एक बार जब सभी देवताओं ने श्रीभगवान् की स्तुति पुरुष-सूक्त द्वारा कर ली, तो उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। अतः ब्रह्माजी स्वयं ध्यान करने में लग गए और तब भगवान् विष्णु ने उन्हें एक सन्देश भेजा। ब्रह्मा ने इस सन्देश को देवताओं तक प्रेषित कर दिया। वैदिक ज्ञान प्राप्त करने की यही विधि है। यह वैदिक ज्ञान सर्वप्रथम श्रीभगवान् से ब्रह्मा को हृदय के माध्यम से प्राप्त होता है। जैसाकि श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में कहा गया है; तेने ब्रह्म हृदा य आदि कवये- वेदों का दिव्य ज्ञान हृदय के द्वारा ब्रह्मा तक प्रेषित हुआ। उसी प्रकार यहाँ भी केवल ब्रह्मा ही भगवान् विष्णु द्वारा प्रेषित सन्देश को समझ पाये और उन्होंने तुरन्त कार्यवाही के लिए देवताओं को प्रसारित कर दिया। यह सन्देश इस प्रकार था। भगवान् शीघ्र ही अपनी परम शक्तियों सहित पृथ्वी पर प्रकट होंगे और जब तक वे पृथ्वी लोक में असुरों के संहार तथा भक्तों के संस्थापन का उद्देश्य पूरा करने के लिए रहेंगे, तब तक देवताओं को भी उनकी सहायता के लिए वहीं रहना होगा। उन्हें तुरन्त उस यदुवंश में जन्म ग्रहण करना होगा जिसमें यथासमय भगवान् भी प्रकट होंगे। भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं वसुदेव के पुत्र रूप में प्रकट होंगे। उनके प्रकट होने के पूर्व सारे देवताओं को अपनी-अपनी पत्नियों सहित संसार भर के विभिन्न पवित्र परिवारों में भगवान् को उनके कार्य में सहायता पहुँचाने के लिए प्रकट होना चाहिए। यहाँ पर तत्प्रियार्थम् शब्द अत्यन्त उपयुक्त है, जिसका अर्थ है कि देवताओं को चाहिए कि भगवान् को प्रसन्न करने के लिए इस पृथ्वी पर प्रकट हों। दूसरे शब्दों में, कोई भी जीव, जो भगवान् को प्रसन्न करने के लिए ही जीवित रहता है, वह देवता है। देवताओं को यह जानकारी भी दी गई कि भगवान् कृष्ण के अवतार के पूर्व पृथ्वी पर भगवान् कृष्ण का पूर्ण अंश, अनन्त, प्रकट होगा, जो अपने लाखों फनों से ब्रह्माण्डों को धारण किए हुए है। उन्हें यह भी सूचित किया गया कि विष्णु की बहिरंगा शक्ति (माया) भी, जिससे समस्त बद्धजीव आकृष्ट होते हैं, परमेश्वर के आदेश के अन्तर्गत उनकी प्रयोजन-सिद्धि के लिए प्रकट होगी। समस्त देवताओं तथा भूमि को भी मधुर वचनों से आदेश तथा सान्त्वना देने के पश्चात् समस्त प्रजापतियों के पिता ब्रह्माजी अपने धाम, सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक, को चले गये।