एक बार की बात है कि जब श्री वेदव्यास जी वेदों का विभाजन कर रहे थे तो श्री नारद जी वहाँ पधारें। नारद जी को आया देख उनके • स्वागत के लिए श्री वेद व्यास जी उठकर खड़े हो गए। उन्होंने देवताओं द्वारा सम्मानित देवर्षि नारद जी की पूजा अर्चना की। व्यास जी बोले- नारद जी आप ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हो और आपको ज्ञान भी अगाध है। आप अपने पूर्व जीवन के सम्बन्ध में बतलाइए । इस प्रकार व्यास जी और नारद जी ज्ञान शास्त्र और अन्य शास्त्रों के विषय में आपस में वार्तालाप करने लगे । नारद जी ने व्यास जी को बताया मैं अपनी अकेली दासी माता के साथ रहता था । समय मिलने पर मैं इधर-उधर खेलता फिरता रहता था तथा ऋषियों के आश्रम में भी चला जाता था । आश्रम में मैं उनके उपदेश सुना करता था और उनका झूठा भोजन खाकर पेट भर लिया करता था । ऋषियों की संगत में रहने के कारण मेरा हृदय भी ज्ञान से प्रकाशित हो गया। कुछ समय बाद मेरी दासी माँ को सर्प ने डस लिया। इससे उनकी मृत्यु हो गई। मैं अकेला ही घूमा करता था। एक दिन सतसंग में मुझे ज्ञान प्राप्त हुआ। मैं तपस्या हेतु उत्तर दिशा में चला गया और एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर धीरे- धीरे मै भगवान नारायण के ध्यान में मग्न हो गया। कुछ समय पश्चात् मुझे भगवान के दर्शन हुए। श्री भगवान ने मुझे बताया कि मन की शान्ति और मोक्ष प्राप्त करना बहुत कठिन है। लेकिन मै तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ और तुम्हें भक्ति और ज्ञान मार्ग द्वारा मोक्ष प्राप्ति का साधन बताता हूँ तब मैंने श्री भगवान के द्वारा बताई क्रियाओं को अपने जीवन में धारण कर लिया । समय आने पर मेरी मृत्यु हो गई । भगवान की कृपा से मुझे सद्गति प्राप्त हुई । नारद जी ने व्यास जी को बताया कि एक बार जब भगवान क्षीर सागर में शयन कर रहे थे तब भगवान की नाभि से प्रकट हुए कमल से उस कमल पर बैठे ब्रह्माजी ने कमल डण्डी का अन्त प्राप्त करने के लिए कमल की डण्डी में प्रवेश किया लेकिन ब्रह्मा जी को उस डण्डी का अंत प्राप्त नही हुआ , जिस समय ब्रह्मा जी कमल डण्डी का अंत खोज रहे थे तब मैं अपने भाग्य वश ब्रह्मा जी के श्वास द्वारा उनके हृदय में प्रवेश कर गया । डण्डी का अंत न मिलने के कारण ब्रह्मा जी निराश होकर वापिस लौटकर उस कमल पर खड़े होकर चारों और देखने लगे तब उन्होंने दोबारा भगवान का स्मरण किया तब उनको यह शब्द सुनाई दिया ” तप करो ” तब ब्रह्मा जी उस कमल पर योग निद्रा में बैठ गए फिर एक हज़ार चतुर्युगी बीत जाने पर ब्रह्माजी की योगनिद्रा से आंखे खुली और उनको दोबारा सृष्टि की रचना करने की इच्छा प्रकट हुई। तब ब्रह्माजी ने अपनी इन्द्रियों से मरीचि आदि ऋषियों के साथ मुझे भी प्रकट किया । तब से मैं तीनों लोकों में बाहर-भीतर बिना किसी रोक-टोक के विचरण करता रहता हुँ।