श्री कृष्णाय नमः
★★★★ अथ बारहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★
मुक्त्ति योग
अर्जुनोवाच- अर्जुन श्री कृष्ण भगवान से प्रसन्न करता है, हे प्रभु जी तुम्हारे कुछ भक़्त तुम्हारे इस कमलनयन के उपासक हैं एक तुम्हारे आश्चर्य रूप के उपासक हैं और कोई तुम्हारे अक्षर अविनाशी रूप के और एक तुम्हारा रूप अनिर्देस जो मन बाणी से परे है कोई उस की उपासना करते हैं इन सब में चतुर उपासक कौन है? हे प्रभु….
मेरे भगत अनन्य जो जो निशदिनि ममदास।
जो आश्रित मेरे सदा मेरी जिनको आस।।
मुझे स्मर्ण करते सदा जो मेरे कहिलाएं।
मुझ ईश्वर को छोड़कर और कहीं नहिं जाएं।।
उनकी नैय्या को सदा करूं मित्र मैं पार।
जिनको है संसार में मेरा ही आधार।।
योग क्षेम उनको सदा देता हूं मैं मीत।
उनकी ही संसार में बेजऱ होती जीत।।
….जी यह कहो, अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान जी बोले श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन! जो मेरा कमलनयन प्रगट रूप है मन को एकाग्र करके परम श्रद्धा से जो इस रूप के उपासक हैं मेरे मत में यह भक़्त श्रेष्ठ है और चतुर है। अब दूसरे का वृतांत सुन- प्रथम रुप अक्षर अविनाशी है, तिनकी महिमा मन बाणी पर नहीं आती। जिहवा कह नहीं सकती। इसे अनिर्देश कहते हैं जो नेत्रों से देखा ना जाए तिसको अव्यक कहते हैं, सर्वव्यापी जो है मन से तिसका प्रताप चितवया नहीं जाता। इस कारण से अपिन्त है तिस में कोई विकार नहीं कभी घटता नहीं, बढ़ता नहीं, कभी स्थान से चलता फिरता नहीं इससे अचल है। फिर किसी का हिलाया हिले नहीं, इसी से ध्रुव कहलाता है यह आठ प्रताप मेरे अव्यक्त स्वरुप के हैं जो कोई इसकी उपासना करता है तिसके लक्षण सुन- जिन साधनों कर अव्यक्त रूप पा सकते हैं। तिन साधन करने योग्य है, मुख्य तो सब इंद्रियों का संयम करना, इंद्रिया जीतनी सब भूत प्राणियों के साथ ममता और सब के साथ प्रीति रखना और प्रार्थना करना कि है अविनाशी पुरुष। सब जीव सुखी रहे। इन साधनों कर अविगत स्वरूप उपासक अव्यक्त जो मैं ईश्वर हूं सो मुझको पावे अब और सुन- हे अर्जुन! अविगति स्वरूप के उपासक जो है तिनको अति कष्ट अर्थात क्लेश है और ममता दृष्टि भी कठिन है सो जो कोई पूजा करें तिसका भला बांछना, जो पूजा न करें तिसका भी भला वांछना। यह जितने जीवधारी हैं तिसको यह कठिन साधना है, तिनके पाने निमित्त यह कठिन साधना क्या है सो तू देखने का नहीं। देखकर क्या सुख पावे वचनों कर तिसकी महिमा कही नहीं जाती, सो जिवहा किस गुण को पाकर सुख पावे, मन कर चितवन का नहीं, मन किस स्वरूप को चितवे ? इससे जितने देहधारी हैं तिनको अव्यक्त को उपासना में कष्ट है। हे अर्जुन! मेरे कमलनयन के जो उपासक हैं तिनकी बात सुन- मैं जो देवकीनंदन, यशोदानंदन, नन्द का नन्द, परम सुन्दर आनन्द का समुद्र हूं। जो मेरे इस रूप के उपासक हैं और मेरी शरण आए हैं, जिन्होंने सब कर्म मुझ में समर्पे हैं कैसे ? यह घर जो है तेरा है, हे भगवान! तेरा मै दास हूं, दास भाव होकर मेरे शीत प्रसाद जानकर खाते हैं हर समय मेरा ही ध्यान मेरा ही स्मरण, हे गोविंद जी! विष्णुपदे गाना, मेरा कीर्तन करना, इस प्रकार आनन्द होकर मेरा भजन मेरी उपासना करते हैं। उनके साथ मैं कैसा हूं ? सो सुन- यह संसार दुख रूप जन्म मरण का घर है तिस से उद्धार करता हूं, तत्काल ही मुक्त करता हूं, जिन पुरुषों ने मेरे में मन का निश्चल चेता रखा है, हे अर्जुन! मेरे उपासक जो सेवक हैं तिनको यह साधन करने योग्य है, पहले तो मन का निश्चल चेता मेरे में रखना और बुद्धि को मेरे में रखना यह दोनों साधन मेरे भक्तों को करने योग्य है, इससे और कोई मेरे रिझाने का साधन नहीं इससे अधिक मेरे भक्तों को भक्ति करनी रही नहीं। हे अर्जुन! मन का निश्चल चेता मुझ में लगा, तुझे बाकि करना कुछ नहीं रहा, तू कृतार्थ हुआ। मेरे को त्याग कर मन किसी और बात को जपे, तब बुद्धि द्वारा मन को रोक मेरे मे निश्चल कर, इसका नाम अभ्यास है। हे अर्जुन! जो तेरे से अभ्यास योग किया न जाए और मन में मेरा ध्यान न लगे, प्रातः काल से लेकर रात्रि शयन प्रयन्त मेरी सेवा कर, पूजा कर। जब मेरे अर्थ मेरी पूजा करेगा तब तू संसार से मुक्त्त होवेगा। जो पूजा भी ना कर सके तो दोनों हाथ जोड़कर मेरे चरण कमलों को नमस्कार कर मुख से यह कहो हे श्री कृष्ण भगवान जी! मैं तेरी शरण हूं। जब इस प्रकार मेरी शरण आ और मन मेरे चरणों साथ निश्चल कर रखे। हे अर्जुन यह मार्ग बहुत कल्याण का है इसे अभ्यास योग कहते हैं, इस अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है कौन ज्ञान ? मेरी महिमा का जो कहना सुनना और इस ज्ञान से मेरे ध्यान साथ जुड़ना श्रेष्ठ है। जब मेरे ध्यान साथ जुड़ता है तब सभी कर्मों के फल त्यागे जाते हैं क्योंकि जो मेरा भक़्त होता है वह सतस्वरूप है और जो कोई मेरा भक़्त सत्य पद को पावे है तिसके लक्षण सुन- किसी भूत प्राणी का बुरा ना मनावे, सबका मित्र हो रहे। वह अहंकार ममता से रहित होकर कहे कि न कुछ मेरा है, न कुछ मै हूं सब परमेश्वर का है, सुख दुख में एक सा रहे, क्षमावन्त सदा संतुष्ट प्रसन्न निरंतर मेरे साथ जुड़ा हुआ संसार के विषयों से आत्मा जीत रखें। मेरे साथ दृढ़ निश्चल चेता रखना बुद्धि का भी मेरे में दृढ़ करना जो इस प्रकार मेरे भक़्त मेरा भजन करते हैं सो मुझे पा लेते हैं। यह किसी से डरते नहीं, भली बुरी वस्तु पाने से हर्ष शोक नहीं करते, ऐसा जो मुक्त्त रूप है सो मुझे प्यारा है। फिर कैसा है ? जिसको किसी वस्तु कि वांछा नहीं और देह को जल मृतिका से पवित्र रखें। अन्त:काल मेरे भजन से पवित्र रखें। उज्जवल मति से मुझे अविनाशी पहचान संसार के लोगों से उदास रहे। सदा सुखी जिसने सब कार्य संसार के जो हैं तिनका आरम्भ त्याग दिया है सो मुझे प्यारा है। फिर कैसा है ? गई वस्तु की चिंता नहीं मिली वस्तु की बांछा नहीं करता और संसार के भले पुरुष को त्याग दिया मेरे चरणों के साथ प्रीति है ऐसा भक़्त मुझे प्यारा है। फिर कैसा है ? शत्रु मित्र तिसको एक समान है आदर अनादर में एक सा, शीत, उषण, दुख सुख में एक रस है दूसरे का संग न करें, निरबंधन रहे। फिर स्तुति निंदा किये से एक सा है, मेरे नाम बिना जिहवा में कुछ बोले नहीं, हर प्रकार संतुष्ट रहे। घर बनाने आरम्भ न करें। बनी हुई जगह पर बैठकर भजन करें। संसार की तरफ से उदास रहे। मेरे चरणों साथ दृढ़ निश्चल हो मेरे साथ ही प्रीति करें ऐसा जो प्राणी है सो मुझे प्यारा है। हे अर्जुन! यह साधन मैंने अपने भक्तों को उपदेश किए हैं, उस साधनों का नाम अमृत धर्म है जैसे अमृत पान करने से कोई रोग नहीं रहता, जीव अमर हो जाता है तैसे ही यह अखंड ब्रह्म रूप मेरा है ऐसे ही अमृत रूपी साधन अपने भक्तों को यथार्थ धर्म कहे हैं
श्रद्धा से जो भजे मम सुने जो उत्तम उपदेश।
धर्म अमृत का पान करें वह प्रिय भगत नरेश।।
सो परम श्रद्धा से जो इन धर्मों की उपासना करें जो भक्त मेरे को प्यारा है।
इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे योगो नाम दुआदशो अध्याय।।
★★★★ अथ बारहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★
श्री भगवानोवाच- हे लक्ष्मी अब बारहवें अध्याय का महात्म्य सुन- दक्षिण देश में एक सुखा नन्द नामक राजा रहता था तिसके नगर में उतंग नाम लम्पट रहता था, एक गणिका से उसकी प्रीति थी, वह दोनों एक देवी के मंदिर में जाकर मदिरा पान किया करते मांस खाते,भोग भोगते, जो कोई पूछे तुम यहां क्या करते हो तो कहते हम यहां वैसे ही रहते हैं और देवी की सेवा करते हैं झूठ कह देते। इसी मंदिर में एक ब्राह्मण देवी की सेवा करता था, एक दिन उस ब्राह्मण ने देवी की स्तुति करी। देवी प्रसन्न हुई कहां वर मांग जो वर मांगेगा सो दूंगी फिर उसने धन, संतान, सुख मांगा देवी ने कहा हे ब्राह्मण अवश्य तुझे धन संतान सुख दूंगी पर एक कार्य तुम्हें पहले करना पड़ेगा। इन दोनों (लम्पट और गणिका) का उद्धार कर। क्योकि यह बुरे कर्मों के साथ-साथ मेरी सेवा भी करते है इसलिए मै इनको दण्ड भी नही दे सकती,कोई ऐसा उपाय कर तिससे इन दोनों का उद्धार हो जाए। तो ब्राह्मण ने देवी को नमस्कार किया और अपने गुरु के पास जाकर कहा हे गुरु जी! मैंने देवी की स्तुति करी थी देवी प्रसन्न हुई मेरे वर मांगने पर धन, संतान, सुख देती है पर पहले कोई ऐसा उपाय कर जिससे इन दोनों ( गणिका और लम्पट ) का उद्धार होवें। ब्राह्मण का गुरू बड़ा तपस्वी था। तब गुरु जी ने कहां- हे ब्राह्मण तुम अभी जाओ मै इस बात उपाय देखता हूं। तब गुरु जी ने श्री नारायण भगवान जी का तप किया,तीर्थ व्रत किए,तब भगवान जी प्रसन्न हुए आकाशवाणी हुई श्री नारायण जी गरुड़ पर सवार होकर आए और कहा तेरी क्या कामना है, गुरु जी! ने वही बात कही ब्राह्मण जी ने देवी जी की भक्त्ति करी थी। भगवती प्रसन्न हुई कहा- धन, संतान, सुख देती हूं पर इन दोनों का उद्धार कर जिस तरह कर सके सो मै और ब्राह्मण जानते नहीं। आप कृपा करके कहो उनका उद्धार किस प्रकार होगा तब नारायण जी ने कहा- ब्राह्मण को कहो उनको गीता के बारहवें अध्याय का पाठ सुनायें तो उन दोनों का उद्धार हो जायेगा तब ब्राह्मण ने अपने गुरू के कहे अनुसार उन दोनों को नित्य अपने पास बैठा कर श्री गीता जी के बारहवें अध्याय का पाठ सुनाना आरम्भ किया। कुछ समय व्यतीत होने पर दोनों की देह छूट गयी, दोनों ने देव देहि पाई और बैकुण्ठ को गए। यह देखकर देवी प्रसन्न हुई और कहा हे ब्राह्मण आज से मेरा नाम वैष्णव हुआ और इस पाठ को सुनकर ऐसे अपकर्मी भी तर गए है, देवी ने कहा हे ब्राह्मण! अब मै तुम्हारी इच्छाएं पूर्ण करती हूं आज से इस नगरी का राज्य तुमको दिया। इतना कहकर देवी अंतर्ध्यान हो गयी। ब्राह्मण जब घर गया। तब उस राज्य के राजा के सैनिक वहा खड़े थे और कहा-राजा ने तुम्हें तुरन्त बुलाया है ब्राह्मण उन सैनिकों के साथ राजमहल की तरफ चल दिया। राजा के कोई संतान न थी। राजा ने ब्राह्मण को कहा- हे ब्राह्मण आज से इस राज्य का राज मैंने तुमको दिया। यह कहकर राजा विरक्त होकर तप करने को वन मे चला गया। देवी के वर अनुसार ब्राह्मण की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हुई। श्री नारायण जी कहते हैं हे लक्ष्मी यह गीता जी के बारहवें अध्याय का महात्म्य है जो मैंने कहा तूने सुना है।