श्री कृष्णाय नमः
★★★★ अथ अठारहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★
मोक्ष सन्यास योग
अर्जुनोवाच- अर्जुन भगवान श्री कृष्ण देव जी से प्रश्न करते हैं कि हे महाबाहो ऋषिकेश भगवान जी, हे कैशो दैत्य के मारने हारे जी….
सुनकर गीता ज्ञान को बोले अर्जुन वीर।
सत्य कहूं घनश्याम जी उपजी मन में धीर।।
मानू आज्ञा आपकी करूं युद्ध मन लाय।
मोह नाश मेरा हुआ सिमृति पहुंची आय।।
धन्य आप हो यदुपते! कृपा आप ने कीन।
किया अनुग्रह दास पद सशय के क्षीन।।
जहां योगीश्वर कृष्ण है और मनुधर पार्थ।
वह विजय और लक्षमा बेजर कहे यथार्थ।।
….. हे प्रभु जी मैं तुमसे सन्यास और त्याग का तत्व जाना चाहता हूं की संन्यास किसको कहते हैं और त्याग किसको कहते हैं सो प्रभु जी! इन दोनों का उत्तर भिन्न-भिन्न कहो! अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान जी बोलते हैं। श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन! संसार की कामना के सभी कार्यक्रम त्याग कर मेरी शरण मे आना सन्यास है और मेरे चरण कमलों की शरण में आकर मेरी भक्ति बिना और किसी वस्तु की कामना न करना सन्यास है यह तो हमने अपने मन का संन्यास और त्याग कहा है। अब अर्जुन! जैसे शास्त्रों का मत है सुन- एक शास्त्र तो यह कहते हैं कि बुरे और भले कर्म दोनों त्यागिए क्योंकि भले कर्म का फल सुख और बुरे कर्म का फल दुख भोगना है। भला कर्म चरणों में सोने की बेड़ी है बुरा कर्म चरणों में लोहे की बेड़ी है इससे भले बुरे कर्म दोनों बंधन के दाता हैं, इसलिए इनका त्याग करना योग है। हे अर्जुन! एक शास्त्र यह कहता है कि यज्ञ दान, तपस्या, स्नान ऐसे सत्य कर्म नहीं त्यागने चाहिए यह पवित्रता के दाता हैं। यह कर्म करने से देह पवित्र होती है। हे भारतवंशी अर्जुन! अब निश्चय कर मेरे मत का त्याग सुन- त्याग तीन प्रकार का है, प्रथम तो मेरा मत यह है यज्ञ, दान, तपस्या स्नान यह मनुष्यों को पवित्र करते हैं, विवेकी पुरुष इनका त्याग नहीं करते जो भले विवेकी पुरुष हैं यह सत्य कर्म तिनके भले हैं। भले कर्म करके उनका फल बांछते नहीं इसी कारण से मेरे मत में वह बात भली है और सब बातों में श्रेष्ठ है कि कर्म के फल की वांछा ना करें, यह अति भला है और जो अज्ञान से आलस्य करें, सत्य कर्म त्याग कर कहे कि सत्य कर्म करने से क्या होता है जो प्राणी माया का मोहा हुआ सत्य कर्म त्यागे सो यह तामसी त्याग कहलाता है जो प्राणी देह के दुख के डर से नित्य कर्म त्यागे की स्नान करने से मुझे शीत लगता है हाथ दुखते हैं, इस प्रकार का त्याग तामसी कहता है, इसका फल नहीं पाते। हे अर्जुन! जो इस प्रकार सत्यकर्मी काम करे प्रथम तो कहे कि मेरा क्षत्रिय ब्राह्मण का जन्म दुर्लभ है, स्नान आदि कर्म करने तुझको भले हैं। अवश्यमेव कर्म करे और फल कुछ वांछा ना करें, ऐसा सात्विकी त्याग कहलाता है। हे अर्जुन! विवेकी पुरुष स्नान आदि सत्यकर्मी की निन्दा नहीं करते और न आप इन सत्य कर्मों का त्याग करते हैं, निश्चय से इन्हें करते हैं, फल कुछ वांछा नहीं करते। हे अर्जुन! ऐसे प्राणियों की बुद्धि निर्मल होती है तिस निर्मल बुद्धि से ज्ञान उपजता है जब मेरी महिमा का ज्ञान उपजा तब संसार के बंधन से मुक्त होता है। इससे हे अर्जुन! सत्य कर्मों का त्याग न करें, जैसे सीढ़ियों के मार्ग से मंदिर के ऊपर जा चढ़ता है, यह सत्य कर्म करने भक्ति की सीढ़ी है और जितने देहधारी हैं सो किसी देहधारी की शक्ति नहीं जो सत्य कर्म त्यागे। हे अर्जुन! जब पिता के वीर्य से माता के उदर में यह जीव आता है उसी दिन से लेकर मरने के दिन तक कामी यह निष्कर्मी नहीं होता और न यह जीव त्यागी होता है। हे अर्जुन! यह निष्कर्मी जब होता है सो सुन- प्राणी सत्य कर्म मुझको समर्पे, कुछ फल न मांगे तब यह जीव निष्कर्मी और त्यागी होता है। अब जो मनुष्य को नित्य ही अपने कर्म करने चाहिए सो तिनका तीन प्रकार का फल होता है सो सुन- भले कर्म का फल सुख, बुरे कर्म का फल दुख और जो भले बुरे कर्म को रला मिलाकर करें तो सुख दुख मिश्रित होता है, यह तीन प्रकार के फल हैं जो नित्य संसारी मनुष्य को होते हैं, पर किन को ? जो संसार को त्याग कर मेरी शरण नहीं आए। जो प्राणी त्याग कर मेरे चरणकमलों की शरण आए उनके निकट कोई दुख नहीं आता। अब अर्जुन और सुन- जितने कर्म देहधारी मनुष्य से होते हैं भले व बुरे सो सब देह, इंद्रियां, मन से होते हैं आत्मा कैसी है अकर्ता है कुछ नहीं करता, केवल एक ही है निर्मल का निर्मल है हे अर्जुन! तिसको उन्होंने पहचाना है, जिनकी निर्मल बुद्धि है सो तिस आत्मा को पहचानते हैं और दुर्मति अर्थात अन्धमति पुरुष आत्मा को नहीं देख सकते। हे अर्जुन! तिसको अहं बुद्धि नहीं की मैं जो आत्मा हूं अकर्ता हूं, कुछ नहीं करता जो कुछ भला बुरा कर्म होता है देह, इंद्रियों, मन से होता है, जिसकी ऐसी बुद्धि है सो वह सब लोगों को मारे तो उसको कोई देख नहीं सकता। किसी कर्म का उनको बंधन नहीं। अब अर्जुन तीन प्रकार का ज्ञान, तीन प्रकार के कर्म और कृत भिन्न-भिन्न सुन- पहले सात्विक ज्ञान सुन- जिस ज्ञान से सब प्राणियों में उसको एक अविनाशी आत्मा दृष्ट आता है तिसको मर्वव्यापक जानकर सबके साथ एक सा हो, वैर से दुख किसी को ना देवें, दुखदाई न, यह सात्विक ज्ञान कहलाता है और जब ज्ञान भिन्न-भिन्न दृष्ट हुआ कि यह और है और मैं और, यह तेरा है यह मेरा है, सो राजसी ज्ञान कहलाता है और जिस ज्ञान से सब कोई बुरे दृष्टि आ गए और सब के साथ बैर बांधा रहे सो ऐसा तामसी ज्ञान कहलाता है। अब अर्जुन कर्म सुन- जो इस प्रकार कर्म करे जो यह कर्म करता मुझको योग्य है फल कुछ वांछा नहीं यह सात्विकी कर्म कहलाता है जिस कर्म के करने से फल की वांछा है और अहंकार के साथ कहे कि यह कर्म राजसी कहावे है जिस कर्म किए से जंजाल बहुत होवे सो ऐसा कर्म राजसी कहावे है जिस कर्म में कोई बन्धन बांधना, किसी जीव को दुखाना, किसी का घात करना और ऐसा कर्म करने से अपना बल और बढ़ाई दिखाना इस प्रकार माया का महिया हुआ कर्म को आरंभ करें सो तामसी कहावे है और कर्म कर्ता सुन- जो इस प्रकार कर्म करे, यज्ञ महोत्सव, होम, श्राद्ध क्षाह इत्यादि जो सत्यकर्म है तिनको करें, फल कुछ न वांछे, अहंकार से रहित हो, कि मेरा कुछ नहीं, सब कुछ परमेश्वर का है और अधम से रहित जो कुछ है सो हो गुजरे और बिगड़े तो कल्पे नहीं, जो कुछ कार्य संपूर्ण हो तो प्रसन्ना हो न बैठे। वह क्या समझे मेरा कुछ नहीं, सब कुछ ईश्वर का है। हर्ष शौक से रहित हो, जो कुछ ईश्वर इच्छा से आ मिले सो स्वीकार करें, इस प्रकार सात्विक कर्ता कहावे है। अब राजसी कर्ता सुन- जीवो के दुखाने में जिसका स्वभाव और अपवित्रता हर्ष शोक कर संयुक्त जो यज्ञ करें व इसके फल को कामना में करें कि लोग मुझ को धन्य कहेंगे। इस निमित्त हर्ष होना, घर से जो द्रव्य व्यय होता है इस कारण से शोक होना यह राजसी कर्ता कहलाता है। अब तामसी कर्ता सुन- शास्त्र की विधि को ना समझे कि यह महोत्सव किस विधि से किया जाए, किसी को मस्तक न निवावे, महामूढ़ आलसी बिषापि किसी से लड़ाई करें, वह तामसी कर्ता है। अब हे अर्जुन! तीन प्रकार की बुद्धि और तीन प्रकार की दृढ़ता भिन्न-भिन्न सुन- जिस बुद्धि से गृहस्थ में सुखी रहे। भले कार्य को भला जाने व बुरे कार्य को बुरा जाने और यह भी समझे, कि इस बात में मुझको मुक्ति तथा इससे बन्धन होगा, जिस बुद्धि से यह बात समझे सो सात्विक बुद्धि है और जिस बुद्धि से धर्म का अधर्म जो बुरे का भला जाने, और कि और समझे यह राजसी बुद्धि के लक्षण हैं। जिस बुद्धि से धर्म का अधर्म जाने अर्थात जी घात करने से पुण्य जाने, यह बकरा मैं मारता हूं पुण्य होगा इत्यादिक और बातें समझे ऐसे धर्म को अधर्म उल्टे समझे तो तामसी बुद्धि कहावे है। अब दृढ़ता सुन- मन में किसी विकार को न चितवे और इंद्रियां सब वश में होवें, केवल एक प्रभु की शरण रहे, जब यह बात हो तब सात्विक दृढ़ता जान और जब मन अपने धर्म में सब प्रकार दृढ़, द्रव्य के काम में दृढ़, खाने पहनने में दृढ़ता हो तब तू राजसी दृढ़ता जान और जब महा घोर निद्रा में सो रहे और परम चिंता में मग्न और किसी से कलह विषाद यह तीनों लक्षण तामसी दृढ़ता में है। ऐसे दुर्बुद्धि वाले निद्रा, कलह, चिन्ता तीनों विकारों से अपने आप को मुक्त नहीं कर सकते। तिनको तामसी दृढ़ता जान। हे भारतवंशी अर्जुन! अब तीन प्रकार का सुख सुन- जो सुख कड़वा खाने नहीं भिष्ट सुखदायक अमृत तुल्य भोजन करें, प्रथम तप कष्ट साथ करे तब राज्य स्वर्ग फल पावे, यह सात्विक सुख कहावे हैं अब राजसी सुख सुन- जिसका फल दुख को प्रथम सुख को पाकर पीछे विष फल खाए यह राजसी कहावे है। अब तामसी सुख सुन- प्रथम बेसुरत निद्रा में आलस्य, असावधानता प्रभु को बिसारना सब से निपट शंका रहती तामसी सुख है। अब अर्जुन और सुन- स्वर्ग से लेकर पृथ्वी तल पाताल लोक, नाग लोक तक तीनो लोक माया से उपजे हैं, इन तीनों लोकों में माया के तीनों गुण वरते हैं इन तीनों ही गुणों के स्वभाव लोक में वरते हैं, लोकों में गुण है गुणों विखे लोक है इस कारण त्रिगुणात्मइ सृष्टि कही है। हे अर्जुन! अब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णों के स्वभाव की प्रक्रिया देह के साथ ही जन्मती है। प्रथम ब्राह्मण के स्वभाव की प्रक्रिया कहता हूं इंद्रियों को जीतना, मन जीतना, तप करना, भजन करना, पवित्र, क्षमा कोमल स्वभाव ज्ञान अपना और विज्ञान परमेश्वर का जानना और गोविंद में तत्व बुद्धि परमेश्वर का जानना, यह ब्राह्मण के स्वभाविक धर्म है। अब क्षत्री के स्वाभाविक धर्म सुन- शूर, तेजस्वी, राजयुद्ध से न भागने वाला, बुद्धिमान, दानी होना परमेश्वर ईश्वर में श्रद्धा होना यह क्षत्रिय के स्वभाविक लक्षण कहे हैं। अब वैश्य के स्वभाविक धर्म सुन- खेती करना, वाणिज, व्यापार गोवों की सेवा करनी यह वैश्य के स्वाभाविक धर्म है। अब शूद्र के सुन- तीनों ही वर्णों की सेवा करनी, जो प्राप्ति हो तिसमें संतोष रखना यह शूद्र के स्वभाविक धर्म है। यह चारों वर्णों के स्वभाविक हैं प्राणी इन अपने अपने कर्मों के करने से स्वाभाविक ही भली सिद्धि को पाता हैं। अपने कर्मों में दृढ़ हुए से जो फल उपजे सो क्या है ? पारब्रह्म सारी सृष्टि का जो कर्ता सर्व में रमा हुआ अविनाशी जिसको वे प्राप्त होवेंगे। हे अर्जुन! यह चारों वर्णों के जो धर्म कहे हैं इनमें सब को अपने अपने धर्म पालन से कल्याण होता है। अपना धर्म तुच्छ देखें दूसरे का धर्म बढ़ा देखें तब भी अपने धर्म ने ही इनको कल्याण देना है पराया धर्म इसकी सहायता न करेगा, अपने अपने धर्म करने से पाप नहीं, अपना धर्म मुक्त्ति का दाता है। ये चार वर्णों के धर्म कहे हैं। अब तीनों पद के लक्षण सुन- हे अर्जुन मेरा भजन करने से चारों अवगुण कट जाते हैं सहज पद को प्राप्त होता है, इसको चौथा पद कहते हैं, इसको सहज पद, तुरिया पद और सन्पद भी कहते हैं। जो प्राणी इस पद को प्राप्त होते हैं, उनको किसी कर्म त्यागने का दुख नहीं और जो सत्पद को पाकर किसी कर्म का आरंभ करें उसको बड़ा दोष है। सत्पद का दृष्टांत सुन- जैसे धुआं रहित निर्मल अग्नि जलती है तिस निर्मल अग्नि में धुंए वाली लकड़ी डाल दे तब वह निर्मल अग्नि को बिगाड़ देती है तैसे ही चौथे पद वाले को कर्म आरम्भ भी करना दोष है, कर्म को आरम्भ करना सत्यपद को बिगाड़ देना है, इस कारण जो तरिया पद में लीन हुआ तिसको कर्म का आरम्भ करना कुछ नहीं रहा। अब जो प्राणी चौथे पद में लीन हुआ है तिसके लक्षण सुन- मुख्य लक्षण यह है किसी से मोह ममता नहीं संसार के विषयों से अपना मन जीत रखा है, किसी वस्तु की इच्छा नहीं, कोई कामना नहीं, वह निष्कर्मी सिद्ध है तिस सुख के सामने और कोई सुख नहीं, इसी कारण से तिसको कोई वांछा नहीं। सो वह किस सिद्धि को प्राप्त हुआ है ? हे कुन्तिनन्दन! वह मेरे जानने के ज्ञान का पूर्णत्या प्राप्त हुआ है। तिसकी बुद्धि निर्मल हुई और महेश्वर पारब्रह्म विखे तिसको दृढ़ निश्चय हुआ है और संसारी लोगों की बातें नहीं सुनता और न आप किसी से बात करता है न किसी साथ प्रीति है न शत्रुता है, एकांतवासी मेरे स्मरण के सुख को पाकर पूर्ण हो रहा है। संसार में जिसने तीन बातें जीत रखी है अर्थात देह से, संसारी मनुष्यों से संग नहीं करता, जीहवा से बात नहीं करता, मन से संसारी लोगों की चितवना नहीं, इस प्रकार मन, देह, मनसा जीव ने यह जीत रखी है और नित्य-निरंतर मेरे ध्यान से जुड़ा हुआ है, सारे संसार से वैराग्यवान है। यह ऊपर ब्रह्म के लोक, तले शेषनाग के लोक के परम सुख को तृण समान जानता है, इसका नाम वैराग्य है फिर कैसा अहंकार बल! गर्भ काम, क्रोध इनको त्याग इनमें रमता नहीं और भोजन छादन से कुछ अधिक रखता नहीं, इसका नाम त्याग है। ये ही विकार त्यागे। और किसी वस्तु के साथ ममता मोह न रखें, ऐसा जो सत्य पुरुष है सो देह साथ होते भी मुक्त है, फिर वह कैसा हुआ ? ब्रह्म भूत क्या कहिये ? माया के तीन गुण सो काटे गए। जब तीन गुण काटे तब जैसा आत्मा ब्रह्म था तैसा ब्रह्म भूत ब्रह्म ही हुआ। इस कारण से तिसको ब्रह्म भूत ही कहिये, ब्रह्म भूत हुआ तब तिसका आत्मा प्रसन्न हुआ, तब कुछ गई वस्तु की चिन्ता न करें अनहोई वस्तु के आने की वांछा न करें, सब भूत प्राणियों से ममता दृष्टि हो, यह लक्षण तुरिया के हैं। जब तुरिया पद में मनुष्य आवे हैं मेरी भक्ति को तुरंत ही पाये है। मेरी भक्ति यह है जो मेरी महिमा का प्रताप जानना सो मेरा भक्त कैसा है ? तुरिया पद में लीन हुआ क्या ब्रह्म ज्ञान का प्रकाश हुआ सो भक्त प्रभु को जाने। सकल प्रताप प्रभु का माने, बढ़ाई महत्वता ब्रह्मबोध विचार इसको जाने, आगे और महात्म्य नहीं, तिस महिमा को जाना ही परम भक्त्ति है। सो क्षण-क्षण पल-पल राम नाम को सिमरे, हे अर्जुन! जिसने मेरी महिमा के ज्ञान रूप अमृत का पान किया सो जब लग मनुष्य देह में बसे तबलग परमशांति सुख में मग्न रहता है, जब देह त्यागे तब मेरे परमनिधि अविनाशी पद में जा लीन होता है। यह चौथे पद तुरिया शांतिपद के लक्षण कहे। जिसको भजन रूप अमृत का स्वाद आया है और साथ ही माया की प्रकृति त्याग करें हैं, सो मेरी कृपा से मेरे पद को प्राप्त होता है। इस कारण से हे अर्जुन! तू मन का निश्चल चेता मेरे में रख, मुझ साथ ही प्रीति कर, बुद्धि का निश्चल चेता मेरे में रखने से संसार के दुख से तर जावेगा और जो अपने अहंकार से मेरी आज्ञा न मानेगा तब तेरा विनाश हो जाएगा। जो तू अहंकार से कहें कि मैं युद्ध नहीं करता सो तेरा कहना झूठ है, क्यो- जैसी तेरी प्रकृति है तैसा तुझसे हो रहा है, कुन्तिनन्दन अर्जुन! जैसे जैसे स्वभाव के देहधारी उपजे हैं,वैसा स्वभाव, सो सब स्वभाव के वश है। स्वभाव किसी के वश नहीं। जो तू कुटुम्ब का मोहिया यह कहे कि मैं युद्ध नहीं करता तो क्षत्रि का स्वभाव तुझसे अवश्य युद्ध करावेगा। हे अर्जुन! एक ईश्वर का स्वरूप भूत प्राणियों में बसे है। सो अवश्य कर जीवो को मोह के मन्त्र पर ही बिठा कर सबको भ्रमाता है। जिस कारण सब भावों से तू ईश्वर की शरण जा, परम शांति जो कल्याण पुरातन स्थान है उसको प्राप्त होवेगा। हे अर्जुन! यह परम गुह्य ज्ञान मैं तेरे प्रति कहे हैं और जितने मार्ग मेरे पाने के हैं वो सब तेरे प्रति कहे हैं क्योंकि तू मेरा परम मित्र है, तेरी बुद्धि मेरे चरणों के साथ दृष्ट है इस कारण से तेरे कल्याण निमित्त मैं कहता हूं। हे अर्जुन! सब भजनों में मुझको यह भजन रुचिकर है। जब तू इस भजन में दृढ़ होगा तब सब भक्तों से मुझे प्यारा लगेगा, और सब भजनों को त्याग कर मेरी ही शरण आ, मैं ही तुझको सब पापों से मुक्त्त करूंगा, तू चिंता मत कर। हे अर्जुन! यह ज्ञान जो मैंने तुझको कहा है सो तूने ऐसे लोगों का नहीं सुनाना जो मेरी भक्ति से बेमुख है जिसको सुनने की श्रद्धा न हो और जो मेरा गुह्य ज्ञान मेरे भक्तों को सुनावेगा। वह मुझे भक्त्ति सहित पावेगा, जिस पुरुष ने मेरी भक्त्ति की है। ऐसा कोई दूसरा पुरुष मेरे प्रसन्न करने को- ऐसा प्राणी न पीछे कोई हुआ न आगे होगा। वह मुझको अति प्यारा है जिसने मेरे भक्तों को गीता ज्ञान श्रवण कराया है। उसको बहुत फल प्राप्त होगा और जो कोई इस गीता जी के एक श्लोक का भी पाठ करेगा तिसका भी फल सुन- सब यज्ञ में जो श्रेष्ठ ज्ञान यज्ञ है तिसका फल देता हूं, और तिस पाठ कर्ता के निकट जो खड़ा होता हूं। जैसे कोई किसी का नाम लेकर बुलावे तब वह तत्काल बोलता है तैसा ही गीता के पाठ करने हारे के निकट मैं जा खड़ा होता हूं और जो अर्थ कर सुनावे तिस की महिमा कुछ कही नहीं जाती। जैसे मेरी महिमा और बढ़ाई वचनों से अगोचर है तैसे गीता के अर्थ करने हारे की महिमा वचनों से अगोचर है और सुनने हारा इसको सत्य सत्य मानकर श्रवण करें वह भी जन्म मरण के बन्धनों से मुक्त होकर परमानंद अविनाशी पद को पावेगा। इससे हे अर्जुन! यह ज्ञान तैने एकाग्रचित होकर श्रवण किया है सो तेरे में अज्ञान मोह था नाश हुआ। श्री कृष्ण जी के वचन सुनकर अर्जुन बोला, हे अच्युत अविनाशी पुरुष जी, हे भगवान तुम्हारी कृपा से मेरे मोह का नाश हुआ और ज्ञान भी पाया, मेरी बुद्धि भी निर्मल हुई मेरे मन के जो सन्देह थे तिनका भी नाश हुआ और आप के मुख कमल से युद्ध करने की आज्ञा हुई सो युद्ध करता हूं: संजयउवाच- संजय राजा धृतराष्ट्र को कहते हैं। हे राजन! श्री कृष्ण भगवान जी और पार्थ अर्जुन इन दोनों का सम्वाद गोष्ट गीता का महात्म्य सुन समझ कर मेरे रोम खड़े हो गए हैं जो व्यास जी ने मुझे दिव्य दृष्टि दी है तिनकी कृपा से ज्ञान गोष्ट मैंने सुना है, सो यह गुह्य से भी गुह्य है योगीश्वरों के ईश्वर श्री कृष्ण भगवान और अर्जुन के मुख कमल से ज्ञान निकला है। तिनको विचार विचार कर परम हर्ष को प्राप्त हुआ हूं और विश्वरूप जो भगवान जी ने अर्जुन को दिखाया है, तिसको विचार कर परम हर्ष और विस्मय को प्राप्त हुआ हूं, हे राजन! मेरे निश्चय की बात सुन- जिस और योगेश्वरों के ईश्वर श्री कृष्ण जी और गांडीव धनुषधारी अर्जुन है उसी और लक्ष्मी है उसी की जय होगी, मेरी मति यही है यह निश्चय कर जान, जिनके पक्षपर श्री कृष्ण जी हैं ऐसे परम भाग्यवान पांडव की जय होगी। पांडव जीतेंगे और तेरे अधर्मी पुत्र हारेंगे यह निश्चय जान।
इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे मोक्ष सन्यास योगो नाम अष्टदशो अध्याय।
★★★★ अथ अठारहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★
श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी अब अठारहवें अध्याय का महात्म्य सुन- जैसे सब नदियों में श्री गंगा जी श्रेष्ठ हैं देवताओं में हरि, सब तीर्थों में पुष्कर राज, सब पर्वतों में कैलाश पर्वत, सब ऋषियों में नारद जी, सब गऊओं में कपिला कपिधेनुगऊ, तैसे सब अध्यायों में गीता का अठारहवां अध्याय श्रेष्ठ है। तिसका फल सुन- सुमेर पर्वत पर देवलोक में इंद्र अपनी सभा लगाए बैठा था, उर्वशी नृत्य कर रही थी और सब देवता बड़ी प्रसन्नता में बैठे थे। इतने में एक चतुर्भुजधारी को पारखद लाए, इंद्र को सब देवताओं के सामने कहा- तू उठ इसको बैठने दे। यह सुनकर इंद्र ने प्रणाम किया, उसने तेजस्वी को बिठा दिया। इंद्र ने अपने गुरु बृहस्पति से पूछा- गुरु जी! तुम त्रिकालदर्शी हो देखो इसने कौन सा पुण्य किया जिससे यह इन्द्रासन का अधिकारी हुआ है, मेरे जानने में इसने कोई पुण्य, व्रत, यज्ञ दान नहीं किया, विशेष ठाकुर मंदिर नहीं बनाया, तालाब और कूप नहीं लगाए, किसी को अभयदान नहीं दिया, बृहस्पति ने कहा चलो नारायण जी से पूछे। तब राजा इंद्र, बृहस्पति, ब्रह्मा आदिक सब देवता श्री नारायण जी के पास गए। जाकर दंडवत कर प्रार्थना पूर्व कहा, हे स्वामिन् दास सहायक, भक्त रक्षक आप के चार पारखदों ने एक चतुर्भुज तेजस्वी स्वरूप को लाकर मुझको इंद्रासन से उठा उसको बैठा दिया है। मैं नहीं जानता उसने कौन पुण्य किया है, मैंने कई अश्वमेघ यज्ञ किए हैं तब मुझे इंद्रासन का अधिकारी आपने किया है, इसने एक यज्ञ भी नहीं किया यह मुझे बड़ा आश्चर्य है। तब श्री नारायण जी ने कहा है इंद्र तू मत डर, अपना राज्य कर इसमें बड़ा गुह्य उत्तम पुण्य किया है इसका नियम था कि नित्यप्रति स्नान कर श्री गीता जी के अठारहवें अध्याय का पाठ किया करता था। इसके मन में भोगों की तृष्णा नहीं थी, जब इसने देह छोड़ी तब मैंने आज्ञाकारी हे पारखदो तुम इसको पहले जाकर इंद्रलोक बुगावो, जब इसका मनोरथ पूरा हो तो मेरी सामुज्य मुक्ति को पहुंचावो, तुम जाकर भोगों की सामग्री इकट्ठी कर दो और कहो इंद्रलोक के सुख को भोगो। कुछ काल इंद्रपुरी के सुख भुगाकर फिर श्री भगवान की कृपा सामुज्य मुक्ति देकर बैकुण्ठ का अधिकारी किया। श्री नारायण जी कहते हैं यह लक्ष्मी जी! शिव जी कहते हैं। यह अठारहवें अध्याय का महात्म्य है
इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम अष्टदशो अध्याय सम्पूर्णम्।।
श्री भगवानोवाच- श्री नारायण कहे हैं जो ब्राह्मण, साधु, वैष्णव, योगी गीता जी के अठारहां अध्यायो का पाठ करते हैं तिनको मैं कई अश्वमेघ यज्ञ किए का फल देता हूं, कई कपला गौ दान किए का, असंख्य चंद्रायण व्रत किए का और भी बड़े-बड़े दान पुण्य का फल देता हूं, जो प्राणी नित्यप्रति श्री गीता जी का पाठ करते हैं या प्रीति साथ सुनते हैं हे लक्ष्मी! पवित्र स्थान में बैठकर पढ़ते हैं, सुनते हैं, हरिद्वार की पौड़ी पर गंगा जी के किनारे पर, तुलसी व पीपल के पास बैठकर, हरि और जहां उत्तम ठोर है तहां बैठकर पड़े तो उस प्राणी को कलयुग के जितने पाप है नहीं लगते और दुख क्लेश आपदा से छूट जाता है जो प्राणी यह चार साधन करे गंगा स्नान, गीता गायत्री का पाठ, संतों की सेवा, गोविंद का भजन, इनके प्रताप से कलयुग के पाप नहीं व्यापेंगे। इन परवों में गीता पाठ करें, एकादशी, आवश्यक पूर्णमाशी तो हजार गोदान किए का फल होवे। पितर पक्ष में पाठ करें तो जितने पितर अधोगत गए हैं उन सबका उद्धार होगा वह बैकुण्ठ वासी होकर आशीर्वाद करेंगे, तिन की मुक्ति होगी। जो प्राणी पूर्ण गीता का पाठ करें तो क्या कहना है एक अध्याय या एक श्लोक नित्य पढ़े तो मुक्ति, भुगति सब मिलेगी, जो गीता को सुनावे तो गौ दान किए का फल होगा, इस जीव के उद्धार के छः यतन है गंगा स्नान, गीता पाठ, कपला गऊ की सेवा, गायत्री पाठ, तुलसी पीपल में जल सीचना और ज्ञानी संतों की सेवा करनी, एकादशी व्रत रखना, हे लक्ष्मी सर्वशास्त्र मयी गीता सर्व धर्ममदो दया, सर्व तीर्थ मयी गंगा, सर्व देव भयो हरि। अर्जुन सुनकर कृतार्थ हुआ, चारों वर्णों में जो कोई इसको पढ़ें सुने धारण करेगा तो कृतार्थ होवेगा, इसकी अपार महिमा है, कहने सुनने से बाहर है मुक्ति भुगति की दासी है।
■■■■■■■■■■■■