श्री कृष्ण बलराम जी के साथ वृन्दावन में तरह-तरह की लीलाएँ करते रहते थे। उन्होनें एक दिन देखा कि सब गोप इन्द्र यज्ञ की तैयारी कर रहे हैं। श्री कृष्ण ने नन्दबाबा से पूछा- सब लोग किस चीज़ की तैयारी कर रहे हैं? नन्द बाबा बोले- बेटा! भगवान इन्द्र वर्षा करने वाले सम्पूर्ण सुरवसागर मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के रूप हैं। वे सब प्राणियों को तृप्त करने वाले और जीवन दान देने वाले जल को बरसाते हैं। हम और अन्य व्यक्ति भी उन्हीं मेघों के स्वामी भगवान इन्द्र की यज्ञ के द्वार पूजा करते हैं । भगवान श्री कृष्ण ने कहा- पिताजी ! इसमें भला इन्द्र का क्या लेना देना है ? वह भला क्या कर सकता ? न तो हमारे पास किसी देश का राज्य है। हमारे पास तो गाँव या घर भी नहीं हैं। हम तो वनवासी हैं। वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं। इसलिए हम लोगों को गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराज का भजन करने की तैयारी करनी चाहिए । इन्द्र यज्ञ के लिए जो सामग्री है उस से मेरे द्वारा बताए यज्ञ का अनुष्ठान होने दें। अनेकों प्रकार के पकवान – खीर, पूरी, हलवा, पुआ आदि बनवाया जाए। ब्रज का समस्त दूध एकत्र करा जाए। इसके बाद गोवर्धन को दूध से स्नान कराकर उनको सब पकवानों का भोग लगाया जाए। सभी इसके लिए तैयार हो गए । गोप और गोपियों ने गोवर्धन की परिक्रमा की । जब इन्द्र को ज्ञात हुआ कि मेरी पूजा बन्द कर दी गई है तब वे नन्दबाबा और गोपों पर बहुत क्रोधित हुए। इन्द्र ने प्रलयकारी मेघों को आज्ञा प्रदान की- ब्रज पर मूसलाधार वर्षा कर इनको पीड़ित करो। मूसलाधार वर्षा के कारण पशु और ग्वाल बाल ठिठुरने लगे। भगवान श्री कृष्ण ने जब देखा कि वर्षा और ओलों की मार से पीड़ित होकर सब बेहोश हो रहे हैं तो वे समझ गए कि यह सब करतूत इन्द्र की है। इस पर भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग माया को बुलाया और उसके द्वारा ब्रज की रक्षा की । भगवान ने सोचा इन्द्र को उसकी करतूत का जबाव देना चाहिए। भगवान ने खेल ही खेल में एक ही हाथ से गिरिराज पर्वत को उखाड़ कर अपने हाथ पर धारण कर लिया। इसके बाद उन्होंने गोपों से कहा- तुम सब लोग अपनी गौओं और समस्त सामग्री के साथ इस पर्वत के गढ्ढों में आकर बैठ जाओ। वे सात दिन तक लगातार उस पर्वत को धारण किए रहे । सात वर्ष के बालक श्री कृष्ण की योगमाया को देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उसका सारा घमण्ड चूर-चूर हो गया । वे भौचक्के से रह गए। इसके बाद इन्द्र ने मेघों को वर्षा करने से रोक दिया। जब गोवर्द्धनधारी श्री कृष्ण ने देखा कि भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बन्द हो गई है और सूर्य दिखाई देने लगा तो गोपों से कहा- अब तुम निडर होकर अपनी स्त्रियों, गोधन तथा बच्चों सहित बाहर निकल आओ । भगवान श्री कृष्ण ने सब प्राणियों के देखते-देखते गिरिराज पर्वत को पूर्ववत उसके स्थान पर रख दिया । पर्वत को रखते ही जनसमुदाय उनके पास उमड़ आया । कोई उन्हें चूमने लगा कोई हृदय से लगाने लगा। सबने उनका सत्कार किया। स्वर्ग में देवता लोग शंख और नौबत बजाने लगे एवं फूलों की वर्षा की । परम तेजस्वी भगवान श्री कृष्ण का प्रभाव देखकर इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर हो गया। इन्द्र ने भगवान की स्तुति की। श्री शुकदेव जी कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण से कहकर कामधेनु ने अपने दूध से और देवताओं की प्रेरणा से देवराज इन्द्र ने एरावत की सूँड के द्वारा लाए हुए आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ भगवान श्री कृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें गोविन्द नाम से सम्बोधित किया। अब भी गोवर्धन की पूजा होती आ रही है। इन्द्र यज्ञ की पूजा बंद कर दी गई। इसके बाद भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज की यात्रा की । उनकी बगल में बलराम जी चल रहे थे और उनके प्रेमी ग्वाल बाल उनकी सेवा कर रहे थे । गोपियाँ भी उनकी लीलाओं का वर्णन करती हुई आनन्दपूर्वक ब्रज में लौट आईं।