तो कोई कर्म पवित्र नही, सो आप मुझे वह ज्ञान से ज्ञान सुनाओ जिससे तुम अंदर से पवित्र हो।
श्री महादेवोवाच-
तब महादेव जी बोले हे पार्वती! जिस ज्ञान से मैं पवित्र हूं जिस ज्ञान से मुझे बाहर के कर्म नही ब्यापते, सो गीता ज्ञान है उनका हृदय में ध्यान करता हूं, तब पार्वती ने कहा हे भगवान जी! गीता ज्ञान यदि ऐसा है तो इस ज्ञान के श्रवण से कोई कृतार्थ भी हुआ है ? तब श्री महादेव जी बोले हे पार्वती! इस ज्ञान को सुनकर बहुत जीव कृतार्थ हुए हैं और आगे भी होवेंगे, तुझको एक पुरानी कथा सुनाता हूं, सुन! एक समय पाताल लोक में शेष नाग की शय्या पर श्री नारायण जी नेत्र मून्दकर अपने आनंद में मग्न थे और लक्ष्मी जी उनके चरण दबा रही थी,उस समय श्री लक्ष्मी जी ने पूछा हे नारायण जी चौदह लोक के तुम ईश्वर हो,क्या आप को भी निद्रा व्याप्ती है ? निद्रा और आलस्य तो उन पुरुषों को व्यापता हैं जो तामसी हैं और तीनों गुणों से अतीत हो तुम श्री नारायण हो और प्रभु हो वसुदेह हो आप नेत्र जो मून्द रहे हो मुझको बड़ा आशचर्य है। तब श्री नारायण जी बोले सुन लक्ष्मी! मुझको निद्रा आलस्य नहीं व्यापता एक शब्द रूप भगवद्गगीता है उसमें जो ज्ञान है उस ज्ञान से मैं आनन्द में मग्न रहता हूं और वह कैसा ज्ञान है जिसके उपजे से यह जीव सदा आनन्द में रहता है कोई क्लेश दुःख इस जीव को व्यापता नहीं जैसे चौबीस अवतार मेरे साकार रूप है तैसे ही यह गीता शब्द रूप अवतार है इस गीता के विखे मेरे अंग हैं, पांच अध्याय मेरा मुख हैं, पांच अध्याय मेरी भुजा है, पांच अध्याय मेरा हृदय और मन हैं सौलहवां अध्याय मेरा उदर है सतारहवां अध्याय मेरी जांघें हैं, अठारहवां अध्याय मेरे चरण हैं सर्व गीता के श्ल़ोक मेरी नाड़ीयां है और जो अक्षर हैं सो मेरे रोम हैं, ऐसी जो मेरी शब्द रूपी गीता है उसका अर्थ मैं हृदय में विचारता हूं और बहुत आनन्द पाता हूं। हे लक्ष्मी ! तू क्या जानती है तेरे मन मे होगा कि मैं चरण मलती हूं इससे श्री नारायण जी को आनन्द प्राप्त होता है, हे लक्ष्मी! मैं जिस आनन्द विखे मग्न हूं सो गीता ज्ञान है तब लक्ष्मी जी बोली हे नारायण जी! जो ऐसा श्री गीता जी का ज्ञान है तिसको सुनकर कोई कृतार्थ भी हुआ है ? यह मुझको कहो। तब श्री नारायण जी ने कहा, हे लक्ष्मी! गीता के अध्याय का महातम्म तो पीछे कहुंगा पहले श्ल़ोक कहता हूं। श्ल़ोक-
सर्व शास्त्रमई गीता सर्व देह मयोहरी।
सर्व तीर्थ मई गंगा सर्व धर्म मयोदया।।
मनोजानत पाप पुरायदेही जानत आपदा।
गीता सर्व कृष्ण जानत माता जानत सो पिता!
दो दो लोचन सर्वाणां विदवानां त्रई लोचनं।
सप्त लोचन धमानां ज्ञानी नो अनंत लोचनं।।

हे लक्ष्मी! अब पहले अध्याय का महात्म्य सुन- शिवजी पार्वती को इस भांति कहते हैं जिस भांति नारायण जी ने लक्ष्मी जी को सुनाया था।
श्री नारायनोंवाच- हे लक्ष्मी! शूद्रवर्णा एक प्राणी था, जो चंडाल का काम करता था और तेल नून का व्यपार करता था। उसने एक बकरी पाली, एक दिन वह बकरी चराने को गया,वृक्षों के पत्ते तोड़ने लगा,वहां सांप ने उसे डस लिया, तत्काल उसके प्राण निकल गए, मरकर उस प्राणी ने बहुत से नर्क भोगे, फिर बैल का जन्म पाया, उस बैल को एक भिक्षुक ने मोल ले लिया, वह भिक्षुक उस बैल पर चढ़कर सारा दिन मांगता फिरता, जो कुछ भिक्षा मांगकर लाता वह अपने कुटुम्ब के साथ मिलकर खाता। वह बैल सारी रात द्वार पर बंधा रहता, वह उसके खाने पीने की खबर ना लेता, कुछ थोड़ा सा भूसा उसके आगे डाल छोड़ता और जब दिन चढ़ता फिर बैल पर चढ़कर मांगता फिरता कई दिन गुजरे तो वह बैल भूख का मारा गिर पड़ा, जब वह मरने लगा तो उसके प्राण ना छुटते थे, नगर के लोग देखते थे तो कोई उसे अपने तीर्थ का फल देता तो कोई उसे अपने व्रत का फल देता,पर बैल के प्राण छूटते नही। एक दिन गणिका आई, उसने वहां खड़े मनुष्यों से पूछा यह भीड़ कैसी है तो उन्होंने कहा इसके प्राण नही छूट रहे, अनेक लोग अपने पुण्यों का फल दे रहे हैं तो भी इसकी मुक्ति नही होती तब गणिका ने कहा, मैंने जो कर्म किया है तिसका फल मैंने इस बैल को निमित दिया! इतना कहते ही बैल की मुक्ति हुई। तब उसने आकर ब्राह्मण के घर जन्म लिया, पिता ने उसका नाम धर्म रखा। जब वह बड़ा हुआ तो उसके पिता ने उसको विद्यार्थी किया। उसको पहले जन्म की सुध थी, अति सुन्दर था, उसने एक दिन मन में विचार किया, जिस गणिका ने मुझे बैल की योनि से छुड़ाया था उसका दर्शन करिये। विप्र चला चला गणिका के घर पहुचा और कहा तू मुझे पहचानती है ? गणिका ने कहा मैं नही पहचानती तूं कौन है। मेरी तेरी क्या पहचान है। तब विप्र ने कहा- मैं विप्र हूं! तो वह बोली तूं विप्र है मैं वेश्या हु। तब विप्र ने कहा मैं वही बैल हूं जिसको तूने अपना पुण्य दिया था,मैं बैल की योनि से छूटा था अब मैंने विप्र के घर जन्म लिया है तूं अपना वह पुण्य बता जो तूने मुझे दिया था। गणिका ने कहा मैं अपने जाने कोई पुण्य नही किया पर मेरे घर एक तोता है वह सवेरे सवेरे कुछ पढ़ता है मैं उसके वाक्य सुनती हूं उसी पुण्य का फल मैंने तेरे निमित्त दिया था। तब विप्र ने तोते से पूछा कि तू सवेरे क्या पढ़ता है ?
तोते ने कहा- मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण का पुत्र था पिता ने मुझे गीता के पहले अध्याय का पाठ सिखाया था, एक दिन किसी कारण वश मेरे पिता जी ने जोकि मेरे गुरु थे मुझको कहा कि मैंने तुझे क्यो पढ़ाया है और मुझको क्रोध में आकर शाप दिया कि जारे तूं सुआ (तोता) होगा। तब मैं अगले जन्म में तोता हुआ एक दिन फन्दक मुझको पकड़ ले गया। और उस फंदक से एक ब्राह्मण ने मुझको मोल ले लिया वह ब्राह्मण अपने पुत्र को गीता का पाठ सिखलाता था, तब मैंने भी वहाँ वो पाठ सिख लिये थे। एक दिन उस ब्राह्मण के घर चोर घुस गए उन्हें धन तो प्राप्त ना हुआ परन्तु वह मेरा पिंजरा उठा ले गए। उस चोर की यह गणिका मित्र थी, वह मुझे इसके पास भेट के रूप दे गया। सो मैं नित्य गीता के पहले अध्याय का पाठ करता हूं और यह सुनती है पर इस गणिका की समझ मे नही आता कि मैं क्या पढ़ता हूं, सो इसने वह पुण्य तेरे निमित्त दिया था सो वह श्री गीता जी के पहले अध्याय के पाठ का फल था तब उसने कहा- हे तोते तूं भी ब्राह्मण है मेरे आशीर्वाद से तेरा कल्याण हो- हे लक्ष्मी! इतना कहने से तोते की मुक्ति हुई और उस गणिका ने भले कर्म ग्रहण किये नित्यप्रति स्नान करती और गीता के पहिले अध्याय का पाठ करती। इस करके भले भले ब्राह्मण व क्षत्रिय उस वेश्या की पूजा करने लगे और श्री नारायण जी ने कहा हे लक्ष्मी! जो अनजाने मे भी गीता का पाठ श्रवण कर ले उसको भी मुक्ति मिलेगी और इस पाठ का फल बहुत अतुल्य फल है यह पहले अध्याय का महात्म्य है जो तूने श्रवण किया है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईशवर सम्बादे उतरा खण्ड
गीता महात्म्यनाम प्रथमो अध्याय सम्पूर्णम् ।।