श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ चौथा अध्याय प्रारम्भते ★★★★

श्री भगवानोवाच-
श्री कृष्ण भगवान जी अर्जुन को कहते हैं। हे अर्जुन यह तो तुम को ज्ञान का उपदेश किया है जो पहले मैंने सूर्य को कहा था सो यह योग अविनाशी है। सूर्य ने अपने पुत्र मनु को कहा फिर मनु ने इक्ष्वाकु को कहा था। यह ज्ञान योग परंपरा पुरातन से चला आया है इसको राज ऋषि जानते हैं। इसको समझकर राज करते हुए भी परमपद को प्राप्त होते हैं

आवत हर्ष उपजई ,जावत शौक न होय।
ऐसी करनी जो रहे ग्रह वन योगी सोय।

हे परंतप अर्जुन योग को चिरकाल व्यतीत हो गया। अब पुरातन….

हे अर्जुन! संसार में है योग सदा प्रधान।
योग नष्ठ जब होत है प्रकट तब भगवान।।
योग मुझे प्यारा अधिक योगी मेरा मीत।
जिसका सुख दुख समसदा तुल्य धाम व शीत।।
कुन्ती सत योगी बनो तब होगा निस्तार।
सबसे योगी प्रिय मुझे और योग से प्यार।।
मुक्त होत योगी सदा जिसे न फल की आश।
उस योगी के टूटे हे पांडव! सब पाश।।

…. पुरातन हो गया संसार में नष्ट हो कर मिट गया है। अब वही पुरातन योग तेरे पति कहता हूं। यह योग वार्ता तेरे प्रति इसलिए कहता हूं कि तू मेरा भक्त है और मेरा सखा है सो चित एकाग्र करके सुन, आई वस्तु का हर्ष ना कर चली जावे उसका शौक न कर, एक ही जैसा जान हर्ष शोक से अलग हो चित्त को स्थिर रख। अर्जुनोवाच-
अर्जुन श्री कृष्ण भगवान जी के वचन सुनकर प्रशन करता है। हे महाप्रभु! तुम्हारा जन्म तो अब वसुदेव के घर हुआ है और सूर्य पुरातन है आगे को प्रकट हुआ है तुमने कब सूर्य को यह ज्ञान दिया था सो कृपा कर मुझको समझाओ अर्जुन के प्रश्न का उत्तर श्री कृष्ण भगवान जी कहते हैं श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन तेरे और मेरे बहुत जन्म व्यतीत हुए। सो मैं उन सब जन्मों को जानता हूं, तू नहीं जानता। मैं जन्म से रहित हूं, अविनाशी हूं, आत्मा हूं, समस्त भूत प्राणियों का ईश्वर हूं। प्रभु हूं! अपनी माया के पीछे होकर जन्म भी लेता हूं, माया का पीछा क्या कहिए- जैसे कोई राजा अपने राज वस्त्र उतार कर और अन्य वेश करने से लोगों द्वारा पहचाना नहीं जाता इस भांति मैं देह धर कर संसार में आया हूं, हे अर्जुन! मैं देहधारी नहीं देह से परे हूं, मेरा देह स्वरुप है जैसे मिश्री की झारी हो जिसमें मिश्री का शरबत भी घोला हुआ हो तैसे मेरी देह और आत्मा एक ही स्वरूप है। हे अर्जुन! मैं कब और किस निमित जन्म लेता हूं! सो सुन जब जब धर्म में ग्लानि होती है अधर्म उठकर धर्म के मार्ग को अछादिता है तब तब मैं प्रकट होता हूं। संतों की रक्षा और दुष्कृत अर्थात पापियों का नाश करने निमित्त धर्म को बढ़ाने के निमित मैं युग युग में अवतार धारण करता हूं आप जो दिव्य मेरे जन्म और कर्म हैं तिनको जान सो दिव्या क्या कहिए- जैसे और देहधारी रक्त बिंदु से उपजते हैं तैसे मेरी देह नहीं। जैसे और जीव कर्मों के बन्धन से बन्धे अर्थात कर्मों के अनुसार देह पावें है हे अर्जुन! मैं ऐसे जन्म नहीं लेता। मेरा जन्म स्वच्छ है अपनी इच्छा से प्रगट होता हूं। मेरे ऐसे जन्म दिव्य ज्योति रूप हैं और मेरे कर्म भी ऐसे दिव्य हैं जो मैं करता हूं सो किसी से करें नहीं जाते। जो मन की चितावनी से भी नहीं किए जाये उनका वृतांत सुन- प्रह्लाद भक्त की रक्षा हेतु नरसिंह रूप होकर, स्तंभ से निकलकर प्रकट हुआ तो किसी ने जाना भी नहीं हिरण्यकश्यप की छाती वज्र से भी कठोर थी सो कोमल घास की न्याई नखों से विदीर्ण करके फाड़ डाली। और गोकुल के भक्तों की रक्षा निमित्त सात दिन गोवर्धन पर्वत एक हाथ की नन्हीं उंगली पर धारण किया और जो मैंने अनेक कर्म किए हैं सो दिव्य ही किये है जो मनुष्य मेरे यह दिव्य जन्म और कर्म जाने। हे अर्जुन! जो मनुष्य देह को त्याग कर मेरे परमानंद अविनाशी पद में जा प्राप्त होता है फिर जन्म मरण के बन्धन में नहीं आता तब अर्जुन! जिसको मेरे चरणारबिंद की भक्ति उपजी है उसकी बात सुन- जो बहुत जन्म वैरागी होकर, निर्भय और क्रोध रहित होकर और मन का चेता मेरे विखे रख कर मेरी उपासना करता रहा हो इन साधनों से जिसका मन पवित्र हुआ उसको मेरी भक्ति उपजी है, जिनको प्रेम भक्ति उपजी है हे अर्जुन! मैं उनके रोम रोम में निवास करता हूं। अब अर्जुन और सुन जिस प्रकार कोई मेरा भजन स्मरण करता है उसी प्रकार मैं उसका भजन स्मरण करता हूं और सब मनुष्य ही जिस प्रकार से मैंने लगाये हैं तैसे ही वह लग रहे अर्थार्त कार्य कर रहे है। अब और सुन- मैं अपने भक्तों के साथ ऐसा हूं जिस प्रकार मेरे भक्त मेरे साथ है और जो तू कहे सभी मनुष्य तुम्हारा भजन क्यों नहीं करते, देवता की उपासना क्यों करते हैं उनकी बात सुन- देवता की उपासना करके मनुष्य फल मांगते हैं कि मुझे पुत्र मिले, धन मिले देवता तिनकी कामना पूरी करते हैं, सो देवता थोड़े यतन किये प्रसन्न होते हैं, इसलिए वह देवता की उपासना करते हैं और मेरे में तो उस पुरुष की श्रद्धा लगती है जिसके नेत्र ज्ञान रूपी देवी से खुले हुए हैं जिस को ओर सब कुछ देह प्रपंच झूठा ही दृष्ट आता है और मेरे को ही सर्वव्यापक सत्य रूप जाने तिसकी श्रद्धा मेरी उपासना में लगी है। अब अर्जुन! यह जो चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र है। जो मैंने ही उपजाए हैं और इनका भिन्न-भिन्न अपने-अपने कर्म मैंने कहे हैं। इन चारों वर्णों से इनके कर्मों का कर्ता अकर्ता मुझको जान, पर मुझे किसी कर्म किये का लेप नहीं लगता। तेरा कर्म युद्ध करना है तू इसे कर मेरी तरह तू भी निर्लेप रहेगा मुक्ति की वांछा करने वाले सब मेरी आज्ञा मानकर कर्म करते रहे हैं

सत्कर्मों की भावना, करते सदा सदीव।
कर्म पंथ निहकर्म होए, मुक्ति प्राप्त थीव।।
यह बात तुझको कहो युद्ध तुम्हारा धर्म।
पंडित भेद न पाव ही क्या अकर्म क्या कम।।
सुरते सूरत ना कर सके, औरों की क्या बात।
सोई कर्म तुझको कहूं मान लेहूं ए बात।।
जिन जाने से दुख हरे बन्धन होय खलास।
गूढ़ कथा तुझको कहूं तुम सुनो ब्रह्म के दास।।

हे अर्जुन एक तो कर्म है एक विकर्म है एक अकर्म है उनकी बात सुन- जिस भांति शास्त्र की आज्ञा है उस भांति स्नान से आदि लेकर कर्म करने को कर्म कहते हैं और जो भूले से पाप कर्म करें उनको विकर्म कहते हैं और जो आलस्य या अज्ञान से स्नान आदि सब कर्मों का त्याग कर देना है सो अकर्म कहावें हैं जो पुरुष इन तीन ही कर्मों को समझ कर जो शास्त्र की आज्ञा है त्यों करे वह बुद्धिमान पुरुष श्रेष्ठ सत्कर्मी कहावे है यह तो कर्म करने की बात कही है अब और जो कोई मनुष्य ऐसा है जिसको मेरी महिमा के जानने का ज्ञान उपजा है, उस ज्ञान से उनको किसी कर्म का आरम्भ नहीं उपजता, काम क्रोध से रहित हुआ है। ज्ञान अग्नि से जिसके सब काम जल गए हैं, ऐसा जो होवे तिसको विवेकी पुरुष पंडित कहते हैं। फिर कैसा है वह ज्ञानी पंडित जिसने सभी ही कर्म त्यागे हैं और कर्मों के फल भी त्यागे हैं जो पुरुष ज्ञान रूपी अमृत पान कर तृप्त रहता है, ऐसा जो प्राणी होवे उस पुरुष का किसी कर्म किए का लेप नहीं, निर्लेप है। किसी कर्म का बंधन नहीं, निर्बंधन है। फिर कैसा है जो एक परमेश्वर बिना किसी को मानता नहीं, किसी की आशा नहीं करता, निराशा है। संसार की वासना जिसने न रखी है जिसने चित और आत्मा को एकाग्र कर लिया जिसे किसी और वस्तु की याचना नहीं। जो सदा ही एकांत और अकल्प रूप है शरीर की रक्षा के निमित्त जो कर्म करे सो उनको तिन कर्मों का कुछ पाप नहीं, फिर कैसा है जो ईश्वर इच्छा से भोजन छादन आ प्राप्त होवें उसी पर संतुष्ट रहें। शीत, उषण, हर्ष, शोक से रहित है और किसी से जिसको द्वेष नहीं और भली बुरी वस्तु पाने पर एक जैसा है ऐसा जो है सो निर्बंधन कहावे है। फिर कैसा है, दूसरे का जिसको संग नहीं ऐसा जो प्राणी है सो मुक्त रूप है और जिसका चित मेरी महिमा के ज्ञान में सदा निश्चल है जिसके जितने कर्म थे वह सभी ज्ञान के समुद्र में डूब गए हैं और जिसको सर्वत्र ब्रह्म दृष्टि आयी है जहां-कहां, लेन-देन, खान-पान, पहनना, देखना, सुनना, उपजना, विनाश आदि में जिसको ब्रम्ह दृष्ट आए सो प्राणी ब्रह्म रूप है वह पुरुष भ्रम से उपज कर ब्रम्ह में लीन हुआ। ऐसी समाधि जिस पुरुष को प्राप्त हुई वह प्राणी ब्रम्ह ही कहावे है। अर्जुन बहुत प्रकार के योग सुन- जिस-जिस योग के मार्ग से मेरे भक्त मुझे पूजते हैं सो सुन- एक तो ब्रम्ह ज्ञान योग से मुझको पूजते हैं जो मैंने पीछे कहा है और एक प्राणी सब इंद्रियां, नेत्र, कर्ण आदि को मेरे स्मरण के नियमित संयम करते हैं एक तो यह योग है। और एक मौन कर-कर करते रहते हैं एक योग है। और एक सब इंद्रियों को रोक कर प्राण दसवें द्वार में रोकते हैं एक यह योग है। एक प्राणी सन्तों साधो की सेवा अन्न, वस्त्र, कर शीत, उष्णता निवारण जल अग्नि से सेवा करते हैं सो यह द्रव्य योग है। और एक तप योग है सो तप के प्रकार सताहरवें अध्याय में कहूंगा और एक यज्ञ योग है जो मेरे साथ जुड़ा रहना और मेरी महिमा करना एक यह योग है। महिमा अर्थात वेद पढ़ने, शास्त्र पढ़ने, विष्णुपदे गावने, मेरे नाम का कीर्तन करना राम, कृष्ण, गोविंदहरि, नारायण, परमानन्द, अच्युत अविनाशी करुणाकर इत्यादि नाम जपने वाले नरक से बच जाते हैं, हे अर्जुन! श्रद्धा ही यज्ञ करावे है। हे अर्जुन! जो मनुष्य एकांतवासी होकर अपने मन में ही मेरी महिमा करते हैं तिसको भी किसी कर्म का लेप नहीं। हे अर्जुन ऐसा मुझको समझकर तेरा कर्म युद्ध करना है, क्योंकि तू क्षत्रिय है। सो तू अवांछी होकर युद्ध कर, यह तेरा धर्म है। तुझको भी किसी कर्म का दोष नहीं लगेगा, और सुन- जिसके जानने से मुर्ख जीव पंडित होते हैं और बड़े-बड़े पंडित भी नहीं जानते, कि क्या कथा है। सो मैं तेरे सामने कहता हूं, जिसके जाने से दुखदायक संसार बन्धन से तू मुक्त होगा। हे अर्जुन! स्तुति करने का नाम यज्ञ है एक जीव यज्ञ है और एक प्राण अपान वायु इकट्ठा कर प्राणायाम करते हैं एक यह यज्ञ है और एक एक कर्म से एक एक ग्राम घटाते हैं यह जितने प्रकार के यज्ञ कहे हैं सो सभी पापों का नाश करते हैं। इन सब यज्ञों में से जिस यज्ञ से पूजा उसी से मुझको प्राप्त होंगे, उनका जीना अमृत के समान है और मेरी कृपा से जो कुछ वह भोजन करता है वह भी अमृत है और देह त्याग कर मेरे सनातन ब्रम्ह को पावेगा। हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ? मेरे पूजे बिना इस लोक में भी सुख नहीं पुनः परलोक की बात क्या कहिये। हे अर्जुन! यह बहुत प्रकार के यज्ञ मैंने पूर्व कहे हैं इनके जानने से तू मुक्त होगा। अब इन यज्ञों विषे जो श्रेष्ठ है सो सुन-हे परंतप पांडव! यह द्रव्य यज्ञ से आदि लेकर सभी यज्ञ मैंने कहें हैं इन समस्त यज्ञों से मेरी महिमा जाने का जो यज्ञ है सो श्रेष्ठ है और जितने और यज्ञ है सो ज्ञान पाने के निमित्त हैं और जब ज्ञान उपजे तब सभी यज्ञ उदय हो जाते हैं जैसे वृक्ष के फल लगे से फूल गिर जाते हैं। वैसे यह भी मिट जाते हैं अब जिसको मेरी महिमा का ज्ञान मेरी कृपा से होवें और वह कोई ज्ञान पाना चाहे तो क्या विधि करें, सो सुन- प्रथम तो सतगुरु की शरण आकर दोनों हाथ जोड़ नम्रता से उसके चरण कमलों को नमस्कार कर मुख से मेरा नाम लेवें, श्री राम जी, श्री कृष्ण जी, श्री गोपाल जी, ओम नमो नारायण जी, राधाकृष्ण जी, परमेश्वर की न्याई जानकर उसके अधीन होवें और विनय करें हे प्रभु जी! हे गुरुदेव जी! कृपा करो श्री भगवान के जानने का ज्ञान मुझे दान करो, ज्ञान के देने वाला जो है ज्ञानी, तिसको वह ज्ञान श्रवण करावे, हे पांडव अर्जुन! तिस ज्ञान के जानने से फिर माया मोह व्याप्त नहीं सकता। सो ज्ञान जानने से सब भूत प्राणियों मे से एक ही ज्ञान व्यापया जाएगा दूसरा भेद मिट जाएगा, सो यह ज्ञान है अब इस ज्ञान का फल सुन- जितने पाप जाने अनजाने किए हैं तिन पापों का जो फल दुख है सो तिन दुखों से ज्ञान नाव में चढ़ के पार जाएगा। जिस प्रकार लकड़ियों के अम्बारों को अग्नि जला के भस्म कर देती है, तैसे ही ज्ञान अग्नि मोह को जलाकर भस्म करती है और ज्ञान के समान दूसरा पवित्र कुछ नहीं।

इंधन झानस के किए पावक मुख में लाए।
ज्ञान वसंत प्रगट हो कर्म पाप जल जाए।।

हे अर्जुन! ज्ञान महा पवित्र है। ज्ञान समान कुछ नहीं, सो ज्ञान कब उपजता है ? मेरे योग साथ जुड़ने के प्रसाद से चिरकाल तक जो मेरे ध्यान में जुड़ा रहे तो उसको आत्मा से ज्ञान उपजता है। जिसको मेरे ज्ञान पाने की श्रद्धा हो सो सावधान होकर पढ़े, समझे, इंद्रियों को वश करें जो पुरुष ज्ञान को पावे, ज्ञान पाए से परम शांति जो परम सुख है तत्काल ही प्राप्त होवें हैं और जो अज्ञानी पुरुष हैं जिसको मेरे ज्ञान पाने की वांछा नहीं जिनके आत्मा में संयम नहीं है वह पुरुष आत्मनाश को प्राप्त होता है न उसको लोक में सुख मिलता है ना परलोक में और जो मेरे साथ जुड़े हैं उसमे कोई कर्म नहीं उठता और न ही उसको संशय व्याप सकता है, ऐसा जो योगी ज्ञानी है तिनको को कोई लालच हिला नहीं सकता, इस कारण हे अर्जुन तुझको तेरे हृदय ही अज्ञान संशय(संदेह) उपजता है सो ह्रदय ही से ज्ञान की खड़क लेकर संशय (संदेह) को काट डाल और खड़ा हो।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे कर्म योगो नाम चतुर्थ अध्याय।।

★★★ अथ चौथे अध्याय का महात्म्य ★★★

श्री भगवानोवाच हे लक्ष्मी! जो पुरुष श्री गीता जी का पाठ करते हैं तिनके के साथ छूने से भी अधम देह से छूटकर विवेकी को प्राप्त होते हैं। तब लक्ष्मी जी पूछती है हे श्री महाराज जी! श्री गीता जी के पाठ करने वाले के साथ छू कर कोई जीव मुक्त भी हुआ है ? तब श्री भगवान जी ने कहा- हे लक्ष्मी! तुमको मुक्त हुए की एक पुरातन कथा सुनाता हूं तुम श्रवण करो। भगीरथी गंगा जी के तट पर श्री काशी जी एक नगर है, वहां एक वैष्णव रहता था, श्री गंगा जी में स्नान कर श्री गीता जी के चौथे अध्याय का पाठ किया करता था और उस साधु के पास तपस्या ही धन था, माया का जंजाल कुछ नहीं था, एक दिन वह साधु वन में गया, वहां बेरी के वृक्ष थे, उनकी छाया थी। वह साधु वहां बैठ गया और बैठते ही उसको निद्रा आ गई, एक बेरी से उसके पांव लगे और दूसरी के साथ सिर लग गया, वह दोनों आपस में कांप कर पृथ्वी पर गिर पड़ी, उनके पत्ते सूख गए। परमेश्वर के करने से वह दोनों बेरियां ब्राह्मण के घर पुत्रियां हुई। हे लक्ष्मी! बड़े उग्र पुण्यों से मनुष्य दे मिलती है, फिर ब्राह्मण के घर जन्म लेकर उन दोनों लड़कियों ने तपस्या करनी आरंभ की, जब वह दोनों बड़ी हुई तब उनके पिता ने कहा पुत्रियों! हम तुम्हारा अब विवाह करते हैं वह दोनों दिखने में बहुत सुन्दर थी। तब उन दोनों ने माता-पिता से कहा हम विवाह नहीं कराती। उनको अपने पिछले जन्म की खबर थी उन्होंने कहा हमारे मन में एक कामना है यदि परमेश्वर वह पूर्ण करे तब बहुत भली बात है। उनके मन में यही था कि वह साधु जिसके स्पर्श करने से हमको अधम देह से छुट कर यह देह मिली है वह मिले तब बहुत भली बात है इतना विचार कर उन दोनों कन्याओं अपने माता-पिता से तीर्थ यात्रा करने की आज्ञा मांगी। तब माता-पिता ने तीर्थयात्रा की आज्ञा दी, तब उन दोनों कन्याओं ने माता-पिता को चरण वंदन करके गमन किया। तीर्थ यात्रा करती करती बनारस में पहुंची, वहां जाकर देखा वह तपस्वी बैठा है जिसकी कृपा से हम बेरी की देह से छुटी है, तब दोनों कन्याओं ने जा कर दंडवत करी। चरण वंदना करके विनय करी- हे संत जी! तुम धन्य हो, तुमने हमको कृतार्थ किया है। तब उस तपस्वी ने कहा तुम कौन हो ? मैं तुमको पहचानता नहीं। तब कन्याओं ने कहा हम आपको पहचानती हैं हम पिछले जन्म में बेरियों की योनि में थी, आप एक दिन वन में आयें, आपको बहुत धूप लगी थी, तब बेरियों की छाया तले आ बैठे। लंबासन होने से एक बेरी को आपके चरण लगे दूसरे को सिर लगा, उस समय हम बेरी की देह से मुक्त हुई। ब्राह्मण के घर जन्म लिया है, हम ब्राह्मणी है बड़ी सुखी है तुम्हारी कृपा से हमारी गति हुई है तब तपस्वी ने कहा- मुझे इस बात की खबर नहीं थी अब तुम आज्ञा करो तुम्हारी क्या सेवा करें ? तुम ब्रह्मरूप उत्तम जन्म भी नारायण जी का मुख हो। तब कन्याओं ने कहा हमको श्री गीता जी के चौथे अध्याय का फल दान करो जिसको पाकर हम सुखी होवें। तब उस तपस्वी ने चौथे अध्याय के पाठ का फल दिया। देते ही उनको कहा कि तुम आवागमन से छूट जावो। तभी तपस्वी कहता है मैंने नही जाना था कि गीता के चौथे अध्याय का महात्म्य ऐसा है कुछ साल बीते, उन दोनों ने देव देही पाई और बैकुण्ठ को गमन किया और तपस्वी मन वचन कर्म कर नित्यप्रति गीता का पाठ करने लगा। तब श्री नारायण जी ने कहा हे लक्ष्मी! यह चौथे अध्याय का महात्म्य है जो तुमने सुना है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम चतुर्थी अध्याय संपूर्णम् ।।