श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ सप्तमो अध्याय प्रारम्भते ★★★★
प्रकृति भेद – योग

श्री कृष्ण भगवानोवाच- चित राखहु चरणारविंद भगवत भक्ति को पाए…..

जल भूमि धरती अनल पंचम व्योम महान।
मन बुद्धि और अहंपन आठ प्रकृति जान।।
यह मेरी माया प्रबल भव के बीच प्रधान।
इसके अंश जो वस्तु है जास उसी का जान।।
हे अर्जुन जिमि सूत मे सूत के मोती होत।
तिमि मुझ में सारा जगत जानो श्रोत प्रोत।।
मुझ से बाहर कुछ नहीं मैं हूं सब का ठौर।।
इस सप्त अध्याय में कहते माखन चोर।।

…. एक टोक डोलते नहीं यह विधि योग कमाये। हे अर्जुन! मेरे आश्रम योगधार, मेरा आश्रम क्या है सो कहे कि हे प्रभु श्री कृष्ण भगवान जी! मैं तो आपके स्मरण साथ योग कर जुड़या हूं सो तुम्हारी कृपा से जुड़या हूं आप से नहीं जुड़या- यह विधि समझी, समझ के पायी योग की राह और तुम्हारी कृपा से स्थित भई सच्चे बेपरवाह। हे अर्जुन! मेरे योग के जानने के प्रसाद से तिन को ज्ञान उपजे है सो ज्ञान में तुझको कहता हूं, जिस ज्ञान के जाने से फिर कुछ जानना नहीं रहता। सो कोई एक पुरुष संसार से विरक्त्त होता है, जितने विरक्त्त होते हैं, उन विरकतों में कोई एक मुक्ति पद को प्राप्त होता है और जितने मुक्त होते हैं उनमें कोई मेरी महिमा के ज्ञान को पहिचानता है, सो मेरी महिमा तू मुझसे श्रवण कर, हे अर्जुन! जल, तेज, वायु, पृथ्वी, आकाश और मन बुद्धि अहंकार यह आठ प्रकृति नहीं, सो इनको उपजाने हारी मेरी माया है यह आठो शरीर धारियों के बाहर भी है और भीतर भी है यह जिस भांति देह में व्यापक है सो सुन- धरती का अंश मांस है, जल का अंश लहू है, वायु का अंश स्वास है, तेज का अंश अग्नि जो उधर में अन्न को पचाती है आकाश का अंश पोलापन है, मन बुद्धि और अहंकार यह आठो मेरी माया है हे महाबाहो अर्जुन! नवा इसमें जीव भूत है, सारा जगत संसार इन्हीं का है, सब चौरासी लाख योनि इन्हीं की बनाई है, और बात सुन- मैं कैसा हूं ? सब संसार और संसार के रचने हारी मेरी माया है तिस सब की उत्पत्ति करता हूं, पालन करता हूं, प्रलय भी करता हूं, सबसे न्यारा हूं अर्जुन मुझ से न्यारा कुछ नहीं, सब भूत प्राणी मेरे साथ पिरोहे रहे हैं ज्यों धागे साथ मणि पिरोई है। हे अर्जुन यू कोई मत समझे कि मैंने वासुदेव और देवकी एक घर जन्म लिया है। सो सारे देह विखे जहां कोई त्वचा है तहाँ ही पीड़ा होती है, इसी तरह सब के समीप जो दीखता और सुनाई देता है सब ब्रह्म मैं ही हूं, ज्यों मेरे आधार सब लोक हैं सो भी सुन- हे कुन्ति नंदन! सब देहधारी जल के आसरे हैं, जल का जीव रस है, इस जल के रस को खाय कर जीते हैं जैसे दूध में घी है, तैसे जल में रस है, जो जल का जीव रस है जल रस के आधार है, सो रस मेरे आधार हैं, सभी लोक चंद्रमा और सूर्य के आधार है चंद्रमा, सूर्य ज्योति के आधार हैं। वेदों में मेरी महिमा अमृत रूप है सो ब्रह्मा से आदि लेकर जितने वेदपाठी हैं सो उनका आधार मेरी महिमा है। और वेदपाठी वेद के आधार हैं, वेदों का जीवन जीव रूप ओंकार है, सो वेद ओंकार के आधार हैं, सो ओंकार मेरे आधार है और सभी लोक आकाश के आधार हैं और आकाश का जीव शब्द है, आकाश शब्द के आधार हैं, शब्द मेरे आधार हैं, सब मनुष्य बल के आधार हैं सो बल मेरे आधार है, सब लोक धरती के आधार हैं, धरती का जीव गन्ध है, गन्ध जो वासना है सो धरती वासना के आधार हैं, वह वासना मेरे आधार है, यह सब लोक अग्नि के आधार हैं, अग्नि का जीव तेज है, अग्नि तेज के आधार हैं सो तेज मेरे आधार है और सबूत प्राणियों का जीवन मैं हूं, जितने तपस्वी हैं सब तपस्या के आधार हैं, तपस्या मेरे आधार है। हे में श्रेष्ठ अर्जुन! सब भूत प्राणियों का बीज तू मुझको जान और सनातन पहले तू मुझको जान और जो कुछ बुद्धि मतो में बुद्धि है सो तू मुझको जान, तेज वालों में जो तेज है मुझको जान, बलवानो में जो बल है सो मेरा जान। मुझको किसी वस्तु की वांछा नहीं अपने अंदर से पूर्ण हूं, किसी साथ मेरा मोह नहीं। हे कुरूवंशी अर्जुन! जो शुभ धर्म का मार्ग मारने हारा काम है सो भी मैं हूं, यह जो तीनों गुण है- सात्विक, राजस, तामस तिन्हों में सब मेरी ही शक्ति की सत्ता है और मेरे में यह नहीं, इनसे मैं न्यारा हूं –

त्रिगुण माया महामाया प्रजा मोह उत्पन्न थे।
मोहमगन मूढ़ अन्ध महाप्रभु नहीं गम्मते।।

दिव्य गुणमयी माया देविये अर्थ कह।
पर जोर चखेल करता दिव्य यह अर्थ कह।।

ऐसी माया प्रभु की तरणी कठिन अपार।
एक देव की शरण होय सो जन उतरे पार।।

हे अर्जुन! और उपाय माया से तरण का कोई नहीं, महामूढ़ पापी जिन्होंने प्रभु की शरण नहीं ली, वह बहुत माया भ्रम में भूले हैं। हे अर्जुन! तिनको ज्ञान माया ने आछाद लिया है और वैसे ही उनके स्वभाव हो रहे हैं।

दो चतुर भाव मोहे भजन पार्थ कहूं बखान।
आरत जिज्ञासु अर्थी ज्ञानी श्रेष्ठ मान।।

हे अर्जुन! चार प्रकार के जीव पुण्य आत्मा है। एक तो रोगी मेरा स्मरण करते हैं। जो मनुष्य रोग मिटाने के अर्थ मेरा भजन करते हैं तिनका रोग गुरु है। एक ज्ञान पावने निमित्त मेरा भजन करते हैं। एक अर्थी मन की कामना पाने निमित्त पुत्र व धन आदि के लिए मुझको सिमरते हैं। हे अर्जुन! चौथे ज्ञानी भजन करते हैं तिन सभी में ज्ञानी श्रेष्ठ है।

सत्य स्वरूप स्वामी प्रभु, अविनाशी सदा अनन्द।
सुख दाता दुख हरण प्रभु ऐसा कमला कंत।।
इस प्रकार पहिचान कर चरण कमल का ध्यान।
सो ज्ञानी अति श्रेष्ठ है मुझ उसमें भेद न मान।।

हे अर्जुन! मुझको ज्ञानी प्यारे हैं और ज्ञानियों को मैं प्यारा हूं पर यह जो रोगियों से आदि लेकर मुझको सिमरते हैं तिनको भी बुरे मत जान। सो भी बड़े उद्धार हैं बड़े श्रेष्ठ हैं जो ईश्वर को सिमरते हैं पर ज्ञानी मेरी आत्मा है तीन ज्ञानियों ने केवल मेरे चरणों के साथ दृढ़ निश्चय बांधा है और जिन्होंने मुझे ही उत्तम ठाकुर ईश्वर जाना है। अर्जुन बहुत जन्म पर्यन्त भजन करते-करते साधन से इनकी बुद्धि निर्मल होती है तब उनको मेरे जानने का ज्ञान उत्पन्न होता है, कैसा ज्ञान ? सो सुन- तिनको सभी वसुदेव दृष्टि आवे है, सो ज्ञानी महापुरुष महन्त कहलाते हैं पर ज्ञानी संसार में दुर्लभ है। जो मुझ को त्यागकर मनुष्य और देवता की उपासना करते हैं तिनकी बात सुन- कामना से उनका ज्ञान है कामना के पावने के निमित्त और देवता की उपासना करते हैं और जिस देवता की उपासना करते हैं सो मैं उनके हृदय में बैठकर उस देवता के में दृढ़ श्रद्धा लगाता हूं तिनकी श्रद्धा उसी देवता में ही निश्चल करता हूं, सो मनुष्य प्रीति के साथ देवता की पूजा करता है और मैं ही तिस देवता में अंतर्यामी होकर मनुष्य को देवता से कामना वर दिलाता हूं, देवता का दिया हुआ वर नित्य अविनाशी नहीं अन्तवत है उसका विनाश हो जाता है और जिसकी निपट थोड़ी बुद्धि है देवता की उपासना करते हैं। अब अर्जुन और निर्णय की बात सुन- देवता के पूजने हारे देवता के लोक में जा प्राप्त होते हैं। और मेरे भक्त परमानन्द अविनाशी पद में जा प्राप्त होते हैं। अब अर्जुन और सुन मैं अविनाशी हूं, एकांती हूं, किसी से प्रकट नहीं हुआ, किसी ने जाना भी नहीं, किसी ने सुधारा भी नहीं, अपनी कला से मैं आप ही पूर्ण हूं, दुर्बुद्धि जो मत के होते हैं सो मुझको किसी से प्रकट भया जानते हैं सो मेरे प्रताप को नहीं जानते कि मैं कैसा हूं –

अति उत्तम वह उच्च प्रभु तिस समान नहीं कोय।
निर्मल निश्चय अति अगम यह ताप प्रभु होय।।

हे अर्जुन विचारे मनुष्य क्या करें। तिसका ज्ञान मेरी योग माया ने अछाद लिया है सो माया प्रकाश होने नहीं देती-

मोह माया महानन्द अधम नीच विमोचक!
अविनाशी अजन्म तिह प्रतापअन लखत।।

हे अर्जुन! एक मेरा नाम वेदों में चैतन्य पुरुष है । तिस का अर्थ सुन- ब्रह्मा से आदि चींटी पर्यन्त सब भूत प्राणी वर्तमान जो अब वर्ते हैं और जिन्होंने आगे होना है पीछे हो चुके हैं सो तिनको मैं भली भांति जानता हूं, मुझे एक तू ही जानता है और कोई नहीं जानता, क्यों नहीं जानता ? इन्द्रियों के भोगों में तिनको कामना है, भली वस्तु पाये से प्रसन्न और बुरी वस्तु पाये से दुखी होते हैं ऐसे हर्ष, शोक, कलह क्लेश कर मोह को करते हैं इसलिए मुझ को नहीं पहचानते, मूढ़ हुए हैं, इसी से जन्मते मरते हैं और जिनके पाप काटे गए हैं सो ऐसे पुण्य कर्मी परम पुण्यात्मा हैं संसार के हर्षशोक,कलह क्लेश से मुक्त होये कर मन के दृढ़ निश्चय साथ मेरा भजन करते हैं, मेरी ही आसरे हैं, सो मेरे भजन के ज्ञान का फल क्या पावेंगे सो सुन- बुढ़ापे और जन्म मरण के दुखों से मुक्त होंगे। तिनके मन में मेरे जाने का ज्ञान उपजता है वह मुझको ही ब्रह्म जानते हैं मुझको अद्भुत जानते हैं मेरे को ही अध्यात्म देव जानते हैं। ऐसा मुझ को जानकर प्राण त्यागने के समय मन का निश्चल चेता मेरे में रख मेरा स्मरण करते देह को त्यागते हैं इसी से प्राणी परमानन्द अविनाशी पद विखे जाए प्राप्त होते हैं।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्यायोग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे प्रकृति भेदो नाम सप्तमो अध्याय।।

★★★★ अथ सातवे अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी! अब सातवें अध्याय का महात्म्य सुन- पटेल नाम एक नगर में संकूकर्ण नामक एक वैश्य रहता था, व्यापार करने को नगर के बाहर कहीं को जाता था, रास्ते में संकूकर्ण को सर्प ने डस लिया, जिससे वह मर गया, उसके साथी उसको दाह कृत्यकर आगे को सिधारे। जब संकूकर्ण के साथी फिरके घर में आए तब उसके पुत्र ने पूछा मेरा बाप संकूकर्ण कहां है ? तब उन व्यापारियों ने कहा- तेरे पिता को सर्प ने डसा था, वह मर गया और यह पदार्थ (धन) तेरे पिता का है सो तू ले, काफी सारा धन दिया और तिसकी गति करने को कहा, क्योंकि वह अब गति मरा था, उस बालक ने अपने घर आकर ब्राह्मणों से पूछा कि सर्प के डसे से मरे की क्या गति करनी चाहिए ? पंडितों ने कहा नारायण बलि करावो। उर्द के आटे का पुतला बनाकर उसमें चुनिया जड़ाओ। जैसी विधि पंडितो ने कहीं तैसी करी, बड़ा यज्ञ किया, बहुत ब्राह्मण जिमाये, श्राद्ध पिंड पतल कराये, बाकी द्रव्य जो बचा चारों भाइयों ने बांटा, एक ने कहा कि जिस सर्प ने मेरे पिता को काटा है मैं तिसको मारूंगा, उन व्यापारियों से पूछा- वह ठौर मुझे बताओ जहां मेरे पिता संकूकर्ण की मृत्यु हुई है। व्यापारियों ने कहा- चल वह ठौर तुझे बताए वहां ले जाकर खड़ा किया, देखा वहां एक वर्मी है तिसको कुन्दाले के साथ खोदने लगा। जब छेद बढ़ा हुआ वहां से एक सर्प निकला कहा तू कौन है मेरा घर क्यों खोदता है ? उस बालक ने कहा मैं संकूकर्ण का पुत्र हूं जिसको तूने डसा है तेरे डसने से मेरा पिता मरा है मैं तुझको मारूंगा। तब उस सर्प ने कहा- हे पुत्र मैं तेरा पिता हूं, जिस सर्प ने मुझे इस स्थान पर डसा था वह सर्प तो उसी समय इस स्थान को छोड़कर चला गया था। अब तू मुझे मार मत बस इस अदम देह से छुडा। वह मेरा पूर्व का कर्म था सो मैंने भोगा। तब पुत्र ने कहा- हे पिताजी कोई यतन बताओ जिससे तेरा उद्धार हो, तब उस सर्प ने कहा- हे पुत्र! किसी गीता पाठी ब्राह्मण को घर में भोजन कराओ और उसकी सेवा करो, उसके आशीर्वाद से मेरा कल्याण होगा। तब उस बालक ने अपने घर आकर अपनी स्त्री को समाचार कहा। तब उसकी स्त्री ने कहा अवश्य करो, साधुओं को जिमाओ, संतों की सेवा करने से उद्धार होय तो करो। तब खोज कर उस नगर में जितने भी गीता का पाठ करते थे तिन सबको बुलाकर श्री गीता जी के सातवें अध्याय का पाठ कराया और उनको भोजन करवाया और सेवा बहुत करी, प्रदक्षिणा करी, विनय करी हे महापुरुषों! आप आशीर्वाद करो जो मेरे पिता संकूकर्ण का उद्धार होवे, उस अधम देह से छूटे। तब साधु ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दी, तत्काल ही वह अधम देह से छूट गया और देव देहि पाई, आकाश मार्ग जाता हुआ अपने पुत्र का धन्य धन्य करता बैकुंठ धाम में जा प्राप्त हुआ। श्री नारायण जी ने कहा- हे लक्ष्मी! यह सातवें अध्याय का महात्म्य है जो तूने सुना है जो पढ़े सुनेगा सो सदगति पावेगा।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उत्तरा खण्ड गीता महात्म्य नाम सप्तमों अध्याय संपूर्णम्।।