खटवांग के पुत्र दीर्घबाहु, दीर्घबाहु के पुत्र रघु, रघु के पुत्र अज और अज के पुत्र दशरथ हुए। देवताओं की प्रार्थना पर साक्षात् परब्रह्म श्रीहरि अपने अंशांश से चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र हुए। उनके नाम थे – राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न । जब ये युवा हो गए तब विश्वामित्र जी अपने यज्ञ की रक्षा के लिए श्रीराम और लक्ष्मण को लाए। उन्होंने वहाँ पर अनेक राक्षसों का वध किया। विश्वामित्र जी उनको साथ लेकर राजा जनक जी के सीता स्वयंवर में उपस्थित हुए। धनुष को तोड़कर सीता जी के साथ श्रीरामचन्द्र जी का विवाह हुआ। श्रीरामचन्द्र जी पिता की आज्ञा पाकर सीता जी और लक्ष्मण के साथ चौदह वर्ष के लिए वनों में चले गए। रास्ते में उन्होंने अनेक राक्षसों का विध्वंस किया। राक्षस राज रावण की बहिन शूर्पणखा के नाक, कान काट कर भेजा। रावण ने खर, दूषण, त्रिशिरा आदि बड़े-बड़े राक्षसों को अपनी बहिन के अपमान का बदला लेने भेजा। भगवान राम ने सब का वध कर दिया। रावण ने मारीच को अद्भुत हरिण के वेष में उनकी पर्ण कुटि के पास भेजा। वह धीरे-धीरे भगवान श्रीराम को वहाँ से दूर ले गया। अन्त में भगवान श्रीराम ने अपने बाण से उसे बात की बात में वैसे ही मार डाला जैसे दक्ष प्रजापति को वीरभद्र ने मारा था । जब श्री राम जंगल में दूर निकल गए तब लक्ष्मण की अनुपस्थिति में नीच राक्षस रावण ने भेड़िए के समान सुकुमारी सीताजी को हर लिया। रास्ते में रावण का जटायु से युद्ध हुआ। रावण ने जटायु के पंख काटकर वध कर दिया। भगवान राम से उसकी भेंट हुई। फिर उन्होंने जटायु का अन्तिम संस्कार किया। जटायु ने ही श्रीराम को बताया कि रावण माताश्री सीताजी को ले गया है। फिर भगवान ने कबन्ध का संहार किया और इसके अनन्तर सुग्रीव आदि वानरों से मित्रता करके बालि का वध किया। तद्नन्तर वानरों के द्वारा अपनी प्राणप्रिया का पता लगवाया। ब्रह्मा और शंकर जिनके चरणों की वन्दना करते हैं, वे भगवान श्रीराम मनुष्य की सी लीला करते हुए बन्दरों की सेना के साथ समुद्र तट पर पहुँचे। श्री हनुमानजी सीताजी का पता लगाने हेतु गए तो वहाँ उन्होंने लंका को जला डाला। वानरों की सेना सहित समुद्र पर बाँधकर लंका पर चढ़ाई की। रावण को यह पता चलने पर कि राम समुद्र को पार कर लंका में आ गए हैं तो रावण ने सेना लेकर उन पर चढ़ाई की। रावण के पुत्र और भाई इस युद्ध में मारे गए । अन्त में भगवान श्रीराम ने रावण को भी मार डाला। रावण के भाई विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर सीता सहित अयोध्या लौट आए। अयोध्या वासियों ने बड़ी धूमधाम के साथ उनका स्वागत किया। विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि ऋषियों ने उनका राजतिलक किया। भगवान ने प्रजा का स्वागत करके उनको धन, वस्त्र, और सोना तथा गाएँ आदि भेंट में दीं। भगवान श्रीराम महात्माओं को पीड़ा नहीं पहुँचाते थे । एवं ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानते थे। प्रजा की स्थिति जानने के लिए रात को घूमा करते थे। एक दिन एक धोबी अपनी पत्नी को पीट रहा था और कह रहा था – अरी दुष्टा और कुलटा! तू पराये घर में रह आई है । स्त्री लोभी राम भले ही सीता को रख लें, परन्तु मैं तुझे नहीं रख सकता। जब भगवान श्रीराम ने बहुतों के मुँह से ऐसी बातें सुनीं तो वे लोकयवाद से कुछ भयभीत हो गए। उन्होंने सीताजी का परित्याग कर दिया। वे बाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहने लगीं। सीता जी उस समय गर्भवती थीं। समय आने पर लव और कुश नामक दो पुत्रों को उन्होंने जन्म दिया । बाल्मीकि मुनि ने उनके जातकर्मादि संस्कार किए। लक्ष्मण जी के भी अंगद और चित्रकेतू नाम के दो पुत्र हुए। भरत जी के भी तक्ष और • पुष्कल दो पुत्र हुए। शत्रुघ्न के भी सुबाहु और श्रुतसेन दो पुत्र हुए। भगवान श्री रामचन्द्र जी ने अश्वमेघ यज्ञ किया । यज्ञ का बलि घोड़ा छोड़ा गया । लव-कुश ने उस घोड़े को पकड़ लिया। लक्ष्मण जी ने घोड़े को छुड़ाने का प्रयत्न किया किन्तु घोड़े को छुड़ाने में असफल रहे । भगवान श्रीराम स्वयं घोड़े को छुड़ाने आए। सीताजी ने लव-कुश से कहा- ये तो तुम्हारे पिताश्री हैं। इस पर भगवान श्री राम ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। सीताजी धरती माता की गोद में समा गईं। भगवान श्री रामचन्द्रजी अपने पुत्रों को राज्य सौंपकर ज्योतिर्मय धाम को चले गए।