श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ दशम अध्याय प्रारम्भते ★★★★

विभूति – योग

श्री भगवानोवाच- श्री कृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं, महाभाव अर्जुन! फिर भी तू मेरा परम वचन सुन मैं तुझ को कहता हूं, क्योंकि तुम को सुनने के प्रीति है सो मैं तेरे कल्याण के निमित्त कहता…

मेरी दिव्य विभूतियें अर्जुन मित्र अपार।
उनके भीतर मुख्य जो सुन पांडव सरदार।।
पक्षी गण में गरुड़ मैं पशुओं में शेर।
देवां में मैं विष्णु हूं गिरीन में मैं हूं सुमेर।।
सशस्त्र धारियों में हूं मैं कौशल्या सुतराम।
बलधारिन में मित्रवर मैं हूं प्रिय बलराम।।
पांडवगण में पार्थ हूं यदुवन में घनश्याम।
मेरा शक्ल विभूति है बेजर षरम ललाम।।

….हूँ हे अर्जुन! मेरी प्रभुता, प्रभाव और प्रताप है जिसको तू भली प्रकार जानता है, ब्रह्मा से आदि लेकर महादेव जी और असंख्य मुनीश्वर भी नहीं जान सकते, क्योंकि सर्व देवताओं का आदि मैं हूं, यह देवता सब मेरा ही रूप है जो मेरे से उपजे हैं यह बात प्रगट है कि जो कोई किसी से उपजता है सो वह उपजाने वाले की बात को क्या जाने, इसका दृष्टांत सुन- जैसे माली बाग में वृक्ष लगाता है, वृक्ष माली का क्रम क्या जाने, ऐसे ही जो ऋषि मुनि और देवता है सो मेरे प्रताप को नहीं जानते, जिस मेरे प्रताप को देवता ऋषि मुनि नहीं जानते, सो तुझको सुनाता हूं- जन्म मरण से रहित हूं, अनादि हूं मेरा आदि नहीं, सबका आदि मैं हूं, जो पुरुष मुझको ऐसा जानते हैं तिस का क्या फल होता है ? हे अर्जुन! वह ज्ञानी सब पापों से मुक्त होगा। और सुन- बुद्धि, ज्ञान, निर्मोह, क्षमा, सत्य बोलना, इंद्रियों का जीतना, सुख-दुख में एक सा रहना,भय से निर्भय होना दया ममता में संतुष्ट, तपस्या, दान, यश, अपयश यह सभी लक्षण मनुष्य में पाए जाते हैं। हे अर्जुन! मैं इनसे न्यारा हूं और जिस प्रकार सब की उत्पत्ति करता हूं सो सुन- कमल नाम नारायण मैं हूं सो मेरे नाभि कमल में मेरा अंश ब्रह्मा उपजा है, तिन ब्रह्मा की इच्छा से सप्त ऋषि, चार मुनि उपजे है, फिर सप्तऋषि चार मुनि और देवता से मनुष्य, राक्षस असुर आदि सभी प्रजा सृष्टि हुई है। हे अर्जुन! सब संसार को अनेक भांति से पसारा है, इसका आदि करता मुझको जानने से निश्चल योग प्राप्त होता है। इससे संशय कुछ नहीं है। हे अर्जुन! सबका उत्पत्ति करता मुझको जान, पर कुम्हार की न्याई कर्ता नहीं, कुम्हार आदि तो बासन आदि बनाने के लिए माटी पृथ्वी से लेता है। पृथ्वी से माटी ना लेवे तो कुम्हार के बासन नहीं बनते। और मैं कैसा हूं ? मैंने सृष्टि की उत्पत्ति करी है, किसी दूसरे ठौर से लेकर नहीं उपजाई। आप से आप सृष्टि उपजाई है और आप ही आप सुधारी है, मेरे ज्ञानी भक्त ऐसा मुझे जान, भाव श्रद्धा साथ मेरा भजन करते हैं। हे अर्जुन! मुख्य तो मन का निश्चल चेता मेरे में विषय रखते हैं। मेरी प्रीति में तिनके प्राण भी चले जाते पर संसार की कोई बात तिनके चित नहीं आती और जो परस्पर एकांत बैठकर मेरी गोष्टी करते हैं। नित्य मेरी कथा सुनते हैं जो मेरी कथा सुनाते हैं। उसी में जाकर रमते हैं मेरे गुणो को सुनकर संतोष सुख पाते हैं निरंतर मेरा भजन प्रीति करते हैं और मैं तिनको बुद्धि योग दान करता हूं। सो कौन बुद्धियोग जिनको पाकर मुझ को मिलते हैं। हे अर्जुन! तिन पर एक और भी कृपा करता हूं, क्या ? तिनके हृदय में अपनी महिमा का ज्ञान रूप दीप जलाकर प्रकाश करता हूं, उस प्रकाश के होने पर उनकी जीव बुद्धि का नष्ट हो जाता है। यह वचन श्री कृष्ण जी के मुख से सुनकर अर्जुन पूछता है, श्री कृष्ण भगवान जी! तुम पार ब्रह्म हो अर्थात सब से परे हो, प्रभु जी! तुम परमधाम हो, परमधाम क्या ? धाम नाम घर का है, सो जिसका धाम बैकुंठ सब से परे है और धाम नाम तेज का भी है और जो तुम पवित्र हो, क्योंकि आपके चरणों से गंगा आदि तीर्थ प्रगटे हैं। जो सब को पवित्र करते हैं, ऐसे तुम परम पवित्र हो, सर्वव्यापी हो पुरातन हो पूर्वजों से भी पहले हो दिव्य हो, किसी ने तुझको किया नहीं, तुमने सबको किया। प्रभु जी! यह महिमा आपकी सर्व ऋषि-मुनि करते हैं, प्रभु जी! तुम अपने सुख कीर्ति को सर्व प्रकार ही जानते हो, अपना ताप सब कह सुनाओ। पीछे कुछ ना रखो, अपनी आत्म की दिव्य विभूति श्रवण कराओ।
जिस विभूति से विस्तारपूर्वक व्यापक होकर विराज रहे हो। हे महाप्रभु! किन-किन भावों चेतावनी करें। यह सारे ब्रह्मांड जो है तिनमें स्थावर, जङ्गम भूत प्राणी विचरते हैं, खेलते हैं सो यह तुम्हारी रचना को देखकर मैं तुम्हारा भजन करता हूं, प्रभु जी! आप के मुख कमल से आप की महिमा जो अमृत रूप है, सुनकर मुझको शांति आती है, अपनी महिमा दिखाओ, हे केशव जी! महान भाव से जो तुम्हारी महिमा करते हैं, सो मुझको श्रवण करवाओ। हे भगवान! जितनी किसी की बुद्धि है उतना ही कहता है पर जैसी तुम्हारी महिमा मर्यादा प्रभुता है तैसे तिनके जानने को ना देवता ऋषि मुनि ना कोई और सामर्थ है। हे पुरुषोत्तम जी! अपने आप को और मर्यादा को जो तुम आप ही जानते हो, सो तुम कैसे हो ? सर्व भूतों के उत्पत्ति करता हो, सबके ठाकुर हो, सब के देव हो, सब संसार के प्रभु हो, हे प्रभु जी! तुम्हारी शक्ति सुनके तृप्त नहीं होते, कृपा कर अपनी विभूति महिमा को श्रवण करवाओ, मैं देखूं कितनी तुम्हारी प्रभुता है और कितनी प्रभुता के तुम प्रभु हो ? अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान बोले- पांडवों में श्रेष्ठ अर्जुन! मैं तुझको दिव्य विभूति कहता हूं परंतु सारे विस्तार का अंत कुछ नहीं। अब दिव्य दिव्य विभूति कहता हूं तिसका का दृष्टांत सुन- जैसा किसी चक्रवर्ती राजा का नगर द्वीप होय उस बड़े नगर के मनुष्य गिने नहीं जाते, तिस सारे नगर से दस बीस घर परिवार समेत चुनने लेवें तिन घरों में श्रेष्ठ एक मनुष्य चुन लेवे, इस प्रकार मैं कहता हूं। हे अर्जुन! सारे शरीर के विस्तार का कुछ अंत नहीं, थोड़े विस्तार सुन- हे अर्जुन! सारे संसार की आत्मा तू मुझको जान और सब भूत प्राणियों के हृदय में मैं ही बसता हूं, आप सबका आदि मध्य अंत मुझको जान, यह प्रभुता थोड़े में कही। अब दिव्या और प्रधान प्रताप सुन- बारह सूर्य जो प्रति मास में प्रकाशते हैं उन पौष मास का विष्णु नाम सूर्य मैं हूं। जितने प्रकाश करने वाली वस्तु है। तिन सब में सूर्य मैं हूं। उनचास पवनों में महाराचि नाम पवन मैं हूं,
अठाईस नक्षत्रों में चंद्रमा मैं हूं। चार वेदों में सामवेद मैं हूं, तैतीस कोटि देवताओं में इंद्र मैं हूं, इंद्रियों में ग्यारहवां मन मैं हूं और जो कुछ भूत प्राणियों में चैतन्यता है सो मेरा है, ग्यारह रुद्रों में शंकर नाम रुद्र मैं हूं, दानियों में कुबेर मैं हूं, आठों वसु जो है तिन में अग्नि मैं हूं, सर्व पर्वतों में चार लाख कोस ऊंचा सोने का सुमेरु पर्वत मैं हूं, पुरोहितों में देवताओं का पुरोहित बृहस्पति मैं हूं, सब सेना के नायकों में शिव जी का पुत्र स्वामी कार्तिक मैं हूं, सरोवरों में सागर मैं हूं, सप्त ऋषियों में भृगु मैं हूं, अंगिरा भी मैं हूं, जितने बोलने वाले वचन है तिनमें ओं कार मैं हूं, और मेरे प्रसन्न करने पोषण हारे जो सभी यज्ञ है तिनमें में स्वास स्वास मेरा भजन करना जो जाप यज्ञ सो मैं हूं, जितने स्थावर ठौर से ना चलने वाले हैं उनमें हिमाचल मैं हूं, वृक्षों में पीपल मैं हूं, नव ऋषियों में नारद मैं हूं, और गन्धर्वों में चित्ररथ मैं हूं, और सिद्धो में कपिल मुनि मैं हूं, और अश्वों खीर में समुद्र के मंथन से जो अमृत के साथ निकला, जिसका नाम उच्च श्रवा है सो घोड़ा मैं हूं, और हाथियों में एरावत मैं हूं, नागों में आनन्त जो शेषनाग है सो मैं हूं, नदियों में गंगा मैं हूं, सप्त समुद्रों में खीर समुद्र मैं हूं, सब जलों में जल का राजा वरुण जो है सो मैं हूं, और मनुष्य विषय राजा मैं हूं, शास्त्रों में वज्ज मैं हूं, और गौओ में कामधेनु मैं हूं, और जितने पदार्थ प्रजा के उपजाने हारे हैं तिन्हों में काम मैं हूं, और सर्पों में बासुक नाग मैं हूं, दण्ड दायकों में यम मैं हूं, और मृगों में सिंह मैं हूं! पितरों में आत्मा आयमा मैं हूं, दैत्यों में प्रह्लाद मैं हूं, निगलने हारों में काल मैं हूं, सर्व के पखेरुओं में गरुड़ मैं हूं, पवित्र करने हारों में पवन मैं हूं, शस्त्र धारियों में परशुराम मैं हूं, नदियों में मूल, जो गंगा गोमुखी है सो मैं हूं, हे अर्जुन! सर्व संसार का मूल आदि-अंत मुझको ही जान और सब विद्याओं में अध्यात्म विद्या मैं हूं, अध्यात्म विद्या कौन है सो सुन- सब आत्माओं का अधिकारी मैं हूं। इससे मेरा नाम अध्यात्म विद्या है सबका अधिकारी ठाकुर मैं हूं। यह अध्यातम विद्या तू मुझको जान, जितने गोष्ट करने हारे, झगड़ा करने हारे, जहां मेरा गोष्ट चर्चा करें तहां तू मुझको जान। व्याकरण में जो समास है तिनमें द्वन्दु समास मैं हूं, अक्षर अविनाशी मैं हूं, काल का भी काल हूं, और संसार की अनेक प्रकार की रचना रचने हारा मैं हूं, जो सब के हरने वाली हैं तिनमें मृत्यु मैं हूं, जो सबके देखते ही जीव हर ले जाता है और स्त्रियों में जो कीर्ति, श्रीवाणी, स्मृति मेधा धृतिक्षमा और शांति यह सब स्त्रियां मैं हूं, सामगान में वृहत्साम सब मैं हूं, छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूं, बारह मासों में मग्घर मास मैं हूं, छः रितुओं में बसंत रितु मैं हूं, कपट में जुआ मैं हूं, तेजस्वीयों में जो तेज है सो मैं हूं, जहां दो दल इकट्ठे होते हैं युद्ध करने को जहां जीत होवे तहां मैं हूं, उधमियों में उधम मैं हूं, बलवानों में बलवान मैं हूं, और चन्द्रवंशी जो यादव है तिनमें वासुदेव मैं हूं, पांडव में जो हे अर्जुन! तू है सो मैं हूं, कवि जो चतुर तिनमें में सुकदेव मैं हूं, जितने निबावन हारे है तिनमें दंड मैं हूं, जो जीतने की इच्छा वाले हैं तिनमें धर्म युद्ध मैं हूं। अधर्म वाले की कभी जीत नहीं होती, जो पाने की वस्तु है तिनमें, में मौन मैं हूं, और जो सर्व ज्ञान रूप है सो मैं हूं, सब अन्नों में ज्यों मैं हूं, तृण की जो सर्व जाति है दर्भ अर्थात उषा मैं हूं। हे अर्जुन! जो भूत प्राणी है तिनका बीज मैं सब कुछ तू मुझको जान मुझ बिना कुछ नहीं, मैं सर्वव्यापी हूं। हे अर्जुन! मैं तुझको प्रधान और दिव्य विभूति कहता हूं। तिसका अंत कोई नहीं यह विभूति तुझको इसलिए कहीं है जैसे सब धागे जोड़े पहिरने वाले में से एक तन्त काढ दिखाए। अब अर्जुन और सुन- जो कोई विभूति वन्त है, शोभा वन्त प्रतापवान जीव है तिनका तेज मेरे तेज से उपजा जान। हे अर्जुन! यह थोड़ा सा ज्ञान है और जानना क्या वस्तु ? यह तो एक ब्रह्मांड की विभूति कहीं सो सब की सामग्री कहीं नहीं गई, ऐसे ही असंख्य ब्रह्मांड है। नाना प्रकार की विभूतियों से भरे हुए मेरे से इस प्रकार निकले जान जैसे जल के पूर्ण समुद्र से एक बूंद निकले वह बूंद रेत के दाने पर पड़े सो उसी दाने को भिगोवे, पीछे समुद्र पूर्ण भरा रहे। इस भांति अनेक ब्रह्मांड मेरे से निकले हैं, मैं फिर भी पूर्ण हूं, यह तो विभूति कही अब अर्जुन मैं तेरे रथ पर विराजता हूं, इस मेरे स्वरूप की महिमा बड़ाई सुन- मेरा आदि मध्य अंत नहीं, पूर्ण ब्रह्म परमधाम पुरुष रूप तेरे रथ पर विराजता हूं।।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे विभूति योगो नाम दशमो अध्याय।।

★★★★ अथ दसवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी! अब दसवें अध्याय का महात्म्य कहता हूं तू श्रवण कर जिसके सुनने से महा पापियों की गति हो जाती है बनारस नगर में एक धीरजी नाम का ब्राह्मण रहता था। धर्मात्मा और हरि भक़्त था, एक दिन वह महादेव जी के दर्शन को जा रहा था। गर्मी की ऋतु थी उसको धूप लगी घबराहट होने से उसका दिल घटने लगा। अंधाली खाकर मंदिर के निकट गिर पड़ा। इतने में भृंगी नामक एक गण वहा आया, देखा तो ब्राह्मण अचेत मूर्छित पड़ा है, उसने जाकर शिव जी से कहा- हे महादेव जी! एक ब्राह्मण आपके दर्शन को आया था, वह मूर्छा में पड़ा है। महादेव जी सुनकर चुप रहे। फिर उस गण ने ब्राह्मण को फिर जाकर देखा वह मरा पड़ा था। फिर जाकर कहा- हे स्वामिन्! यह चरित्र मैंने देखा कि वह मृत पड़ा है। इसनें कौन पुण्य किया है जिसने भली जगह मृत्यु पाई है ? चारों बातें इसकी भली आबनी है एक तो बनारस क्षेत्र श्री काशी जी, गंगा जी स्नान, संतो को और महादेव जी का दर्शन, अन्न का छोड़ना एकादशी का दिन, यह बात कह सुनाओ इसने कौन सा पुण्य किया था ? तब महादेव जी ने कहा- हे भृंगी इसके पिछले जन्म की कथा मैं कहता हूं सो सुन- एक समय कैलाश पर्वत पर (गौरी) पार्वती और हम बैठे थे, कुछ गण भी हमारे पास थे, फुलवाडी की शोभा देख रहे थे, एक हंस मेरे दर्शन को आया, वह ब्रह्मा का वाहन था और ब्रह्मलोक से मानसरोवर को जा रहा था, उस सरोवर में सुंदर कमल फूल थे, जब वह एक कमल को लांघने लगा, उस कमल का पर्छावा पड़ा तो वह हंस अचेत होते ही काला हो गया। आकाश से गिरा, तब उस समय उसी मार्ग में एक गण और आया, उसे मूर्छित देख मेरे पास आया और विनय करी। एक हंस आपके दर्शन को आया था तो श्याम होकर गिर पड़ा है, गण मेरी आज्ञा से हंस को ले आए, हमने पूछा हे हंस! तू श्याम वर्ण क्यों कर हुआ ? हंस ने कहा- प्रभु जी! मैं आपके दर्शन के लिए आया था, मानसरोवर में कमल फूल थे जब मैं एक कमल को लांग रहा था तो उसको लांघते ही मेरी देह श्याम हो गई आकाश से गिर पड़ा कारण जानता नहीं क्या हुआ है यह सुनकर शिव जी हंसे, आकाशवाणी हुई कि हे शंभू जी! आप क्या सोचते हैं ? इसका प्रसंग मैं कह सुनाता हूं तब शिव जी ने कहा- हे आकाशवाणी! तुम मेरे पास आओ मैं तुमको देखूं तुम कौन हो ? तब चतुर्भुज स्वरूप धारे श्याम सुंदर एक पाखर्द आया, कहा हे स्वामिन्! तुम इस कमलनी से पूछो यह कमलनी सच कहेगी। कमलनी ने कहा- हे शिवजी महाराज! मैं अपने पिछले जन्म की कथा कहती हूं। पिछले जन्म में मै अप्सरा थी, नाम पदमावती था, श्री गंगा जी के किनारे एक ब्राह्मण स्नान करके गीता जी के दसवें अध्याय का पाठ किया करता था, एक दिन राजा इंद्र का आसन चला, इंद्र ने देखा कि ब्राह्मण गीता पाठी है तब इंद्र ने मुझे आज्ञा कि तू जाकर उस ब्राह्मण की तपस्या भंग कर। मैं आज्ञा पाकर उस ब्राह्मण के पास गई, जाकर देखा वह ब्राह्मण एकांत में बैठा था, अचानक ही मेरी उस ब्राह्मण से भेंट हुई, जैसे ही उस ब्राह्मण को मेरा अंग लगा उस ब्राह्मण ने मुझे शाप दिया, हे पापनी! कमलनी हो और जैसे सर्प के अंग है वैसे तेरे भी पांच अंग होंगे, दो कमल चरणों के, दो हाथों के, एक कमल मुख की जगह, उसी समय मै कमलनी हो गई। इस मानसरोवर में साठ हजार भंवरा रहते है सो मेरी सुगंधी से तृप्त हुए रहते है, पर यह बात कही नहीं जाती कि मेरा प्रकाश क्यों हो रहा है जो पंछी मेरे ऊपर से लांघता है वह भस्म क्यो हो जाता है। उसी समय चतुर्भुज पाखर्द ने कहा-जिस सरोवर के किनारे यह कमलनी है उसी तट के किनारे पर एक ब्राह्मण गीता जी के अध्यायों का पाठ किया करता है उसी से इसका यह प्रकाश है यह बात कहते ही चतुर्भज पाखर्द अंतर्ध्यान हो गए। तब कमलनी ने कहा- हे हंस तू कौन है यहां क्यों आया है ? हंस ने कहा हम चार हंस हैं ब्रह्मा के वाहन, तिनमें एक मैं हूं, मानसरोवर के मोती चुगने की आज्ञा हुई थी, वहां को जाता था मार्ग में मैंने सोचा शिव जी के दर्शन करता चलूं, तेरे ऊपर से लगा तो स्वेत से काला हो गया,और आकाश से गिर पड़ा, इस बात का वृतांत खत्म होते ही मेरे सम्मुख (शिव शम्भु) हंस और कमलनी ने आग्रह किया हे प्रभु जी! फिर क्या उपाय करें जिससे हम दोनों उधार होवें, मै श्याम से स्वेत और यह कमलनी देह से छुटे। तब शम्भु जी ने गीता जी के दसवें अध्याय का पाठ श्रवण करो तब तुम्हारा उद्धार होगा। तब उन्होंने एक ब्राह्मण जो सरोवर में स्नान कर शालिग्राम की पूजा कर गीता जी के दसवें अध्याय का पाठ किया करता था उस हंस और कमलनी ने पाठ श्रवण किया तो तत्काल उनका उद्धार हो गया हंस स्वेत हुआ कमलनी देवकन्या हुई दोनों ने हाथ जोड़कर नम्र होकर ब्राह्मण को नमस्कार किया। तब शिव ने उस भृंगी को उस मृत ब्राह्मण की मृत्यु की चार बातों का वर्णन कर उसके उधार होने की कथा सुनाकर अंतर्ध्यान हो गए। उस दिन से वह भृंगी भी गीता जी के अध्यायों का नित्य पाठ करने लगा। तब श्री नारायण जी ने कहते हैं लक्ष्मी यह दसवें अध्याय का महात्म्य है जो तूने सुना है।