देवासुर संग्राम पहले भी कई बार हुआ एक बार दानवों और दैत्यों को अमृत न मिलने का अपार दुःख हुआ तथा उनका क्रोध बढ़ गया । वे अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर देवताओं से युद्ध करने लगे। देवताओं और दैत्यों में भीषण संग्राम होने लगा, जिसे इतिहास में देवासुर संग्राम कहते हैं। रणभूमि में रथियों के साथ रथी, पैदल के साथ पैदल, घुड़सवारों के साथ घुड़सवार, हाथी वालों के साथ हाथी वाले लड़ने लगे। युद्ध में विरोचन का पुत्र बलि मयदानव के बनाए गए विमान पर सवार होकर लड़ने आया। उसके साथ नमुचि, शम्बर, कालनेमि, प्रहेति, भूतसंताप, शकुनि, कपिल, हयग्रीव, वज्रदण्ड, विरोचन, तारक, पोलो, अरिष्ट, त्रिपुराधिपति, उत्कल, शुभ, कालेय आदि थे। इन्द्र भी बड़े क्रोधित हुए। वह भी ऐरावत हाथी पर सवार होकर देवताओं को साथ लेकर लड़ने लगे । जम्भासुर से महादेव जी, महिसासुर से अग्निदेव, वातापि तथा इल्वय से ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि का युद्ध होने लगा । दैत्यों ने अपनी आसुरी माया से देवताओं की सेना पर पर्वत पटक कर छोड़ दिया। इससे देवताओं की सेना चकनाचूर होने लगी। देवताओं ने भगवान का स्मरण किया। तब भगवान वहाँ पर प्रकट हुए । कालनेमि दैत्य ने भगवान पर त्रिशूल चलाया। भगवान ने त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े करके कालनेमि को मौत के घाट उतार दिया। माली और सुमाली दैत्यों के सिर भगवान ने अपने चक्र से काट डाले । इन्द्र ने बलि पर अमोघ वज्र से आक्रमण किया। बलि विमान सहित पृथ्वी पर गिरकर समाप्त हो गया। बलि का घनिष्ठ मित्र जम्भासुर ने अपनी गदा से इन्द्र की गले की हंसली पर और महाबलि ऐरावत पर वार किया। इन्द्र मुर्छित हो गए। इन्द्र के सारथी मातलि ने हजार घोड़े का रथ लाकर इन्द्र को दिया । इन्द्र दैत्यों पर प्रहार कर उन्हें मारने लगे। भाईयों को मरा देखकर नमूचि को बड़ा दुःख हुआ । नमूचि किसी हथियार से मारा नहीं जा रहा था । तब आकाशवाणी हुई कि यह दानव न तो सूखी वस्तु से और न गीली वस्तु से मारा जाएगा। इन्द्र ने उपाय सोचा कि समुद्र का फेन न गीला होता है और न सूखा होता है | इंन्द्र ने समुद्री फेन से नमूचि का वध करने में सफलता पाई। ब्रह्माजी ने मुनि श्री नारद जी को देवताओं के पास भेजा। उन्होंने देवताओं को लड़ने से रोक दिया। शेष बचे दैत्य नारद जी के कहने पर वज्र की चोट से मरे हुए बलि को लेकर अस्ताचल चले गए। वहाँ उनके गुरु शुक्राचार्य जी ने संजीवनी विद्या से असुरों को जीवित कर दिया। बलि समझ गया कि जीवन मृत्यु, जय पराजय होती रहती है। इस प्रकार उसको पराजित होने पर खेद नहीं हुआ।