“दामोदर लीला: एक दिव्य प्रेम कथा”।

भाग 1: नन्दलाल की बाललीलाओं की पृष्ठभूमि

वृन्दावन! वह पुण्य भूमि जहाँ गोवर्धन की छाया में यमुना कल-कल करती बहती है। वह भूमि जहाँ वनों में ग्वालबालों की हँसी गूंजती है, जहाँ गायों की घंटियों की मधुर ध्वनि और बांसुरी की तान में स्वयं आनंद नृत्य करता है।

और वहीं, उसी भूमि पर एक अद्भुत बालक जन्मा था—नन्दनन्दन श्रीकृष्ण।

यह लीला तब की है जब श्रीकृष्ण बाल रूप में गोकुल में नन्द बाबा के घर निवास कर रहे थे। उनके बालरूप की लीलाएँ इतनी मनमोहिनी थीं कि हर जीव उन पर मोहित था—गोपियाँ, ग्वालबाल, पशु-पक्षी, वृक्ष, वायु, अग्नि… सभी।

श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में एक विशेष लीला है — दामोदर लीला।

यह वह लीला है जिसमें स्वयं परमब्रह्म, अनंत, अजेय, अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्रेममयी माता यशोदा के हाथों रस्सियों से बंध जाते हैं। यह लीला हमें बताती है कि प्रेम से भी महान कोई शक्ति नहीं। भक्ति और प्रेम के आगे स्वयं ईश्वर भी बंध जाते हैं।

भाग 2: यशोदा माता का वात्सल्य

सुबह का समय था। गोकुल में सूर्य की प्रथम किरणें जैसे श्रीकृष्ण की सौम्य लीलाओं का स्वागत कर रही थीं। नन्द भवन में यशोदा माता अपने लाला के लिए मक्खन मथ रही थीं। बड़े प्रेम से वे चूर्णा (दही) को मथते हुए श्रीहरि का नाम गा रही थीं:

“गोविन्द दामोदर माधवेति…”

माथे पर पसीने की बूँदें थीं, किन्तु मुख पर वात्सल्य की दिव्य आभा थी। क्यों न हो, वे स्वयं उस भगवान की माता थीं जो समस्त सृष्टि के पालनहार हैं, फिर भी उनके लिए दूध-दही तैयार कर रही थीं।

तभी बालकृष्ण, जो कि बालरूप में थे, रेंगते हुए आए। उन्होंने अपनी माँ को देखा, और बाल भाव से गोद में चढ़ने की इच्छा की।

माता ने कहा, “लाला! अभी माखन बनाऊँ फिर खिलाऊँगी।”

किन्तु भगवान की इच्छा कुछ और ही थी — एक अद्भुत लीला रचनी थी, जिसमें माँ के प्रेम की महिमा संसार को ज्ञात हो।

भाग 3: श्रीकृष्ण का माखन चोरी और माता का क्रोध

बालकृष्ण को भूख लगी थी। उन्होंने अपने कमल समान नेत्रों से माँ की ओर देखा। पर जब माँ यशोदा ने उन्हें गोद नहीं लिया और चूर्णा मथती रहीं, तो बालकृष्ण रुष्ट हो गए।

वे चल पड़े—छोटे-छोटे पग धरते हुए, ग्वालिनों के घर। वहाँ जाकर उन्होंने माखन के मटकों को तोड़ा, माखन खाया और अपने ग्वाल बाल मित्रों तथा बंदरों को भी खिलाया।

जब माता यशोदा वापस आईं, तो देखा — सारा माखन गायब! और बालक कहीं दिखाई नहीं दे रहे!

वह अपने लाल को ढूँढते-ढूँढते जब पहुँची उस स्थान पर, जहाँ श्रीकृष्ण एक ओखली (जुते हुए दो बड़े पत्थर जिन्हें बैलों को बाँधते हैं) के पास माखन खाते पकड़े गए।

माता को क्रोध आ गया। उन्होंने सोचा — “यह मेरा लाला कितनी बार माखन चुराता है। इसे आज दंड देना होगा।”

भाग 4: रस्सियों से बाँधने की लीला

माता यशोदा ने श्रीकृष्ण को पकड़ लिया। और सोचा, “इसे बाँध दूँ ताकि दोबारा ऐसी शरारत न करे।”

पर क्या यह संभव था?

एक अद्भुत लीला घटित होने वाली थी — श्रीकृष्ण, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने उदर में धारण करते हैं, उन्हें एक साधारण रस्सी बाँध सकती है?

माता ने रस्सी लाई। और बांधने का प्रयास किया। पर हर बार रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ती!

फिर दूसरी रस्सी जोड़ी… फिर तीसरी… फिर चौथी… पर हर बार — दो अंगुल कम!

गोपियाँ हँसने लगीं, “माता! तुम्हारा लाल बँधने वाला नहीं है!”

पर माता यशोदा थककर बैठी नहीं। वह प्रेम से बंधी थीं, और उनका प्रेम किसी भी ब्रह्माण्ड से बड़ा था।

अंततः श्रीकृष्ण ने देखा — “मेरी माँ का श्रम और प्रेम अपरिमित है। अब मुझे बंध जाना चाहिए।”

और जैसे ही उन्होंने अपना संकल्प बदला, रस्सी पर्याप्त हो गई।

भगवान बँध गए — और इस प्रकार वे “दामोदर” कहलाए — जो उदर में बंधे हों।