श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ पन्द्रहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

परुषोत्तम योग

श्री भगवानोवाच- श्री कृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं हे अर्जुन! यह संसार वृक्ष रूप है, इस वृक्ष का मूल आदि जड़ ऊपर है, शाखा तले है यह उल्टा वृक्ष है, जब मनुष्य माता के गर्भ में होता है तब सिर तले होता है, यह सिर इस मनुष्य रूपी वृक्ष की जड़े हैं, चरण हाथ इसकी शाखा है। जब गर्म से बाहर निकलता है तब उल्टा ही चलता है, इससे यह उल्टा वृक्ष है, हे अर्जुन! इसका विनाश…..

अर्जुन सुन ध्यान से गज इक भक्त महान।
एक दिवस सरिता विखे पहुंचा करने स्नान।।
पकड़ा उसको ग्राह ने निर्बल था गजराज।
सुनकर गज की टेर को पहुंचे भव के ताज।।
ग्राह को मारा तुर्त गज को लिया बचाय।
इस प्रकार निज भक्त की करते नाथ सहाय।।
जो मेरे आश्रित सदा उनका मैं रक्षपाल।
पंचदश अध्याय में इमि कहते गोपाल।।

हुआ भी कहते हैं और अविनाशी भी कहते हैं, इसका अर्थ सुन- आत्मा अविनाशी है और देह विनाशी है इससे देह विनाशी कहते हैं और वेद इस वृक्ष के पत्र हैं इस वृक्ष को पहचाने सो वेद का पूर्ण पंडित कहावे है और यह वृक्ष ऊपर ब्रह्मा के लोक और तले शेषनाग के लोक तक पधार रहा है और सत्व, रज और तम यह तीनों गुण इस वृक्ष के डाल हैं। देखना, सुनना, सुघना, खान, पहरना इस वृक्ष को गुच्छे लगे हैं और इस वृक्ष की भूमि कौन है जिस पर वृक्ष लगा है ? सो सुन- हे अर्जुन! मैं और मेरा ही चैतन्यता से इस पृथ्वी पर यह वृक्ष लगा है, यह मैं, यह मेरी है, यह मेरी जाति है, यह मेरा नाम है, तिस पर वृक्ष लगा है। पवन से गिरने के भय से इसको जेवड़े कौन बन्धे हैं पवन झखड़ कौन है ? जेवड़े ऋण संबंधी कुटुंब के लोग हैं इनसे वृक्ष बांधा हुआ है और इस वृक्ष को जान नहीं सकते, क्योंकि इसका आदि अन्त पाया नहीं जाता, मैं मेरी की चैतन्यता पर दृढ़ लगा है झखड़ यह है, यहां मेरे संत मेरी महिमा को गाते, सुनते, पढ़ते गीता भागवत इत्यादि इस झखड़ कर के संसार वृक्ष देह के जीव का कुछ नहीं रहना है। हे अर्जुन! इस माया रूपी वृक्ष पर यह जीव फंसा हुआ है इस वृक्ष के काटने का उपाय सुन- प्रथम कुटुंब के लोगों को संग त्याग, यह असंग एक शस्त्र हुआ। परम पुरुष पर दृढ़ निश्चय करना यह हुआ असंगत रूपी खंडग, पुरुषार्थ रूपी हाथों में पकड़ जब असंग हुआ जिसके पीछे तिन परम पुरुष के मार्ग पर सावधान होकर चले जिसको पाकर फिर संसार के जन्म मरण को ना पावे। सावधान हो तो क्या- दोनों हाथ जोड़कर सिर निवाय नमस्कार कर मुख से कह, हे आदि पुरुष विश्वम्भर जगदीश! मैं तेरी शरण हूं! अर्जुन! आदि पुरुष का अर्थ और प्रताप सुन- कई कोट बैकुण्ठ के ऊपर तिनका स्थान है और निराधार आसन है, अपने आधार पर विराजमान है उस आदि पुरुष के स्थान से कई कोट ब्रह्मण्ड, कई कोटि चौरासी लाख जीव, और ही, और भांति के निरंतर निकलते ही रहते हैं, आप फिर पूर्ण का पूर्ण सदा अटल, यह आदि पुरुष का प्रताप है। विश्व को करता रहता है, सर्व जगत का ईश्वर है, कुटुंबादि का त्याग कर ऐसे आदि पुरुष की शरण आवे और अपना मान दूर करके कहे कि मैं किसी जैसा नहीं निष्कपटी
एकान्त वासी निरबन्धन निर्मोही एक पारब्रह्म की सेवा करें। हे अर्जुन! स्वास के अंदर बाहर आते जाते मेरा ही नाम जपे है, आदिपुरुष भगवान मैं तेरी शरण हूं। यह जाप जपे मेरी चरणों की सेवा करें, मेरे स्मरण बिना किसी की कामना न करें। इस प्रकार जो भक्त मेरी शरण आता है उसको मैं दुख-सुख, हर्ष-शोक, शीत-उष्ण आदि विकारों से पूर्ण इस संसार समुद्र दुख रूप से अपने ज्ञानी भक़्त को मुक्त्त करता हूं और अपने अविनाशी पद में प्राप्त करता हूं, कैसा है अविनाशी पद ? जहां सूर्य चंद्रमा की गम्यता नही, जहां पर जाकर फिर नहीं आवे सो ऐसा परमानन्द अविनाशी घर मेरा है इस आदि पुरुष अविनाशी पद में जो प्राप्त हुए हैं तिनका वृत्तांत मैंने कहा है। अब अर्जुन और सुन- यह जो सब लोकों में जीव भूत है सो मेरा अंश है यह सनातन पुरातन पांच इंद्रियां छटा मन यह छः इस जीव को अपने गुणों की और खैंचते हैं। अब शरीर को त्यागना और लेना क्या है सो सुन- इस देह का ईश्वर जो जीव है सो जीव जब देह को त्यागता है तब यह जीव की उलांघ है, जैसे एक चरण टिकाया, दूसरा उठाए आगे रखा, फिर पिछला चरण उठाएं आगे रखा, जब आगे ठोर पाई जाती है, तब पिछला चरण उठाए आगे रखना है तैसे ही हे अर्जुन! देह त्यागना और देह का लेना इस जीव की उलांघ मात्र है, जैसी वासना को लिए देह को त्यागे है सो वासना साथ ले जाता है। कैसे ? जिस तरह पवन किसी वस्तु को छू कर चलती है तैसी वासना आती है- नेत्र, श्रोत, स्पर्श, त्वचा, जीव्हा, नासिका यह पांचों इंद्रियां, इनका अधिकारी छटा मन, इसके साथ मिलकर यह जीव विषयों को भोगता है, खाता, पीता, चलता, बैठता और जो कार्य करता है सो सब जीव करे हैं, इंद्रिया और मन के साथ रला मिलकर करे हैं पर यह कौतुक मूढ़ प्राणियों को नहीं दिखाता। जो प्राणी ज्ञान नेत्रों से संयुक्त है इस कौतुक को देखते हैं। सो ज्ञान नेत्र किस प्रकार होते हैं ? हे अर्जुन जब मेरे स्मरण ध्यान योग साथ जुड़े हैं तब स्मरण कर ज्ञान उपजे है, इन योगियों में भी कोई इक जो मेरे स्मरण से पवित्र हुआ है तिसको ज्ञान उपजे है, तिस ज्ञान के उपजने से मेरी रचना का कौतुक देखता है। यह सूर्य जो अपने प्रकाश से सब लोकों का अंधकार दूर करे हैं, उस सूर्य में तेज प्रभु का जानो। ऐसा ही चंद्रमा में जो तेज है, सो भी प्रभु का जानो। पृथ्वी जो जड़ है चैतन्य, स्थावर जंगम को धारकर भूत प्राणियों को अपने ऊपर लेकर खड़ी है सो तिस पृथ्वी का तल बल प्रभु का जानो, उस प्रभु के आश्रय है और जितने मनुष्य के अंश है- अन्न घास, तृण, वृक्ष इन सबको चंद्रमा की किरणों द्वारा रस अर्थात स्वाद से मैं ही भेजता हूं और आप ही सर्वभूत प्राणियों के हृदय में अग्नि होकर व्यापता हूं, प्राण वायु ऊपर की अपान वायु तले की, यह उदर में और अग्नि और प्राण वायु साथ जो प्राणी चार प्रकार के भोजन करते हैं तिस अन्न को मैं ही पचाता हूं। लेहज, पेहजभक्षय, भाज्य यह चार प्रकार के अन्न है जो अग्नि कर सीधा पकाया जाये, भूना जाए सो भक्षय कहिये और जो कच्चा अन्न है चावल चने मोठ इत्यादि जो कच्चा अन्न खाईये सो अन्न भोज्य कहावे है और ककड़ी, खरबूजा, तरबूज, गन्ना, आम इत्यादि लेहज कहलाते हैं। दूध, दही, छाछ, शर्बत पानी यह पेहज है। यह चार प्रकार के अन्न है और सबके हृदय में मैं ही विराजता हूं, सबके हृदय में बैठ के ज्ञान देके मनुष्य से भले कर्म मैं ही करता हूं अज्ञान देकर अपकर्म पाप मैं ही करता हूं, वेदों में पहचानने योग्य मैं ही हूं, अन्त वेदों के जानने हारा भी मैं ही हूं, वेदों का अन्त करने हारा भी मैं ही हूं, अन्त वेदों की मति सो अपनी मति से स्तुति करते हैं। सब महिमा करते हैं वेद की मति कही जाती है तब वेद नेती-नेती करते हैं जो तुम्हारी महिमा के जानने को असमर्थ हूं, इस कारण से वेदों का अन्त करने हारा मैं हूं। अब अर्जुन और सुन- यह जो देह धारियों का पसारा है सो सभी पसारा दोनों पुरुषों का है, एक पुरुष वीनस जाता है दूसरा अविनाशी रहता है इन दोनों का वृतांत सुन- यह जो बहुत तत्वों का शरीर पुरुष है सो वीनस जाता है, दूसरा जीव पुरुष है सो अविनाशी है, यह इन दोनों के विस्तार हैं। फिर इन दोनों से तीसरा पुरुष उत्तम है जिसे परमात्मा कहते हैं तिसका महात्म्य प्रताप सुन- जिस आत्मा के नेत्र उघड़ने (उठाने मात्र) से ब्रह्मा आदि चींटी पयन्त भूत प्राणियों की पालना होती है फिर उसी के यह स्तम्भ धारे हुए हैं और तब तिस परमात्मा की पलक लगती है, चौदह भवन प्रलय हो जाते हैं ऐसा महाप्रतापी है इसी से तिसको आत्मा कहते हैं, तिसको पुरुषोत्तम भी कहते हैं। उसका अर्थ सुन- विनसया हुआ जो शरीर सो पुरुषोत्तम से अतीत है, दूसरा जो अबिनाशी पुरुष
तिसमें उत्तम है, इसी से लोक वेदों में परमात्मा कहते हैं, हे अर्जुन! जो पुरूषोतम पुरुष मैं ही हूं और जिन भक्तों ने मुझको पुरुषोत्तम पहिचाना है फिर उनको और क्या करना है ? सर्व सिद्ध पलों में मेरा ही भजन करें हैं, हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार शास्त्र वेद द्वारा मुझको पहिचाने, मेरे चरणों में दृढ़ निश्चय करें तो निश्चय कृतार्थ होगा, मेरा पद को प्राप्त होगा।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे देवासु सयास नाम पन्द्रवां अध्याय

★★★★ अथ पन्द्रहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी अब पन्द्रहवें अध्याय का महात्म्य सुन- एक देश में एक नरसिंह नाम राजा था और उसका सुभग नाम मंत्री था, राजा को मंत्री पर भरोसा था वह उसे बहुत अच्छा समझता था, परंतु मंत्री के मन में कपट था, वह यही चाहता था कि राजा को मारकर राज्य मैं ही करूं। इसी भांति ही कुछ काल व्यतीत हुआ। एक दिन राजा सोया पड़ा था और नौकर-चाकर भी सोये पड़े थे तब मंत्री ने राजा और उसके नौकर समेत मार दिया और आप राज्य करने लगा। राज्य करते बहुत काल व्यतीत हुआ। एक दिन वह भी मर गया, यमदूत उसको यमराज के पास बांधकर ले गए धर्मराज से कहां हे यमदूतों यह बड़ा पापी है इसको घोर नरक में डालो। हे लक्ष्मी! इसी प्रकार वह पापी कई नरक भोगता-भोगता धर्मराज की आज्ञा से घोड़े की योनि में आया। एक राज्य में जा घोड़ा हुआ, घोड़ों का एक सौदागर ने उसे और अन्य घोड़े खरीद अपने देश को आया। वहां के राजा ने सुना कि अमुक सौदागर बहुत घोड़े लाया है तब राजा ने उसे बुलवाया, घोड़े देखकर उस घोड़े को भी खरीद लिया। जब राजा ने उस घोड़े को फेरा तब उसने राजा की ओर देखकर सिर फेरा ? तब राजा ने देखकर कहा क्या कारण है कि यह घोड़ा बार बार सिर फेर रहा है ? तब राजा ने पंडित को बुलवाकर पूछा कि यह घोड़ा आज ही खरीदा है और यह बार सिर फेर रहा है, तब पंडित ने कहा राजन इस घोड़े ने तुमको सिर नवाया है। राजा ने कहा यह बात नहीं, कई दिन बीते एक दिन राजा उस घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने को गया, वह घोड़ा जल्दी चलता था, राजा शिकार खेलता खेलता बहुत दूर चला गया, पहले राजा शिकार को बहुत दूर से तीर मारता था उस दिन नजदीक से तलवार मारकर मारने लगा। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ, दोपहर हो गई राजा को तृष्णा लगी, राजा ने वन में एक अतीत देखा और कुटिया में बैठा है उस कुटिया के नजदीक तलाब जल से भरा है वह राजा घोड़े से उतरा और उस घोड़े को एक वृक्ष के साथ बांधकर कुटिया में गया देखा तो साधु अपने पुत्र को गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पाठ सिखा रहा है। साधु ने अपने पुत्र को वृक्ष के पत्ते पर श्लोक लिखकर दिया और बालक को कहा जाओ खेलते फिरो और इसको कण्ठ करो। जिस वृक्ष के साथ राजा ने घोड़ा बांधा था, उस वृक्ष के पत्ते पर ही साधु ने श्री गीता जी का श्लोक लिखा था। वह बालक पता लेकर खेले भी और पढ़े भी। जब वह बालक खेलते खेलते उस वृक्ष के पास गया जहां घोड़ा बंधा था तो उस पत्ते को घोड़े ने देख लिया तत्काल उस घोड़े की देह छूट गई और देव देवी पाई स्वर्ग से विमान आये उन पर बैठकर घोड़ा बैकुण्ठ को चला और आकाश में जा खड़ा हुआ इतने में राजा पानी पीकर बाहर आया देखा तो देखा घोड़ा मरा पड़ा है। राजा ने चिन्तावान
होकर कहा यह घोड़ा किसने मारा, क्या हुआ ? इतने मे आवाज आई, हे राजन! तेरे घोड़े का चैतन्य मैं हूं मैंने अब देव देहि पाई है और बैकुंठ को चला हूं। राजा ने पूछा तुमने कौन पुण्य किया है ? उसने कहा, राजन यह बात साधु से पूछो। राजा ने उस ऋषिवर (साधु) को बुलाकर पूछा हे ऋषिवर जी! यह क्या कारण हुआ है ? ऋषिवर ने कहा हे राजन! गीता का लिखा हुआ पत्ता इसके आगे पड़ा है घोड़े ने अक्षर देखे हैं इस कारण घोड़े की गति हुई। राजा ने पूछा पीछे जन्म यह घोड़ा क्या था और घोड़े के सिर फेरने की बात भी राजा ने कहीं। ऋषिवर जी यह बात मुझे सुनाओ कि मेरा और घोड़े का क्या संबंध था ? ऋषिवर ने कहा- हे राजन! पिछले जन्म में तू राजा था यह तेरा मंत्री था यह तुम को मारकर राज्य करता रहा। तू फिर राजा हुआ, यह मर कर धर्मराज के पास गया तो धर्मराज ने धिकार कर कहा, इस पापी कृतघ्न को खूब नरक भगाओ। बड़े नरक भोगता भोगता घोड़े के जन्म में आया। तेरे राज्य मे आकर तेरे पास बिका, जब उसने सिर हिलाया तब कहता था हे राजन तू मुझे पहिचानता नहीं, परंतु मैं तुझे पहिचानता हूं। यह कहकर ऋषि जी चुप हो गये। राजा ने सिर झुककर ऋषिवर को दंडवत की, पीछे की और हटा इतने मे राजा के सैनिक भी वहां आ गए, राजा अपने सैनिकों के साथ रथ पर सवार हो अपने घर आया। अपने पुत्र को राज्य देकर आप वन को जा तप करने लगा और नित्य श्री गीता जी के अध्यायों का पाठ किया करता जिसके प्रसाद से राजा भी परमगति का अधिकारी हुआ। श्री नारायण जी कहते हैं हे लक्ष्मी यह पन्द्रहवें अध्याय का महात्म्य है जो मैंने कहा तूने सुना है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम पन्द्रहवां अध्याय संपूर्णम्।।