भक्तों ब्रह्माजी की निष्कपट तपस्या से प्रसन्न होकर आदिदेव भगवान ने उन्हें दर्शन देकर अपना रूप प्रकट किया और आत्मतत्व के ज्ञान के लिए सत्य परमार्थ वस्तु का जो उपदेश दिया उसे सुनो – ब्रह्माजी ने अपने जन्म स्थान कमल पर बैठकर सृष्टि की रचना करने का विचार किया । तब प्रलय के समुद्र में उन्होंने व्यंजनों के सोलहवें तथा इक्कीसवें अक्षर त तथा प को तप-तप ( तप करो) इस प्रकार दोबार सुना । ब्रह्माजी ने यह वाणी बोलने वाले को देखने के लिए चार मुख ग्रहण किए परन्तु उन्हें किसी के दर्शन नहीं हुए। अन्त में ब्रह्मा जी ने अपने मन को तपस्या में लीन कर लिया । उन्होंने एक हज़ार दिव्य वर्षों तक प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को एकाग्र कर तपस्या की । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर श्रादिदेव भगवान ने उन्हें अपने लोक के दर्शन कराए। ब्रह्माजी ने देखा कि उस लोक में किसी भी प्रकार के क्लेश, मोह या भय नहीं है। वहाँ न काल का दखल है और न माया ही वहाँ प्रवेश कर सकती है। भगवान श्रादिदेव की पूजा देवता और दैत्य दोनों ही करते थे। उस लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, यज्ञपति, विश्वपति और लक्ष्मी पति भगवान विराजमान हैं। वक्षस्थल पर एक सुनहरी रेखा के रूप में श्री लक्ष्मी जी विराजमान हैं। महत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, अहंकार दस इन्द्रियाँ, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पँचभूत ये पच्चीस शक्तियाँ मूर्तिमान होकर चारों ओर उपस्थित हैं। समग्र ऐश्वर्य, श्री, कीर्ति, धर्म, ज्ञान और वैराग्य से छः नित्य सिद्ध स्वरूप भूत शक्तियों से युक्त रहते हैं। उन सबको देखते ही ब्रह्माजी का हृदय आनन्द से लबालब भर गया । भगवान श्रादिदेव ने ब्रह्माजी से हाथ मिलाया और मन्द-मन्द मुस्कान में बोले – तुमने मेरे दर्शन किए बिना ही उस सूने जल में वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है। इसी तपस्या के कारण ही मेरी इच्छा से आपको मेरे लोक के दर्शन हुए हैं। तपस्या मेरा हृदय है और मैं स्वयं तपस्या की आत्मा हूँ। ब्रह्माजी भगवान श्रादिदेव से बोले – आपने एक मित्र के समान मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र बना लिया है। इसलिए जब मैं सृष्टि की रचना करने लगूँ और सावधानी से सृष्टि के गुण कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ तब समय-समय पर दर्शन देते रहना । इस कार्य में मुझे आपकी सेवा की आवश्यकता है । भगवान श्रादिदेव ने कहा- जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मेरी उपस्थिति समझना और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह मैं ही हूँ। तुम अविचल समाधि के द्वारा मेरे इस कथन में पूर्ण निष्ठा कर लो । इससे तुम्हें कल्प-कल्प में विविध प्रकार की सृष्टि रचना करते रहने पर भी कभी माहित नहीं होगे । देखते-देखते भगवान ने अपने उस रूप को समेट लिया।