श्री कृष्णाय नमः
★★★★ अथ तेरहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★
क्षेय क्षेत्रज्ञ – ज्ञान – ज्ञेय प्रकृति जीव
अर्जुनोवाच- अर्जुन श्री कृष्ण भगवान जी से प्रश्न करता हैं प्रभु जी प्राकृति किसको कहते हैं, और पुरुष किसको, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ किसको कहते हैं, ज्ञान और ज्ञेय किसको कहते हैं, इनका उत्तर कहिये। श्री भगवानोवाच-
हे कुंती नन्दन अर्जुन मनुष्य की देह…..
स्वर्ग देख ललचे नहीं मठी से नहीं वैर।
ऊपर धरती जाहि को सम उपवन की सैर।।
सुंदर नारी रत नहीं नहीं मोह और काम।
शीत उष्ण सम है जिसे नहीं क्रोध का नाम।
जैसे सोवे पलंग पर तिमि धरती पर सोय।
रोग द्वेष से रहित जो भक्ति में दृढ़ होय।
हे अर्जुन! उस जीव को जानो ब्रह्मका ज्ञान।
अति प्यारा बेजऱ मुझे अर्जुन निश्चय जान।।
….को क्षेत्र कहते हैं, क्योंकि जब यह जीव फिर फिर कर चुरासी से मनुष्य देह में आता है तब चैतन्य होता है, कैसा चैतन्य ? परमेश्वर को भी पहचानता है, पाप पुण्य को भी समझें है क्योंकि जो इस देह को पाकर भला बुरा करता है व पाप पुण्य का फल भोगता है, दूसरे देह धारियों को न पाप है न पुण्य है। मनुष्य दे को पाप पुण्य उठते हैं और जितनी बातों का इस शरीर में ठाठ है उनको जो समझे सो सत्वेता पुरुष है। क्षेत्रज्ञ भी उसे कहते हैं जो शरीर रूपी क्षेत्र का जानने वाला हो। सो हे अर्जुन! क्षेत्रज्ञ मुझको जान, जिसके ज्ञान से क्षेत्रज्ञ दोनों जाने जाते हैं सो यह मेरे मन का ज्ञान है, अब क्षेत्र सो देह है तिसका वृतांत सुन- देह का ठाठ कितनी वस्तुओं से बना है ? जो कुछ इस क्षेत्र में वर्तमान है सो इसको ऋषियों ने बहुत भांति कर कहा है, वेदों ने भी कहा है भिन्न-भिन्न प्रकार सुन- हे अर्जुन! भली प्रकार कहता हूं, सो निश्चल जान जो मेरे मुख कमल से निकले है। शरीर क्षेत्र में पांच तत्व है पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, पृथ्वी का अंश इस देह में मांस है, जल का अंश रुधिर, अग्नि का अंश इस देह में जठराग्नि है जो भोजन आदि वस्तुओं को पचाता है, पवन का अंश स्वास है, आकाश का अंश पोलापन है। यह पांचों महाभूत देह में है और मन बुद्धि चित अहंकार दसों इन्द्रियां है पांच कर्म इंद्रियों और पांच ज्ञान इन्द्रियां, सो कौन सी है। नेत्र, नासिका, श्रवण, त्वचा, जीव्हा यह ज्ञान इंद्रियां हैं इन पांचों में ज्ञान है यह कर्म करना नहीं जानती। कर्म इंद्रियां कौन सी है ? हाथ, पांव, गुदा, लिंग, नाक यह पांच कर्म इन्द्रियां हैं, यह कर्म को ही करना जानती हैं। त्वचा स्पर्ष इंद्रियां जो है सो सब इंद्रियों में व्यापी है, जीव्हा में भी दो गुण है- जब स्वाद लेती है तब उस में ज्ञान गुण है, जब वचन बोलती है तब कर्म गुण है। लिंग में भी दो गुण है, जब भोग करता है तब ज्ञान, जब मूत्र करता है तब कर्म गुण है। यह तो दसों इन्द्रियां। इसी तरह पांच इंद्रियों के पांच आहार हैं, सो कौन है ? नेत्रों का आहार देखना, नासिका का वासना लेना, जिहवा का स्वाद लेना आहार है, श्रवण का शब्द सुनना और स्पर्श इंद्री त्वचा है तिसका आहार वस्त्र पहने, सुगन्ध लेपन करना, शीत उष्ण समझना। पांचों के आहार पांच हैं, इन्हीं सब वस्तुओं से शरीर बनता है, जो इस शरीर नगर में बसते हैं सो सुन- अच्छी वस्तु खाने की वांछा, बुरी वस्तु खाने की वांछा, कभी सुख कभी दुख यह चारों बातें इनमें तीन प्रकार हैं, इन चारों बातों को विश्व में बड़ी दृढता है और चारों कि इसमें चैतन्यता है, यह चारों बातें इसमें दृढ़ हैं, हे अर्जुन! इस शरीर क्षेत्र का वृतांत मैंने तुमको भली प्रकार कहा है और जिस साधना से मेरे जीवन का ज्ञान उपजे सो साधन सुन- मुख्य तो यह साधन है जो अपमानी होवे, निर्माण रहे, अपनी पूजा मानता ना करावे, गुरु गुसाई होकर न बैठे, मन, वचन, कर्म कर सबका सेवक बना रहे, पाखंडी भी ना होवे कि चौकड़ी मारकर नेत्र मून्द के बैठा रहे लोग जाने कोई बड़ा तपी है और मन में विषय-भोगों की वासना होवे, पाखंड से रहित हो, मन में किसी का बुरा ना चितवे, मन वचन कर्म से किसी को दुखावे नहीं, वाणी से दुर्वचन न कहे, हाथ से मारे नहीं, पैर से चलकर किसी का बुरा ना करें, किसी स्थावर जंगम को दुख न देवे इत्यादि कोई और इसको दुख देवे तो बुरा ना माने! क्षमा करें, सब किसी के साथ नम्र भाव से रहे और जो अच्छे मार्ग के उपदेश करने हारे गुरु हैं तिनकी सेवा करें, जल मृतिका से अपनी देह पवित्र रखें, धैर्य कर मन को निश्चल रखें, इन्द्रियों के भागों में उदास रहे, अंधकार से रहित हो। जो प्राणी यह साधन करें सो जन्म मरण के दुखों से रहित होकर मुक्त होगा। और साधन सुन- पुत्र, स्त्री और घर के संबंधियों से मोह ना लगावे और शत्रुता मित्रता से रहित रहे, सदा एक तार रहे, मेरे साथ आनन्द रहे, जैसे पतिब्रता स्त्री अपने भर्ता की सेवा करती है पराया पुरुष देखती नहीं, तैसे मेरा भक्त मुझे सिमरे, किसी दूसरे का नाम न लेवे, ऐसा मेरे साथ होवें और एकांत बैठ संसारी मनुष्य का संग ना करें। और मैं सब आत्माओं का ठाकुर अधिकारी हूं, जो मुझे ईश्वर अध्यात्मिक जानने को एकांत बैठे आप देखें कि अध्यात्मिक ईश्वर ठाकुर कैसा है, हे अर्जुन! यह सब साधन मैंने तुझे ज्ञान पाने के निमित्त कहे हैं इन साधनों बिना और जो कुछ करें सो अज्ञान जान! यह तो ज्ञान के साधन है। जैसे दीपक की सामग्री तेल रुई,अग्नि सब इकट्ठे कर दीपक जला घर में धरिये, उस उजाले में सब वस्तु घर में जो कुछ पड़ी है देखी जाती है सो ज्ञान तो दीपक है, और वस्तु देखना सुनना। हे अर्जुन तूने यज्ञ का प्रश्न जो किया है सो मैं ही हूं, इस कारण से मेरा नाम यज्ञ है। पहले तिसका का महात्म्य सुन- जिसके सुनने से जन्म मरण से मुक्त होगा। जैसे अमृतपान करने से देह आरोज्ञ होती है मृत्यु भी नहीं होती वैसे ही मेरा यज्ञ रूप अमृत पान करने से अजर-अमर होगा। सो सुन- ज्ञेय अनादि है, जिसका आदि नहीं सब से परे है इसी से वार ब्रह्म कहते हैं देव जीवन से परे हैं, और सब ठोर से नेत्र हाथ शिव, श्रवण इत्यादि अंगों में व्यापक है सब जगह में बस रहा है सब इन्द्रियों के गुणों का प्रकाश है सब इंद्रियों से रहित है। सब से मिला हुआ है, सब करने हारा है फिर आप निरगुण है और सब गुणों को भोगता है। स्थावर जंगम जो भूत प्राणी है तिनके बाहर भीतर व्यापक है और सूक्ष्म है, जाना नहीं जाता। इससे परमेश्वर को दूर कहते हैं, सब में व्यापक भी है, सबसे न्यारा भी है, तिसको हे अर्जुन! तू ज्ञेय जान, जब संसार को ग्रास लेता है तब उसका नाम ग्रासन होता है। जब संसार को अपने में से प्रगट करता है तब उसका नाम उत्पत्तिकर्ता है, जब संसार के अंदर बाहर व्यापता है तब उसको विष्णु कहते हैं, सूर्य्य से लेकर जितने ज्योति वाले हैं तिन सब की ज्योति मुझको जान और तुम जो अंधकार है अज्ञान इससे परे है हे अर्जुन! यह ज्ञेय के जानने का ज्ञान है, इस ज्ञान से ही जाना जाता हूं, हाथ से पकड़ा नहीं जाता, नेत्रों से दिखाई नहीं देता, सबके हृदय में बसता हूं। हे अर्जुन! क्षेत्र क्षेत्रय और ज्ञान ज्ञेय का वृतांत भिन्न-भिन्न कर कहा है। हे अर्जुन मेरे भक़्त इसी प्रकार मुझे समझ कर मेरे चरणकमलों में श्रद्धा प्रीति लगाते हैं। अब अर्जुन प्रकृति पुरुष का वृतांत सुन- प्रकृति जो माया और पुरुष जो जीव है इनको तू अनादि जान जैसे मेरा आदि अन्त नहीं, जब का मैं हूं तब के यह भी हैं। अब इनका वृतांत सुन- यह देह इंद्रियां तत्व जो है इन सब के उपजावन हारी माया है, कार्य कारण करता कार्य कहिये जो वस्तु उपजी और जिससे कार्य उपजा सो कारण और जिसने बनाई सो कर्ता है जैसे कार्य जो है माटी का बासन, तिस बासन का कारण माटी है जिससे बासन बना, सो तिस बासन का कर्ता कुम्हार है, सो हे अर्जुन! यह संसार जो कार्य है सो कार्य माया है। माया से संसार प्रकट हुआ है संसार के करने हारी भी माया, सो यह तीनों बातें माया से जान। हे अर्जुन यह सारा वृत्तांत माया का कहा। अब पुरुष जो जीव है तिसका अर्थ सुन- इस प्रकृति का जो उपजाया हुआ शरीर नामी नगर सो इस शरीर में दुख सुख भोगता जीव है। प्रकृति से उपजे हुए जो देह इन्द्रियां तीनों गुणों में भोगें हैं। तीनों गुण के संयोग का रंग इस जीव को लगता है। तिन रंगों से रंगा जाता है। गुणों की संगत का यह जीव भ्रमता फिरता है। अब अर्जुन मेरी बात सुन- मैं कैसा हूं, इस माया और जीव ने परस्पर मिलकर मेरे आगे एक कौतुक रचा है, सो इनके कौतुक को देखने हारा मैं हूं, जीव के और माया के निवारण हारा भी मैं हूं, हे अर्जुन! यह दोनों मुझ को नमस्कार करते हैं। इन दोनों का न्याय करने हारा भी मैं हूं, इस जीव और देह से परे हूं। हे अर्जुन! इस कारण से मैं परमात्मा कहाता हूं। जो कोई इस प्रकार दुख सुख को भोगता जीव को जाने और इंद्रियों के गुण से माया को जाने, इसका कौतुक को देखने हारा मुझे इनसे न्यारा जाने, इस जाने की फल क्या फल पावे ? सो सुन- संसार के जन्म मरण के बंधन से मुक्ति होती है हे अर्जुन! कई एक योगी ध्यान से अपने अंदर आत्मा का दर्शन पाते हैं, इस मार्ग से कृतार्थ होते हैं,इस सांख्य शास्त्र के मार्ग से सुख को देखते हैं, सो कहते हैं जो कुछ है परमेश्वर ही है दूसरा कुछ नहीं, एक मेरे स्वरूप की ही पूजा करते हैं तिस स्वरूप का दर्शन करते हैं। एक भक्तो से मेरी महिमा सुन के अपनी प्रीति मेरे में लगाते हैं मेरे नाम का स्मरण करते हैं, सो वे प्राणी मेरी परम गति को प्राप्त होंवेगें। हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! और सुन- जो कुछ स्थावर जंगम भूत प्राणी प्रगट है सो देह और जीव के एकत्र होने से प्रगटे हैं, तिन सब भूत प्राणियों में एक मैं परमेश्वर व्यापक हूं, देह के नाश हुए से तिसका नाश नहीं होता। तिन ऐसा अविनाशी परमेश्वर जाना और जिसने सब भूत प्राणियों में एक मुझे समीप देखा है और सब का सुखदायक सेवक हो रहे, दुखाय किसी को नहीं, सो मेरी परम गति को प्राप्त होगा। हे अर्जुन! जो कर्म होते हैं देह इन्द्रियां मन से होते हैं, यह प्रकृति माया की है जो कोई आत्मा को देखें सो अकर्ता देखें, आत्मा कुछ नहीं करता यह सब प्राणियों का विस्तार भिन्न-भिन्न देखता है यह दृष्टि दूर होवे, एक आत्मा ब्रह्म सब में दृष्टि आवे, अब ऐसा होवे तब तुरंत ही आत्म ब्रह्म को पाता है ब्रह्म मिला तो आत्म ब्रह्म अनादि हुआ जिसका आदि अन्त नहीं, सो अनादि निर्गुण गुणगीत परमात्मा अविनाशी है। कुंतीनन्दन! इस शरीर में ही आत्मा बसे हैं, कुछ कर्म नहीं करता निर्लेप सब दोनों में बसे हैं। देह के गुण तिस आत्मा को नहीं व्यापते, ज्यो आकाश सर्वव्यापी है, सब से न्यारा है। हे अर्जुन! एक मेरा महाप्रताप और सुन- जिसके आगे और प्रताप कोई नहीं जैसे सूर्य प्रातः काल को पूर्व से उदय होता है एक बार ही सब लोक में प्रकाश करता है ऐसा नहीं जो किसी देश में सूर्य का प्रकाश पहले ही और किसी देश में पीछे, सर्व लोकों में एक ही बार प्रगट हो जाता है वैसे ही ब्रह्म से लेकर चीटी प्रयन्त स्थावर जंगम जो संसार है उन सब जीवो के शरीर में एक बार ही प्रकाश करता हूं। हे अर्जुन यह क्षेत्र जो शरीर और क्षेत्री जो यह जीव है और क्षेत्रज्ञ मैं हूं सो कैसा हूं एक नेत्र के उठाने से सब संसार प्रकट करता हूं। जो कोई जीव ज्ञान नेत्र से मेरा प्रताप विचारे, मेरी स्तुति करें कि धन्य है श्री कृष्ण भगवान जी जिसको यह सामर्थ है और क्षण मात्र में सब संसार को प्रगट करता है। ऐसा जो परम पुरुष है तिसको मेरा बारम्बार नमस्कार है, कोटि कोटि मेरा नमस्कार है जो प्राणी इस प्रकार मुझको जाने, मेरी स्तुति करें, तिसका फल सुन- सो ऐसा प्राणी जन्म रूप संसार के दुखों को काटकर मेरे परम अविनाशी पद को निःसन्देह पाते हैं।
इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे क्षेय क्षेत्रज्ञ- ज्ञान-ज्ञेय प्रकृति जीव त्रोदशमो अध्याय।।
★★★★ अथ तेरहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★
श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी अब तेरहवें अध्याय का महात्म्य सुन- दक्षिण देश में हरिनाम नगर था। वहां एक व्यभिचारिणी स्त्री रहती थी, वह व्यभिचार करती, मांस मदिरा खाती थी, एक दिन एक पुरुष से उसने वचन किया कि वन मे अमुक स्थान पर मैं तेरे पास आऊंगी तुम वहां चलो। वह पुरुष रास्ता भटक किसी और वन में चला गया। वह स्त्री उसे ढूंढते-ढूंढते हैरान हो गई,पर वह आदमी ना मिला। वह भूलता फिरता रहा। वह गणिका थक कर बैठ कर उसकी राह देखने लगी, देखते देखते ही सारा दिन व्यतीत हुआ पर प्रीतम ना आया। सांझ पड़ गई वह गणिका प्रीतम का नाम लेकर पुकारने लगी, बावली होकर वृक्षों से पूछती, इतने में वह पुरुष आ मिला दोनों प्रसन्न होकर बैठे। उनको बैठे हुए कुछ ही क्षण हुए थे इतने में एक शेर वहां आ गया। सिंह में दिव्य स्वर आ- गणिका को डरी देख कर सिंह बोला- अरी गणिका मैं तुझे खाऊंगा। गणिका बोली तू मुझे क्यों खाएगा, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है, पहले यह बता तू कौन है और मुझे ही क्यों खाना चाहता है ? तब सिंह ने अपने पिछले जन्म की बात सुनाई। कहा हे गणिका! मैं पूर्व जन्म में ब्राह्मण था, झूठ बोला करता था बड़ा लोभी था जुआ खेलता था तथा दूसरे का धन हर लेता था। एक दिन प्रभात के समय घर से उठ कर चला, मार्ग में गिरा, गिरते ही देह छूट गई, यमों ने पकड़ लिया और धर्मराज के पास ले गए। देखते ही धर्मराज ने हुक्म दिया कि इसी घड़ी ब्राह्मण को सिंह का जन्म दे दो। सो यह देह मुझे मिली है और हुक्म दिया जो पापी प्राणी दुराचारी हो तिनको तू खाया कर। जो साधु वैष्णव हरि भक़्त हो उनके पास न जाना। हे गणिका मुझे धर्मराज की आज्ञा है तिनकी आज्ञा पाकर सिंह योनि में आया हूं, तू व्यभिचारिणी गणिका पापन है इसलिए तुमको खाऊंगा। इतना कह सिंह ने गणिका को खा लिया। तब यमदूत धर्मराज के पास गणिका को ले गए। धर्मराज ने हुक्म दिया इसको चंडालनी का जन्म दे दो। श्री नारायण जी ने कहा- हे लक्ष्मी उस गणिका ने देह त्याग चांडालनी की देह पाई। कई दिन के पीछे एक दिन नर्मदा नदी के तट पर चली जाती थी वहां क्या देखा कि एक साधु गीता के तेरहवें अध्याय का पाठ कर रहा है उसने पाठ सुन लिया। जैसे ही साधु ने अध्याय पढ़कर भोग पाया उस चांडालनी के प्राण छूट गए। देव देही पाई। जब वह आकाश मार्ग से आये विमान पर बैठकर बैकुण्ठ को चलने लगी तो साधु ने पूछा- अरी चांडालनी तूने कौन पुण्य किया जिसके करने से तू बैकुण्ठ को चली है चांडालनी ने कहा- हे संत जी! उस तेरे गीता पाठ के श्रवण कर मैं देवलोक को चली हूं। तब उस चांडालनी ने कहा- हे साधु जी! कोई ऐसा कर्म करो कि जिस सिंह ने मुझे पूर्व गणिका के जन्म में खाने से मेरा इस जन्म उद्धार हुआ है उसको भी साथ ले चलु, तब उस साधु ने प्रार्थना स्वीकार कर गीता जी के एक अध्याय के पाठ का फल उस सिंह निमित दिया। तत्काल उस सिंह की देह छुटी, देव देह पाई, दोनों बैकुण्ठ वाशी हुए और परम धाम को गये। तब श्री नारायण जी ने कहा- हे लक्ष्मी! प्रीति साथ पढ़ने की बात का फल क्या कहूं । अगर अनजानपने से पढ़े और श्रवण कर ले तो भी मेरे परम धाम को प्राप्त होता है और यह तेरहवें अध्याय का महात्म्य है जो तुमने श्रवण किया है।
इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य तेरहवां अध्याय संपूर्णम्।।