श्री कृष्णाय नमः
★★★★ अथ चौदवहां अध्याय प्रारम्भते ★★★★
गुण त्रय विभाग- योग
श्री कृष्ण भगवान जी अर्जुन के प्रति कहते हैं, हे अर्जुन! फिर मैं….
हे अर्जुन यह कामना करें जीव का नाश।
जिसको निशि बास रहे धन लेने की आश।।
जोड़-जोड़कर लक्ष्मी धरे तिजोरी बीच।
वह तमाम नर जानिये वही जगत में नीच।।
ऐसा नर संसार में यश रंचक नहीं पाय।
जब त्यागे इस देह को तुर्त नरक में जाय।।
इस कारण सब कामना करो मित्रवर दूर।
भाव सदा निष्काम हो करलो युद्ध जरूर।।
….तुझको परम ज्ञान सो सर्व ज्ञानों से उत्तम है कहता हूं। जिस ज्ञान के जानने से मेरे भक़्त मुनीश्वर परमसिद्ध मेरे परमानंद अविनाशी पद में जा प्राप्त होते हैं जिन्होंने मेरा इस ज्ञान का आश्रय लिया है और जिन्होंने मेरा यह ज्ञान सुना है कि श्री कृष्ण भगवान जी ऐसे बड़े हैं, ऐसा पहचान कर जिन्होंने मेरा आश्रय लिया है, मेरी शरण आये हैं उनको मेरे जैसा ही धर्म होता है, अर्थात मेरा भक़्त संसार की प्रलय के साथ प्रलय नहीं होता। जैसे मैं संसार की उत्पत्ति के साथ उत्पन्न और संसार की प्रलय के साथ प्रलय नहीं होता और यह मेरा धर्म है, तैसे ही तू मेरे भक्तों की जान। हे अर्जुन! यह अपने ज्ञान की बड़ाई और फल कहा है। हे अर्जुन! वह ज्ञान भी सुन- मेरा नाम महद् ब्रह्म है, सो क्या कारण ? तिसका अर्थ सुन- जब संसार की प्रलय होती है तब सारे को अपने उदर में रख लेता हूं, जब संसार के उपजाने का समय आता है तब अपने उदर से प्रगट कर लेता हूं, इसी कारण से मेरा नाम महद् ब्रह्म है। महद् ब्रह्म अर्थात बड़ा ब्रह्म हूं। कुन्तिनन्दन! एक ही ईश्वर से अनेक भान्ति का संसार प्रगट हुआ। जितने देहधारी पीछे वरते हैं और जितने अब हैं और जितने आगे होवेंगे सो उनको देख किसी जैसा कोई नहीं और ही और भांति के हैं, तिनकी आकृति प्रकृति भिन्न-भिन्न है, तिनके शब्द पृथक पृथक हैं। अर्जुन वीर्य के देने हारा पिता हूं, सात्विक, राजस, तामस यह तीनों गुण जो देहों में व्यापते हैं और यह अविनाशी जीव जो सब देहों में व्यापता है, सो माया साथ तीनों गुणों साथ मिला हुआ बांधा है। जिस प्रकार यह जो तीनों गुणों साथ बांधा है सो सुन- प्रथम सात्विक का वृतांत सुन- निर्मल पवित्र इंद्रियों में प्रकाश, मन में निर्मल प्रकाश अज्ञान रोग से रहित आरोगी और अंध निष्पाप। इस प्रकार यह जीव सात्विक गुण से बांधा है। अब अर्जुन राजस गुण का वृतांत सुन- कुटुंब के लोगों के साथ मोह ममता यह मेरी है यह उनकी है, द्रव्य कमाने की तृष्णा सो इस प्रकार जीवन जो गुण से बांधा है। हे अर्जुन! यह ऋण सम्बन्धी सब कुटुंब के लोग हैं, इस प्रकार जैसे बेड़ी का पुर नाव में सब लोग इकट्ठे होते हैं तैसे कुटुम्भ के लोग इनके साथ दृढ़ ममता मोह जीवन लगा रखी है यह राजस गुण है अब तामस गुण का वृतांत सुन- तामस गुण जो है उसको तू मोह अज्ञान जान। असावधानता गोविंद का विस्मरण आलस्य होना, अति निद्रा, इस प्रकार जीव तामसी गुण में बांधा हुआ निंद्रा, आलस्य, असावधानता था यह तीनों देह धारियों को मोहने हारे हैं और तामस से उपजते हैं गुण मनुष्य को उपजाते है और हे भारतवासियों में श्रेष्ठ अर्जुन! राजस गुण कर्म को प्रगट करता है, निष्काम नहीं रहने देता और अज्ञान असावधानता यह तामस के गुण से प्रगटे हैं यह तीनों गुण सदैव देह में बर्तते हैं, कभी सात्विक, कभी राजस कभी तामस बढ़ते-घटते भी हैं, जब बढ़ते हैं तब जानने में आ जाते हैं। सात्विक के बढ़ने से देह के सब द्वारों में प्रकाश होता है, निर्मल नेत्रों से निर्मल प्रकाश नासिक से निर्मल स्वास चलते हैं, श्चोत्रो में सूर तिभलो होय, देह निर्मल होय, आरोग्य होय दोनों ऊपर तले के द्वार स्वच्छ मन में परमेश्वर का स्मरण होवे। इन लक्षणों से जाने मेरी देह में सात्विक गुण हैं! हे अर्जुन! जब रजोगुण बढ़ता है तब द्रव्य बढ़ाने का लोभ होता है लोभ से सदा कार्य में लगा रहे। निष्काम कभी ना बैठे, तब जाना राजस गुण बड़ा है। जब तामस गुण बड़े तो सब देह के द्वारों में प्रकाश थोड़ा तथा आलस्य निद्रा हो तब जाना तामस गुण बड़ा है। अब और सुन- जब तामस गुण के बड़े से देह का त्याग होवे तब मूढ़ योनि जो पशु है सो पाए है अज्ञानी तिसको ही प्राप्त होता है। अब अर्जुन! तीनों गुणों के फल कहता हूं- सात्विक गुण का फल निर्मल, राजस गुण का फल दुख, तामस गुण का फल अज्ञान, सात्विक गुण से ज्ञान उपजता है, रजोगुण से भय उपजता है, तमो गुण से असावधनता, मोह, अज्ञान उपजे है। जिन मनुष्य की सात्विक प्रकृति है सो देह को त्याग ऊपर के लोक को पाते हैं जिनकी राजसी प्रकृति है सो देह को त्याग के पृथ्वी पर जन्म पाते हैं जिनकी तामसी प्रकृति है सो देह को त्याग के पृथ्वी तले पाताल लोक में प्राप्त होते हैं। हे अर्जुन मैं इन तीनों गुणों का कौतुक देखने हारा हूं। इन गुणों में अतीत हूं, ऐसा मुझको पहचाने सो मेरे परमानंद अविनाशी पद में जाय प्राप्त होते हैं। फिर मैं कैसा हूं इन तीनों गुणों का निर्णय करने हारा हूं, जीव देहों की उत्पत्ति करता हूं, तीनों गुणों से अतीत हूं, ऐसा जो प्राणी मुझको पहचाने सो जन्म मरण और बुढ़ापे के दुखों को काट कर मुक्त्त होता है, इस ब्रह्म ज्ञान का अमृतपान करने से संसार में जन्म मरण नहीं पाता है न मरता है। अर्जुन यह वचन सुनकर दीन दयालु श्री कृष्ण भगवान जी से पूछता है। अर्जुनोवाच-
हे भगवान कृपा निधान जी! यह जीव जो तीनों गुणों से बांधा है इसके छूटने की विधि कहो और जो देह साथ होते ही तीनों गुणों से अतीत है का वृतांत भी कहो। अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान जी बोले- हे अर्जुन।
तिस के लक्षण कहु जिससे तुझको जिससे समझो कि यह तीनों गुणों से रहित है
जो देह साथ होते हुए भी तीनों गुणों से अतीत है तिनके लक्षण सुन- जो गुण देह विखे उपजते वर्तते है उन नित कर्मों को कहा नही जाता। कल्पना न करे जो यह गुण बुरा है और उस गुण के दूर होने की वांछा न करें जो यह दूर हो जावे ऐसा गुणों से उदास रहे। इससे मेरा क्या प्रयोजन है ? जैसे विष्णु की माया गुणों को उपजाती है तैसे ही देह में स्वभाव से मिले हुए गुण वर्ते हैं, मैं आत्मा रूप इस से न्यारा हूं इस प्रकार गुणों से प्रेरित होकर चले नहीं। फिर कैसा हूं- दुख सुख में एक समान स्तुति निन्दा में एक जैसा कंचन, माटी पाषाण एक समान जाने, आदर अनादर करने से सुखी दुखी न हो, शत्रु मित्र एक जैसे जाने किसी बुरे कार्य का आरम्भ न करें। हे अर्जुन! तूने तीनों गुणों से अतीत का प्रश्न किया था, जिस के लक्षण कहे हैं। अब जिस प्रकार यह तीनों गुणों से अतीत होवे सो सुन- हे अर्जुन! मुझे विश्वम्भर जानकर केवल मेरे में श्रुति लगावे और सब अवतारों से मन उठाकर शीतल स्वभाव ही मेरी भक्ति में मन देवे और हे प्रभु! मैं तुम्हारा दास हूं और तुम करतार सबके कर्ता हो, मैं दान अनाथ हूं, कृतघ्न हूं, तेरे गुण किए को मैं नहीं जानता, तेरे बिना और प्रभु नहीं, मैं तेरे आधीन हूं, हम कर्म यन्त्र में पढ़ भ्रमते हैं, तू इस यंत्र का सूत्रधार है। हे देव! मैं तेरी शरण हूं, तू सबका आश्रय है। हे अर्जुन जो इस प्रकार मेरा दास होवे, केवल अवांछा हो के मेरी ही शरण आवे, सो वह इन तीनों गुणों से अतीत होता है और देह के साथ होते ही मुक्ति पावे हैं और जीवन मुक्त्त होते हैं यह मार्ग तीन गुणों से अतीत होने का है, सो मैं कैसा हूं ? उस आत्मा का प्रताप सुन इतनी बातों का नाम ब्रम्ह है- एक तो यह सारा विश्व जो है ब्रम्हरूप है एक वेद शास्त्र यह सब शब्द ब्रह्म है और मुक्ति का नाम भी ब्रम्ह, मुक्तिधाम बैकुण्ठ का नाम भी ब्रम्ह, इस सब ब्रम्ह का मैं ही ठाकुर हूं, इन सब की शोभा में ही हूं, ब्रह्म सो कैसा हूं, अविनाशी हूं, ना मरता हूं, ना जन्मता हूं पुरातन सबसे पहले धर्म रूप इन तीनों लोकों में बसने हारा और इनसे अतीत भी मैं हूं, गुण ग्राहा सुख का समुद्र परमानन्द भगवान का प्यारा हूं।।
इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे गुणत्रय योगो नाम चौदहवां अध्याय।।
★★★★ अथ चौदहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★
श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी! उत्तर के देश सरस्वती क्षेत्र में एक बड़ा विद्वान राजा था, राजा का नाम सूर्यवर्मा था। संगलदीप के राजा के साथ उसकी प्रीति थी। एक समय संगलदीप के राजा ने संगलदीप से बड़े जवाहर, मोती, घोड़े बहुत कीमत के एक भेंट के रूप मे अपने मित्र को भेजे। तब उतर देश के राजा के मन में विचार आया कि मैं क्या भेजूं, एक दिन अपने मंत्री को बुलाकर उससे पूछा कि हम क्या भेजें, मंत्री ने कहा जो वस्तु वहा ना होवे सो भेजनी अच्छी है, तब राजा ने कहा और तो सब वस्तुओं वहां है एक शिकारी कुत्ते नहीं हैं सो वहां शिकारी कुत्ते भेजो। सोने की जंजीरों के साथ बंधे हुए कुत्ते मखमलों के गद्देले लगाकर डोलियों में बिठाकर उत्तर के राजा ने वहां भेंट रूप में पहुंचाये। उन्हें देखकर राजा अति प्रसन्न हुआ कहा यह शिकारी कुत्ते यहां नहीं थे यह मेरे मित्र ने बहुत भला किया हम शिकार खेला करेंगे। कई दिन गुजरे, एक दिन राजा शिकार खेलने चला और भी शिकारी साथ चले। उत्तर देश के राजा ने एक और राजा के साथ शर्त बांधी जिनका कुत्ता शिकार मरेगा सो वही उसे लेवेगा। दोनों राजाओं ने अपने अपने कुत्ते छोड़े, एक झुंड से एक ससा निकला, सभी कुत्ते उसके पीछे दौड़े ससा दूर निकल गया और कुत्ते पीछे दौड़ते रहे। उतर
देश के राजा का कुत्ता जैसे ही ससे को पकड़ने लगा तो लोगों ने शोर किया। ससा कुत्ता के पंजों से छूट गया और उत्तर के राजा का कुत्ता पीछे रह गया। ससा फिर भागा, कुत्ते के पंजे ससे को लगे थे,उसके शरीर से रुधिर टपकता जा रहा था। ससा भागता जा रहा था और संगल के राजा का शिकारी कुत्ता ही उसके पीछे दौड़ता रहा बाकि सब पीछे रह गए। जाते-जाते वन में एक कच्चा तालाब पानी का भरा था, उस तलाब पर एक कुटिया भी थी, वहां एक साधु रहता था। उस तालाब में ससा जा गिरा, कुत्ता भी उसके पीछे तालाब में जा घुसा। इतने में राजा भी घोड़ा दौड़ाकर वहां पहुंचा, क्या देखा दोनों मरे पड़े हैं और दिव्य देह पाकर बैकुंठ को चले हैं उन्होंने राजा को देखकर धन्यवाद किया और कहा राजा तुम धन्य हो तेरे प्रसाद से हमने देव देहि पाई, राजा ने पूछा वह कैसे ? उन दोनों ने कहा हम नहीं जानते। पर इस जल को छूने से देव देही मिली है राजा ने कहा धन्य मेरे भाग्य जो तुम्हारा उद्धार हुआ है। वह दोनों बैकुंठ को गए। तब राजा उस तलाब पर जो कुटिया थी उसमे गया और उसमे जो संत रहते थे उनको नमस्कार करके पूछा- हे संत जी, यह वार्ता कहो यह कौतुक मैंने आश्चर्य जनक देखा ससा और कुत्ता दोनों का इस जल के स्पर्श करने से उद्धार हो गया, यह जल कैसा है ? उस संत ने कहा- हे राजन! मेरा गुरु यहां रहता था नित्य स्नान करके गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ किया करता था, मैं भी स्नान करके गीता का पाठ करता हूं, राजा ने कहा धन्य हो संत जी आपके प्रताप से ऐसी जूनों का उद्धार हुआ है मेरे भी धन्य भाग है जो आपका दर्शन हुआ है संत ने कहा राजा तुम कहां के राजा हो उसने कहा मैं इसी देश का राजा सूर्यवर्मा हूं, तब राजा ने कहा- हे संत जी! मुझको इन दोनों कि पिछली कथा सुनाओ इन्होंने क्यों यह जूनी पाई यह कौन थे। तब संत ने कहा- राजन! यह ससा पिछले जन्म में ब्राह्मण था, अपने जन्म से भ्रष्ट हुआ था। यह कुत्तिया इसकी पत्नी थी, यह स्त्रीयों को बहुत खीजाया करती थी। एक स्त्री ने इसे विष देकर मार दिया। कुछ समय पश्चात यह ब्राह्मण भी मर गया। जब दोनों मर कर यमलोक में गये तब धर्मराज ने हुक्म दिया कि इस ब्राह्मण को ससे का जन्म दे दो और इस स्त्री को कुत्ते का जन्म दे दो। इनके दोनों ने धर्मराज से पुकार की थी कि हमारा उद्धार कब होवेगा। तब धर्मराज ने कहा- जब श्री गीता जी के चौदहवें अध्याय का पाठ करने वाले संत के स्नान का जल स्पर्श होगा तब तुम्हारा उद्धार होगा, इन दोनों का धर्मराज के वर से उद्धार हुआ हैं तब राजा संत जी को नमस्कार करके अपने घर वापिस आया। अपने पंडित जी से नित्य प्रति श्री गीता जी के चौदहवें अध्याय का पाठ सुनने लगा। नित्य प्रति सुनने से राजा का भी उद्धार हुआ। देह त्याग कर राजा भी बैकुण्ठ को गया। श्री नारायण जी ने कहा- हे लक्ष्मी! यह चौदहवें अध्याय का महात्म्य है जो मैंने कहा तूने श्रवण किया है।
इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम चौहदवाँ अध्याय संपूर्णम्।।