श्री कृष्णाय नमः

★★★ अथ तीसरा अध्याय प्रारम्भते ★★★

◆◆◆ कर्म योग ◆◆◆

अर्जुनोवाच-
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान जी से प्रश्न किया। हे जनार्दन जी हे केशव जी! यदि निर्वाण पद, ब्रह्म पद सबसे श्रेष्ठ है, तब घोर भयानक कर्म यह युद्ध है इसमें मुझको क्यों जोड़ते हो! मिले हुए वचन कह कर मेरी बुद्धि क्यों मोहते हो। कहां निर्वाण पद, कहां युद्ध करना एक बात निश्चय कर करो जिससे मेरा कल्याण हो……

कर्म बिना संसार में रहि सकता नहीं कोय।
मैं भी करता कर्म हूं देख सखा तू मोय।
शुरू सृष्टि में यज्ञ की आज्ञा दी करतार।
यज्ञ कर्म का रूप है नहिं इस बिना निस्तार।
यज्ञ रूप है ब्रह्म का यह जानक धीमान।
जो नर त्यागे कर्म को सो मूर्ख नादान।
जिमि कुछ करता कर्म है न करना तिमि कर्म।
इस कारण करना बेज़र जानों मर्म।

……हो। अर्जुन के वचन सुनकर श्री कृष्ण भगवान जी बोले श्री भगवानोवाच-
हे निष्पाप अर्जुन! पहले मैंने लोगों को ज्ञान योग कहा है योग साथ जुड़े रहना कहां है कर्म योगियों को कर्म योग कहा है हे अर्जुन! जो कोई सर्व कर्म करने त्याग बैठे, कुछ आरम्भ न करें और कहे कि मैं निहकर्मी सन्यासी हूं, सो पुरुष भूलकर कहता है न वह सन्यासी है न वह निहकर्मी है। जो कोई देहधारी है एक क्षण भी निहकर्मी नही, माता के गर्भ में आने से लेकर मरने प्रयंत सदा कर्म ही करता रहता है, निहकर्मी कभी नही।

कर्म किए बिना निमषभर रहे ना प्राणी कोय।
प्रकृति भूल अवश्य गुण कर्म करावे सोय।

यह माया की रची हुई जो देह हैं सो इसके वश में नहीं माया के वश है हे अर्जुन! ऐसे योगी बैरागी जो है उनकी बात सुन। वो कैसे हैं जो बाहर की इंद्रियों संयम करके रोकते हैं और चौकड़ी मार कर बैठते हैं और मन में इंद्रियों के भोगों की चितवना करते हैं कि होवें तो खावें और पहरें, सो ऐसे योगी पाखंडी होते हैं और जो ऐसे हैं सो तिनसे भले हैं सो वो कैसे है जो बाहर इंद्रियों से काम करें हैं और मन का निश्चल चेता मेरे में रखते हैं वह श्रेष्ठ हैं। हे अर्जुन! तू क्षत्री है युद्ध करना तेरा धर्म है इंद्रियों से युद्ध कर और मन का निश्चय चेता मेरे में रख। हे अर्जुन! कर्म किए बिना देह भी नहीं रहती और क्या कहिये।

जगन्नाथ निमित्त कर्म से नेहकर्म निर्बंधनः।
लोक कर्मों हठ संदेह जन्म-जन्म वह भोगते।।

हे अर्जुन यह रूप जो भगवान का है सो मैं हूं मेरे से अलग कर्म करे है सो बंधन में पड़ते हैं इस कारण से है कुंती नंदन अर्जुन मेरी आज्ञा मानकर तू कर्म कर और फल कुछ ना वांछ। अब यज्ञ मार्ग से जगत पुरुष भगवान का जो जन पूजन करते हैं तो सुन। हे अर्जुन! जब ब्रह्मा जी ने संसार को उत्पन्न किया तो सर्व यज्ञ करने की रचना बनाई और यज्ञों की सामग्री भी उपजाई और ब्रह्मा जी ने मनुष्य को यह आज्ञा करी कि हे मनुष्यों! इन यज्ञ की सामग्री से महापुरुष भगवान को पूजो और साथ ही जो भगवान के अंग है सब देवता तिनको भी पूजो और जो कुछ तुम वांछोगे सो देवता तुमको मनवांछित फल देवेंगे सो मनुष्य देवताओं को पूजने लगे और मनुष्यों का कल्याण देवता से है।

जो भजन करहि प्राणी लाए पूजा देवता।
सो मुक्त सकल पापहि एक वचनवच कर्म यह।।
अन्त होय पूजा करहि भोजनते मनुष्य पाप करें।
क्षेत्र बड़ी मृत्य के पाप आए भोगते।।

हे अर्जुन! देवता मनुष्य को मनवांछित फल देने को सामर्थ है और मनुष्यों का कल्याण देवता से है जो कोई मनुष्य देवता को दिए बिना आप ही भोजन करता है सो देवता का चोर कहाता है और जो मनुष्य मुझ को भोग लगाकर मेरा प्रसाद जान कर अन्न भोजन करता है सो सर्व उपाधि से सुक्त है और जिस प्राणी ने मेरे समर्पण किए बिना आप ही भोजन कर लिया है, सो प्राणी सर्व पापों को भोगता है, वह कौन पाप सुन- जो जीव खेती करते हैं और उखलीया चूल्हे से बुहारी से पैरों चलते है और सोते समय इन ठोहरो में जो जीव घात होते हैं जो प्राणी मेरे स्मरपे बिना आप ही भोजन करता है। उसका पाप तिनके माथे पर होता है। हे अर्जुन! परमेश्वर के पूजने से संसार का जो कल्याण होता है सो सुन! सब शरीरधारी जो भूत प्राणी है तिनकी उत्पत्ति अन्न से है प्रथम यह पुरुष अन्न खाते हैं उससे वीर्य होता है और जो स्त्रियां अन्न खाती है तिससे रक्त उपजे हैं उस रक्त और वीर्य के संग से देह की उत्पत्ति होती है इस प्रकार अन्न से देह की उत्पत्ति होती है और अन्न उत्पत्ति मेघ से होती है मेघ यज्ञ करने से उत्पन्न होते है और यज्ञ करने की विधि वेदों से जानी जाती है और वेद पारब्रह्म विष्णु से उपजते हैं तिस कारण से सर्वव्यापक जो ब्रह्म है सो नित्य ही यज्ञ करके पूजने योग्य है जिनका पूजन किए से संसार का कल्याण होता है जो ऐसे कल्याण रूप पारब्रह्म को नहीं पूजते और अपनी इंद्रियों के लिए रसोई करते हैं तिनका जीवन निष्फल है अब जिनकी आत्मा प्रीति साथ लगी है जो आत्मा लोभी हैं और जो आत्मा के लोभ को पाकर तृप्त अघाय रहे है और जो आत्मा लोभ कर संतुष्ट भये हैं उनको किसी भले कर्म किए का फल नहीं न किए से कुछ पाप भी नहीं, किए से कुछ पुण्य भी नहीं। जो प्राणी आत्मा के लोभी हैं तिनको संसार के मनुष्य साथ कुछ प्रयोजन नहीं रहा। अब अर्जुन फिर कहता हूं सो सुन जो भले कर्म है स्नान से आदि लेकर कर्म नही त्यागने चाहिए जो सत कर्म करें और फल की वांछा न करें सो पुरुष इन सत्य कर्मों के मार्ग से पारब्रह्म को प्राप्त होते हैं अर्जुन भले कर्म जो है सो कर्म स्नान से आदि लेकर इन सत्कर्मों को करते-करते राजा विदेही से आदि लेकर बहुत मनुष्य सिद्धि अवस्था को प्राप्त हुए हैं तो भी लोगों के कल्याण के निमित्त कर्म करते ही रहे जो कर्म श्रेष्ठ मनुष्य करते हैं तिनको देखकर वही कर्म और भी करते हैं इन कारणों (कर्मो) से महानुभाव विदेह अवस्था को भए हैं तो भी सत्कर्म नहीं त्यागते क्योंकि और लोगों को सिद्ध अवस्था नहीं प्राप्त हुई यदि सत्कर्मों का त्याग करें तब लोगों के सब कर्म भ्रष्ट हो जावें, पशु-पक्षी जून की भांति मनुष्य होवेंगे, इसी कारण से महानुभाव कर्म करते रहते हैं हे अर्जुन! मुझको देख जो मुझको त्रिलोकी में किसी कर्म करने का प्रयोजन नहीं। जो कुछ मैं सत्कर्म करूंगा तो मुझको कुछ पुण्य ना होगा और अन्य किए से कुछ पाप ना होगा, पर मैं लोगों के कल्याण के निमित्त स्नान, गायत्री संध्या तर्पण करता हूं और ब्राह्मणों की गौ की, माता-पिता की सेवा करता हूं और भी शुभ कर्म करता हूं लोगों को सत्कर्म सिखाने के निमित्त और मैं जो आलस करके सत्कर्मों को त्याग बैठूं तो मुझे देखकर सभी लोग सत्कर्मों का त्याग कर बैठेंगे, हे अर्जुन! जिस मार्ग में चलता हूं वो मुझको देखकर मेरे मार्ग से समस्त मनुष्य चलते हैं और जो तू कहे कि लोगों के निमित्त यह कर्मों का जंजाल क्यों कहते हो लोगों के साथ तुम्हारा क्या प्रयोजन है इसका उत्तर सुन हे अर्जुन यह मनुष्य नारायण की मूर्ति है जब यह सभी कर्म भ्रष्ट होवें तब जैसे और पशु है तैसे ही मनुष्य भी पशुवत हो जावे तो अपनी प्रजा की हानि होने से अपनी भी हानि होगी इस निमित्त अपनी प्रजा के कल्याण के लिए सत्कर्म करता हूं और प्रयोजन मुझको कुछ नहीं, तिस कारण से हे अर्जुन! जो कोई विवेकी पुरुष हो वह चाहे सिद्ध अवस्था को भी प्राप्त हो जाए तो भी चाहिए कि लोगों के कल्याण निमित्त सत्कर्मों का त्याग न करें और अपनी बुद्धि से सिद्ध अवस्था को प्राप्त होवें और लोगों को यह भी न कहे कि सत्कर्मों के करने से कुछ लाभ नहीं, सत्कर्मों की निंदा ना करें क्योंकि सब लोग तो सिद्ध अवस्था को प्राप्त हुए नहीं और अगर सत्कर्मों का त्याग कर देवेंगें तो कर्म भ्रष्ट हो जावेंगे इसी से जो प्राणी सिद्ध अवस्था को भी प्राप्त हुए हैं तो भी वह पुरुष और संसारी लोगों को सत्कर्मों से भ्रष्ट ना करें (सिद्ध अवस्था प्राप्ति के बाद सत्कर्मों को छोड़ने को न कहे) को यह मेरी आज्ञा है सिद्धको को भी सत्कर्म करने चाहिए अब अर्जुन और सुन जिन पुरुषों के भले बुरे कर्म होते हैं सो यह देह इंद्रियों और मन माया प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं जैसे इनके रक्त भाव है तैसा कार्य इन से होता है आत्मा साक्षीभूत है और अकर्ता है इतना समझ करें हे अर्जुन! न्यारे का निहारा रह अब अर्जुन और सुन..

भाव अभावी कर्म कर रखें हरिभुचित।
उष्ण शीत व्यापे नहीं कारण करते कित।।
आत्मा है सर्वत्र में घट घट भोगि आप।
सब में अधिकारी प्रभु तिस ही को तू जाप।।
मन रखो चरणारबिन्द त्यागो आशरा तहो अचिंत।
पेखोदर निर वासन प्रभु कीत।।
चरण कमल मन में बसे इच्छा थिरहुन काप।
चिंता ममता त्याग बुद्धि सफल यूं होय।।
यह मार्ग तुझको कहूं सुनियो तू चितलाय।
प्रीत भाव कर मोहि जपे दुख पाप सब जाए।।
जो यह कथा माने नहीं निंदा दुनिया जान।
ते अज्ञान अन्ध मत बांधे किरत कमान।।

हे अर्जुन! तू अपने सर्व कर्म मुझको अर्पण कर और जितने देहधारी आत्मा है उन सबका ठाकुर प्रभु मैं हूं। इस कारण से मेरा नाम अध्यात्मा अर्थात सब आत्मा का अधिकारी है ऐसा ईश्वर जो मैं हूं सो तू मन का निश्चल चेता मेरे में रख और निराश ना हो आशा किसी फल की न कर और चिंता ममता को त्याग कर युद्ध कर। यह मार्ग जो मैंने तुझको कहा है सो मेरे मार्ग को श्रद्धा संयुक्त मन में रखकर मुझको निरसंशय ही आ मिलेगा। और जो प्राणी इस मेरे मार्ग को मानते नहीं और निंदा करते हैं सो कैसे हैं सो सबसे अज्ञानी अन्धमत मूढ़ मूर्ख है अब अर्जुन और सुन- प्रकृति को जीव माया ने उत्पन्न किया है सभी भूत प्राणी स्वभाव के बस है अपने बस नहीं इस बात को समझ कर ना किसी को भला कहिये ना बुरा और कोई भला करे कोई बुरा सबका साक्षाभूत होकर संसार का कौतुक देख सदा आत्मपद में लीन रहे। अब अर्जुन और सुन यह असाद रूप जो इंद्रियां है तू इनके भोगों की ओर मत जा यह हर्ष शोक को जन्म देती हैं और जैसे बात मारने हारे चोर होते हैं तैसे ही इस मेरे मार्ग को मारने हारी यह इन्द्रियां चोर है तू इनके भोगों की ओर मत जा। श्री कृष्ण भगवान के वचन सुनकर अर्जुन बोला।
अर्जुनोवाच- हे यादवों के पति श्री कृष्ण भगवान जी! इस बात को सभी मनुष्य जानते हैं कि पाप किए से दुख मिलता है। हे प्रभु जी! पाप कर्म इन मनुष्य से बलकरा कौन कराता है सो मुझको कृपा कर कहो।
श्री भगवानोवाच- हे अर्जुन! काम और क्रोध की रजोगुण से उत्पत्ति है इसका आहार भी बहुत है यह कभी तृप्त नहीं होते और यह पाप रूप है मनुष्य के के यह शत्रु है। यह दोनों को बांधकर पाप कराते हैं।
अर्जुनोवाच- हे भगवान! इनका वृतांत मुझ को विस्तार पूर्वक कहो कि इनका जन्म किस प्रकार होता है और जन्म कर बड़े कैसे होते हैं और इनका आत्मा कौन है इसका आचार कैसे होता है सर्व विस्तार पूर्वक कहो। श्री कृष्ण भगवान जी बोले हे अर्जुन! यह सूक्ष्म शत्रु है और देह इंद्रियां और मन में इनका निवास है। सूक्ष्म रूप धारण कर देह विखे आ जाते है अब इनकी उत्पत्ति सुन। भले स्वाद पदार्थ खाए से, उत्तम सुगन्ध के सूंघने से और भले वस्त्र पहनने से, काम की उत्पत्ति होती है। अब क्रोध की उत्पत्ति सुन। अहंकार अभिमान करना कि मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं। इससे क्रोध की उत्पत्ति होती है। हे अर्जुन! यह बड़े दुष्ट हैं अब इनकी करतूत सुन। पहले हर्ष प्रसन्नता से काम उपजा तब अपनी स्त्री से संग किया, जब वीर्य गिरा तब मृतक की भांति चित होकर गिर पड़ा और सो गया। फिर संतान हुई जिससे अति मोह को प्राप्त होकर अज्ञान अंधकार में अंधा हुआ। जन्म मरण का अधिकारी हुआ यह अपनी स्त्री के संग का फल है। और कदाचित परनारी के साथ प्रिति या संग किया किसी दूसरे पुरुष ने देखा तो भी खराबी, राजा के हाथ आया तो दंड देता है, धन छीन लेता है, कैद करता है, राजदंड भरना पड़ा, परलोक की शासना बहुत सहनी पड़ी। परलोक बिगड़ गया बाकी कुछ ना रहा। यह तो काम की करतूत कहीं। अब हे अर्जुन! क्रोध के लक्षण और करतूत सुन! अहंकार मन्दकर्म से अन्ध भरी जो मनुष्य की देह है विषयों के वास्ते या दूसरे किसी कारण के वास्ते किसी को मारा या कष्ट दिया तब राजा ने पकड़ कर खूब दंड दिया, बांधिया पदार्थ छीन लिया और परलोक में यम की शासना सहेगा। यह क्रोध की करतूत कहीं है हे अर्जुन! काम और क्रोध दोनों भय के दाता है बारम्बार मनुष्य को मोहते भरमाते रहते हैं फिर कैसे यह दोनों पाप रूप हैं और कपट नीच है। हे धनंजय अर्जुन! यह मनुष्य के सदा ही छिद्र देखते हैं जैसे चोर अपना समय देखता रहता है कि कब घर का स्वामी सो जावे कब मैं द्रव्य लगाऊं इसी भांति ही छिद्र देखते रहते हैं और रजोगुण से इनकी उत्पत्ति हुई है और आत्मा के मरने को सावधान है मनुष्य में यह दोनों ही उपद्रव हैं। जिस प्रकार मेरे न जानने का अज्ञान इन पर छाया है सो सुन- जैसे, धुए करके अग्नि अछादी जाए हैं ज्यों इसी भांति इन इन दोनों ने मेरा ज्ञान ढांप लिया है और नित्य ही ज्ञान के वैरी, हे कुन्तिनंदन अर्जुन! दोनों काम और मद से अपूर हैं पूर्ण कभी नहीं होते और पाप रूप हैं। इंद्रियां मन और बुद्धि इनके विषय काम का निवास है, इनमें बसकर मनुष्य को मोहित करते हैं, तिस कारण से हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रथम तू इंद्रियों के वश मे कर, इंद्रियों आदि से लेकर मन, बुद्धि चित्त को वश मे कर, यह पाप रूप हैं और ज्ञान और विज्ञान का नाश करने हारे हैं। अब जिस प्रकार इंद्रियां जीती जाए सो सुन- यह देह जड़ है इसमें जो चैतन्य रूप इंद्रियां है और इंद्रियां से परे मन है, मन से इंद्रिया सुरजीत है, मन से परे बुद्धि है बुद्धि से परे आत्मा है सो बुद्धि द्वारा उस आत्मा के साथ जुड़। हे महाबाहु अर्जुन! जो आत्मा साथ जुड़ता है उसका रूप बड़ा बलवान हो जाता है अपने बल से इस महादुष्ट काम, क्रोध को मार डाल,तिनको मारकर जय को प्राप्त हो।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे कर्म योगो नाम तृतयो अध्याय।।

★★★★ अथ तीसरे अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच-
हे लक्ष्मी! एक शूद्र महामूर्ख अकेला ही एक वन में रहता था बड़े अनर्थों से कितना ही द्रव्य उसने इकट्ठा किया था, किसी कारण यूं ही वह पदार्थ जाता रहा, पदार्थ के जाने से वह शूद्र बहुत चिंता मे रहता और लोगों से पूछता। कोई ऐसा कर्म बताओ जिससे यहां पृथ्वी में द्रव्य होवें तो मैं निकाल लूं, और मुझे फिर वह पदार्थ हाथ आवें, किसी को कहें कोई अंजन बताओ जिस नेत्र में पायकर पृथ्वी का पदार्थ निकालूं, किसी ने कहा मांस मदिरा खाया पिया करो वही खोटा कर्म करने लगा, चोरी करने लगा, एक दिन धन की लालसा से चोरी करने गया रास्ते में चोरों ने उसे मार दिया, इस मृत्यु से मर प्रेत जून पाई। वह एक बट के वृक्ष पर रहा करता था। बड़ा दुखी हुआ, हाय-हाय कर रुदन करता विलाप करता, ऐसे हाहाकार करता रहता कि ऐसे भी होवे मेरे कुल में जो इस अधम देह से छुड़ावे, ऐसे हाहाकार करते-करते बहुत दिन बीते। इतने में उस शूद्र की स्त्री से एक पुत्र जन्मा, जब उसका पुत्र बड़ा हुआ तो एक दिन अपनी माता से उसने पूछा, मेरा पिता क्या व्यापार करता था और देहांत किस प्रकार हुआ था ? उसकी माता ने कहा बेटा तेरे पिता के पास पदार्थ बहुत था सो यूं ही जाता रहा वह धन के चले जाने से बहुत चिंतावान रहता था। एक दिन वन को गया कि किसी का धन चुरा लाऊंगा, मार्ग में उसके साथी चोरों ने ही मार डाला। तब उसके पुत्र ने कहा माता उसकी गति कराई थी ? तब माता ने कहा- नहीं कराई। फिर पूछा हे माता उसकी गति करानी चाहिए उसकी माता ने कहा भली बात है। तब वह पंडितों से पूछने गया, जाकर बात करी हे स्वामी! मेरे पिता एक दिशा मे जा कर मृत हुआ। उसका उपाय कृपा कर कहिए जो उसका ही उद्धार होवें। तब पंडितों ने कहा तू गयाजी जाकर उसकी गति करा तब तेरे पितरों का उद्धार होगा। तब उसने आज्ञा मानकर माता की आज्ञा लेकर गयाजी को गमन किया। प्रयागराज के दर्शन स्नान करके फिर आगे को चला, रास्ते में एक वृक्ष के नीचे बैठा, वहां से उसको बड़ा भय प्राप्त हुआ, यह वही वृक्ष था जहां उसका पिता प्रेत जून में प्राप्त हुआ था उसी जगह चोरों ने उसको मारा था। तब उस बालक ने अपना गुरु मंत्र पढ़ा और एक उसका और नियम था कि वह एक अध्याय गीता जी का नित्य पाठ किया करता था, उस दिन उसने उस वृक्ष के नीचे बैठकर श्री गीता जी के तीसरे अध्याय का पाठ किया, उसके पिता ने प्रेत की जून में सुना सुनने से उसकी प्रेत देह छूट गई देव देही पाई, वह एक देवरूप में उसके सामने आया, आकर आशीर्वाद दिया और कहा हे पुत्र मैं तेरा पिता हूं जो मरकर प्रेत हुआ था इस तेरे पाठ के श्रवण करने से मेरी देवदेहि हुई अब मेरा उद्धार हुआ तेरी कृपा से स्वर्ग को जाता हूं अब तू गयाजी जाए तो अपनी खुशी से जा मेरा उद्धार हो गया है वहां जाकर तुमने मेरा उद्धार करना था जो तुमने यह पाठ मुझको सुनाया है इससे मेरा कल्याण हुआ। इतना सुनकर पुत्र ने कहा हे पिता जी कुछ और आज्ञा करो जो मैं आपकी सेवा करूं। तब उस देवदेहि ने कहा- हे पुत्र देख मेरे सात पीढ़ियों तक के पितर नरक में पड़े हैं बड़े दुखी हैं अब श्री गीता जी के तीसरे अध्याय का पाठ करके उनको फल दे, वह इस दुख से मुक्ति पावेंगे, वह तेरे बड़े हैं नर्क से निकलकर स्वर्ग में पहुंचेंगे। इतना वचन कहकर वह देवदेही पाकर स्वर्ग को गया तब उस बालक ने वहां ही तीसरे अध्याय का पाठ किया तब पितरों को पुण्य देखकर बैकुंठ गामी किया। तब राजा धर्मराज के पास यमदूतों ने जाकर कहा, हे राजा जी! नरक में तो बहुत से लोग नहीं है वहां तो उजाड़ पड़ी है जो कोई जन्मों जन्मों के पाप कर्मी थे तिनको विमानों पर बैठाकर श्री ठाकुर जी के पार्खद ले गए हैं। इतना सुनते ही धर्मराज उठकर श्री नारायण जी के पास गए, जहां पाताल में शेषनाग की शय्या पर श्री नारायण जी लेटे हुए थे और लक्ष्मी जी चरण दबा रही थी वहां जा धर्मराज ने दंडवत प्रणाम किया ओर हाथ जोड़कर कहा- हे त्रिलोकीनाथ श्री महाराज जी! जो जीव जन्म जन्मांतर के पापी थे उनको आपके पार्खद विमानों पर चढ़ाकर बैकुंठ को ले गए हैं तब नरकों के भुगाने का दंड किसको देवें और किस प्रकार दंड दिया करें- तब श्री नारायण जी ने बहुत प्रसन्न होकर कहा है धर्मराज! दुखी मत हो, तू अपने मन में कुछ बुरा न मान मैं तुझे एक वृतांत कहता हूं श्रवण कर यह जीव पापी थे इनका कोई पिछला धर्म उदय हुआ है। उस अपने धर्म से कई महापापी बैकुंठ को गए हैं और यह एक आज्ञा तुझे देता हूं जो जीव श्री गीता जी के पाठ करें अथवा श्रवण करें या कोई किसी को गीता के पाठ किए का फल दान करें उन-उन जीवो को तू कभी नरक न देना, यह तुझको मेरी आज्ञा है यह बात सत्यकर निश्चय से सुन याद रख। इतना सुनकर धर्मराज अपनी पुरी को पधारें, वहाँ आकर अपने यमदूतों को बुलाकर कहा- हे यमदूतों! जो प्राणी श्री गीता जी का पाठ श्रवण करें या पाठ किए का फल किसी को पुण्य देवे, तिस प्राणी को तुम कभी नरक में न डालना, श्री गीता जी के पाठ अथवा श्रवण किये से पापी जीव भी बैकुण्ठ को प्राप्त होंगे जो जीव श्री गीता जी का पाठ कर करें, श्रवण करें, तिसका फल कहां तक कहें। कहने में नहीं आ सकता तब श्री नारायण जी ने कहा हे लक्ष्मी यह तीसरे अध्याय का फल मैंने तेरे को कहा है जो तूने सुना है

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्यनाम तृतयो अध्याय संपूर्णम।।