★★★★ श्री कृष्णाय नमः ★★★★
★★★★ अथ छठा अध्याय प्रारम्भते ★★★★
आत्म संयम – योग
श्री भगवानोवाच- हे अर्जुन! जो कर्म योग द्वारा मेरे साथ जुड़े हैं और फल कुछ वांछते नहीं तिनको सन्यासी जान। जो मेरे साथ….
हर्ष शोक को त्याग कर मान और अपमान।
दुख-सुख सम जाने वही उत्तम नर पहिचान।।
देना लेना बाटना सब अर्पण भगवान।
वह योगी संसार में हे अर्जुन धीमान।।
स्तुति गाली सब जान कर जीवन करें व्यतीत।
उस योगी कि जगत में होती अर्जुन जीत।।
मेरे अर्पण पर कर्म हो करे नहीं अभिमान।
मुक्त जीवन वह जगत में यूं कहते भगवान।।
…. जुड़े हैं इसी से योगी है फुल कुछ बांछते नहीं इसी से सन्यासी हैं, हे अर्जुन! जटा के धारे से भस्म के लगाने से, अग्नि, धूनी जला बैठने से सन्यासी नहीं होता। हे पांडव! योगी जन सन्यासी उसको कहते हैं जिसके मन में मेरे चरण-कमल बिना और कुछ वांछा नहीं। मेरे स्मरण में जुड़े बिना अवांछी होता नहीं अवांछा हुए बिना मेरे स्मरण में जुड़ता नहीं। जब मेरे स्मरण साथ जुड़े तब अवांछि होवें बिना कोई योगी नहीं। इस कारण से सन्यास और योग एक से कहे हैं। और जो कोई मेरे योग साथ जुड़ना चाहे तिसको मेरे जानने के जो सत्य कर्म है स्नान आदि से लेकर सो करने चाहिए। जब सत्य कर्म कर निर्मल होवें तब मेरे साथ जुड़े। और जो कोई योग आरूढ़ होवें तिनको कोई कर्म नहीं करना चाहिए जो कुछ उनको इच्छा हो सो करें। सोवे तब सो रहे, जो बैठा तो बैठा रहे, योग आरूढ़ इच्छाधारी मुक्त रूप है। योग आरूढ़ क्या होता है तिसके लक्षण सुन- इंद्रियां किसी विषय को न उठे और मन में मेरे स्मरण बिना कोई चिंता भी ना होवे जब ऐसा हो तब योग आरूढ़ होता है उसने अपनी आत्मा का उद्धार किया है, संसार के विषयों के स्वाद में नहीं रहा और अपनी ही आत्मा मित्र है अपना ही शत्रु है जिसने विषयों से वर्ज कर अपनी आत्मा मेरे भजन साथ जोड़ी है तिसकी अपनी आत्मा मित्र है जिसने मुझको विसार कर अपनी आत्मा विषयों में लगाई उसकी आत्मा शत्रु है, फिर ना कोई मित्र है ना कोई शत्रु। जिसने आत्मा विषयों से वर्ज कर परमात्मा पारब्रह्म अविनाशी के साथ जोड़ी है सो परम शांति सुख को प्राप्त हुआ। और उसको सीत उषण भी नहीं व्यापता। उसे मेरी कृपा से और कोई दुख भी नहीं व्याप सकता, जो आदर करने से प्रसन्न नहीं और अनादर करने से बुरा नहीं मानता और अपने आप को जानना इस को ज्ञान कहा है मैं क्या वस्तु हूं यह क्या खेल है और विज्ञान अर्थात परमेश्वर को जानना यह दोनों ज्ञान विज्ञान है, इसको तेरहवें अध्याय में कहूंगा। जिसमें ज्ञान-विज्ञान रूप अमृत पान किया है जिसका आत्तमा तृप्त हुआ सो इंद्रियों को निवारण कर सदा एक सा रहें, कंचन, माटी, शत्रु, मित्र एक समान जाने धर्मी पापी एक से दिखे, रोग द्वेष न करें, निरंतर एक ध्यान से मित्र शत्रु को जाना करें, यह पूर्ण योग के लक्षण है। इस युक्ति से रहे, वह योगी आत्मा से जुड़े अभय रहे, परमानंद रूप रहे, दूसरे की आशा न करें माया मोह से रहित हो परमपद को पावे है, हे अर्जुन! जो कोई और भी योग आरूढे चाहे, उसकी बात सुन- वह क्या करें। प्रथम तो एकांत स्थान मे एक थड़ी चार उंगल ऊंची जिसमें कंकर टोआ, टिबा ना हो सो बनाए ऐसा साफ थड़ा बनाकर तिस पर गोबर का चौका फेरे, तिस पर कुशा उस पर मृगशाला बिछा के ऊपर कपास का धुला हुआ कपड़ा डाले ऐसे पवित्र स्वच्छ आसन पर चौकड़ी मार बैठे, मन को निशचल कर इन्द्रियां वश कर ऐसा होकर मेरे साथ जुड़े और सारी देह को सीधा रखें, बांका टेढ़ा न बैठे, सिर ग्रीवा को भी सीधा रखें ऐसा निर्मल होकर बैठ कर श्रज्ञानी नासिका का अग्र भाग देखें और किसी दिशा को ना देखें, अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन करें। किसी का भय न करें, गोविंद को गह राखे और मन को संयम करें, मन का निश्चल चेता मेरे में रखें इस भांति मेरे साथ योगी जुड़े। मन लक्षणों के साथ जुड़े तो परम शांति सुख अर्थात निर्माण पद को प्राप्त होवें हैं। हे अर्जुन! और भी तिसकी की युक्ति सुन- जो प्राणी उधर भर के भोजन खावें उससे योग प्राप्त नहीं होवें, योग किस भांति प्राप्त होवें सो सुन- युक्ति का आहार हो विवेकी पुरुष दो ग्रास भूखा रहे। जिसमे स्वास सुखी चले और गिरे भी नहीं और मस्त हाथी जैसे मंद मंद चले, जूता न पावे, दृष्टि कर पृथ्वी को देखता चले, जहां कोई जीव जंतु कंकर कांटा न हो वह चरण धरे, अपवित्र ठोर न धरे। जागता रहे तो भी योग नहीं होए, सोय रहे तो भी योग नहीं होय, सोना जागना त्याग कर पहर रात पहली जागे, पहर पिछली जागे सो ऐसी युक्ति कर योग करें तिसको यह योग प्राप्त होता है ऐसी युक्ति कर देह को कोई रोग भी नहीं व्यापता। इसका नाम दुख नाशक योग है। विवेकी पुरुष योगी का मन जब आत्मा साथ जुड़ जाता है तब उसके मन में किसी वस्तु की वांछा नहीं रहे। तिसको योग युक्त कहते हैं अब योगी को एकांत में बैठना क्यों कहा है इसका दृष्टांत सुन- जैसे जिस जगह पवन नहीं चलती उस जगह दीपक निर्मल अडोल ज्योति प्रकाश करे है और जो पवन लगने के स्थान में रखे तो जिस उसकी ज्योति डोले है इस कारण से योगी को एकांत बैठना कहा है। जो एकांत बैठकर मेरा ध्यान करें उस योगी का चेता मेरी सेवा युक्ति से निश्चल होता है तब उसको आत्मा दर्शन होता है, आत्मा के दर्शन से अति सुख को पाता है आत्मा के दर्शन का सुख कैसा है ? अति अविनाशी सुख है जिसको बुद्धि जानती है वह सुख बुद्धि गोचर है इंद्रियां उस सुख को नहीं जानती। इस कारण से इसका नाम अति इंद्रियां सुख है और जिसको पाने से वह योगी निर्लेप निश्चय होता है और उस सुख के उपरांत और कोई लाभ नहीं मानता, जिस सुख के पाने से शरीर को कोई बड़ा दुख लगे और शस्त्र साथ काटे, अग्नि में जलावे तो भी उसको दुख ना लगे। जिसका साक्षी प्रह्लाद है जैसे हिरणाकश्यप ने प्रहलाद को अनेक प्रकार की यातना दी पर प्रहलाद को कुछ कष्ट ना हुआ। ऐसा सुख जिसे पाकर सभी दुख भाग जायें, ऐसा सुख निधान योग संसार से विरक्त होकर अवश्य कीजिए, विलम्बन न कीजिए। सभी कामना छोड़कर कर और सब इंद्रियां वश कर योग कीजिए। शनैः शनैः मन को बुद्धि साथ पकड़कर आत्मा में निश्चल रखें और कुछ न चितवे यह मन चंचल है जिस जिस बात को चितवे उससे निवरण कर आत्मा साथ लगावे। जब मन साथ जुड़ जाए तब कैसी परम शांति सुख को पावे है तीन गुण को काट जावे है निर्मल पाप से तब ब्रम्ह साथ मिलने से ब्रम्ह का ब्रम्ह हुआ कपट माया दूर किया, इस प्रकार जिसने योग जाना सो नहीं डोलता, आप से आप जब जुड़या तिसके तब पाप सहज से जुड़ जाते हैं। इस प्रकार योग पाया तब ब्रह्म सुख को प्राप्त हुआ, आत्मा संग किया, परम सुख को पाया। सकल घट में आपको देखा,आत्मा में सकल देखा। अपना पराया कुछ न देखे सब आत्मा को जाने, सदा सम दृष्टि देखे, आप मध्य ब्रह्म देखा जगत निर्मल योग ब्रह्म प्रताप से पाये। हे अर्जुन! सभी भूत प्राणी तिसको अपने आत्मा में दृष्टि आये, और सब भूत प्राणीयों में अपनी आत्मा तिसको दृष्टि आये, तिसकी ऐसी समदृष्टि हुई, अपने में भी मुझको लगा देखें। जो सब में मुझ आत्मा ब्रह्म को देखें और सभी भूत प्राणी मुझ विराट पुरुष पर बैठे देखें। ऐसी जिसकी दृष्टि भई मैं उससे भिन्न नहीं, मुझसे वह भिन्न नहीं, मैं और वह एक रुप है। सभी भूत प्राणियों में मुझको व्यापक जानकर जो मेरा भजन करते हैं तिनको फिर जन्म नहीं और सब जनों में मैं व्यापता हूं उनमें मेरा भजन क्या है सो सुन- हे अर्जुन! जैसा अपने आत्मा में दुख सुख लगता है तैसे ही दूसरे का जाने,यह जानकर किसी को दुखावे नही, सबका सुखदायक मित्र होकर बरतें, मेरे मत में सब योगियों में वही योगी श्रेष्ठ है जो सबको सुखदायक है।
अर्जुनोवाच-
अर्जुन श्री कृष्ण भगवान जी से प्रश्न करते हैं, हे मधुसूदन जी ? जो तुमने जिस योग का मुझे उपदेश किया है हे प्रभु जी यह योग तो मेरे में नहीं है और मैं ऐसा योग कर भी नहीं सकता। हे भगवान! मन तो चंचल है, मस्त हाथी की न्याई बलवान है तिस मन का पकड़ना में पवन से भी कठिन जानता हूं। अर्जुन के प्रश्न का उत्तर श्री कृष्ण भगवान जी कहते हैं। श्री भगवानोवाच-
हे महाबाहो अर्जुन! इसमें कुछ संदेह नहीं, मन तो चंचल है, पकड़ा नहीं जाता, पर इसके पकड़ने के दो उपाय हैं सो सुन- मेरे साथ प्रीति, संसार के विषयों से वैराग्य इनसे मन निश्चल होता है। सो जिसने मेरे साथ प्रीति नहीं करी, संसार के विषयों से वैराग्य नहीं किया, सो मुझको नहीं पावेगा। जिन्होंने अभ्यास द्वारा मन मेरे साथ नहीं जोड़ा अभ्यास कहिए, जब मेरे स्मरण बिना जो कुछ और चितवना मन मे चितवे है तिनको योग कहा है अभ्यास कहिये, जब मेरे स्मरण बिना कुछ और चितवना मन मे चितवे, मन बुद्धि साथ जोड़कर मुझ ही को समरे इसका नाम अभ्यास है जिसने वैराग्य और अभ्यास दोनों उपाय नहीं किए तिनको योग कठिन है, जिन्होंने अभ्यास वैराग्य और मन दोनों मेरे साथ जोड़ा है उसको योग पाना आसान है, अभ्यास वैराग्य दोनों उपाय मन को पकड़ने के हैं। अर्जुनोवाच-
अर्जुन प्रश्न करें हैं। हे महाप्रभु जी! जिन्होंने तुम्हारे साथ योग जोड़ा है देह छूटने के समय तिनकी श्रद्धा अर्थात प्रीति तुम्हारे योग से छूट किसी और बात पर गई हो, सो प्राणी योग की विधि को नहीं प्राप्त हुआ। हे श्री कृष्ण भगवान जी! सो किस गति को प्राप्त हुआ। तुम्हारे योग से भ्रष्ट हुआ कि नहीं, उसकी सारी सिद्धि निष्फल गई या कुछ गति भई, जैसे मेघ को वर्षा के निमित्त उमंग कर संसार में आवे, किसी और से पवन आकर मेघ को खंड-खंड कर दे,वर्षा न हुई। मेघ की भांति योगी का योग नष्ट हुआ या उसकी गति हुई। हे जनार्दन प्रभु! श्री कृष्ण जी! सो तुम्हारे भोग को नहीं पहुंचा। तुम्हारा तो ब्रह्मपद है मुक्ति पद बैकुण्ठ, तिस मार्ग से वह फिर अन्धा हुआ तिसकी गति कहो। हे प्रभु! मेरे मन का शंशय काटो तुम बिन इस शंशय को छेदन हारा कोई नहीं। श्री कृष्ण भगवानोवाच-
हे अर्जुन! उसके योग को तू नाश हुआ मत मान, हे अर्जुन! जिसने एक बार मेरा नाम लिया और नमस्कार किया है मैं सत्य रूप अविनाशी सदा कल्याण रूप हूं। अब योगी जिसका मन देह छूटने के समय स्मरण को त्याग के और बात पर गया, तिसकी गति सुन- जिस स्वर्ग को पाने के लिए मनुष्य बड़े-बड़े दान करते हैं, यज्ञ करते हैं, सो स्वर्ग मेरे योगी को दण्ड है सो भ्रष्ट योगी भोगते हैं, सो स्वर्ग का वृतांत सुन- वहां देवता ही बसते हैं, वहां न किसी की कोई स्त्री है ना किसी का भर्ता है, वहां अप्सरा भोगने को है सो कैसी हैं ? जिनकी देह से बड़ी सुगंधि आवे है और दिव्य गंधर्व गायन करते हैं, खाने को अमृत भोजन है, सूंघने को दिव्य पारिजात के फूल, पहरने को दिव्य वस्त्र और अनेक प्रकार के दिव्य भोग हैं, योग भ्रष्ट वहां जाकर पहुंचता है और अनेक दिव्य भोगों को भोगता है, जब उन भोगों से उसका मन विरक्त हो जाता है तब वह स्वर्ग लोक त्याग कर मनुष्य लोक में आ जन्म पाता है वह किसी पवित्र कुल ब्राह्मण, क्षत्रिय और लक्ष्मी युक्त कुल में जन्म लेता है। जिसने थोड़े दिन योग साधना करी, मरने के समय योग से चला गया हो सो स्वर्ग के भोग भोग कर ब्राह्मण, क्षत्रिय द्रव्यमान के घर जन्म लेता है, फिर योग की साधना तिस के मन ऐसे जाग उठती है, जैसे कोई कार्य करते-करते सो जावे जब वह जागता है तब वही कार्य करने लगता है, इस भांति जिनके मन में योग उपज आता है, तब मेरे योग साथ जुड़ के मेरे परमानंद अविनाशी पद में प्राप्त होता है यह तो जिसने थोड़े दिन साधना की थी और मरने के समय उसका मन योग से चला गया तिसका वृतांत है। अब जिसने बहुत दिन योग साधना की हो और मरने के समय मन चलायमान नहीं हुआ, उसका वृतांत सुन- वह योगी भी स्वर्ग के भोग भोगकर फिर मनुष्य जन्म पावे, तो बड़े बुद्धिमान मेरी महिमा जानने हारे योगी के घर पावे है। अति दुर्लभ से दुर्लभ है वहां जन्म लेकर जो कुछ पूर्व जन्म योग अभ्यास किया था सो यतन से बिना ही उसका अभ्यास हो जाता है, जैसे पिछले जन्म उसको बुद्धि थी सो उसको वही बुद्धि प्राप्त होनी है सो हे कुन्ति नंदन योग का अभ्यास उससे जाग उठे हैं वह योगी शब्द ब्रह्मा जो वेदों का तत्व है सो उसमें मेरी महिमा को जानने लगा तो पारग्रामी हुआ और यतन बिना ही मेरे साथ जुड़ जाता है। पापों को काटकर मेरे योग की साधना को प्राप्त होता है। अर्जुन! इस योग मार्ग की सिद्धि एक जन्म में नहीं होती। अनेक जन्म बहुत बार योग करता आवे तब मेरे परमगति परमपद अविनाशी धाम को प्राप्त होता है। अब अर्जुन योगी भी तीन प्रकार के होते हैं एक तपयोगी है सो उनकी वार्ता सताहरवें अध्याय में कहूंगा। एक ज्ञान योगी है, एक कर्म योगी है, मेरी पूजा करने हारे, तप योगी से ज्ञान योगी अधिक श्रेष्ठ है, तिसकी बात सुन- जिस योगी की आत्मा मेरी प्रीति साथ मेरे में मगन हुई और नित्य ही श्रद्धा से मेरी पूजा करता और स्वास-स्वास श्रद्धा से मेरा स्मरण भजन करता है तो सब योगियों से श्रेष्ठ है, उससे अधिक मुझे कोई प्यारा नहीं।
इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रम्ह विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे आत्मसंयम योगो नाम षटो अध्याय।।
★★★★ अथ छटे अध्याय का महात्म्य ★★★★
श्री भगवानोवाच- हे लक्ष्मी! छठे अध्याय का महात्म्य सुन- गोदावरी के तट पर एक नगर था, वहां एक जान श्रुति राजा बड़ा धर्मज्ञ था। धर्म अर्थ, काम मोक्ष का साधक था, तिसकी प्रजा भी धर्मज्ञ थी, लोग राजा की स्तुति करते थे। एक दिन उस नगर में हंस उड़ते-उड़ते आ गए उनमें से एक हंस बैठता ही उतावला हो उड़ गया तब नगर के पंडितों ने कहा- हे हंस! तू ऐसा उतावला हो उड़ा है क्या तू राजा जान श्रुति से आगे ही स्वर्ग को जाना चाहता है ? तब उन हंसो के सरदार ने कहा हमारे राजा से भी एक रैयक मुनि ऋषिवर श्रेष्ठ है, वह बैकुंठ का अधिकारी होवेगा, बैकुंठ लोक स्वर्ग से ऊंचा है। जब वह वार्ता राजा ने श्रवण की तब मन में विचार करें कि मेरे से उनका पुण्य बड़ा होवेगा। जिसकी हंस स्तुति करते हैं, विचार कर कहा उसका दर्शन करिये। राजा ने सारथी से रथ मंगवा कर सवारी करी, प्रथम बनारस श्री काशी जी में जाकर गंगा में स्नान किया, दान किया, शिव जी महाराज का दर्शन किया। फिर लोगों से पूछा यहां कोई रैयक मुनि भी है ? लोगों ने कहा नहीं। तब राजा दक्षिण देश को गया द्वारकानाथ को पधारा, यहां स्नान ध्यान कर दान किया। लोगों से पूछा यहां कोई रैयक मुनि है ? उन्होंने कहा नहीं। तब राजा पश्चिम दिशा को गया जहां-जहाँ तीर्थों पर गया तहाँ-तहाँ जाकर दान स्नान करके रैयक मुनि को पूछता, फिर राजा उत्तर दिशा को गया। बद्रीनाथ जी को पधारा, वहां से राजा का रथ आगे ना चला। तब राजा ने कहा मैंने सकल धरती की प्रदक्षिणा करी है, किसी स्थान पर रथ नही अटका यहां रथ अटका है। यहां कोई पुण्य आत्मा रहता है तिसके तेज से मेरा रथ नहीं चलता। तब राजा रथ से उतरकर आगे चला, देखा तो एक पर्वत की कन्द्रा में अतीत बैठा उसके तेज से बहुत प्रकाश हो रहा है, जैसे सूर्य की किरणें होती हैं। तब राजा ने देखते ही कहा यह रैयक मुनि होगा। राजा ने दंडवत कर चरण वंदना करी, हाथ जोड़कर स्तुति करी, हे गुसाई जी! आपके दर्शन कर मेरा कल्याण हुआ। आज मेरा जन्म सफल हुआ। आज मैं कृतार्थ हुआ हूं। तब रैयक मुनि ने राजा का आदर किया और कहा हे पृथ्वीपति! तू चार धाम के करने हारा, धर्म के साधन हारा है, तू पुण्यात्मा है। सत्कार सहित राजा को अपने पास बिठा लिया। तब कंदमूल मंगवाकर राजा को दिया। राजा ने मुनि से पूछा आप का तेज किस के बल से है ? तब मुनि ने कहा हे राजा! अतीत जटाधारी भस्कानगी को पनधारी हूं पुण्य क्या करना था। माया मेरे पास नहीं, पर हमारे यहां एक बात है नित्य गीता जी के छठे अध्याय का पाठ करता हूं, इस कन्द्रा मे उसी का उजाला है। यह सुनकर राजा ने अपने पुत्र को बुलाकर कहा- हे पुत्र! आज से तू राज्य कर, मैं तीर्थ को जाता हूं। इतना कहकर राजा ने राज त्याग दिया। रैयक मुनि से गीता के छटे अध्याय का पाठ करना आरंभ किया। इस पाठ के प्रताप से राजा त्रिकालदर्शी हुआ। इस प्रकार वन में कई वर्ष बीत गए। एक दिन प्राणायाम करके दोनों ने देह त्याग किया, दोनों ही बैकुंठ गए। श्री नारायण जी कहते हैं हे लक्ष्मी! यह गीता जी के छटे अध्याय का महात्म्य है सो तूने सुना है।
इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्यनाम षष्टो अध्याय सम्पूर्ण् ।।