श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ ग्यारवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

विराट रूप दर्शन

एकादश अध्याय में विराट रूप दर्शाय।
अर्जुन के सन्देह सब दूर किए यदुराय।।

अर्जुनोवाच- अर्जुन श्री कृष्ण भगवान से प्रशन करते हैं हे प्रभु जी। तुम ने अपना गुह्य प्रताप श्रवण कराया है सो आप महिमा सुनने से मेरा मोह दूर हो गया है। संसार उपजाना और प्रलय होना मैंने विस्तार पूर्वक सुना है, सो हे कमल लोचन! जो आपको अविनाशी आत्मा की महिमा मैंने श्रवण करी है, हे पुरुषोत्तम जी! अब आपकी अविनाशी आत्मा के साथ मेरी प्रीति है सो हे प्रभु जी! आप मेरी विनय मानकर अपने अविनाशी आत्मा का दर्शन कराइये। अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान जी बोले। श्री भगवानोवाच-

हे अर्जुन! संसार में मैं हूं इक सम्राट।
तुमको दृष्टि दिव्य, हूं देखो रूप विराट।।
सूर्य चंद्र दो नेत्र है सिर मेरा आकाश।
ब्रह्मादिक मुक्त में सभी करते वेद प्रकाश।।
सब योद्धा मारे हुए मेरे मुख के माहि।
देना चाहूं यश तुझे तुम मत करियो नाहि।।
हाथ जोड़ अर्जुन कहे प्रथम रूप लो धार।
प्रभु ने अद्भुत रूप का दीना पुर तुर्त विसार।।

हे अर्जुन! तू मेरा रूप भी देख और वर्णों के रूप भी देख, नाना प्रकार की प्रकृतियां देख। कई सूर्य, कई वसु, कई अश्विनी कुमार कई पवनदेव, जो तूने आगे नहीं देखे, हे भारत वासियों में श्रेष्ठ अर्जुन! बहुत भांति के आश्चर्य देख, हे गुडाकेश अर्जुन! सब संसार इकट्ठा देख, मेरी देह से स्थावर जंगम और जो कुछ देखने की इच्छा है सो देख, पर हे अर्जुन! इन नेत्रों से तू न देख सकेगा, इसलिए तुझको दिव्य नेत्र देता हूं इससे मेरा दिव्य ईश्वर योग देख। संजयोवाच-
संजय
धृतराष्ट्र को कहता है! हे राजन! महा योगीश्वरों के ईश्वर श्री कृष्ण भगवान जी ने यह वचन कह कर तत्काल ही अर्जुन को परम ईश्वर रूप दिखाया। जिस स्वरुप में अनेक ही मुख है और अनेक ही दिव्य नेत्र हैं, अनेक दिव्य अदभुत दर्शन है, अनेक भूषण पहरे हैं, अनेक प्रकार के वस्त्र गले मे माला, दिव्य सुगन्धियों के साथ लेपन किए हुए रूप सभी आश्चर्य और अनन्न सर्व ठोर में मुख, जो आकाश में एक ही बार बारह सहस्त्र सूर्य प्रकाश कर दिखाते हैं, सो तिन के प्रकाश से अधिक भगवान के विश्व रूप का प्रकाश हुआ, तहां सारा जगत इकट्ठा श्री विष्णु भगवान जी के देह मे है, पांडव अर्जुन के रोम खड़े हो गए, आश्चर्य हुआ, नमस्कार किया, दोनों हाथ जोड़कर कहता है। अर्जुनोवाच-
हे देवन के देव श्री कृष्ण भगवान जी! मैं तुम्हारी देह अनंत ही रूप देखता हूं और जो तुम्हारी देह के अंग है अनन्त ही देखता हूं और जो तुम्हारा अन्य नहीं दिखता विश्वेश्वर ऐसा तुम्हारा विश्वरूप है, अनन्त जो तुम्हारे सिर हैं तिनके ऊपर अति सुंदर मुकुट देखता हूं। हाथ जो है तिनमें में गदा, शंख, चक्र देखता हूं और मैं तुम्हारे तेज के प्रकाश को देखता हूं। इस तुम्हारे विश्वरूप को देख नहीं सकता, कैसा रूप। जैसे प्रबल अग्नि जलती है, जैसे असंख्य सूर्य चढ़े हैं तैसे अनन्त बे मर्यादा आपका तेज है और जो तुम अत्क्षर अविनाशी हो, सब से परे हो, तुम जानने योग्य हो अनेक-अनेक प्रकार की रचना से पूर्ण हो, पहले से पहले हो, धर्म की रक्षा करते हो, सनातन पुरुष हो, मेरे मत में तुम ऐसे ईश्वर हो अनादि हो, तुम्हारे बल का कोई अनन्त नहीं, इससे तुम्हारा नाम पराक्रम है। अनन्त ही तुम्हारी भुजा है, अनन्त ही नेत्र, अनन्त ही मुख हैं जिन मुखों में अग्नि जलती देखता हूं, तिस अपने तेज के प्रकाश से सारे विश्व को प्रकाशित करते हो और तुम्हारे अद्भुत भयानक रूप को देखकर तीनो लोक डरते हैं, कई कोटी देवता तुम्हारे में प्रवेश करते देखता हूं, कई कोटि देवता तुम्हारे सामने हाथ जोडे कांप रहे देखता हूं जो तुम्हारी स्तुति करते हैं, कई कोटि ऋषिवर और सिद्ध तुम्हारे से डरते हुए आशीर्वाद देते हैं कि हे ईश्वर! तुम्हारी जय हो तुम चिरंजीव होवो, कई ऋषिवर सिद्ध तुम्हारी स्तुति करते, कई पुष्प चढ़ाते हैं, कई पुष्पों की वर्षा करते हैं और तुम्हारे इस रूप को देखकर जो कई लोग डरते हैं तिनको कई मुनीश्वर कहते हैं, हे लोगों! तुम मत डरो, ईश्वर परम दयालु है और कई रुद्र देखता हूं और कई साधु देखता हूं, कई ब्राह्मण, कई प्रजापति, कई पवन, कई कोटि दैत्य, कई प्रकार के विश्व देखता हूं और कई इस तुम्हारे रूप को देखकर विस्मय हुए देखता हूं कई नेत्र और कई बड़ी भुजाएं बहुत ही तुम्हारे उर स्थल देखता हूं, बहुत ही तुम्हारे चरण बहुत ही उधर और मुख, तिनमें भयानक दाढ़े देखता हूं, इस रूप को देख कर बहुत डर गए हैं, मैं भी डरता हूं, फिर कैसे हो ? आकाश को छू रहे हो, ठोर ठोर कई सूर्य प्रकाश कर रहे हैं, अनेक तुम्हारे रंग है, अनेक ही नेत्र है जिनसे महाप्रलय की अग्नि के पर्वत जलते हैं, हे प्रभु जी! यह भयानक रूप देखकर मेरी आत्मा डर गई है, धर्य भी नहीं कर सकता हे भगवान! अब बस करो, अब प्रसन्न होवो, प्रभु जो महाप्रलय की अग्नि समान तुम्हारे मुंह में दाडे देखता हूं, अब मै दिशाए भी भूल गया हूं जानता नहीं पूर्व पश्चिम कहां है, शांति भी नहीं पाता हूं, हे जगन्निवास हे जगत के आश्रय! अब क्षमा करो मैंने तुम्हारा विश्वरूप देख लिया अब प्रसन्न हो जाइये, यह धृतराष्ट्र के पुत्रों की सेना के जो योद्धा राजे हैं इनमें मुख्य है भीष्म द्रोणाचार्य और कर्ण से आदि लेकर जो सभी अग्नि प्रजुलत जैसे तुम्हारे मुख में पढ़ते देखता हूं। महाभयानक जो तुम्हारे मुख में दाढे हैं सो कितने योद्धाओं के सिर उन दाढों में लटकते देखता हूं। फिर कैसे हैं ? जो नदी के प्रवाह बहुत वेग साथ समुद्र में आए पढ़ते हैं उसी भांति यह योद्धा तुम्हारे मुख में पढ़ते देखता हूं, जैसे प्रलय अग्नि जलती है तिसमें बड़े उतावले पतंग आ पड़ते हैं वैसे ही बड़े वेग के साथ योद्धा गिर रहे हैं। तिनको स्वासों से निगलते जाते हो, महा अग्नि से भरे हुए तुम्हारे जो मुख हैं उनसे संसार को उपजाते हो और तुम्हारे तेज से सारा विश्व भर रहा है। हे कृष्ण जी! मैं तुम्हारा विश्वरूप देखता हूं, तुम एक ही भयानक रूप धारकर सारे विश्व को भर रहे हो, हे देवों के देव! तुम को नमस्कार है, बस अब प्रसन्न होवो, मैं तुम्हारा आदि-अंत पाना चाहता था सो नहीं पा सकता तुम्हारा आदि-अंत हो तो पाये, आप अनन्त हो ? अर्जुन के वचन सुनकर श्री कृष्ण भगवान जी बोले श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन इस समय इन लोगों का काल रूप मैं ही हूं, मैंने यह बड़ा रूप इन लोगों के नाश के निमित्त धारा है जो दुर्योधन की सेना के योद्धा हैं जो सन्मुख देखते हो तुम एक के बिना यह नहीं होंगे, इनको ग्रास कर लूंगा। इस कारण से हे अर्जुन उठ खड़ा हो, यश ले इन सब शत्रुओं को जीतकर बड़े धर्म के साथ पृथ्वी का राज्य कर, दाएं बाएं हाथ से एक जैसा शत्रु को मार, यह सभी योद्धा मैंने पहले ही मार रखे हैं तू तो निमित्त मात्र है कि लोग कहे यह सभी योद्धा अर्जुन ने मारे हैं। यह योद्धा कैसे हैं ? सो पहले द्रोणाचार्य कैसे हैं ? जिससे तूने शस्त्र विद्या सीखी है जो बाल की चोटी से चूकते नहीं, देखो बाणों से मारते हैं शाप देकर भी मारते हैं, ऐसे द्रोण हैं और भीष्म कैसे हैं ? जिनको इसके पिता शान्तनु का वर है कि हे पुत्र! जब तेरी इच्छा होगी तब तू मरेगा, जयद्रथ कैसा है ? जिसका पिता तप करता है कुरुक्षेत्र के मंडल में, जहां परशुराम के कुण्ड है सो कैसे है ? कुंड जब इक्कीस बार परशुराम ने पृथ्वी को निक्षत्रायण करी है, तिन क्षत्रियों के रुधिर साथ कुण्ड भरे हैं तिन कुण्डों पर जयद्रथ का पिता तप करता है, यह वांछा करता है कि जो कोई मेरे पुत्र का सिर कटेगा उसका सिर भूमि पर गिर पड़ेगा और कल सूर्य के अवतार हैं इससे बिना और भी योद्धा है यह तेरे से नहीं मर सकते, यह मैंने पहले ही मार रखे हैं, मेरे मारे हुए को तू मार और डर मत। संजयोवाच-
संजय राजा धृतराष्ट्र को कहता है। हे राजा जी! क्रिटी जो अर्जुन मुकुट साथ जन्मा है तिससे अर्जुन का नाम क्रिटी है, सो भगवान के वचन सुनकर दोनों हाथ जोड़कर भयभीत होकर श्री कृष्ण भगवान के चरणों पर गिर पड़ा और प्रसन्न होकर बोला। अर्जुनोवाच-
हे भगवान जी! जो कुछ तुम्हारी देह में चरित्र देखा है सो कहता हूं –
तुम्हारे शरीर के जो अंग है तिन्हों में बहुत जगह पर साधू संतो महन्तों की मण्डलियां देखी हैं सो परस्पर तुम्हारी महिमा कहते हैं सुनते हैं, तुम्हारे प्रसाद से तुम्हारे नाम के प्रताप से तुम्हारे परमपद भक्ति पद को साधु संत महन्त प्राप्त होते देखता हूं, वैकुण्ठ भी तुम्हारी देह में देखता हूं और संसार भी तुम्हारी देह में देखता हूं। तुम्हारी महिमा करने हारे देखता हूं और जो कहीं राक्षसों की सेना इस तुम्हारे रूप को देखकर डरती है सो राक्षस डरकर दसों दिशाओं को भागते हैं, कई करोड़ साधु तुम को नमस्कार करते हैं। हे बड़ों से बड़े तुमको क्यों न नमस्कार करे, तुमको अवश्य नमस्कार करना चाहिए, तुम कैसे हो ? इस संसार करने हारे ब्रह्मा के भी कर्ता हो और अनन्त हो, सब देवताओं के पहिले ही प्रभु हो, इसी से सब देवता तुम्हारे किए हुए हैं, सारा संसार जो है जगत सो तुम में बसता है इस कारण से तुम जगन्निवास हो, अविनाशी हो, देह से परे हो, तुम देवताओं के आदि हो, अनेक प्रकार के विश्व साथ पूर्ण हो, इससे विश्व निधान हो, वेदों में जाने योग्य हो, तुम्हारा धाम ग्रह और तेज सबसे परे हैं, इस कारण से परमधाम हो, अनन्त प्रकार के संसार करता हो, हे प्रभु जी! विभूति रूप भी तुम हो, चंद्रमा भी तुम हो, प्रजा के पति भी तुम हो, पिता माता भी तुम हो दादा और परदादा भी तुम हो, हे प्रभु जी! तुम्हारे एक एक रूप को मेरा सहस्त्र सहस्त्र बार नमस्कार है, बार-बार नमस्कार है। हे प्रभु जी! तुम को नमस्कार, तुम्हारे मुख को नमस्कार, तुम्हारी पीठ को नमस्कार, तुम्हारे तले ऊपर को नमस्कार, तुम्हारे सर्व और को नमस्कार, तुम्हारे बल बीर्य का भी और पराक्रम का भी अंत नहीं, सब के भीतर भी तुम हो। हे प्रभु जी! मैंने अपना सखा जानकर कहने और ना कहने योग्य वचन कहे हैं, सो क्या वचन, कि हे कृष्ण मेरा रथ लाओ, हे देव! मेरा अमुक कार्य करो हे सखे मेरी अमुक टहल कर। इत्यादि जो मैंने आपकी अवज्ञा करी है हे प्रभु जी! आपको पहचाना नहीं था जो तुम ऐसे हो, मैं तुम्हारी महिमा के जानने को सावधान न था अचेत था, हे प्रभु जी! जो कुछ मैंने आपकी अवज्ञा की है और आपके साथ मार्ग चला हूं और आपके साथ बराबर शय्या पर शयन किया, आपके समान एक आसन पर बैठा हूं। अच्युत अविनाशी पुरुष जी मेरी अवज्ञा क्षमा करो प्रभु जी! तुम्हारी महिमा अप्रमेय में अप्रमाण है, लेखे से परे है, इस कारण से हे अप्रयेय प्रभु जी! स्थावर जो अपनी ठोर से ना चले वृक्ष पर्वत आदि तृण घास जैसे और जंगम जो चरणों से चलते हैं, इन सब के पिता हो, अवश्य कर तुम सबके पूज्य हो और सबके गुरु हो, तुम्हारे समान कोई नहीं इसी से तुम सबसे अधिक हो, त्रिलोकी में तुम्हारे समान कोई नहीं इसी से तुम ईश्वर हो, हे ईश्वर! तुम सर्व प्रकार स्तुति करने योग्य हो, मुझ पर कृपा करो, जैसे पुत्र का अपराध पिता क्षमा करता है, जैसे पतिव्रता का अपराध पति क्षमा करता है इसी प्रकार मुझे भी क्षमा करो। हे प्रभु जी! ऐसा रूप तुम्हारा मैंने आगे कभी नहीं देखा सो इस स्वरूप को देखकर मुझे डर आता है, हे जगन्निवास! हे देव! अब क्षमा करो, प्रसन्न होकर वही दिव्य स्वरूप दिखाओ मुझे वह स्वरूप देखने की इच्छा है सो कैसा स्वरूप ? परम सुंदर चिकने घुंगर वाले केश शोभा पा रहे हैं और अपने ऊपर पीतांबर पहरे हो, कंठ में बनमाला विराजे हैं, एक हाथ में कमोद की एक ही गदी, एक हाथ में शंख, चक्र सुदर्शन, एक हाथ में मेरे रथ के घोड़े का बाग, एक हाथ में चाबुक है। विश्वरूप सशस्त्र बाहों! अब मुझे वहीं चतुर्भुज रूप दिखाओ अर्जुन की विनय मानकर श्री भगवान जी बोले श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन यह विश्वरूप तुमको प्रसन्न होकर दिखाया है यह कैसा है ? अपने आत्मा का दर्शन तुझे दिखाया है फिर कैसा ? सब से परे है, अनन्त है- जिसका अंत नहीं, सो ऐसा परम ईश्वर रूप तुझको दिखाया है, जो कोई चारों वेद पढ़े तो भी यह रूप देखना दुर्लभ है, कई यज्ञ करे, अनेक पाठ करने से भी यह रूप नही देख सकता। तीर्थों के दर्शन से अनेक तपस्या करने से या दर्शन दूर है, हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! त्रिलोकी में कोई नहीं जो यह दर्शन देख सके तुझे ही दर्शन दिखाया है और किसी ने नहीं देखा। सो हे अर्जुन! भय को त्याग, डर कर जो मूढ सा हो रहा है सो डर को त्याग अभय हो, मन से मेरे साथ प्रीतिवान हो फिर वही मेरा रूप देख। संजयोवाच-
संजय धृतराष्ट्र को कहता हे राजा! श्री कृष्ण भगवान अर्जुन को यह वचन कह कर फिर वह सखा रूप दिखाते हैं जो सत स्वरूप था, सो अर्जुन को दिखाया भय उसका दूर किया। फिर अर्जुन बोला। अर्जुनोवाच-
हे जनार्दन! जो यह आपका स्वरूप देखा है सो अति दुर्गम है। इस मेरे रूप की देवता वांछा करते है यह रूप देवताओं को भी दुर्लभ है। इस मेरे रूप की देवता वांछा करते हैं जो रूप तुझे दिखाया है सो वेद पाठियों को भी दुर्लभ है। हे अर्जुन! वेद के पढ़ने से भी ये नहीं पाया जाता। और ना तपस्या से पाया जाता हूं ना कोई यज्ञ किये से पाता है अर्जुन अनेक प्रकार के जो धर्म है उनसे भी मुझे पाना कठिन है जैसे तुमने पाया है तैसे किसी ने नहीं पाया, क्योंकि तू मेरा अनन्य भक्त है मेरे बिना तू किसी का भजन नहीं करता, इसी से मुझको देखा है। इन नेत्रों ने ज्ञान नेत्रों से भी देखा है, प्रेम से तूने मुझे पाया है, मैं तेरे आधीन हूं और तू मेरे विखे प्राप्त हुआ है और मैं तेरे विखे। हे पांडवनन्दन अब जो तुझको करना उचित है सो सुन परम प्रीति से मेरी पूजा कर स्वास-स्वास मेरा नाम स्मरण कर। इस प्रकार मेरा भक्त हो, संसार के लोगों के साथ प्रीति न कर, सब भूत प्राणियों से निरवैर हो, जब ऐसा होवेगा तब मेरे विखे प्राप्त होवेगा, यह निश्चय जान।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रम्ह विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे विराट रूप योगो नाम एकदशमो अध्याय।।

★★★★ अथ ग्यारहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी! अब ग्यारहवें अध्याय का महात्म्य सुन। तुंगभद्र नामक एक नगर था, जिसके राजा का नाम सुखानंद था, श्री लक्ष्मी नारायण की सेवा बहुत करता था, वही पर मन्दिर में एक ब्राह्मण बड़ा धन पात्र विद्वान पंडित रहता था। इस ब्राह्मण का नियम नित्य गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ किया करना था। और वह राजा भी नित्य लक्ष्मी नारायण की सेवा किया करता था और वेदपाठ भी नित्य श्रवण किया करता था ऐसे ही सेवा करते बहुत काल व्यतीत हुआ। एक दिन राजा मंदिर से घर को जाता था उस दिन बहुत देशांतर फिरते फिरते कुछ अतीत गण उस नगर में आए अतीत गणों ने राजा से कोई जगह मांगी कहा हे राजन! हम कुछ दिन यहां रहेंगे हमें जगह दीजिये। राजा ने बड़ी हवेली खुलवा दी, वहां अतीत रहे, राजा ने सिध्धा दिया, रसोई कर अतीत बड़े प्रसन्न हुए। प्रातः काल राजा उनके दर्शनों को गए, राजा का पुत्र भी उनके साथ था, कई मित्र साथी राजा के साथ हवेली में आये, जो महंत था राजा उसके साथ बातचीत करने लगा और राजा का पुत्र खेलने लगा। वहां एक प्रेत रहता था उस प्रेत ने राजा के पुत्र को मार डाला, चाकरों ने राजा को खबर की। हे राजा जी! कुंवर को प्रेत ने मार डाला है तुम निवचिंत बैठे हो ? राजा यद्यपि सेवा करता, कथा श्रवण करता था, परंतु पुत्र के मोह से राजा के मन में दुर्बुद्धि आ गई, राजा बोला संत जी! आपके दर्शन का मुझको अच्छा फल मिला है एक पुत्र था सो भी प्रेत ने मार डाला। तब ब्राह्मण ने कहा हे राजा जी चलो देखें कहां है तेरा पुत्र ? राजा ब्राह्मण महंत सभी वहां आए जहां राजकुमार मरा पड़ा था, तब ब्राह्मण ने कहा अरे प्रेत इस लड़के पर कृपा-दृष्टि कर जो यह लड़का जी उठे और मैं तुझे गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ सुनाता हूं, तू श्रवण कर इससे तेरा कल्याण होगा, जितने जीव तूने पीछे मारे हैं तिनका भी उद्धार होगा। और तू अपने जन्म की बात कह क्यों कर प्रेत हुआ है इसके पीछे ही तेरा उद्धार करूंगा। तब प्रेत बोला मै पूर्व जन्म में ब्राह्मण था इस ग्राम के बाहर हल जोतता था, वहां एक दुर्बल ब्राह्मण आया था, जो इस खेत में गिर पड़ा और घायल हो गया, उसके अंगों से रूधिर निकला एक चील ने उसका मांस नोंच खाया, मैं यह देख रहा था मेरे मन में दया नहीं आई कि इस ब्राह्मण को छुड़ा दूं। इतने में एक और ब्राह्मण आया उसने देखा एक दुर्बल रोगी ब्राह्मण गिरा पड़ा है और चील नोच-नोच मांस खाती है उसने देख कर मुझे कहा ओ हल जोतने वाले ब्राह्मण तू यज्ञोपवीत धारण किए बैठा है कर्म तेरे चंडाल के हैं निर्दई तेरे खेत के पास ब्राह्मण का मांस चील तोड़ तोड़ कर खाती है क्या तू आंखों से अंधा है जो छुड़ाता नहीं। इस कारण से तू बड़ा पापी है यह दोनों कर्म तेरे नरक को जाते हैं, एक तो किसी को चोर लूटता मारता हो और साक्षी होकर भाग जावे, दूसरा रोगी हो तिसकी खबर न लेवे, तीसरे किसी को भूत लगा हो वह छुड़ाना जानता हो छुड़ावे नहीं यह तीनों पापी भी नरक को जाते हैं जो सर्व जीवों की सहायता और दया करते हैं तिनको अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है मेरे शाप से तू प्रेतयोनि पावेगा, तब मैंने उसके चरण पकड़ पकड़ कर कहां मेरा उद्धार कैसे होवेगा ? तब ब्राह्मण ने कहा जब तुमको कोई गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ सुनावेगा तब तेरा उद्धार होगा। प्रेत ने अपनी कथा सुनाई। तब ब्राह्मण ने राजा से पूछा राजन बताओ इसका क्या कीजिये, तब राजा ने कहा- इसका उद्धार कीजिए और मेरे पुत्र को जीवित करें। तब ब्राह्मण ने गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ किया और प्रेत पर जल छिड़का तत्काल प्रेत की देह छूटकर देव देही पाई, उसने पहले जो कई जीव खाए हुए थे तिनका भी उद्धार हुआ, राजा का पुत्र सावधान हुआ और कुछ पल के लिए श्याम सुंदर रूप धर खड़ा हुआ। तब प्रेत बोला- हे राजा अपने पुत्र को मिल, जब मिलने लगा वह बोला। हे राजा जिसके कुल में एक वैष्णव होवे उसकी कई कुलो का उद्धार होता है, तू बड़ा वैष्णव है। तब राजा ने मोह कर कहां- हे पुत्र तू मुझको आ गले मिल। पुत्र बोला- पुत्र तू किसको कहता है ? मैं कई बार तेरा पुत्र हुआ कई बार तेरा पिता भया, यह प्रेत धन्य है जिसने मुझे मारा और श्री गीता जी के ग्यारहवें अध्याय का पाठ मै श्रवण कर कृतार्थ हुआ हूं, अब मै भी बैकुण्ठ को जा रहा हु फिर राजा ने कहा- पुत्र! तू मेरे घर में एक ही पुत्र है मेरी अब कौन गति करावेगा ? और कोई संतान नहीं। तब पुत्र ने कहा- हे राजा जी! जिस कुल में एक वैष्णव होंवे उसका उद्धार हो जाता है। पिता तू चिंता ना कर अब मैं नारायण जी परायण हुआ हूं और अब जब मैं श्री नारायण जी का दर्शन करूंगा तब तेरे कुल का उद्धार होगा। इक्कीस कुल तेरी उधरेंगी, तब राजा ने कहा- अच्छा सिधारों, तब वह दोनों एक दिव्य विमान पर बैठकर बैकुंठ को गए। तब उस ब्राह्मण से राजा ने भी ग्यारहवें अध्याय का पाठ श्रवण किया। और मन में कहा अब पुत्र पुत्री की कोई नही, विरक्त होकर गीता का पाठ किया करूंगा और तुलसी में जल चढ़ाया करूंगा। ब्राह्मण साधु चले गए, राजा भी कुछ समय बाद परमगति का अधिकारी हुआ। श्री नारायण जी कहते हैं लक्ष्मी यह ग्यारहवें अध्याय का महात्म्य है जो तूने श्रवण किया है

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड महात्म्य नाम एकादसी अध्याय संपूर्णम्।।