श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ अष्टमो अध्याय प्रारम्भते ★★★★

अक्षर ब्रह्म – योग

अर्जुनोवाच- श्री कृष्ण जी के वचन सुनकर अर्जुन पसंद करता….

देवलोक में जाते हैं जो देवन के दास।
भूत लोक पाते वही जिन्हें भूत की आस।।
जो जन मेरे भक्त हैं, मुझे जानते नाथ।
तन से मन से जो सदा रहते मेरे साथ।।
मेरी केवल भक्ति में रहते हैं दिन रात।
वही पुरुष संसार में मोक्ष धाम को पात।।
अंतकाल सिमरें मुझे हे अर्जुन जो धीर।
वे योगी पाते मुझे हे पांडु सुत वीर।।

….. हे पुरुषोत्तम जी! तुमको तुम्हारे भक्त ब्रह्मा जानते हैं सो ब्रह्मा क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अदभुत क्या है ? अद्वैत क्या है ? मधुसूदन जी! आदयज्ञ क्या है ? जो प्राण त्यागने के समय तुमको ऐसा जानते हैं तिन की गति क्या है ? इन सब नामों को कृपा करके मुझको समझाओ। अर्जुन के प्रश्न का उत्तर श्री कृष्ण भगवान जी कहते हैं श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन! मैं सबसे न्यारा और अविनाशी हूं, इस कारण मेरा नाम ब्रम्ह है और मुझको अपने ही प्रताप से प्रताप है, अपने ही बल से बल है, और अपने ज्ञान से ज्ञान हैं। अन्य जितने भूत प्राणी है तिस सबको मेरे बल से बल है और मेरे ही ज्ञान से ज्ञान है, सब मनुषयों का अधिकारी ठाकुर प्रभु हूं इस कारण से मेरा नाम अध्यातम है और सब भूत प्राणियों को उपजाता हूं जैसे किसी के मस्तक में कर्म रेखा लिखता हूं वैसे ही तिसको को प्राप्त होता है। इस कारण से मुझको कर्म कहते हैं, पंचभूत जो जल, तेज, वायु, पृथ्वी और आकाश है तिनका अविनाशी कर्ता हूं। इस कारण से मेरा नाम अदभुत है और जो कुछ होन हार है तिसका भी प्रभु ठाकुर मैं ही हूं इस से मेरा नाम अद्वैत है जितने यज्ञ होते हैं देवता पितरों के निमित्त श्राद्धक्षहि मनुष्य करते हैं सब में प्रथम मेरी ही पूजा होती है। इससे मेरा नाम अविनाशी है और एक मेरा नाम देह भरतम्बर है इसका अर्थ सुन- जितने देहधारी हैं इन सब में मेरी देह अति सुंदर है। मेरी देह जैसी किसी की देह सुंदर नहीं और न मेरे जैसा किसी में बल है। देहधारियों को क्या कहिए – जितने मेरे अवतार हैं उन सब में यह मेरा अवतार महा श्रेष्ठ है। इस कारण से मेरा नाम देह भरतम्बर है जो अंत काल में देह त्यागने के समय ऐसा मुझको पहचान कर मेरा स्मरण करते-करते देह त्यागते हैं सो मेरे परमानन्द अविनाशी पद में जा प्राप्त होते हैं, इसमें संदेह नहीं हे अर्जुन! देह त्यागने के समय जिस-जिस का स्मरण करते देह को त्यागते हैं तिस ही को पहुंचते हैं, इससे सर्वकालों में मेरा ही स्मरण कर। क्या जानिए यह क्षणभंगुर देह किस समय छूट जावे। मेरे में निश्चल चेता रखें तो मुझको पावेगा, इसमें संशय नहीं हे अर्जुन! सब समय चितकर स्वास-स्वास मेरा ध्यान कर स्मरण कर यह अभ्यास योग के लक्षण है। मुझ प्रभु में मन रखें, महां ईश्वर पूर्ण प्रभु ऐसा जानकर ध्यान करने से मेरे विखे मिल जाता है, फिर कैसा हूं ? काम रूप सब का ज्ञाता सबसे आदि अलेख हूं, मेरी आज्ञा सबके सिर पर है, मुझ पर किसी की आज्ञा नहीं और सूक्ष्म से अति सूक्ष्म हूं, सब की उत्पत्ति करता हूं, अचिंत रूप हूं प्रबीन हूं, सबके जानने हारा हूं जिसको अचिंत रूप कहते हैं मैं ही तेज रूप होकर सूर्य में विराजमान होता हूं। अज्ञान अंधकार से न्यारा हूं, पारब्रह्म हूं और एक योगी पुरुष प्राण त्यागते समय अपनी इच्छा को निश्चल रख कर भक्त्ति योग के बल से प्राण वायु को त्रिकुटी में भली-भांति ठहरा परम पुरुष को श्रद्धा से ऐसा जान संग्रह कर देह त्यागते हैं सो परमानन्द अविनाशी पद में जा प्राप्त होते हैं और जिस पुरुष के पाने के निमित्त ब्रम्हचारी ब्राम्हचर्य्य रखते हैं तिस पुरुष का महात्म्य मैं तुझको थोड़े ही में कहता हूं- एक योगी इस प्रकार देह त्यागते हैं कि यह नवद्वार देह के समय साथ मंद कर्मों से हटकर निश्चल करते हैं और प्राण पवन को रोककर मस्तक में ले आते हैं और मेरे नाम का हृदय में जप करते हैं ‘ओं’ब्रम्ह’ नाम का स्मरण करते देह त्यागते हैं सो मेरे परमपद ब्रम्ह अविनाशी पद में जा प्राप्त होते हैं। और मेरे प्रेमी भक्तों का वृतांत सुन- जो मेरे प्रेमी मन करके निश्चल चेता मेरे में रखकर चलते, फिरते, बैठते मुख से राधाकृष्ण। राम भगवान पारब्रम्ह, परमेश्वर, परमात्मा वासुदेव कृष्ण, विश्वम्भर इन नामों का जप करते हैं ऐसे नित्य योगी मेरे साथ जुड़ते हैं, तो मुझे सुखैन ही पाते हैं और देह को त्याग कर मेरे परम धाम में प्राप्त होते हैं संसार जो दुखों का समुद्र है इसमें जो महापुरुष परमसिद्ध है सो फिर जन्म नहीं पाते हैं हे अर्जुन! जीव ब्रम्ह लोक तक जाकर फिर आते हैं और संसार में जन्म मरण पाते हैं, और जिन पुरुषों ने मुझे पाया है सो प्राणी मेरे परमपद में आ फिर जन्म नहीं पाते। अब अर्जुन! जिन पुरुषों ने मेरा महत्व में सुना है तिनकी दृष्टि सुन- सतयुग, द्वापर, त्रेता, कलयुग जब यह चारों युग सहस्त्र बार बीत चुके होते हैं तब ब्रम्ह का एक दिन होता है, इस प्रकार यह चारों युग सहस्त्र बार व्यतीत होते हैं तब ब्रह्मा की एक रात्रि होती है। अब युगों की मर्यादा सुन- सत्रह लाख अठाई सहस्त्र वर्ष का सतयुग,बारह लाख छया हजार वर्ष का त्रेतायुग, आठ लाख चौसठ हजार वर्ष का द्वापरयुग, चार लाख बत्तिस हजार वर्ष का कलयुग है। यह चारों त्रिताली लाख बीस हजार वर्ष के हैं। जिन्होंने मेरा प्रताप परम अविनाशी जाना है तिनकी की दृष्टि सुन- यह चारों सहस्त्र बार बीत जाए तब ब्रह्मा का एक दिन होता है। इनके जाने से एक सा ही है अपनी आय भोगकर ब्रह्म भी नष्ट हो जाता है, मनुष्य भी मर जाता है, इससे जो नाशवान है सो एक समान है, उन्होंने एक अविनाशी ही पहचान कर मेरे चरण कमल के साथ दृढ़ निश्चय बांधा है। अब और सुन- हे अर्जुन! मेरा जो अवगति स्वरुप है, तिस स्वरुप में ब्रम्हा के दिन में सृष्टि उपजती फिर ब्रम्हारात्री में मेरे अविनाशी अवगति स्वरुप में जा समाती है। हे अर्जुन! यह जो चौरासी लाख जून ब्रह्मा के दिन में उपजाती और रात्रि को मेरे अवगति स्वरुप में जा लीन होती है सो मेरा अवगति स्वरूप सबसे न्यारा है और सनातन पुरातन है, सबके नाश होने से इसका नाश नहीं होता, ऐसा तो परम अविनाशी हूं और किसी ने कभी प्रगट देखा भी नहीं, इस कारण से इसका नाम अवगति है, उसी को परम गति कहते हैं। इसको प्राप्त होने से फिर संसार के मार्ग में नहीं आता, सो परमधाम मेरा घर है। हे अर्जुन! जो पुरुष सबसे न्यारा है और उस मार्ग के उपाय सुन- जिस मार्ग के पाने से अन्नय भक्ति, अखंड भक्त्ति करके भक्त्ति पावे हैं अब अखंड अन्नय का वृतांत सुन- मेरे साथ दूसरा देवता नहीं पूजना, मेरे भजन बिना एक स्वास नहीं खोना, इसका नाम अन्नय अखंड भक्त्ति है, इस भक्त्ति से मैं पाया जाता हूं, सो कैसा पुरुष हूं ? जिससे सभी सृष्टि उपजती है फिर उसी में लीन होती है। हे अर्जुन! और सुन- इच्छाचारी योगी दो प्रकार के होते हैं एक तो देह त्याग कर मुझ पारब्रम्ह में जा लीन होते हैं फिर संसार मार्ग में नहीं आते। दूसरे योगी चंद्रमा के लोक तक जाकर फिर आते हैं, अब जो चंद्रमा के लोक तक जाकर फिर आते हैं तिनकी बात सुन- वह इच्छाचारी योगी तब देह त्यागते हैं जब मनुष्य का दिन होता है शुक्लपक्ष चंद्रायण सोई पितरों का दिन होता है और कृष्णपक्ष जो अंधेरा पक्ष है सो पितरों की रात्रि होती है। देवताओं का दिन कौन है ? जब छः महीने सूर्य का रथ उतरायण रहता है तब देवताओं का दिन होता है और जब छः महीने सूर्य दक्षिणायण होता है तब देवताओं की रात्रि होती है वह इच्छाचारी योगी जब देवताओं का, पितरों का, मनुष्य का दिन तब देह का त्याग करें है! मनुष्यों भी जागते हो पितर भी और देवता भी जागते हो सो देह त्याग कर मनुष्यों का, पितरों का, देवताओं का कौतुक देखते हुए जाते हैं। इन लोको से आगे अग्नि का जोत नाम नगर है, तिसका कौतुक देखते हुए मेरे अविनाशी परमपद में जा लीन होते हैं। तब मेरे जानने हारा परम सुख रूप हो जाता है अब दूसरे योगी की बात सुन- जो जाकर फिर आता है। वह योगीशर जब मनुष्यों की देवताओं की रात्रि होती है, तब देह त्याग कर इन लोकों के बीच होकर एक धुंए का नगर है, उसमें होकर चंद्रमा की ज्योति में जा प्राप्त होता है। वहां कुछ काल वास करके फिर मनुष्य लोक में आता है। यह दोनों मार्ग योगियों के पुरातन हैं। एक नाम शुक्ल चांदनी रात्रि और एक नाम कृष्ण अंधेरी रात्रि है, एक मार्ग को गए फिर नहीं आते, एक मार्ग को गए फिर आते हैं। हे अर्जुन! तुमने दोनों मार्ग योगियों के सुने

यो मार्ग का जो लगे योगी मोहन पाय।
ताह ताह पार्थ तू ही योग युक्त चित लाय।।

जिन्होंने यह बात समझी है सो मोह को प्राप्त नहीं होते। हम से हे अर्जुन! तू भी इन सब कालों में मेरे साथ युक्त रह। अब जो पुरुष इन अध्याय को पढ़े सुने तिनको कितना पुण्य प्राप्त होता है सो सुन- चार वेद पढ़ने से जो पुण्य होता है यज्ञ,तप, तीर्थ स्थान व दान किए से जो पुण्य उपजे हैं सो सभी पुण्य इस अध्याय के पढ़ने से प्राप्त होंगे। जो श्रद्धा सहित इसको धारण करते हैं उनको अनन्त प्राप्त होंगे।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे अक्षर ब्रम्ह योगो नाम अष्टमो अध्याय।।

★★★★ अथ आठवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी अब आठवें अध्याय का महात्म्य सुन- दक्षिण देश नर्मदा नदी के तट पर एक नगर था उसमें इंद्र नामी धनी पुरूष रहता था, उसके पास बहुत द्रव्य पदार्थ था, और वह संतों की सेवा करने वाला था, बड़े यज्ञ करता था दिन एक ब्राह्मण से पूछा- हे ब्राह्मण जी! मेरे संतान नहीं है तब अन्धमत ब्राह्मण ने कहा तू अजामेघ यज्ञ कर, बकरा देवी को चढ़ा, तुमको पुत्र देगा। तब उस धनी पुरूष ने यज्ञ करने को एक बकरा मोल लिया, उस को स्नान करा मेवा खिलाया, जब उसको मारने लगा तब बकरा कह कह शब्द कर के हंसा। तब धनी पुरूष ने पूछा- हे बकरे! तू क्यों हंसता है ? बकरे ने कहा- पिछले जन्म मै भी ब्राह्मण था और मेरे भी संतान नहीं थी इस ब्राह्मण ने मुझे भी अजामेघ यज्ञ करने को कहा था, सारी नगरी में बकरा ढूंडा परंतु हाथ ना लगा। ढूंढता ढूंढता एक बकरी का लेला दूध चूसता था, उस लेले समेत बकरी को मोल ले लिया, जब बकरी से दूध चूसना छुड़ाकर यज्ञ करने लगा, तो बकरी बोली- अरे ब्राह्मण! तू ब्राह्मण नहीं जो मेरे पुत्र को होम में देने लगा है तू महा पापी है, यह कभी सुना है कि पराए पुत्रों को मारने से किसी ने पुत्र पाया हो। तू अपनी संतान के लिए मेरे पुत्र को मारता है। तू निर्दई है तेरे पुत्र नहीं होगा? उस बकरी ने बहुत कहा पर मैंने होम कर ही दिया। बकरी ने शाप दिया कि तेरा भी गला इसी भांति कटेगा, इतना कह तड़प-तड़प कर बकरी मर गई। कई दिन बीते, मेरा भी काल हुआ यमदूत मारते-मारते धर्मराज के पास ले गए। तब धर्मराज ने कहा इसको नरक में दे दो यह बड़ा पापी है। फिर नरक भुगाकर बानर की योनि पाई, बाजीगर ने मुझे मोल लिया। वह गले में रस्सी डालकर द्वार-द्वार सारा दिन मांगता फिरता पर खाने को थोड़ा दिया करता। जब बानर कि देह से छूटा तो कुत्ते का जन्म पाया। एक दिन मैंने किसी की रोटी चुरा खाई। उसने ऐसी लाठी मारी की मेरी पीठ टूट गई उस दुख से मेरी दे छूट गई। फिर घोड़े की देह पाई उस घोड़े को एक भठ्यारे ने मोल लिया। वह सारा दिन चलाया करता खाने-पीने की खबर ना लेता, रात पढ़ती तो एक छोटी सी रस्सी के साथ बांध छोड़ता, ऐसा बांधता की मक्खी भी नहीं उड़ा सकूं। एक दिन दो बालक एक कन्या मेरे पर चढ़कर चलने लगे, वहां कीचड़ अत्यंत था, मैं फंस गया ऊपर से वह मरने लगे, वहां मेरा अंत हुआ। इस भांति अनेक जन्म भोगे। अब बकरे का जन्म पाया, मैंने जाना था जो इसने मुझे लिया है मैं सुख पाऊंगा, तू छुरा लेकर मरने लगा है। तू यह पाप मत कर। मुझे तो एक ना एक दिन कसाई काट ही देगा। तब धनी पुरुष ने कहा- हे बकरे! तुझे भी जान प्यारी है, जैसे चिड़िया कंकर मारने से आगे उड़ जाती है, अब मैं अपने नेत्रों से देखी बात कहता हूं, सो सुन- कुरुक्षेत्र में एक राजा स्नान करने आया नाम उसका चंद्र था, उसने ब्राह्मण से पूछा ग्रहण में कौन सा दान करूं उसने कहा राजा काले पुरुष का दान कर, तब राजा ने काले लोहे का पुरुष बनाया, नेत्रों में लाल जुड़वा, सोने के भूषण पहनाकर तिसको त्यार किया राजा स्नान करने चला, स्नान करके दान किया, वह काला पुरुष कह कह कर हंसा। राजा डर गया,और कहे कोई बड़ा अवगुण हुआ जो लोहे का पुरुष हंसा है, तब राजा ने और ज्यादा दान किया वह फिर हंसा और ब्राह्मण को कहने लगा- हे ब्राह्मण तू मुझे लेगा ? तब ब्राह्मण ने कहा- मैं तेरे जैसे कई पचाये हैं। अब काले पुरुष ने कहा- तू मुझको वह कारण बता जिससे तूने अनेक दान पचाये हैं तब ब्राह्मण ने कहा जो गुण मेरे में है सो मैं जानता हूं। तब वह काला पुरुष कह-कह कर फट गया, और उसमें एक और कलिका की मूर्ति निकल आई, तब ब्राह्मण ने श्री गीता जी के आठवें अध्याय का पाठ किया, तब उस कलिका की मूर्ति ने सुन कर देह पलटी, जल की अंजली भरके उस ब्राह्मण मूर्ति पर छिड़की, जल छूने से तत्काल उसकी देह छूटी दिव्य देहि पाई, आकाश मार्ग से बैकुंठ को गई। तब उस राजा ने कहा तुम्हारे में भी कोई गीता पाठी है जिससे पाठ सुनकर मैं भी अधम देह से छूट सकूं और बैकुण्ठ को प्राप्त हो सकू। तब उस ब्राह्मण ने कहा मैं वेदपाठी हूं, पर इस नगर में एक साधु गीता पाठी है, तिससे राजा नित्य गीता के आठवें अध्याय का पाठ श्रवण करने लगा। कुछ काल व्यतीत हुआ तो राजा की देह छूटी। देव देहि पाकर राजा भी बैकुण्ठ को गया। श्री नारायण जी ने कहा हे लक्ष्मी यह गीता के आठवें अध्याय का महात्म्य है जो तूने सुना है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम अष्टमो अध्याय सम्पूर्णम्।।