पुरुषोत्तम भगवान संसार की उत्पत्ति, पालन और प्रलय की लीलाओं को करने हेतु सत्व, रज और तमोगुण रूपी तीन शक्तियों को स्वीकार कर ब्रह्मा, विष्णु और महेश का रूप धारण करते हैं। पंच महाभूतों से इन शरीरों का निर्माण करके इनमें जीव रूप से शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान) और एक मन, इन सोलह कलाओं से युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयों का भाग करते हैं। भगवान ने काल शक्ति को स्वीकार करके और एक साथ महत्तत्व, अहंकार, पंचभूत, पंच तन्मात्राएँ और ग्यारह इंन्द्रियों सहित २३ तत्त्वों के समुदाय म ें प्रविष्ट हो गए। भगवान की प्रेरणा से उपरोक्त २३ तत्त्वों के समूह के अंश रूप से एक आदि पुरुषविराट रूप भगवान की उत्पत्ति हुई। यह विराट पुरुष रूप ही प्रथम जीव होने के कारण ही भगवान का प्रथम अवतार है। समस्त भूतकाल के समुदाय इसी से प्रकट हुए । दस इन्द्रियों सहित मन अध्यात्म है। इन्द्रियों का विषय अधिभूत है। इन्द्रिय अधिष्ठाता देव, अधिदेव और प्राण, अपान, उदान, समान, कूर्म, नाग, व्यान, मन, देवदत्त, कृकल, तम आदि तीनों गुण जब संगठित नहीं थे, तब तक रहने हेतु, भोगों के साधन रूप शरीर की रचना नहीं हुई थी । शुकदेव जी ने बताया कि जब भगवान अपनी शक्ति से प्रेरित हुए तो ये तत्त्व परस्पर एक-दूसरे से मिल गए। तब व्यष्टि समष्टि रूप पिण्ड और ब्रह्माण्ड की रचना की। वह ब्रह्माण्ड रूपी अण्डा एक हज़ार वर्ष तक जल में पड़ा रहा। इसके बाद काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार करने वाले भगवान ने अण्डे को जीवन प्रदान कर दिया। उस अण्डे को तोड़कर उसके अन्दर से विराट पुरुष भगवान निकले, जिनकी जंघा, भुजाएँ, चरण, नेत्र, मुख और सहस्त्र सिर थे । कमर से नीचे के अंगों से सातों पाताल और पेडू से ऊपरी अंगों में सातों स्वर्ग की कल्पना की जाती है । उनके मुख से द्विज, भुजाओं से क्षत्रिय, पेडू से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए । विराट पुरुष के तलवे में पाताल, एड़ियों तथा पंजों में रसातल है । ऐड़ी से ऊपर गांठें महातल, पैर के पिण्ड तलातल, घुटने सूतल, जांघे दोनों वितल और अतल तथा पेडू भूतल है । नाभी रूपी सरोवर आकाश है । छाती को स्वर्गलोक, गले को महर्लोक, मुख को जनलोक, ललाट को तपलोक और मस्तक को सत्यलोक कहा गया है। भुजाएँ-देवता, कान- दिशाएँ, शब्द श्रवणेन्द्रियाँ हैं। नाक के दोनों छिद्र ही दोनों अश्विनी कुमार, गन्ध घ्राणेन्द्रिय, धधकती हुई आग मुख और नेत्र अंतरिक्ष कहे गए हैं। देखने की शक्ति सूर्य, पलकें रात और दिन हैं। भ्रुविलास ब्रह्मलोक, तालुवा जल, जीभ रस, यम को दाढ़ें और दाँतों को स्नेह कहा गया है । जगमोहिनी माया को मुस्कान कहते हैं। ऊपर का होंठ लज्जा, नीचे का होंठ लोभ, स्तन धर्म और पीठ को अधर्म माना गया है। मूत्रेन्द्रिय प्रजापति है । मित्रावरुण अण्ड कोष, कोख समुद्र, हड्डियाँ पर्वत हैं । नाड़ियाँ पेड़, रोम वृक्ष, वायु श्वास, चाल काल, गुणों का चक्कर कर्म, केश बादल, अनन्त का वस्त्र ही संध्या, सब विकारों का खज़ाना ही मन कहा गया है । नख घोड़े, हाथी, ऊँट और खच्चर हैं। मृग, पशु, पक्षी, सब कटि प्रदेश हैं। स्वायम्भुव मनु उसकी बुद्धि है । वीर्य दैत्य है । विराट भगवान के स्थूल शरीर का यही स्वरूप है।