श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ पाचवें अध्याय प्रारम्भते ★★★★
सन्यास योग

अर्जुनोवाच- अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि हे….

समदर्शी के रूप की कहता हूं पहिचान।
हे कौन्तेय सुन ध्यान से सुनो लगाकर कान।।
ब्राह्मण गैया शवान में देखे मेरा रूप।
हाथी और विद्वान सम सम निर्बल और भूप।।
मूड़ चतुर सब जानते बेजर सब धनवान।
ऐसा समदर्शी पुरुष मोको अति प्रिय मान।।
इमि पंचम अध्याय में कहते हैं है भगवान।
योग और समदर्शिता सम पांडव तू जान।।

…. श्री कृष्ण भगवान जी कर्मों का त्याग सन्यास और कर्म योग निश्चय कर कहो जिससे मेरा कल्याण होवे। अर्जुन के प्रश्न का उत्तर श्री कृष्ण भगवान जी देते हैं। श्रीभगवानोवाच – इसमें सन्यास के योग, कर्म योग यह दोनों कल्याण के दाता हैं, इसमें सन्यास के निमित्त जो कर्म त्यागना सो उचित नहीं। कर्म करना अर्थात कर्म योग भला है और जो प्राणी ज्ञान की ऐसी बात को समझने हारा है, वह सन्यासी है और सो कैसा है जो सब बातों में हर्ष शौक से रहित है। हे महाभाव अर्जुन! ऐसा जो निरद्वन्द है जो सुखैन ही संसार के बन्धनों से मुक्त होता है अब अर्जुन और सुन- सांख्य और योग को भिन्न-भिन्न अज्ञानी कहते हैं, पंडित नहीं कहते, योग अर्थात मेरा ज्ञानगोष्ठ कथा वार्ता करनी सो यह दोनों एक ही हैं और इन दोनों का फल भी एक ही है जिससे मेरे परम स्थान की सांख्य वाला पाता है उसी स्थान को योगी भी प्राप्त होता है जिन्होंने सांख्य और योग एक ही कर जाना है उन्होंने यथार्थ जाना है। हे अर्जुन! सन्यास जो संसार के सभी कर्म देह और मन से त्यागना इनका नाम सन्यास है। हे महाबाहु अर्जुन! यह सन्यास पाना ब्रह्म योग में जुड़े बिना कठिन है, जब स्मरण साथ जुड़ता है तब सुखैन ही संसार के सुखों की बात भूल जाता है इसका नाम सन्यास है। स्मरण योग साथ जुड़े, ऐसा मुनीश्वर जो है सो तत्काल ही पारब्रह्म को आ प्राप्त होता है ऐसा जो प्राणी योग साथ जुड़ा है और निष्काम निर्मल है आत्मा जिसकी संसार की वासना से निवारिया है, आत्मा और समस्त इंद्रियों को जिसने पकड़ रखी है और सब भूत प्राणियों में एक ही आत्मा ब्रह्म दृष्ट आती है, ऐसा जो प्राणी है सो कर्म करता भी अकर्ता है। जो यह समझे की जो आत्मा है जो कुछ नहीं करता, नेत्र देखते हैं, श्रवण सुनते हैं, स्पर्श देह करे हैं, नासिका ससूंघती है, स्वाद जिव्हा लेती है, स्वास पवन से आवे जावे हैं, हाथ पकड़ते हैं, छोड़ते हैं, चलते हैं निमिख नेत्रों के लखते हैं, सोती जागती देह हैं। जो इस प्रकार समझे कि यह सब इंद्रियां अपने अपने विषयों को वरतती है मैं जो आत्माराम हूं सो अकर्ता हूं इस सबसे न्यारा हूं इस भांति आत्मा को जो समझे और इंद्रियों से कर्म करें। उस पुरुष को किसी कर्म किए का दोष नहीं, जैसे जल विखे कमल निरलेप न्यारा है वैसे ही वह पुरुष भी भावना से न्यारा है हे अर्जुन! जो योगीश्वर पुरुष है सो देह मन और इंद्रियों से सत्य कर्म जो स्नान आदि है सो करते हैं और फल कुछ वांछते नहीं, उसका फल निश्चल शांति पाते हैं और जो कामना के निमितत करते हैं सो बंधन को प्राप्त होते हैं। अब अर्जुन सदा सुखी कौन है ? तिसकी बात सुन- जो प्राण आत्मा साथ जुड़ा है और किसी इंद्रियों का उधम नहीं उठाता सो सदा सुखी है, अब अर्जुन मेरी बात सुन कि मैं कैसा हूं। मैं संसार को उपजाता हूं और प्रतिपालन भी मैं ही करता हूं और मैं ही इसका नाश भी करता हूं, मेरी माया का यह स्वभाव है। यह संसार माया का खेल है और मुझको इस संसार से कुछ प्रयोजन नहीं, ना मैं किसी से पाप कराता हूं न पुण्य कराता हूं, अज्ञानी जीव मोहित हुए हैं और पाप करते हैं। और जो मुझ ईश्वर को न्यारा निर्लेप समझते हैं तिनको कभी अज्ञान नहीं उपजता। जैसे सूर्य को अंधकार नहीं वैसे ही ज्ञानी निरलेप हैं। सो कैसा हैं ?….

निश्चलनिज कर सोय।
अब किलविषे उत्तरे ज्ञान का बौढ़ जन्म न होय।।
अति अडोल और चेतना सब जाने प्रभु सोय।
सबसे वरते सो प्रभु सबसे न्यारा सोय।।
ध्यान रूप गुरु ज्ञान कर अवर न पेखहु कोय।
मनुआ निश्चल बुद्धि थिर आपे आपसु होय।।
स्वास स्वास स्मृत हरो आत्माराम सुचित।
शरण एक ही पकड़ तू दृढ़ चित राखो मीत।।
तन धन तुमरा तू ही मोह नही और सब तोय।
ऐसा निश्चल दृढ़ कर विघ्न न लागे कोय।।

… मुझको न्यारा निरलेप जाने और मेरे विखे के परम प्रीत रहे, मेरी ही शरण रहे और स्वास स्वास मेरा भजन स्मरण करें। ऐसा मुझको जानकर जो मेरा भजन करता है, हे अर्जुन! जो ऐसा जानने वाला है सो मेरे परमानंद अविनाशी पद में जा प्राप्त होता है वहां गए से गिरता नहीं, सो पूर्ण ज्ञानी है अब ब्राह्मण कैसा है सो सुन- जन्म से ऊंचा या ब्राह्मण के घर का जन्म और विद्या से पूर्ण होय उसका जन्म ब्राह्मण के घर से भी न हो व सबसे नम्रता रखें, जिसको साधु ब्राह्मण और गौ, हाथी, शवान अर्थात कुत्ता और चांडाल ऊंच-नीच सब एक ही समान है ऐसा समदृष्टि पंडित कहलाता है वह जन्म मरण के बंधन से मुक्त हुआ और आत्मा ब्रह्म जो सब विखे निरलेप जानता है। ऐसी जिसको ब्रह्म दृष्टि आयी है जो भली वस्तु पाए कर प्रसन्न नहीं होता और बुरी वस्तु पाय से बुरा नहीं मानता ऐसा जो स्थिर बुद्धि ज्ञानी ब्रह्म को जानने वाला है जिसके हृदय में कुछ अज्ञान नहीं रहा बाहर की इंद्रियों के सुख वह भूल गया है और आत्मा के सुख में जो मगन हुआ है हे कुन्तिनंदन अर्जुन! जिसका आत्मा ब्रह्म योग साथ जुड़ा है उसने ही अविनाशी सुख पाया है और भोगों का सुख अंतवत है सो विषय-भोगों को त्याग के आत्मा का सुख भोगते हैं इंद्रियों के भोगों विषय नहीं रमते। और इंद्रियों के भोगों की और नही आते इंद्रियों के भोग दुखों को उपजाने हारे हैं। जिसका आगे जन्म नहीं तिनकी बात सुन- जैसे बटलोही से एक दाना निकाल देते हैं यदि वह गला है तो सभी दाने गले हैं जो एक कच्चा है तो सभी कच्चे हैं इस प्रकार जिस ज्ञानी को काम क्रोध नहीं उपजता तिस का फिर जन्म नहीं, जिसने काम क्रोध दोनों शत्र जीते हैं उसने ही योग की युक्ति जानी है और सो ही मनुष्य संसार विषे सुखी है उसको क्यों नहीं काम क्रोध उपजता यह बात सुन- आत्मा जो है ज्योति स्वरूप है। आत्मा साथ जुड़ने का जो निर्वाण सुख है और उस निर्वाण सुख विषे जाय मग्न हुआ है इस कारण से उसको काम क्रोध नहीं उपजते। सो आत्मा ब्रम्ह निर्वाण सुख को प्राप्त हुआ है उसके पाप मिट गए हैं और दूसरी दृष्टि तिस पुरुष की दूर हुई है। सो समदर्शी हुआ है और उसकी प्रीति सब भूत प्राणियों के कल्याण विखे हैं और शीतल स्वभाव है और काम क्रोध उसे नहीं व्यापते, वह ज्योति स्वरूप ब्रम्ह निर्माण सुख में मगन हुआ है अब जो देह साथ होते हुए मुक्ति रूप है तिनकी बात सुन- जिन्होंने बाहर की इंद्रियां विषयों से वर्ज रखी है और नेत्रों से त्रिकुट का ध्यान कर और प्राण वायु ऊपर आ और समान वायु तले को इकट्ठी कर नासिका विखे लाई है और जीवन जीता है, न ही किसी वस्तु की वांछा और जिसको किसी का डर नहीं और किसी से क्रोध भी नहीं, ऐसा जो भक्त है सो जीवन मुक्त कहलाता है अब मेरी बात सुन- हे अर्जुन! कई कोट लोग योग पावने के निमित्त यज्ञ करते हैं और कई कोर्ट लोग तपस्या करते हैं और यज्ञ भी करते हैं सो उन यज्ञों और तपस्या को भोगता आप है और सब लोगों का ईश्वर और सब भूत प्राणियों का मित्र ऐसा सो प्रभु है जो कोई ऐसा जाने कि श्री कृष्ण भगवान जी ऐसे हैं, तिनके जानने का फल क्या पता है सो परम सुख को पाता है।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद मुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे सन्यास योगोनाम पंचमो अध्याय।।

★★★★ अथ पाचवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री भगवानोवाच- हे लक्ष्मी! अब पांचवें अध्याय का महात्म्य सुन- एक पिंगला नाम का ब्राह्मण अपने धर्म से भ्रष्ट हो गया था। ठीक है वह कुसंग में जा बैठा, मछली मांस खाता, मदिरापान करता, जुआ खेलता, तब उस ब्राह्मण को भाईचारे में से अलग कर दिया गया तब वह किसी और नगर में चला गया। देव योग से वह पिंगला एक राजा के घर नौकर जा लगा, राजा के पास और लोगों की चुगलियां किया करता, जब बहुत दिन बीते तब वह धनवान हो गया तब उसने अपना विवाह कर लिया, पर स्त्री व्यभिचारणी आई, जैसा वह था वैसी स्त्री आई जो कुछ ब्राह्मण कहे सो वह न करें ब्राह्मण कहे तू बाहर न जा वह रुके नहीं, जहां उसका जी चाहे वह जावे, वह भर्ता को कुछ ना समझे वह सोचता और स्त्री को मारता एक दिन स्त्री को बड़ी मार पड़ी, स्त्री ने दुखी होकर भर्ता को विष दे दिया। वह ब्राह्मण मर गया और उसने गिद्ध का जन्म पाया, कुछ काल व्यतीत पीछे वह स्त्री भी मर गई उसने तो तोती का जन्म पाया, तब वह एक तोते की स्त्री हुई। वह तोता एक वन में रहता था एक दिन उस तोती ने तोते से पूछा, हे तोते तूने तोते का जन्म क्यों पाया ? तब उस तोते ने कहा, हे तोती! मैं पिछले जन्म की वार्ता कहता हूं मैं पिछले जन्म में ब्राह्मण था अपने गुरु की आज्ञा नहीं मानता था। मेरा गुरू बड़ा ही विद्वान था, उसके पास और विद्यार्थी भी रहते थे जब गुरु जी किसी और विद्यार्थी को पढ़ाते हैं मैं उनकी बात में बोल पड़ता, कहीं बार हटका, मैं नहीं माना, मुझको गुरु जी ने शाप दिया तू तोते का जन्म पावेगा, इस कारण से मैंने तोते का जन्म पाया अब तुम कहो किस कारण से तू तोती हुई ? उसने कहा मैं पिछले जन्म में ब्राह्मणी थी, जब ब्याही गई तब भर्ता की आज्ञा नहीं मानती थी, भर्ता ने मुझे मारा। एक दिन मैंने भर्ता को विष दे दिया वह मर गया। तब मेरी देह छुटी, तब बड़े नर्क में मुझे गिराया। कई नरक भोगकर अब मुझे तोती का जन्म मिला। तोते ने सुन कर कहा तू बुरी है जिसने अपने भर्ता को विष दिया। तोती ने कहा नर्कों के दुख भी मैंने ही सहे हैं अब तो तुझे भर्ता जानती हूं एक दिन वह तोती वन में गई हुई थी वह गिद्ध भी वहाँ आ गया। तोती को उस गिद्ध ने पहचान लिया कि यह तो वही मेरी भर्य्या है जिसने मुझे विष दिया था। वह गिद्ध तोती को मारने चला आगे तोती पीछे गिद्ध, जाते-जाते तोती एक श्मसान भूमि में थक कर गिर पड़ी वहां एक साधु को दाह किया हुआ था, उस साधु की खोपड़ी वर्षा के जल के साथ भरी पड़ी थी वह उसमें जा गिरी इतने में गिद्ध आया उस तोती को मरने लगा। उस खोपड़ी के जल साथ उसकी देह धोई गयी साथ मे गिद्ध की भी, वह आपस में लड़ते लड़ते मर गए। अधम देह से छूटकर देवदेहि पाई, आकाश से विमान आए, उन पर बैठकर दोनों बैकुंठ को गए तब तोती ने कहा हे गिद्ध ऐसा कौन पुण्य किया जो बैकुंठ को चले हैं। गिद्ध ने कहा हमने तो जन्म में कोई पुण्य नहीं किया मैं इस पुण्य को नहीं जानता। इतने में दोनों धर्मराज की पुरी में पहुँचे । धर्मराज ने कहा क्यों रे गिद्ध तुझे पता है तू क्यो बैकुण्ठ को चला है उसने कहा- नही धर्मराज जी! बस मै अपना पिछला जन्म जानता हूं कि पिछले जन्म मैं ब्राह्मण था मुझे अपने भाइयों ने देश निकाला दिया था। तब मैं और देश में जा बसा। वहां मैंने विवाह किया। दुराचारिणी स्त्री मिली उसने मुझे विष देकर मारा और यह मर तोती हुई मैं गिद्ध हुआ। मैं इसको पहचान कर मरने लगा तब यह उड़ती उड़ती थक गई और श्मसान मे जा गिरी। वहां श्मशान में एक मनुष्य की खोपड़ी जल के साथ भरी हुई थी उसमें तोती गिरी मैं भी वहां पहुंचा। लड़ते लड़ते उस खोपड़ी का जल दोनों के को स्पर्श हुआ। तत्काल हमारी देह छूट देव देही पाई और हम दोनों को बैकुंठ चले हैं, और कोई कौतुक हमको कुछ मालूम नहीं हुआ। तब धर्मराज ने कहा यह खोपड़ी साधु की थी। वह श्री गंगा जी में स्नान करके नित्य श्री गीता जी के पांचवें अध्याय का पाठ किया करता था। वह खोपड़ी परम पवित्र थी। उसके स्पर्श से तुम वैकुंठवासी हुए हो और पार्षदों को धर्मराज ने आज्ञा दी कि जो प्राणी श्री गंगा जी का स्नान करके गीता का पाठ करते हैं तिन को मेरे पूछे बिना बैकुंठ को ले जाया करो, जो संतों की सेवा करते हैं तिनको भी बैकुंठ को ले जाया करो। तब पार्षद दोनों को बैकुंठ ले गया। श्री नारायण जी ने कहा हे लक्ष्मी! यह गीता जी के पांचवें अध्याय का महत्व है जो तूने श्रवण किया है।

इति पदम् पुराणे सतिईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम पांचवाँ अध्याय सम्पूर्ण।।