Geeta Part-18

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ अठारहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

मोक्ष सन्यास योग

अर्जुनोवाच- अर्जुन भगवान श्री कृष्ण देव जी से प्रश्न करते हैं कि हे महाबाहो ऋषिकेश भगवान जी, हे कैशो दैत्य के मारने हारे जी….

सुनकर गीता ज्ञान को बोले अर्जुन वीर।
सत्य कहूं घनश्याम जी उपजी मन में धीर।।
मानू आज्ञा आपकी करूं युद्ध मन लाय।
मोह नाश मेरा हुआ सिमृति पहुंची आय।।
धन्य आप हो यदुपते! कृपा आप ने कीन।
किया अनुग्रह दास पद सशय के क्षीन।।
जहां योगीश्वर कृष्ण है और मनुधर पार्थ।
वह विजय और लक्षमा बेजर कहे यथार्थ।।

….. हे प्रभु जी मैं तुमसे सन्यास और त्याग का तत्व जाना चाहता हूं की संन्यास किसको कहते हैं और त्याग किसको कहते हैं सो प्रभु जी! इन दोनों का उत्तर भिन्न-भिन्न कहो! अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान जी बोलते हैं। श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन! संसार की कामना के सभी कार्यक्रम त्याग कर मेरी शरण मे आना सन्यास है और मेरे चरण कमलों की शरण में आकर मेरी भक्ति बिना और किसी वस्तु की कामना न करना सन्यास है यह तो हमने अपने मन का संन्यास और त्याग कहा है। अब अर्जुन! जैसे शास्त्रों का मत है सुन- एक शास्त्र तो यह कहते हैं कि बुरे और भले कर्म दोनों त्यागिए क्योंकि भले कर्म का फल सुख और बुरे कर्म का फल दुख भोगना है। भला कर्म चरणों में सोने की बेड़ी है बुरा कर्म चरणों में लोहे की बेड़ी है इससे भले बुरे कर्म दोनों बंधन के दाता हैं, इसलिए इनका त्याग करना योग है। हे अर्जुन! एक शास्त्र यह कहता है कि यज्ञ दान, तपस्या, स्नान ऐसे सत्य कर्म नहीं त्यागने चाहिए यह पवित्रता के दाता हैं। यह कर्म करने से देह पवित्र होती है। हे भारतवंशी अर्जुन! अब निश्चय कर मेरे मत का त्याग सुन- त्याग तीन प्रकार का है, प्रथम तो मेरा मत यह है यज्ञ, दान, तपस्या स्नान यह मनुष्यों को पवित्र करते हैं, विवेकी पुरुष इनका त्याग नहीं करते जो भले विवेकी पुरुष हैं यह सत्य कर्म तिनके भले हैं। भले कर्म करके उनका फल बांछते नहीं इसी कारण से मेरे मत में वह बात भली है और सब बातों में श्रेष्ठ है कि कर्म के फल की वांछा ना करें, यह अति भला है और जो अज्ञान से आलस्य करें, सत्य कर्म त्याग कर कहे कि सत्य कर्म करने से क्या होता है जो प्राणी माया का मोहा हुआ सत्य कर्म त्यागे सो यह तामसी त्याग कहलाता है जो प्राणी देह के दुख के डर से नित्य कर्म त्यागे की स्नान करने से मुझे शीत लगता है हाथ दुखते हैं, इस प्रकार का त्याग तामसी कहता है, इसका फल नहीं पाते। हे अर्जुन! जो इस प्रकार सत्यकर्मी काम करे प्रथम तो कहे कि मेरा क्षत्रिय ब्राह्मण का जन्म दुर्लभ है, स्नान आदि कर्म करने तुझको भले हैं। अवश्यमेव कर्म करे और फल कुछ वांछा ना करें, ऐसा सात्विकी त्याग कहलाता है। हे अर्जुन! विवेकी पुरुष स्नान आदि सत्यकर्मी की निन्दा नहीं करते और न आप इन सत्य कर्मों का त्याग करते हैं, निश्चय से इन्हें करते हैं, फल कुछ वांछा नहीं करते। हे अर्जुन! ऐसे प्राणियों की बुद्धि निर्मल होती है तिस निर्मल बुद्धि से ज्ञान उपजता है जब मेरी महिमा का ज्ञान उपजा तब संसार के बंधन से मुक्त होता है। इससे हे अर्जुन! सत्य कर्मों का त्याग न करें, जैसे सीढ़ियों के मार्ग से मंदिर के ऊपर जा चढ़ता है, यह सत्य कर्म करने भक्ति की सीढ़ी है और जितने देहधारी हैं सो किसी देहधारी की शक्ति नहीं जो सत्य कर्म त्यागे। हे अर्जुन! जब पिता के वीर्य से माता के उदर में यह जीव आता है उसी दिन से लेकर मरने के दिन तक कामी यह निष्कर्मी नहीं होता और न यह जीव त्यागी होता है। हे अर्जुन! यह निष्कर्मी जब होता है सो सुन- प्राणी सत्य कर्म मुझको समर्पे, कुछ फल न मांगे तब यह जीव निष्कर्मी और त्यागी होता है। अब जो मनुष्य को नित्य ही अपने कर्म करने चाहिए सो तिनका तीन प्रकार का फल होता है सो सुन- भले कर्म का फल सुख, बुरे कर्म का फल दुख और जो भले बुरे कर्म को रला मिलाकर करें तो सुख दुख मिश्रित होता है, यह तीन प्रकार के फल हैं जो नित्य संसारी मनुष्य को होते हैं, पर किन को ? जो संसार को त्याग कर मेरी शरण नहीं आए। जो प्राणी त्याग कर मेरे चरणकमलों की शरण आए उनके निकट कोई दुख नहीं आता। अब अर्जुन और सुन- जितने कर्म देहधारी मनुष्य से होते हैं भले व बुरे सो सब देह, इंद्रियां, मन से होते हैं आत्मा कैसी है अकर्ता है कुछ नहीं करता, केवल एक ही है निर्मल का निर्मल है हे अर्जुन! तिसको उन्होंने पहचाना है, जिनकी निर्मल बुद्धि है सो तिस आत्मा को पहचानते हैं और दुर्मति अर्थात अन्धमति पुरुष आत्मा को नहीं देख सकते। हे अर्जुन! तिसको अहं बुद्धि नहीं की मैं जो आत्मा हूं अकर्ता हूं, कुछ नहीं करता जो कुछ भला बुरा कर्म होता है देह, इंद्रियों, मन से होता है, जिसकी ऐसी बुद्धि है सो वह सब लोगों को मारे तो उसको कोई देख नहीं सकता। किसी कर्म का उनको बंधन नहीं। अब अर्जुन तीन प्रकार का ज्ञान, तीन प्रकार के कर्म और कृत भिन्न-भिन्न सुन- पहले सात्विक ज्ञान सुन- जिस ज्ञान से सब प्राणियों में उसको एक अविनाशी आत्मा दृष्ट आता है तिसको मर्वव्यापक जानकर सबके साथ एक सा हो, वैर से दुख किसी को ना देवें, दुखदाई न, यह सात्विक ज्ञान कहलाता है और जब ज्ञान भिन्न-भिन्न दृष्ट हुआ कि यह और है और मैं और, यह तेरा है यह मेरा है, सो राजसी ज्ञान कहलाता है और जिस ज्ञान से सब कोई बुरे दृष्टि आ गए और सब के साथ बैर बांधा रहे सो ऐसा तामसी ज्ञान कहलाता है। अब अर्जुन कर्म सुन- जो इस प्रकार कर्म करे जो यह कर्म करता मुझको योग्य है फल कुछ वांछा नहीं यह सात्विकी कर्म कहलाता है जिस कर्म के करने से फल की वांछा है और अहंकार के साथ कहे कि यह कर्म राजसी कहावे है जिस कर्म किए से जंजाल बहुत होवे सो ऐसा कर्म राजसी कहावे है जिस कर्म में कोई बन्धन बांधना, किसी जीव को दुखाना, किसी का घात करना और ऐसा कर्म करने से अपना बल और बढ़ाई दिखाना इस प्रकार माया का महिया हुआ कर्म को आरंभ करें सो तामसी कहावे है और कर्म कर्ता सुन- जो इस प्रकार कर्म करे, यज्ञ महोत्सव, होम, श्राद्ध क्षाह इत्यादि जो सत्यकर्म है तिनको करें, फल कुछ न वांछे, अहंकार से रहित हो, कि मेरा कुछ नहीं, सब कुछ परमेश्वर का है और अधम से रहित जो कुछ है सो हो गुजरे और बिगड़े तो कल्पे नहीं, जो कुछ कार्य संपूर्ण हो तो प्रसन्ना हो न बैठे। वह क्या समझे मेरा कुछ नहीं, सब कुछ ईश्वर का है। हर्ष शौक से रहित हो, जो कुछ ईश्वर इच्छा से आ मिले सो स्वीकार करें, इस प्रकार सात्विक कर्ता कहावे है। अब राजसी कर्ता सुन- जीवो के दुखाने में जिसका स्वभाव और अपवित्रता हर्ष शोक कर संयुक्त जो यज्ञ करें व इसके फल को कामना में करें कि लोग मुझ को धन्य कहेंगे। इस निमित्त हर्ष होना, घर से जो द्रव्य व्यय होता है इस कारण से शोक होना यह राजसी कर्ता कहलाता है। अब तामसी कर्ता सुन- शास्त्र की विधि को ना समझे कि यह महोत्सव किस विधि से किया जाए, किसी को मस्तक न निवावे, महामूढ़ आलसी बिषापि किसी से लड़ाई करें, वह तामसी कर्ता है। अब हे अर्जुन! तीन प्रकार की बुद्धि और तीन प्रकार की दृढ़ता भिन्न-भिन्न सुन- जिस बुद्धि से गृहस्थ में सुखी रहे। भले कार्य को भला जाने व बुरे कार्य को बुरा जाने और यह भी समझे, कि इस बात में मुझको मुक्ति तथा इससे बन्धन होगा, जिस बुद्धि से यह बात समझे सो सात्विक बुद्धि है और जिस बुद्धि से धर्म का अधर्म जो बुरे का भला जाने, और कि और समझे यह राजसी बुद्धि के लक्षण हैं। जिस बुद्धि से धर्म का अधर्म जाने अर्थात जी घात करने से पुण्य जाने, यह बकरा मैं मारता हूं पुण्य होगा इत्यादिक और बातें समझे ऐसे धर्म को अधर्म उल्टे समझे तो तामसी बुद्धि कहावे है। अब दृढ़ता सुन- मन में किसी विकार को न चितवे और इंद्रियां सब वश में होवें, केवल एक प्रभु की शरण रहे, जब यह बात हो तब सात्विक दृढ़ता जान और जब मन अपने धर्म में सब प्रकार दृढ़, द्रव्य के काम में दृढ़, खाने पहनने में दृढ़ता हो तब तू राजसी दृढ़ता जान और जब महा घोर निद्रा में सो रहे और परम चिंता में मग्न और किसी से कलह विषाद यह तीनों लक्षण तामसी दृढ़ता में है। ऐसे दुर्बुद्धि वाले निद्रा, कलह, चिन्ता तीनों विकारों से अपने आप को मुक्त नहीं कर सकते। तिनको तामसी दृढ़ता जान। हे भारतवंशी अर्जुन! अब तीन प्रकार का सुख सुन- जो सुख कड़वा खाने नहीं भिष्ट सुखदायक अमृत तुल्य भोजन करें, प्रथम तप कष्ट साथ करे तब राज्य स्वर्ग फल पावे, यह सात्विक सुख कहावे हैं अब राजसी सुख सुन- जिसका फल दुख को प्रथम सुख को पाकर पीछे विष फल खाए यह राजसी कहावे है। अब तामसी सुख सुन- प्रथम बेसुरत निद्रा में आलस्य, असावधानता प्रभु को बिसारना सब से निपट शंका रहती तामसी सुख है। अब अर्जुन और सुन- स्वर्ग से लेकर पृथ्वी तल पाताल लोक, नाग लोक तक तीनो लोक माया से उपजे हैं, इन तीनों लोकों में माया के तीनों गुण वरते हैं इन तीनों ही गुणों के स्वभाव लोक में वरते हैं, लोकों में गुण है गुणों विखे लोक है इस कारण त्रिगुणात्मइ सृष्टि कही है। हे अर्जुन! अब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों वर्णों के स्वभाव की प्रक्रिया देह के साथ ही जन्मती है। प्रथम ब्राह्मण के स्वभाव की प्रक्रिया कहता हूं इंद्रियों को जीतना, मन जीतना, तप करना, भजन करना, पवित्र, क्षमा कोमल स्वभाव ज्ञान अपना और विज्ञान परमेश्वर का जानना और गोविंद में तत्व बुद्धि परमेश्वर का जानना, यह ब्राह्मण के स्वभाविक धर्म है। अब क्षत्री के स्वाभाविक धर्म सुन- शूर, तेजस्वी, राजयुद्ध से न भागने वाला, बुद्धिमान, दानी होना परमेश्वर ईश्वर में श्रद्धा होना यह क्षत्रिय के स्वभाविक लक्षण कहे हैं। अब वैश्य के स्वभाविक धर्म सुन- खेती करना, वाणिज, व्यापार गोवों की सेवा करनी यह वैश्य के स्वाभाविक धर्म है। अब शूद्र के सुन- तीनों ही वर्णों की सेवा करनी, जो प्राप्ति हो तिसमें संतोष रखना यह शूद्र के स्वभाविक धर्म है। यह चारों वर्णों के स्वभाविक हैं प्राणी इन अपने अपने कर्मों के करने से स्वाभाविक ही भली सिद्धि को पाता हैं। अपने कर्मों में दृढ़ हुए से जो फल उपजे सो क्या है ? पारब्रह्म सारी सृष्टि का जो कर्ता सर्व में रमा हुआ अविनाशी जिसको वे प्राप्त होवेंगे। हे अर्जुन! यह चारों वर्णों के जो धर्म कहे हैं इनमें सब को अपने अपने धर्म पालन से कल्याण होता है। अपना धर्म तुच्छ देखें दूसरे का धर्म बढ़ा देखें तब भी अपने धर्म ने ही इनको कल्याण देना है पराया धर्म इसकी सहायता न करेगा, अपने अपने धर्म करने से पाप नहीं, अपना धर्म मुक्त्ति का दाता है। ये चार वर्णों के धर्म कहे हैं। अब तीनों पद के लक्षण सुन- हे अर्जुन मेरा भजन करने से चारों अवगुण कट जाते हैं सहज पद को प्राप्त होता है, इसको चौथा पद कहते हैं, इसको सहज पद, तुरिया पद और सन्पद भी कहते हैं। जो प्राणी इस पद को प्राप्त होते हैं, उनको किसी कर्म त्यागने का दुख नहीं और जो सत्पद को पाकर किसी कर्म का आरंभ करें उसको बड़ा दोष है। सत्पद का दृष्टांत सुन- जैसे धुआं रहित निर्मल अग्नि जलती है तिस निर्मल अग्नि में धुंए वाली लकड़ी डाल दे तब वह निर्मल अग्नि को बिगाड़ देती है तैसे ही चौथे पद वाले को कर्म आरम्भ भी करना दोष है, कर्म को आरम्भ करना सत्यपद को बिगाड़ देना है, इस कारण जो तरिया पद में लीन हुआ तिसको कर्म का आरम्भ करना कुछ नहीं रहा। अब जो प्राणी चौथे पद में लीन हुआ है तिसके लक्षण सुन- मुख्य लक्षण यह है किसी से मोह ममता नहीं संसार के विषयों से अपना मन जीत रखा है, किसी वस्तु की इच्छा नहीं, कोई कामना नहीं, वह निष्कर्मी सिद्ध है तिस सुख के सामने और कोई सुख नहीं, इसी कारण से तिसको कोई वांछा नहीं। सो वह किस सिद्धि को प्राप्त हुआ है ? हे कुन्तिनन्दन! वह मेरे जानने के ज्ञान का पूर्णत्या प्राप्त हुआ है। तिसकी बुद्धि निर्मल हुई और महेश्वर पारब्रह्म विखे तिसको दृढ़ निश्चय हुआ है और संसारी लोगों की बातें नहीं सुनता और न आप किसी से बात करता है न किसी साथ प्रीति है न शत्रुता है, एकांतवासी मेरे स्मरण के सुख को पाकर पूर्ण हो रहा है। संसार में जिसने तीन बातें जीत रखी है अर्थात देह से, संसारी मनुष्यों से संग नहीं करता, जीहवा से बात नहीं करता, मन से संसारी लोगों की चितवना नहीं, इस प्रकार मन, देह, मनसा जीव ने यह जीत रखी है और नित्य-निरंतर मेरे ध्यान से जुड़ा हुआ है, सारे संसार से वैराग्यवान है। यह ऊपर ब्रह्म के लोक, तले शेषनाग के लोक के परम सुख को तृण समान जानता है, इसका नाम वैराग्य है फिर कैसा अहंकार बल! गर्भ काम, क्रोध इनको त्याग इनमें रमता नहीं और भोजन छादन से कुछ अधिक रखता नहीं, इसका नाम त्याग है। ये ही विकार त्यागे। और किसी वस्तु के साथ ममता मोह न रखें, ऐसा जो सत्य पुरुष है सो देह साथ होते भी मुक्त है, फिर वह कैसा हुआ ? ब्रह्म भूत क्या कहिये ? माया के तीन गुण सो काटे गए। जब तीन गुण काटे तब जैसा आत्मा ब्रह्म था तैसा ब्रह्म भूत ब्रह्म ही हुआ। इस कारण से तिसको ब्रह्म भूत ही कहिये, ब्रह्म भूत हुआ तब तिसका आत्मा प्रसन्न हुआ, तब कुछ गई वस्तु की चिन्ता न करें अनहोई वस्तु के आने की वांछा न करें, सब भूत प्राणियों से ममता दृष्टि हो, यह लक्षण तुरिया के हैं। जब तुरिया पद में मनुष्य आवे हैं मेरी भक्ति को तुरंत ही पाये है। मेरी भक्ति यह है जो मेरी महिमा का प्रताप जानना सो मेरा भक्त कैसा है ? तुरिया पद में लीन हुआ क्या ब्रह्म ज्ञान का प्रकाश हुआ सो भक्त प्रभु को जाने। सकल प्रताप प्रभु का माने, बढ़ाई महत्वता ब्रह्मबोध विचार इसको जाने, आगे और महात्म्य नहीं, तिस महिमा को जाना ही परम भक्त्ति है। सो क्षण-क्षण पल-पल राम नाम को सिमरे, हे अर्जुन! जिसने मेरी महिमा के ज्ञान रूप अमृत का पान किया सो जब लग मनुष्य देह में बसे तबलग परमशांति सुख में मग्न रहता है, जब देह त्यागे तब मेरे परमनिधि अविनाशी पद में जा लीन होता है। यह चौथे पद तुरिया शांतिपद के लक्षण कहे। जिसको भजन रूप अमृत का स्वाद आया है और साथ ही माया की प्रकृति त्याग करें हैं, सो मेरी कृपा से मेरे पद को प्राप्त होता है। इस कारण से हे अर्जुन! तू मन का निश्चल चेता मेरे में रख, मुझ साथ ही प्रीति कर, बुद्धि का निश्चल चेता मेरे में रखने से संसार के दुख से तर जावेगा और जो अपने अहंकार से मेरी आज्ञा न मानेगा तब तेरा विनाश हो जाएगा। जो तू अहंकार से कहें कि मैं युद्ध नहीं करता सो तेरा कहना झूठ है, क्यो- जैसी तेरी प्रकृति है तैसा तुझसे हो रहा है, कुन्तिनन्दन अर्जुन! जैसे जैसे स्वभाव के देहधारी उपजे हैं,वैसा स्वभाव, सो सब स्वभाव के वश है। स्वभाव किसी के वश नहीं। जो तू कुटुम्ब का मोहिया यह कहे कि मैं युद्ध नहीं करता तो क्षत्रि का स्वभाव तुझसे अवश्य युद्ध करावेगा। हे अर्जुन! एक ईश्वर का स्वरूप भूत प्राणियों में बसे है। सो अवश्य कर जीवो को मोह के मन्त्र पर ही बिठा कर सबको भ्रमाता है। जिस कारण सब भावों से तू ईश्वर की शरण जा, परम शांति जो कल्याण पुरातन स्थान है उसको प्राप्त होवेगा। हे अर्जुन! यह परम गुह्य ज्ञान मैं तेरे प्रति कहे हैं और जितने मार्ग मेरे पाने के हैं वो सब तेरे प्रति कहे हैं क्योंकि तू मेरा परम मित्र है, तेरी बुद्धि मेरे चरणों के साथ दृष्ट है इस कारण से तेरे कल्याण निमित्त मैं कहता हूं। हे अर्जुन! सब भजनों में मुझको यह भजन रुचिकर है। जब तू इस भजन में दृढ़ होगा तब सब भक्तों से मुझे प्यारा लगेगा, और सब भजनों को त्याग कर मेरी ही शरण आ, मैं ही तुझको सब पापों से मुक्त्त करूंगा, तू चिंता मत कर। हे अर्जुन! यह ज्ञान जो मैंने तुझको कहा है सो तूने ऐसे लोगों का नहीं सुनाना जो मेरी भक्ति से बेमुख है जिसको सुनने की श्रद्धा न हो और जो मेरा गुह्य ज्ञान मेरे भक्तों को सुनावेगा। वह मुझे भक्त्ति सहित पावेगा, जिस पुरुष ने मेरी भक्त्ति की है। ऐसा कोई दूसरा पुरुष मेरे प्रसन्न करने को- ऐसा प्राणी न पीछे कोई हुआ न आगे होगा। वह मुझको अति प्यारा है जिसने मेरे भक्तों को गीता ज्ञान श्रवण कराया है। उसको बहुत फल प्राप्त होगा और जो कोई इस गीता जी के एक श्लोक का भी पाठ करेगा तिसका भी फल सुन- सब यज्ञ में जो श्रेष्ठ ज्ञान यज्ञ है तिसका फल देता हूं, और तिस पाठ कर्ता के निकट जो खड़ा होता हूं। जैसे कोई किसी का नाम लेकर बुलावे तब वह तत्काल बोलता है तैसा ही गीता के पाठ करने हारे के निकट मैं जा खड़ा होता हूं और जो अर्थ कर सुनावे तिस की महिमा कुछ कही नहीं जाती। जैसे मेरी महिमा और बढ़ाई वचनों से अगोचर है तैसे गीता के अर्थ करने हारे की महिमा वचनों से अगोचर है और सुनने हारा इसको सत्य सत्य मानकर श्रवण करें वह भी जन्म मरण के बन्धनों से मुक्त होकर परमानंद अविनाशी पद को पावेगा। इससे हे अर्जुन! यह ज्ञान तैने एकाग्रचित होकर श्रवण किया है सो तेरे में अज्ञान मोह था नाश हुआ। श्री कृष्ण जी के वचन सुनकर अर्जुन बोला, हे अच्युत अविनाशी पुरुष जी, हे भगवान तुम्हारी कृपा से मेरे मोह का नाश हुआ और ज्ञान भी पाया, मेरी बुद्धि भी निर्मल हुई मेरे मन के जो सन्देह थे तिनका भी नाश हुआ और आप के मुख कमल से युद्ध करने की आज्ञा हुई सो युद्ध करता हूं: संजयउवाच- संजय राजा धृतराष्ट्र को कहते हैं। हे राजन! श्री कृष्ण भगवान जी और पार्थ अर्जुन इन दोनों का सम्वाद गोष्ट गीता का महात्म्य सुन समझ कर मेरे रोम खड़े हो गए हैं जो व्यास जी ने मुझे दिव्य दृष्टि दी है तिनकी कृपा से ज्ञान गोष्ट मैंने सुना है, सो यह गुह्य से भी गुह्य है योगीश्वरों के ईश्वर श्री कृष्ण भगवान और अर्जुन के मुख कमल से ज्ञान निकला है। तिनको विचार विचार कर परम हर्ष को प्राप्त हुआ हूं और विश्वरूप जो भगवान जी ने अर्जुन को दिखाया है, तिसको विचार कर परम हर्ष और विस्मय को प्राप्त हुआ हूं, हे राजन! मेरे निश्चय की बात सुन- जिस और योगेश्वरों के ईश्वर श्री कृष्ण जी और गांडीव धनुषधारी अर्जुन है उसी और लक्ष्मी है उसी की जय होगी, मेरी मति यही है यह निश्चय कर जान, जिनके पक्षपर श्री कृष्ण जी हैं ऐसे परम भाग्यवान पांडव की जय होगी। पांडव जीतेंगे और तेरे अधर्मी पुत्र हारेंगे यह निश्चय जान।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे मोक्ष सन्यास योगो नाम अष्टदशो अध्याय।

★★★★ अथ अठारहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी अब अठारहवें अध्याय का महात्म्य सुन- जैसे सब नदियों में श्री गंगा जी श्रेष्ठ हैं देवताओं में हरि, सब तीर्थों में पुष्कर राज, सब पर्वतों में कैलाश पर्वत, सब ऋषियों में नारद जी, सब गऊओं में कपिला कपिधेनुगऊ, तैसे सब अध्यायों में गीता का अठारहवां अध्याय श्रेष्ठ है। तिसका फल सुन- सुमेर पर्वत पर देवलोक में इंद्र अपनी सभा लगाए बैठा था, उर्वशी नृत्य कर रही थी और सब देवता बड़ी प्रसन्नता में बैठे थे। इतने में एक चतुर्भुजधारी को पारखद लाए, इंद्र को सब देवताओं के सामने कहा- तू उठ इसको बैठने दे। यह सुनकर इंद्र ने प्रणाम किया, उसने तेजस्वी को बिठा दिया। इंद्र ने अपने गुरु बृहस्पति से पूछा- गुरु जी! तुम त्रिकालदर्शी हो देखो इसने कौन सा पुण्य किया जिससे यह इन्द्रासन का अधिकारी हुआ है, मेरे जानने में इसने कोई पुण्य, व्रत, यज्ञ दान नहीं किया, विशेष ठाकुर मंदिर नहीं बनाया, तालाब और कूप नहीं लगाए, किसी को अभयदान नहीं दिया, बृहस्पति ने कहा चलो नारायण जी से पूछे। तब राजा इंद्र, बृहस्पति, ब्रह्मा आदिक सब देवता श्री नारायण जी के पास गए। जाकर दंडवत कर प्रार्थना पूर्व कहा, हे स्वामिन् दास सहायक, भक्त रक्षक आप के चार पारखदों ने एक चतुर्भुज तेजस्वी स्वरूप को लाकर मुझको इंद्रासन से उठा उसको बैठा दिया है। मैं नहीं जानता उसने कौन पुण्य किया है, मैंने कई अश्वमेघ यज्ञ किए हैं तब मुझे इंद्रासन का अधिकारी आपने किया है, इसने एक यज्ञ भी नहीं किया यह मुझे बड़ा आश्चर्य है। तब श्री नारायण जी ने कहा है इंद्र तू मत डर, अपना राज्य कर इसमें बड़ा गुह्य उत्तम पुण्य किया है इसका नियम था कि नित्यप्रति स्नान कर श्री गीता जी के अठारहवें अध्याय का पाठ किया करता था। इसके मन में भोगों की तृष्णा नहीं थी, जब इसने देह छोड़ी तब मैंने आज्ञाकारी हे पारखदो तुम इसको पहले जाकर इंद्रलोक बुगावो, जब इसका मनोरथ पूरा हो तो मेरी सामुज्य मुक्ति को पहुंचावो, तुम जाकर भोगों की सामग्री इकट्ठी कर दो और कहो इंद्रलोक के सुख को भोगो। कुछ काल इंद्रपुरी के सुख भुगाकर फिर श्री भगवान की कृपा सामुज्य मुक्ति देकर बैकुण्ठ का अधिकारी किया। श्री नारायण जी कहते हैं यह लक्ष्मी जी! शिव जी कहते हैं। यह अठारहवें अध्याय का महात्म्य है

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम अष्टदशो अध्याय सम्पूर्णम्।।

श्री भगवानोवाच- श्री नारायण कहे हैं जो ब्राह्मण, साधु, वैष्णव, योगी गीता जी के अठारहां अध्यायो का पाठ करते हैं तिनको मैं कई अश्वमेघ यज्ञ किए का फल देता हूं, कई कपला गौ दान किए का, असंख्य चंद्रायण व्रत किए का और भी बड़े-बड़े दान पुण्य का फल देता हूं, जो प्राणी नित्यप्रति श्री गीता जी का पाठ करते हैं या प्रीति साथ सुनते हैं हे लक्ष्मी! पवित्र स्थान में बैठकर पढ़ते हैं, सुनते हैं, हरिद्वार की पौड़ी पर गंगा जी के किनारे पर, तुलसी व पीपल के पास बैठकर, हरि और जहां उत्तम ठोर है तहां बैठकर पड़े तो उस प्राणी को कलयुग के जितने पाप है नहीं लगते और दुख क्लेश आपदा से छूट जाता है जो प्राणी यह चार साधन करे गंगा स्नान, गीता गायत्री का पाठ, संतों की सेवा, गोविंद का भजन, इनके प्रताप से कलयुग के पाप नहीं व्यापेंगे। इन परवों में गीता पाठ करें, एकादशी, आवश्यक पूर्णमाशी तो हजार गोदान किए का फल होवे। पितर पक्ष में पाठ करें तो जितने पितर अधोगत गए हैं उन सबका उद्धार होगा वह बैकुण्ठ वासी होकर आशीर्वाद करेंगे, तिन की मुक्ति होगी। जो प्राणी पूर्ण गीता का पाठ करें तो क्या कहना है एक अध्याय या एक श्लोक नित्य पढ़े तो मुक्ति, भुगति सब मिलेगी, जो गीता को सुनावे तो गौ दान किए का फल होगा, इस जीव के उद्धार के छः यतन है गंगा स्नान, गीता पाठ, कपला गऊ की सेवा, गायत्री पाठ, तुलसी पीपल में जल सीचना और ज्ञानी संतों की सेवा करनी, एकादशी व्रत रखना, हे लक्ष्मी सर्वशास्त्र मयी गीता सर्व धर्ममदो दया, सर्व तीर्थ मयी गंगा, सर्व देव भयो हरि। अर्जुन सुनकर कृतार्थ हुआ, चारों वर्णों में जो कोई इसको पढ़ें सुने धारण करेगा तो कृतार्थ होवेगा, इसकी अपार महिमा है, कहने सुनने से बाहर है मुक्ति भुगति की दासी है।

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Geeta Part-17

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ सतारहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

त्रिविध श्रद्धा योग

अर्जुनोवाच- अर्जुन श्री कृष्ण भगवान जी से प्रशन करता है कि हे भगवान कृपा निधान जी! पुरुष अपनी बुद्धिमत्ता से शास्त्र विधि को समझ नहीं सकते और जो तुम अविनाशी परमानन्द का समुद्र ऐसा पहचान कर तुम्हारी शरण आये हैं, तुम्हारे भक्त हुए हैं…

अब अर्जुन मैं दान की व्याख्या कहूं सुनाय।
दान है तीन प्रकार का सुनिए ध्यान लगाय।।
सात्विक राजस तामसिक तीन दान के नाम।
नीनों में सात्विक भला यूं कहिते घनश्याम।।
फल की इच्छा त्याग कर करना चाहिए दान।
बेजऱ ऐसे दान से होता है कल्याण।।
पात्रन को जो दे दिया फल इच्छा को त्याग।
वही दान उत्तम सदा सुन मित्र महा भाग।।

….तुम्हारा भजन स्मरण किया, तिन पुरुषों ने शास्त्र की विधि को पहचाना और हे भगवान! जिन प्राणियों ने तुम परमानन्द अविनाशी समुद्र को नहीं पहिचाना, तिन पुरुषों ने शास्त्र की विधि नहीं पहचानी हे परम पवित्र पुरुषोत्तम जी! जिन मन्दभाग मनुष्य ने शास्त्र की विधि से जो तुम्हारा भजन है उनको त्याग कर श्रद्धा से ओर देवता की सेवा पूजा की सो हे कमल नयन कृपा निधान जी! वे प्राणी राजसी है या तामसी, यह मेरे प्रति कहिये। अर्जुन की विनती मान श्री कृष्ण भगवान जी कहते हैं श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन! पूजा करने की श्रद्धा तीन प्रकार की है जो बिना यत्न ही मनुष्य में जाग उठती है। राजसी, सात्विकी और तामसी मैं उनको भिन्न-भिन्न कहिता हूं, हे अर्जुन! जिनकी सात्विक प्रकृति है वह एक ही भगवान को सर्वव्यापी जान कर के सब के साथ श्रद्धा रखते हैं सबके सुह्रद मित्र होंय वरते हैं और राजस प्रकृति सुन- यज्ञों में देवता की पूजा में तिनका मन लगे हैं और तामसी प्रकृति सुन- प्रेत भूतगन इत्यादिक जो तामसी जन है तिन में उनका मन लगे हैं जो इस प्रकार तपस्या करते हैं सो असुर देवताओं की तपस्या है, जो शास्त्र में नहीं कही जिसके देखने से डर आता है ऐसे जो तपस्वी लोगों को दिखाने के लिए तप करते हैं और मन में फल की कामना करते हैं तिस को करते शरीर को कष्ट भी होवे, अर्जुन तिसकी देह में भी आत्माराम व्यापी हूं, सो मुझ को दुख देते हैं ऐसे जो अन्धमत अज्ञानी तप को करते हैं तिसको तू दैत्य तपस्वी जान,यह दैत्यों की प्रकृति है। हे अर्जुन! अब आहार के भेद सुन- आहार भी तीन प्रकार के होते हैं, यज्ञ भी तीन प्रकार के हैं और दान भी तीन प्रकार के हैं, इनके भेद भिन्न भिन्न है सुन- सात्विक पहले आहार मन, जिसके खाने से आयु बढ़ती है, ऐसा भोजन देवता का मिलता है तिसका पान करने से देवता अमर हो जाते हैं। मनुष्य का आहार सुन- जिसके खाने से देह में बल पुरुषार्थ हो, आरोग्यता हो, जिसके खाने से मन में प्रीति उपजे और रस स्वाद से भरा हुआ गृत साथ सिनग्ध दाल, चावल, कोमल फूल के घृत से चपड़े नरम यह आहार सात्विक कहावे है, जो मनुष्य को प्यारा है। अब राजसी आहार मीठा, खट्टा, सलूना, अति तता, जिनके खाने से मुख जले और रोग उपजे, दुख देवे, ऐसे बुरे फल जिनके खाने होते है यह आहार राजसी मनुष्य को प्यारा है। अब तामसी सुन- जिस आहार पर रात्रि व्यतीत हो गई अथवा रात्रि का बासा हो और स्वाद भी जिससे मिट गया हो, दुर्गंध आती हो और किसी का जूठा हो, यह भोजन तामस कहलाता है, तामसी मनुष्य को प्यारा है। अब तीन प्रकार के यज्ञ सुन- पहले सात्विक यज्ञ सुन- उस यज्ञ में फल पाने की कामना नहीं जैसे शास्त्र में विधि लिखी सो करनी चाहिए और यज्ञकर्ता कहे कि मुझको यह यज्ञ योग्य है, इस प्रकार सावधान होकर यज्ञ करे सो यह यज्ञ सात्विक कहलाता है। अब राजसी यज्ञ सुन- जिसके करने में फल की वांछा करता है या लोगों से भला कहलाने के निमित्त यज्ञ करता है। हे अर्जुन! ऐसे यज्ञ को तू राजसी यज्ञ जान और जिस यज्ञ में शास्त्र की विधि नहीं, मन भी पवित्र ना हो, वेद के मंत्र भी ना पढ़े जाए, साधु ब्राह्मणों को यज्ञ के पीछे दक्षिणा दे ऐसे यज्ञ में यज्ञकर्ता को श्रद्धा भी ना हो। अर्जुन! इस यज्ञ को तामसी जान, अब तीन प्रकार का तप सुन- एक देह का, दूसरा मन का, तीसरा बचपन का, यह तीन प्रकार के तप है। प्रथम देह का तप सुन- यहां कोई छोटा जीव हो तिसको देखकर पैर धरना, किसी जीव को खेद ना पहुंचाना, यह चरणों का तप है। हाथों से स्थावर जंगम किसी जीव को ना दुखावे यह हाथों का तप है। देह को जल मृतिका साथ स्वच्छ रखें, दातन करें, स्नान करें, आचमन करें, तिलक करें, शालिग्राम का पूजन करें और जो बुद्धि आप से अधिक हो परमेश्वर का रास्ता बतावे उसकी सम्मान करना, ब्रह्मचार्य रखना, ब्रह्मचार्य क्या सो सुन- हे अर्जुन! जो गृहस्थी हो तो पराई स्त्री को छुए नहीं, जो विरक्त वैरागी हो तो स्त्री का नाम भी ना लेवे, मन कर चितवे भी नहीं, यह ब्रह्मचर्य कहलाता है माता पिता की सेवा करें इस प्रकार शरीर का तप करना उचित है। अब वचनों का तप सुन- प्रथम तो सत्य बोलना कैसा सत्य ? जिसके बोलने से सुनने वाले को दुख ना होवे, मधुर वाणी बोले, मधुर स्वर से सब किसी को बुलावे भाई जी, संत जी, भगत जी, प्रभु जी, मित्र जी, जिस वचन से सुनने वाला प्रसन्न हो ऐसा वचन बोले और जो कोई पुरुष बुलाए उसे यूं कहा हां जी भाई, इस प्रकार वचन तपस्या है और वचन तप सुन- वेदमाता अर्थात गायत्री पढे, वेद पाठ करें, सहस्रशीर्ष, पुराणों के स्तोत्र पढ़े और कथा में जो मेरी लीला, अवतारों के चरित्र पढे, कीर्तन, विष्णु पद गावे, इस प्रकार तप करें। हे अर्जुन
मन का तप सुन- प्रथम मुख्य तप मन को प्रसन्न रखे। मेरी जो प्रीति अमृत रूप है मन की प्रीति मेरे में लगावे और चितवना से मन को हटा कर मन का निश्चल चेता मेरे मे लगावे और मन को शुद्ध करें, मेरे से श्रद्धा लगावे, मुझसे प्रीति करें यह मन की तपस्या कहलाती है। अब स्वासों की तपस्या सुन- स्वास-स्वास मेरा स्मरण करना, हरि राम, कृष्ण इत्यादिक मेरे नामों का जाप करना। सहस्त्र नाम शत नाम पढ़ना स्वासों का तप है। अब इस तपस्या के तीन प्रकार के भेद सुन- मैंने जो देह मन वचन स्वासों से तप करना कहां है जो प्राणी परम श्रद्धा से ऐसा करता है सो मुझको आ मिलता है और प्रीति से तपस्या करें और फल कुछ बांछे नहीं, मुझ ईश्वर अविनाशी मे समर्पण करे सो सात्विक तप कहलाता है और जो लोगों में भला कहाने के निमित्त तप करें अपनी पूजा प्रतिष्ठा करवावे, अपनी मानता करावे सो पाखंडी तपस्या, राजसी तपस्या कहावे है यह तप चलाए मान है स्थिर नहीं, अब तामसी तपस्या सुन- जो अज्ञान को लिए हुए तप करें और जिस तप से शरीर को कष्ट प्राप्त हो और किसी का बुरा करने के निमित तप करें सो तामसी तप कहावे है। अब तीन प्रकार का दान सुन- प्रथम सात्विक दान, सो इस प्रकार दान करें कि यह दान करना आवश्यक मुझको योग्य है, कैसे करें ? उत्तम ब्राह्मण गृहस्थी को दान दें, जिससे संसारी कामना की इच्छा ना हो, किसी संबंधी सगे का ब्राह्मण ना हो और अति पवित्र पृथ्वी हो, गो के गोबर के साथ लिपि और आसन एक सा हो, प्रात काल का समय हो, आप भी स्नान करके पवित्र हो, और ब्राह्मण भी पवित्र सुकर्मी हो तिसको दान देवें इसी विधि से सात्विक दान कहलाता है। अब राजसी दान सुन- ब्राह्मण को दान देना, जिससे अपना कुछ उपकार हो। दान करने से फल की वांछा करें, यह दान राजसी कहलाता है। तामसी दान यह है- स्थान भी पवित्र नहीं, समय भी ऐसा हो आप भोजन पाकर दान करें, ब्राह्मण भी ऐसा हो या किसी और जाति मलेच्छ आदिक को दान देवे, क्रोध से या गाली देकर दुर्वचन कह कर दान दे, यह तामसी दान कहावे है। अर्जुन! जिसको पारब्रह्म कहते हैं सो कौन पारब्रह्म ? जिस के रजोगुण से संसार की उत्पत्ति करने को ब्रह्मा, सात्विक गुण से संसार का पालन कर्ता विष्णु और तमोगुण से संसार के सहारने को महादेव प्रगट हुआ है ऐसे जिस पारब्रह्म से यह ब्राह्मण भी प्रगट किए हैं, उसी ने वेद प्रगट किए हैं, उसी ने यज्ञ बनाए हैं, हे अर्जुन! उस पारब्रह्म की आज्ञा से वेदो के भक़्त ब्राह्मण ही हैं, वेदों की विधि को समझकर ज्ञान, दान, तपस्या, स्नान और भी पवित्र कर्म इत्यादि जो हैं सब वेदों को समझ कर करते हैं। अब यज्ञ दान तपस्या का फल सुन- जो प्राणी इसका फल नहीं मांगते केवल मुक्ति की वांछा है सो प्राणी मुक्ति को पावेंगे। अब जो प्राणी किसी की कामना के लिए शुभ कर्म करते हैं सो प्राणी कामना को पावेंगे। हे अर्जुन! जो मेरा भक़्त प्रीति से पत्र, फल,पुष्प जो कुछ भी मुझ को समर्पण करें सो अंगीकार करता हूं, किस प्रकार ? सो सुन- प्रथम तो मुझको सत्य जाने कि यह जो कुछ मैं परमेश्वर को समर्पण करता हूं, गोविंद जी अंगीकार करें और आपको यह जाने कि मैं परमेश्वर का भक़्त हूं अपने में और मेरे में भेद न जाने और आपको यह कहे कि मन, वचन, कर्म से परमेश्वर का दास हूं, मेरा दास होकर मन, वचन, कर्म कर मुझे समर्पे सो मैं अंगीकार करता हूं, ऐसे भक़्त का दिया मुझको प्राप्त होता है और हे अर्जुन! जो कोई श्रद्धा से रहित होकर मेरे निमित्त कुछ पदार्थ अग्नि में होम करे, दान करे, तप करें और जो सत्य कर्म करें तिनको मैं अंगीकार नहीं करता और जो कोई अपने पितरों के निमित्त दान करता है उनको वह भी अंगीकार नहीं करते है, श्रद्धा प्रीति से रहित होकर दिया हुआ दान किन को प्राप्त होता है सो सुन- उसका फल भूतों की देह धार कर भुगतना पड़ता है भूतप्रेत उस फल को भोगते हैं मुझको नहीं प्राप्त होता और मैं भी उनको नहीं ग्रहण करता हूं।

इति श्री भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे विविध श्रद्धा योगो नाम सप्त दशो अध्याय

★★★★ अथ सतारहवें अध्याय प्रारम्भते ★★★★

श्री भगवानोवाच-हे लक्ष्मी! अब सतारहवें अध्याय का महात्म्य सुन- मंडली के नाम देश में एक दुशासन नाम राजा था उसने एक दूसरे देश के राजा के साथ आपस में शर्त बांधी कि दोनों देश आपस मे अपना अपना हाथी लड़ायें और कहा जिसका हाथी जीते तो वह अमुक धन लेवे, तब दूसरे राजा का हाथी जीत गया। दुशासन का हाथी हार गया। कुछ दिन पीछे दुशासन का हाथी मर गया। राजा को बड़ी चिंता हुई एक तो द्रव्य गया, दूसरा हाथी मरा, तीसरा लोगों की हंसी हुई। बहुत निन्दा हुई इस चिंता में राजा भी मर गया। यमदूत पकड़कर धर्मराज के पास ले गए, धर्मराज ने हुक्म दिया यह हाथी के मोह से मरा है इसको हाथी की योनि दो। हे लक्ष्मी! राजा दुशासन एक देश के राजा के यहां जाकर हाथी हुआ। वहां उस राजा के बहुत हाथी थे। तिनमें वह भी एक था। उसको पिछले जन्म की खबर थी, वह मन में बारम्बार यही पछताता कि मैं पिछले जन्म में कौन था। अब हाथी हुआ हूं, बहुत रुदन करता, खावे पीवे नहीं, इतने में एक ब्राह्मण आया उसने राजा को श्लोक सुनाया। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। राजा ने पंडित जी से कहा- कुछ मांगो उसने कहा और मेरे पास सब कुछ है एक हाथी नहीं है। राजा ने सुनकर वही हाथी दे दिया। ब्राह्मण उस हाथी को अपने घर ले आया।ब्राह्मण ने रात को दाना दिया उसने न खाया, पानी भी नहीं पिया, रुदन करता, मन में चितवे कोई ऐसा होवे जो मुझे इस योनि से छुड़ावे। तब उस ब्राह्मण ने महावत को बुलाया पूछा कि इसको क्या दुख है ? खाता-पीता कुछ नहीं है, महावत ने कहा इस को दुख कुछ नहीं। तब ब्राह्मण ने राजा को कहा हाथी खाता-पीता कुछ नहीं, रुदन करता है। यह सुनकर राजा आप देखने को आया, राजा ने भले वैद और महावत बुलाये, सबको हाथी दिखाया, उन्होंने देखकर कहा राजा जी इसको मानसी दुख है, देह कोई दुख नहीं तब राजा ने कहा- हाथी तू ही बोल कर कह तुझे क्या दुख है परमेश्वर की शक्ति से मनुष्य की भाषा में हाथी ने कहा- हे राजन! तू बड़ा धर्मज्ञ है यह ब्राह्मण भी बड़ा बुद्धिमान है इसके घर का जो खाये सो बड़ा धर्मात्मा होवे। मुझको ब्राह्मण के घर का अन्न कहा मिलेगा। मिले तब ब्राह्मण ने कहा हे राजन अपना हाथी वापिस ले लो, तब राजा ने कहा मैं दान दिया हुआ नहीं फेरता, यह मेरे चाहे जहा जाए। तभी हाथी ने कहा- हे संत जी! तू मत कलप तेरे घर में गीता है तो मुझे गीता के सतारहवें अध्याय का पाठ सुनाओ। तब उस ब्राह्मण ने ऐसा ही किया। हे लक्ष्मी सतारहवें अध्याय का पाठ सुनते ही तत्काल हाथी की देह छूट गई और देवरूप राजा के सामने आ खड़ा हुआ।। राजा की स्तुति करी, राजन तू धन्य है तेरी कृपा से मैं इस योनि से छुटा हूं। राजा को अपनी पिछली कथा सुनाई- हे राजन मैं पिछले जन्म राजा था मैंने शर्त बांध हाथी लड़ाए, मेरा हाथी हार गया, मैं उसी चिंता में मर गया धर्मराज की आज्ञा से मैंने हाथी का जन्म पाया। मैंने प्रार्थना करी थी मेरा छुटकारा कहो कब होगा तब धर्मराज ने कहा गीता के सतारहवें अध्याय का पाठ सुनने से तेरी मुक्ति होवेगी। सो तेरी और पंडित जी की कृपा हुई जो मैं बैकुण्ठ को जाता हूं। हाथी देव देहि पाकर बैकुंठ को गया और राजा भी अपने महल वापिस आ गया। श्री नारायण जी कहते हे लक्ष्मी! सतारहवें अध्याय का महात्म्य है जो मैंने कहा और तुमने सुना है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम सपतदशों अध्याय सम्पूर्णम्।।

Geeta Part-16

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ सोलहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

देव असुर सम्पदा विभाग- योग

श्री भगवानोवाच- हे अर्जुन और सुन- कई मनुष्य के स्वभाव देवताओं जैसे होते हैं कईयों के दैत्यों जैसे होते हैं प्रथम जिसमें देवताओं के स्वभाव है तिनकी सुन- निर्मल, किसी का डर ना होना अंतकरण अर्थात हृदय निर्मल अति शुद्ध होना और मेरे जानने का ज्ञान होना, मेरे समरण योग साथ जुड़े रहना तथा शक्त्ति दान करना, इंद्रिया जीतना, यज्ञ करना और मेरी महिमा जो वेदों में गाई है तिस को सुनना, पढ़ना सशस्त्र शास्त्रों, पुराणों के स्तोत्र पढ़ना, कीर्तन करना तपस्या करना, हे अर्जुन! तपस्या का महात्म्य मैं सतारहवें अध्याय में कहूंगा, अहिंसा अर्थात किसी जीव को न दुखाना, हृदय कोमल, सत्य वाणी बोलना, असत्य ना कहना, किसी से क्रोध ना करना, शरीर….

अहंकार नहीं राज्य में कष्ट नहीं मान।
क्रोध नहीं परिवार में रोगी कष्ट न जान।।
ऐसे नर वर धन्य है जपे जो मेरा नाम।
मैं उनका ही हो रहूं अर्जुन आठो याम।।
सुख-दुख जिनको सम सदा जपें निरंतर माहि।
वह मेरे हैं परम प्रिय सत्य कहूं मैं तोहि।।
संतोषी निसि दिन रहे मेरे पर विश्वास।
ऐसे भक्तों का रहूं अर्जुन में दास।।

…. की रक्षा मात्र भोजन छादन करना, इससे अधिक संचय न करना, इसका नाम त्यागी है। सदा संतोष में रहना, किसी की निंदा न करना, यथाशक्ति सबको सुख देना, निरलोभी लोग से रहित, पाप करने से लज्जा करना, चंचल स्वभाव से रहित होना, निश्चल आसन इंद्रियों और मन को निश्चल रखना और तेजस्वी क्या जो इसकी अवज्ञा कोई ना कर सके, सब कोई जिस को नमस्कार करें, जब कोई दुख दे क्षमा करें, कोई दुवचन कह जाए कोई दुख दे जाए सब सहारे, तिस को क्षमावान कहते हैं और धैर्य रखें, एक गोविंद की शरण रहे, जो कुछ भगवत इच्छा से हो भला मानना, यह बात समझ कर जो मेरी शरण में सदा संतुष्ट प्रसन्न रहें इसका नाम धैर्य है। देह को साध कर, पवित्र स्नान कर, अंतकरण ह्रदय से स्वास स्वास नाम स्मरण कर पवित्र रखें, किसी को कष्ठ ना देवे। अपनी पूजा मानता किसी से ना करावे, किसी का गुरु गुसाई न बन बैठे। हे अर्जुन! यह लक्षण मनुष्य में देवताओं के कहे है। अब असुरों के लक्षण सुन- प्रथम पाखण्ड से कई लोकों में अपने आप को धर्मात्मा दिखाना। मन से पाप चितवने यह पाखंड है। अब अतीत पाखंडियों के लक्षण सुन- जो संसार को त्याग मेरी शरण आए हैं सो मेरी शरण आके फिर मेरे चरणों को छोड़कर और बात की मन में चितवना करें और कहे कि मुझ जैसा और कोई नहीं, क्रोध और कठोर बोलने वाला हो, हे पार्थ! यह अतीत पाखंडी होते हैं। हे अर्जुन, इनकी दो प्रकार की प्रकृति होती है इनकी उत्पत्ति अज्ञान से है इन दोनों प्रकृतियों का फल सुन- जिस मनुष्य में देवताओं की प्रकृति है सो प्राणी संसार से सुक्त होते हैं, जिनकी दैत्यों की प्रकृति है प्राणी संसार के जन्म मरण के बन्धनों में पड़े रहते हैं जब यह वचन श्री कृष्ण भगवान जी के मुख से सुने तब अर्जुन अपने मन मे विचार करने लगा हे मन! दैत्यों का स्वभाव भी तेरे ‘मैं’कोई है ? इसको देखकर श्री कृष्ण जी सह न सके, तब कमलनयन केशव जी तत्काल बोले, हे अर्जुन! तू यह मत सोच तू देवताओं की प्रकृति लेकर जन्मा है, जन्म के साथ ही देवताओं की प्रकृति तेरे मन में आई है, हे अर्जुन! देवताओं के स्वभाव विस्तार से कहे हैं दैत्यों के स्वभाव थोड़े कहे हैं सो कुछ थोड़े और भी सुन- हे अर्जुन दैत्यों के स्वभाव वाले मनुष्य न तो गृहस्त में सुखी रहते हैं न अतीत होकर अतीत होने का मार्ग जानते हैं कि कैसे अतीत होते हैं, न पवित्रता को जानते हैं कि कैसे स्नान से पवित्रता होती है और मुख्य तत स्वरूप को भी नहीं देख सकते, परस्पर मिलते हैं तो यह कहते हैं कि परमेश्वर कहां है ? किसने देखा है। परमेश्वर नहीं संसार का कर्ता कोई नहीं और न संसार का कोई ईश्वर है, हम आप ही आप उत्पन्न हुए हैं हम ही परमेश्वर हैं, सो प्राणी मूर्ख अन्धमति आप ही को परमेश्वर कहते हैं और सब बातों में यह भली बात समझ रखी है कि उत्तम स्वादिष्ट भोजन भोग भोगिये, और अच्छे-अच्छे सुगन्धि वाले रंगीन वस्त्र पहनिये, सुंदर स्त्रियों के साथ सुख भोगिये, इन बातों को परम सुख रूप समझ रखा है। इसको लोभ समझने से दुष्ट बुद्धि तिनकी हुई, शुद्ध आत्मा तिनका नष्ट हुआ और यह थोड़ी मत वाले ऐसे कार्य आरम्भ करते हैं जिससे आप भी कष्ट पाते हैं व औरों को भी कष्ट देते हैं और जो कभी तार न सके ऐसे कर्मों का आश्रय पकड़ रखा है। पाखंड गर्व मदाधन्ता से अंधे हुए हैं सो तिस अन्धेरे साथ उन्मत मतवारे हो रहे हैं, माया के मोहे हुए मिथ्या वस्तु को पकड़ रहे हैं अति अपवित्र स्वभाव को बर्तते हैं। जब तक संसार की प्रलय नहीं तब तक नित्य ही चिन्ता में मगन रहते हैं। काम स्वार्थ का परम लोभ, काम की दृढ़ता में दृढ़,आशा से बंधे हुए काम क्रोध में दृढ़ है। नीच कर्म कर द्रव्य एकत्र करते हैं, छल बल झूठ से अपने आप को नाश करते हैं, कपट से द्रव्य इकट्ठा करने को बड़ा लाभ जानते हैं और कहते हैं कि मेरा मनोरथ पूरा हुआ, यह प्रातः मैं पाऊंगा, यह अगले दिन पाऊंगा, शत्रुओं के मारने को समर्थ हूं, वैरी को जितना जानता हूं, सिद्ध बलवान हूं, सुखी हूं, ततपुरुष हूं, सात पीढ़ियों से धनपात्र हूं, पुरातन साहूकार हूं, मेरे तुल्य दूसरा कोई नहीं मैं ही सबसे बड़ा ठाकुर हूं, कर्म करतूत का कर्ता हूं और सब मेरे दास है, अज्ञान मोह बहुत चितवना विषयों में निमग्न है। हे अर्जुन! अनेक प्रकार के विषयों में तिनका मन पड़ा भ्रमता है मोह के जाल में फंसे हुए काम भोगों में पड़े हुए उनकी दशा कैसी है यहां भी नर्क आगे भी नरक में पड़ेंगे। और यज्ञ महोत्सव श्राद्ध क्षय कार्य तिनके कैसे हैं सो सुन- प्रथम तो अहंकार करते हैं कि किसी को सिर नहीं निवाते, धन के घमण्ड में मतवारे हुए रहते हैं, लोगों से भला कहाने के निमित्त यह श्राद्ध यज्ञ करते हैं फिर अहंकार, बलगर्व, काम, क्रोध से भरे हुए हैं और मैं जो आत्माराम सब देहों में व्यापक हूं तिसको नहीं जानते सो दैत्य बुद्धि मनुष्य हैं। किसी देहधारी को दुख देते हैं, किसी की निन्दा करते हैं इत्यादि जो कठोर मनुष्य, नीच, पापी है तिनके लक्षण कहे हैं अब अर्जुन! मेरी बात सुन- तिनके साथ कैसा हूं ? तिनको दुखदायक गधे की योनि तथा कलह कलेश अज्ञान से भरी हुई कुत्ते इत्यादि की आसुरी योनियों में डालता हूं बारंबार ऐसा कुचील योनि में तिनको भरमाता हूं, हे कुंतीनन्दन! जिन्होंने मुझे नहीं पाया सो प्राणी बारम्बार इन कुचील योनियों में भरमते फिरते हैं, हे अर्जुन! इस आत्मा का नाश करने हारे काम, क्रोध, लोभ-मोह तीन द्वार नरक के हैं, हे सचेप्रीतम इनको त्याग कर जो तीनों से मुक्त है, तिन प्राणियों ने अपनी आत्मा को कल्याण की ओर लगाया है सो मनुष्य परम गति को प्राप्त होंगे। हे अर्जुन! जो शास्ज्ञ की मति त्याग कर अपने मन की बात पर चलते हैं और यज्ञ आदि महोत्सव, कार्य को करते हैं, शास्त्र विधि को त्याग के दान करते हैं सो मनुष्य किसी कर्म किए का फल नहीं पावेंगे और ना किसी प्रकार का तिन को सुख होगा और किसी समय भी परमगति को नहीं पावेंगे। इसलिए हे अर्जुन! जो भले पुरुष निर्मल आत्मा है, जो कुछ यज्ञ, तप, दान करते हैं शास्त्र विधि से करते हैं, सो प्राणी मेरी कृपा से मेरी परम गति को पावेंगे।

★★★★ अथ सोलहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी अध्याय का महात्म्य सुन। सोरठ देश में एक राजा का नाम खड़क बाहु था वह बड़ा धर्मात्मा था, तिसके राज्य में घर-घर ठाकुर जी के मंदिर थे। वहां बड़े-बड़े यज्ञ हुआ करते थे, वहां के घरों में स्वर्ण के जड़ाऊ थम्बे खड़े हुए थे, राजा बड़ा हरि भक़्त और संत सेवक था।
तिसकी प्रजा अति सुखी थी, राजा भी दयावान सर्व जीवों पर दया करता था। राजा के पास बहुत हाथी-घोड़े धन भी था, उन हाथियों में एक हाथी बड़ा मस्त था, तिसकी धूम मची रहती थी। वह हाथी महावतों को पास न आने देता जो महावत उस पर चढ़ता उसे मार डालता। हाथी के पांव में जंजीर डाले रहते, किस के खेद से राजा ने और देशों से महावत बुलाकर देखता कि कोई ऐसा हो जो इस हाथी को वश मे कर सके मैं उसे धन दूंगा। हे लक्ष्मी!पर उस हाथी को कोई वश मे न कर सका, उसके नजदीक भी कोई नही जा सकता था। वह हाथी राजा के मंदिर के आगे खड़ा रहता, जिधर जाता लोगों बड़ा दुख देता, जो भी उसके आगे आता उसे तुरंत मार डालता, वन में जाए तो वन के पशु-पक्षियों को मारता, नगर में लोगों को मारता जहां जाता बड़ा उपद्रव करता। राजा सुनकर बड़ा चिंतावान रहता, बहुत उपाय करके राजा थक गया हाथी वश में न आया। एक दिन हाथी
उपद्रव करता नगर मे चला जा रहा था, सामने से एक साधु भी चला आता था लोगों ने उस साधु को कहा- हे संत जी! यह हाथी आपको मार डालेगा। संत ने कहा- तुम श्री नारायण जी की शक्ति को नही जानते उसके सामने हाथी कि क्या शक्ति है जो यह मुझे मारे, मेरे नजदीक भी नही आ सकता। नगर वासियों ने कहा वह पशु तेरे भजन को क्या जाने यह तुम्हें मारेगा। साधु ने कहा- यह क्या मारेगा मैं परमेश्वर का प्यारा हूं, हरि भक्त हूं, जो परमेश्वर से विमुख है तिनको यह मारता है और यह मेरा एक ज्ञान है, जो मेरी मृत्यु इसी से है तो अवश्य मारूंगा बिना आई कोई नहीं मरता। हाथी साधु के पास पहुंचा, साधु ने नेत्र प्रसार कर देखा हाथी ने सूंड के साथ साधु को चरण वंदना की और खड़ा रहा, तब साधु ने कहा- हे गजेंद्र! मैं तुझे जानता हूं पिछले जन्म तू बड़ा पापी था, मैं तेरा उद्धार करूंगा चिंता मत कर, हाथी बारम्बार चरण छूता, माथा निवाता, हाथी ने आगे हो साधु की चरण वंदना की। लोगों ने यह खबर राजा को की तो तुरंत राजा भी वहां आया, देखा तो हाथी साधु के आगे खड़ा है तब साधु ने कहा- हे गजेंद्र! तू आगे आ, उस गीता पाठी साधु ने कमंडल से जल लेकर मुख से कहा मैंने अपना गीता के सोलहवें अध्याय के पाठ का फल इस हाथी को दिया, इतना कहकर जल छिड़कते उस हाथी की छूट गयी और देव देही पाई और एक देव रूप धर राजा के सम्मुख होकर कहा राजा मैं तुझको धर्मज्ञ जान तेरे नगर में रहता था कि कभी कोई संत यहां आएगा तब मेरी गति करेगा, इस संत के प्रताप से मेरी सदगति हुई है यह कहकर बैकुण्ठ को चला गया। राजा ने संत को दंडवत की और कहा संत जी आपने क्या मंत्र कहा जिससे इस अधम दुखदायक को सदगति प्राप्त हुई है। सुनते ही संत ने कहा- मैंने गीता जी के सोलहवें अध्याय का पाठ का फल दिया है मैं नित्य ही पाठ किया करता हूं, राजा ने पूछा हे संत जी! हाथी ने ऐसा क्या पाप किया जो इसने हाथी की जूनि पाई थी। साधु ने कहा- हे राजन! यह पिछले जन्म यह एक अतीत का बालक था, गुरु ने बहुत विद्या पढ़ाई और यह बड़ा पंडित हुआ। वह गुरू तीर्थ यात्रा को गया, पीछे उसकी शोभा बहुत हुई, अच्छे अच्छे सतसंगी उसके दर्शनों को आते थे। बारह वर्ष पीछे जब गुरु जी आए वह अतीत समाधि लगाए बैठा था, मन में सोचा अब इनके आदर को उठूंगा तो मेरी शोभा घटेगी। यह सोचकर नेत्र बंद कर चुप हो बैठा रहा, गुरु जी ने देखा मुझे देखकर इसने नेत्र बंद किये है यह देखकर गुरू ने शाप दिया, कहा हे मन्दमत! तू अंधा हुआ है मुझे देखकर सिर नहीं निवाया और ना उठकर दंडवत की है तूने अपनी प्रभुता का अभिमान किया है सो तू हाथी कि जून पावेगा। यह सुनकर वह बोला, हे संत जी! आपका वचन सत्य होवेगा पर मुझ पर दया कर यह कहो मेरा उद्धार कैसे होवेगा ? गुरु जी को दया आई और कहा जो कोई गीता के सोलहवें अध्याय का पाठ का फल तुझे दे देगा तब तेरा उद्धार होगा। यह बात कहकर साधु आगे की ओर चल दिया। यह बात सुनकर राजा भी नित्य गीता जी के अध्यायों का पाठ करने लगा और समय पा राजा भी सदगति को प्राप्त हुआ। श्री नारायण जी कहते हैं हे लक्ष्मी! यह सोलहवें अध्याय का फल है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम षड़दशो अध्याय सम्पूर्णम्।।

Geeta Part-15

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ पन्द्रहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

परुषोत्तम योग

श्री भगवानोवाच- श्री कृष्ण भगवान अर्जुन से कहते हैं हे अर्जुन! यह संसार वृक्ष रूप है, इस वृक्ष का मूल आदि जड़ ऊपर है, शाखा तले है यह उल्टा वृक्ष है, जब मनुष्य माता के गर्भ में होता है तब सिर तले होता है, यह सिर इस मनुष्य रूपी वृक्ष की जड़े हैं, चरण हाथ इसकी शाखा है। जब गर्म से बाहर निकलता है तब उल्टा ही चलता है, इससे यह उल्टा वृक्ष है, हे अर्जुन! इसका विनाश…..

अर्जुन सुन ध्यान से गज इक भक्त महान।
एक दिवस सरिता विखे पहुंचा करने स्नान।।
पकड़ा उसको ग्राह ने निर्बल था गजराज।
सुनकर गज की टेर को पहुंचे भव के ताज।।
ग्राह को मारा तुर्त गज को लिया बचाय।
इस प्रकार निज भक्त की करते नाथ सहाय।।
जो मेरे आश्रित सदा उनका मैं रक्षपाल।
पंचदश अध्याय में इमि कहते गोपाल।।

हुआ भी कहते हैं और अविनाशी भी कहते हैं, इसका अर्थ सुन- आत्मा अविनाशी है और देह विनाशी है इससे देह विनाशी कहते हैं और वेद इस वृक्ष के पत्र हैं इस वृक्ष को पहचाने सो वेद का पूर्ण पंडित कहावे है और यह वृक्ष ऊपर ब्रह्मा के लोक और तले शेषनाग के लोक तक पधार रहा है और सत्व, रज और तम यह तीनों गुण इस वृक्ष के डाल हैं। देखना, सुनना, सुघना, खान, पहरना इस वृक्ष को गुच्छे लगे हैं और इस वृक्ष की भूमि कौन है जिस पर वृक्ष लगा है ? सो सुन- हे अर्जुन! मैं और मेरा ही चैतन्यता से इस पृथ्वी पर यह वृक्ष लगा है, यह मैं, यह मेरी है, यह मेरी जाति है, यह मेरा नाम है, तिस पर वृक्ष लगा है। पवन से गिरने के भय से इसको जेवड़े कौन बन्धे हैं पवन झखड़ कौन है ? जेवड़े ऋण संबंधी कुटुंब के लोग हैं इनसे वृक्ष बांधा हुआ है और इस वृक्ष को जान नहीं सकते, क्योंकि इसका आदि अन्त पाया नहीं जाता, मैं मेरी की चैतन्यता पर दृढ़ लगा है झखड़ यह है, यहां मेरे संत मेरी महिमा को गाते, सुनते, पढ़ते गीता भागवत इत्यादि इस झखड़ कर के संसार वृक्ष देह के जीव का कुछ नहीं रहना है। हे अर्जुन! इस माया रूपी वृक्ष पर यह जीव फंसा हुआ है इस वृक्ष के काटने का उपाय सुन- प्रथम कुटुंब के लोगों को संग त्याग, यह असंग एक शस्त्र हुआ। परम पुरुष पर दृढ़ निश्चय करना यह हुआ असंगत रूपी खंडग, पुरुषार्थ रूपी हाथों में पकड़ जब असंग हुआ जिसके पीछे तिन परम पुरुष के मार्ग पर सावधान होकर चले जिसको पाकर फिर संसार के जन्म मरण को ना पावे। सावधान हो तो क्या- दोनों हाथ जोड़कर सिर निवाय नमस्कार कर मुख से कह, हे आदि पुरुष विश्वम्भर जगदीश! मैं तेरी शरण हूं! अर्जुन! आदि पुरुष का अर्थ और प्रताप सुन- कई कोट बैकुण्ठ के ऊपर तिनका स्थान है और निराधार आसन है, अपने आधार पर विराजमान है उस आदि पुरुष के स्थान से कई कोट ब्रह्मण्ड, कई कोटि चौरासी लाख जीव, और ही, और भांति के निरंतर निकलते ही रहते हैं, आप फिर पूर्ण का पूर्ण सदा अटल, यह आदि पुरुष का प्रताप है। विश्व को करता रहता है, सर्व जगत का ईश्वर है, कुटुंबादि का त्याग कर ऐसे आदि पुरुष की शरण आवे और अपना मान दूर करके कहे कि मैं किसी जैसा नहीं निष्कपटी
एकान्त वासी निरबन्धन निर्मोही एक पारब्रह्म की सेवा करें। हे अर्जुन! स्वास के अंदर बाहर आते जाते मेरा ही नाम जपे है, आदिपुरुष भगवान मैं तेरी शरण हूं। यह जाप जपे मेरी चरणों की सेवा करें, मेरे स्मरण बिना किसी की कामना न करें। इस प्रकार जो भक्त मेरी शरण आता है उसको मैं दुख-सुख, हर्ष-शोक, शीत-उष्ण आदि विकारों से पूर्ण इस संसार समुद्र दुख रूप से अपने ज्ञानी भक़्त को मुक्त्त करता हूं और अपने अविनाशी पद में प्राप्त करता हूं, कैसा है अविनाशी पद ? जहां सूर्य चंद्रमा की गम्यता नही, जहां पर जाकर फिर नहीं आवे सो ऐसा परमानन्द अविनाशी घर मेरा है इस आदि पुरुष अविनाशी पद में जो प्राप्त हुए हैं तिनका वृत्तांत मैंने कहा है। अब अर्जुन और सुन- यह जो सब लोकों में जीव भूत है सो मेरा अंश है यह सनातन पुरातन पांच इंद्रियां छटा मन यह छः इस जीव को अपने गुणों की और खैंचते हैं। अब शरीर को त्यागना और लेना क्या है सो सुन- इस देह का ईश्वर जो जीव है सो जीव जब देह को त्यागता है तब यह जीव की उलांघ है, जैसे एक चरण टिकाया, दूसरा उठाए आगे रखा, फिर पिछला चरण उठाएं आगे रखा, जब आगे ठोर पाई जाती है, तब पिछला चरण उठाए आगे रखना है तैसे ही हे अर्जुन! देह त्यागना और देह का लेना इस जीव की उलांघ मात्र है, जैसी वासना को लिए देह को त्यागे है सो वासना साथ ले जाता है। कैसे ? जिस तरह पवन किसी वस्तु को छू कर चलती है तैसी वासना आती है- नेत्र, श्रोत, स्पर्श, त्वचा, जीव्हा, नासिका यह पांचों इंद्रियां, इनका अधिकारी छटा मन, इसके साथ मिलकर यह जीव विषयों को भोगता है, खाता, पीता, चलता, बैठता और जो कार्य करता है सो सब जीव करे हैं, इंद्रिया और मन के साथ रला मिलकर करे हैं पर यह कौतुक मूढ़ प्राणियों को नहीं दिखाता। जो प्राणी ज्ञान नेत्रों से संयुक्त है इस कौतुक को देखते हैं। सो ज्ञान नेत्र किस प्रकार होते हैं ? हे अर्जुन जब मेरे स्मरण ध्यान योग साथ जुड़े हैं तब स्मरण कर ज्ञान उपजे है, इन योगियों में भी कोई इक जो मेरे स्मरण से पवित्र हुआ है तिसको ज्ञान उपजे है, तिस ज्ञान के उपजने से मेरी रचना का कौतुक देखता है। यह सूर्य जो अपने प्रकाश से सब लोकों का अंधकार दूर करे हैं, उस सूर्य में तेज प्रभु का जानो। ऐसा ही चंद्रमा में जो तेज है, सो भी प्रभु का जानो। पृथ्वी जो जड़ है चैतन्य, स्थावर जंगम को धारकर भूत प्राणियों को अपने ऊपर लेकर खड़ी है सो तिस पृथ्वी का तल बल प्रभु का जानो, उस प्रभु के आश्रय है और जितने मनुष्य के अंश है- अन्न घास, तृण, वृक्ष इन सबको चंद्रमा की किरणों द्वारा रस अर्थात स्वाद से मैं ही भेजता हूं और आप ही सर्वभूत प्राणियों के हृदय में अग्नि होकर व्यापता हूं, प्राण वायु ऊपर की अपान वायु तले की, यह उदर में और अग्नि और प्राण वायु साथ जो प्राणी चार प्रकार के भोजन करते हैं तिस अन्न को मैं ही पचाता हूं। लेहज, पेहजभक्षय, भाज्य यह चार प्रकार के अन्न है जो अग्नि कर सीधा पकाया जाये, भूना जाए सो भक्षय कहिये और जो कच्चा अन्न है चावल चने मोठ इत्यादि जो कच्चा अन्न खाईये सो अन्न भोज्य कहावे है और ककड़ी, खरबूजा, तरबूज, गन्ना, आम इत्यादि लेहज कहलाते हैं। दूध, दही, छाछ, शर्बत पानी यह पेहज है। यह चार प्रकार के अन्न है और सबके हृदय में मैं ही विराजता हूं, सबके हृदय में बैठ के ज्ञान देके मनुष्य से भले कर्म मैं ही करता हूं अज्ञान देकर अपकर्म पाप मैं ही करता हूं, वेदों में पहचानने योग्य मैं ही हूं, अन्त वेदों के जानने हारा भी मैं ही हूं, वेदों का अन्त करने हारा भी मैं ही हूं, अन्त वेदों की मति सो अपनी मति से स्तुति करते हैं। सब महिमा करते हैं वेद की मति कही जाती है तब वेद नेती-नेती करते हैं जो तुम्हारी महिमा के जानने को असमर्थ हूं, इस कारण से वेदों का अन्त करने हारा मैं हूं। अब अर्जुन और सुन- यह जो देह धारियों का पसारा है सो सभी पसारा दोनों पुरुषों का है, एक पुरुष वीनस जाता है दूसरा अविनाशी रहता है इन दोनों का वृतांत सुन- यह जो बहुत तत्वों का शरीर पुरुष है सो वीनस जाता है, दूसरा जीव पुरुष है सो अविनाशी है, यह इन दोनों के विस्तार हैं। फिर इन दोनों से तीसरा पुरुष उत्तम है जिसे परमात्मा कहते हैं तिसका महात्म्य प्रताप सुन- जिस आत्मा के नेत्र उघड़ने (उठाने मात्र) से ब्रह्मा आदि चींटी पयन्त भूत प्राणियों की पालना होती है फिर उसी के यह स्तम्भ धारे हुए हैं और तब तिस परमात्मा की पलक लगती है, चौदह भवन प्रलय हो जाते हैं ऐसा महाप्रतापी है इसी से तिसको आत्मा कहते हैं, तिसको पुरुषोत्तम भी कहते हैं। उसका अर्थ सुन- विनसया हुआ जो शरीर सो पुरुषोत्तम से अतीत है, दूसरा जो अबिनाशी पुरुष
तिसमें उत्तम है, इसी से लोक वेदों में परमात्मा कहते हैं, हे अर्जुन! जो पुरूषोतम पुरुष मैं ही हूं और जिन भक्तों ने मुझको पुरुषोत्तम पहिचाना है फिर उनको और क्या करना है ? सर्व सिद्ध पलों में मेरा ही भजन करें हैं, हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार शास्त्र वेद द्वारा मुझको पहिचाने, मेरे चरणों में दृढ़ निश्चय करें तो निश्चय कृतार्थ होगा, मेरा पद को प्राप्त होगा।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे देवासु सयास नाम पन्द्रवां अध्याय

★★★★ अथ पन्द्रहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी अब पन्द्रहवें अध्याय का महात्म्य सुन- एक देश में एक नरसिंह नाम राजा था और उसका सुभग नाम मंत्री था, राजा को मंत्री पर भरोसा था वह उसे बहुत अच्छा समझता था, परंतु मंत्री के मन में कपट था, वह यही चाहता था कि राजा को मारकर राज्य मैं ही करूं। इसी भांति ही कुछ काल व्यतीत हुआ। एक दिन राजा सोया पड़ा था और नौकर-चाकर भी सोये पड़े थे तब मंत्री ने राजा और उसके नौकर समेत मार दिया और आप राज्य करने लगा। राज्य करते बहुत काल व्यतीत हुआ। एक दिन वह भी मर गया, यमदूत उसको यमराज के पास बांधकर ले गए धर्मराज से कहां हे यमदूतों यह बड़ा पापी है इसको घोर नरक में डालो। हे लक्ष्मी! इसी प्रकार वह पापी कई नरक भोगता-भोगता धर्मराज की आज्ञा से घोड़े की योनि में आया। एक राज्य में जा घोड़ा हुआ, घोड़ों का एक सौदागर ने उसे और अन्य घोड़े खरीद अपने देश को आया। वहां के राजा ने सुना कि अमुक सौदागर बहुत घोड़े लाया है तब राजा ने उसे बुलवाया, घोड़े देखकर उस घोड़े को भी खरीद लिया। जब राजा ने उस घोड़े को फेरा तब उसने राजा की ओर देखकर सिर फेरा ? तब राजा ने देखकर कहा क्या कारण है कि यह घोड़ा बार बार सिर फेर रहा है ? तब राजा ने पंडित को बुलवाकर पूछा कि यह घोड़ा आज ही खरीदा है और यह बार सिर फेर रहा है, तब पंडित ने कहा राजन इस घोड़े ने तुमको सिर नवाया है। राजा ने कहा यह बात नहीं, कई दिन बीते एक दिन राजा उस घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने को गया, वह घोड़ा जल्दी चलता था, राजा शिकार खेलता खेलता बहुत दूर चला गया, पहले राजा शिकार को बहुत दूर से तीर मारता था उस दिन नजदीक से तलवार मारकर मारने लगा। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ, दोपहर हो गई राजा को तृष्णा लगी, राजा ने वन में एक अतीत देखा और कुटिया में बैठा है उस कुटिया के नजदीक तलाब जल से भरा है वह राजा घोड़े से उतरा और उस घोड़े को एक वृक्ष के साथ बांधकर कुटिया में गया देखा तो साधु अपने पुत्र को गीता के पन्द्रहवें अध्याय का पाठ सिखा रहा है। साधु ने अपने पुत्र को वृक्ष के पत्ते पर श्लोक लिखकर दिया और बालक को कहा जाओ खेलते फिरो और इसको कण्ठ करो। जिस वृक्ष के साथ राजा ने घोड़ा बांधा था, उस वृक्ष के पत्ते पर ही साधु ने श्री गीता जी का श्लोक लिखा था। वह बालक पता लेकर खेले भी और पढ़े भी। जब वह बालक खेलते खेलते उस वृक्ष के पास गया जहां घोड़ा बंधा था तो उस पत्ते को घोड़े ने देख लिया तत्काल उस घोड़े की देह छूट गई और देव देवी पाई स्वर्ग से विमान आये उन पर बैठकर घोड़ा बैकुण्ठ को चला और आकाश में जा खड़ा हुआ इतने में राजा पानी पीकर बाहर आया देखा तो देखा घोड़ा मरा पड़ा है। राजा ने चिन्तावान
होकर कहा यह घोड़ा किसने मारा, क्या हुआ ? इतने मे आवाज आई, हे राजन! तेरे घोड़े का चैतन्य मैं हूं मैंने अब देव देहि पाई है और बैकुंठ को चला हूं। राजा ने पूछा तुमने कौन पुण्य किया है ? उसने कहा, राजन यह बात साधु से पूछो। राजा ने उस ऋषिवर (साधु) को बुलाकर पूछा हे ऋषिवर जी! यह क्या कारण हुआ है ? ऋषिवर ने कहा हे राजन! गीता का लिखा हुआ पत्ता इसके आगे पड़ा है घोड़े ने अक्षर देखे हैं इस कारण घोड़े की गति हुई। राजा ने पूछा पीछे जन्म यह घोड़ा क्या था और घोड़े के सिर फेरने की बात भी राजा ने कहीं। ऋषिवर जी यह बात मुझे सुनाओ कि मेरा और घोड़े का क्या संबंध था ? ऋषिवर ने कहा- हे राजन! पिछले जन्म में तू राजा था यह तेरा मंत्री था यह तुम को मारकर राज्य करता रहा। तू फिर राजा हुआ, यह मर कर धर्मराज के पास गया तो धर्मराज ने धिकार कर कहा, इस पापी कृतघ्न को खूब नरक भगाओ। बड़े नरक भोगता भोगता घोड़े के जन्म में आया। तेरे राज्य मे आकर तेरे पास बिका, जब उसने सिर हिलाया तब कहता था हे राजन तू मुझे पहिचानता नहीं, परंतु मैं तुझे पहिचानता हूं। यह कहकर ऋषि जी चुप हो गये। राजा ने सिर झुककर ऋषिवर को दंडवत की, पीछे की और हटा इतने मे राजा के सैनिक भी वहां आ गए, राजा अपने सैनिकों के साथ रथ पर सवार हो अपने घर आया। अपने पुत्र को राज्य देकर आप वन को जा तप करने लगा और नित्य श्री गीता जी के अध्यायों का पाठ किया करता जिसके प्रसाद से राजा भी परमगति का अधिकारी हुआ। श्री नारायण जी कहते हैं हे लक्ष्मी यह पन्द्रहवें अध्याय का महात्म्य है जो मैंने कहा तूने सुना है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम पन्द्रहवां अध्याय संपूर्णम्।।

Geeta Part-14

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ चौदवहां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

गुण त्रय विभाग- योग

श्री कृष्ण भगवान जी अर्जुन के प्रति कहते हैं, हे अर्जुन! फिर मैं….

हे अर्जुन यह कामना करें जीव का नाश।
जिसको निशि बास रहे धन लेने की आश।।
जोड़-जोड़कर लक्ष्मी धरे तिजोरी बीच।
वह तमाम नर जानिये वही जगत में नीच।।
ऐसा नर संसार में यश रंचक नहीं पाय।
जब त्यागे इस देह को तुर्त नरक में जाय।।
इस कारण सब कामना करो मित्रवर दूर।
भाव सदा निष्काम हो करलो युद्ध जरूर।।

….तुझको परम ज्ञान सो सर्व ज्ञानों से उत्तम है कहता हूं। जिस ज्ञान के जानने से मेरे भक़्त मुनीश्वर परमसिद्ध मेरे परमानंद अविनाशी पद में जा प्राप्त होते हैं जिन्होंने मेरा इस ज्ञान का आश्रय लिया है और जिन्होंने मेरा यह ज्ञान सुना है कि श्री कृष्ण भगवान जी ऐसे बड़े हैं, ऐसा पहचान कर जिन्होंने मेरा आश्रय लिया है, मेरी शरण आये हैं उनको मेरे जैसा ही धर्म होता है, अर्थात मेरा भक़्त संसार की प्रलय के साथ प्रलय नहीं होता। जैसे मैं संसार की उत्पत्ति के साथ उत्पन्न और संसार की प्रलय के साथ प्रलय नहीं होता और यह मेरा धर्म है, तैसे ही तू मेरे भक्तों की जान। हे अर्जुन! यह अपने ज्ञान की बड़ाई और फल कहा है। हे अर्जुन! वह ज्ञान भी सुन- मेरा नाम महद् ब्रह्म है, सो क्या कारण ? तिसका अर्थ सुन- जब संसार की प्रलय होती है तब सारे को अपने उदर में रख लेता हूं, जब संसार के उपजाने का समय आता है तब अपने उदर से प्रगट कर लेता हूं, इसी कारण से मेरा नाम महद् ब्रह्म है। महद् ब्रह्म अर्थात बड़ा ब्रह्म हूं। कुन्तिनन्दन! एक ही ईश्वर से अनेक भान्ति का संसार प्रगट हुआ। जितने देहधारी पीछे वरते हैं और जितने अब हैं और जितने आगे होवेंगे सो उनको देख किसी जैसा कोई नहीं और ही और भांति के हैं, तिनकी आकृति प्रकृति भिन्न-भिन्न है, तिनके शब्द पृथक पृथक हैं। अर्जुन वीर्य के देने हारा पिता हूं, सात्विक, राजस, तामस यह तीनों गुण जो देहों में व्यापते हैं और यह अविनाशी जीव जो सब देहों में व्यापता है, सो माया साथ तीनों गुणों साथ मिला हुआ बांधा है। जिस प्रकार यह जो तीनों गुणों साथ बांधा है सो सुन- प्रथम सात्विक का वृतांत सुन- निर्मल पवित्र इंद्रियों में प्रकाश, मन में निर्मल प्रकाश अज्ञान रोग से रहित आरोगी और अंध निष्पाप। इस प्रकार यह जीव सात्विक गुण से बांधा है। अब अर्जुन राजस गुण का वृतांत सुन- कुटुंब के लोगों के साथ मोह ममता यह मेरी है यह उनकी है, द्रव्य कमाने की तृष्णा सो इस प्रकार जीवन जो गुण से बांधा है। हे अर्जुन! यह ऋण सम्बन्धी सब कुटुंब के लोग हैं, इस प्रकार जैसे बेड़ी का पुर नाव में सब लोग इकट्ठे होते हैं तैसे कुटुम्भ के लोग इनके साथ दृढ़ ममता मोह जीवन लगा रखी है यह राजस गुण है अब तामस गुण का वृतांत सुन- तामस गुण जो है उसको तू मोह अज्ञान जान। असावधानता गोविंद का विस्मरण आलस्य होना, अति निद्रा, इस प्रकार जीव तामसी गुण में बांधा हुआ निंद्रा, आलस्य, असावधानता था यह तीनों देह धारियों को मोहने हारे हैं और तामस से उपजते हैं गुण मनुष्य को उपजाते है और हे भारतवासियों में श्रेष्ठ अर्जुन! राजस गुण कर्म को प्रगट करता है, निष्काम नहीं रहने देता और अज्ञान असावधानता यह तामस के गुण से प्रगटे हैं यह तीनों गुण सदैव देह में बर्तते हैं, कभी सात्विक, कभी राजस कभी तामस बढ़ते-घटते भी हैं, जब बढ़ते हैं तब जानने में आ जाते हैं। सात्विक के बढ़ने से देह के सब द्वारों में प्रकाश होता है, निर्मल नेत्रों से निर्मल प्रकाश नासिक से निर्मल स्वास चलते हैं, श्चोत्रो में सूर तिभलो होय, देह निर्मल होय, आरोग्य होय दोनों ऊपर तले के द्वार स्वच्छ मन में परमेश्वर का स्मरण होवे। इन लक्षणों से जाने मेरी देह में सात्विक गुण हैं! हे अर्जुन! जब रजोगुण बढ़ता है तब द्रव्य बढ़ाने का लोभ होता है लोभ से सदा कार्य में लगा रहे। निष्काम कभी ना बैठे, तब जाना राजस गुण बड़ा है। जब तामस गुण बड़े तो सब देह के द्वारों में प्रकाश थोड़ा तथा आलस्य निद्रा हो तब जाना तामस गुण बड़ा है। अब और सुन- जब तामस गुण के बड़े से देह का त्याग होवे तब मूढ़ योनि जो पशु है सो पाए है अज्ञानी तिसको ही प्राप्त होता है। अब अर्जुन! तीनों गुणों के फल कहता हूं- सात्विक गुण का फल निर्मल, राजस गुण का फल दुख, तामस गुण का फल अज्ञान, सात्विक गुण से ज्ञान उपजता है, रजोगुण से भय उपजता है, तमो गुण से असावधनता, मोह, अज्ञान उपजे है। जिन मनुष्य की सात्विक प्रकृति है सो देह को त्याग ऊपर के लोक को पाते हैं जिनकी राजसी प्रकृति है सो देह को त्याग के पृथ्वी पर जन्म पाते हैं जिनकी तामसी प्रकृति है सो देह को त्याग के पृथ्वी तले पाताल लोक में प्राप्त होते हैं। हे अर्जुन मैं इन तीनों गुणों का कौतुक देखने हारा हूं। इन गुणों में अतीत हूं, ऐसा मुझको पहचाने सो मेरे परमानंद अविनाशी पद में जाय प्राप्त होते हैं। फिर मैं कैसा हूं इन तीनों गुणों का निर्णय करने हारा हूं, जीव देहों की उत्पत्ति करता हूं, तीनों गुणों से अतीत हूं, ऐसा जो प्राणी मुझको पहचाने सो जन्म मरण और बुढ़ापे के दुखों को काट कर मुक्त्त होता है, इस ब्रह्म ज्ञान का अमृतपान करने से संसार में जन्म मरण नहीं पाता है न मरता है। अर्जुन यह वचन सुनकर दीन दयालु श्री कृष्ण भगवान जी से पूछता है। अर्जुनोवाच-
हे भगवान कृपा निधान जी! यह जीव जो तीनों गुणों से बांधा है इसके छूटने की विधि कहो और जो देह साथ होते ही तीनों गुणों से अतीत है का वृतांत भी कहो। अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान जी बोले- हे अर्जुन।

तिस के लक्षण कहु जिससे तुझको जिससे समझो कि यह तीनों गुणों से रहित है

जो देह साथ होते हुए भी तीनों गुणों से अतीत है तिनके लक्षण सुन- जो गुण देह विखे उपजते वर्तते है उन नित कर्मों को कहा नही जाता। कल्पना न करे जो यह गुण बुरा है और उस गुण के दूर होने की वांछा न करें जो यह दूर हो जावे ऐसा गुणों से उदास रहे। इससे मेरा क्या प्रयोजन है ? जैसे विष्णु की माया गुणों को उपजाती है तैसे ही देह में स्वभाव से मिले हुए गुण वर्ते हैं, मैं आत्मा रूप इस से न्यारा हूं इस प्रकार गुणों से प्रेरित होकर चले नहीं। फिर कैसा हूं- दुख सुख में एक समान स्तुति निन्दा में एक जैसा कंचन, माटी पाषाण एक समान जाने, आदर अनादर करने से सुखी दुखी न हो, शत्रु मित्र एक जैसे जाने किसी बुरे कार्य का आरम्भ न करें। हे अर्जुन! तूने तीनों गुणों से अतीत का प्रश्न किया था, जिस के लक्षण कहे हैं। अब जिस प्रकार यह तीनों गुणों से अतीत होवे सो सुन- हे अर्जुन! मुझे विश्वम्भर जानकर केवल मेरे में श्रुति लगावे और सब अवतारों से मन उठाकर शीतल स्वभाव ही मेरी भक्ति में मन देवे और हे प्रभु! मैं तुम्हारा दास हूं और तुम करतार सबके कर्ता हो, मैं दान अनाथ हूं, कृतघ्न हूं, तेरे गुण किए को मैं नहीं जानता, तेरे बिना और प्रभु नहीं, मैं तेरे आधीन हूं, हम कर्म यन्त्र में पढ़ भ्रमते हैं, तू इस यंत्र का सूत्रधार है। हे देव! मैं तेरी शरण हूं, तू सबका आश्रय है। हे अर्जुन जो इस प्रकार मेरा दास होवे, केवल अवांछा हो के मेरी ही शरण आवे, सो वह इन तीनों गुणों से अतीत होता है और देह के साथ होते ही मुक्ति पावे हैं और जीवन मुक्त्त होते हैं यह मार्ग तीन गुणों से अतीत होने का है, सो मैं कैसा हूं ? उस आत्मा का प्रताप सुन इतनी बातों का नाम ब्रम्ह है- एक तो यह सारा विश्व जो है ब्रम्हरूप है एक वेद शास्त्र यह सब शब्द ब्रह्म है और मुक्ति का नाम भी ब्रम्ह, मुक्तिधाम बैकुण्ठ का नाम भी ब्रम्ह, इस सब ब्रम्ह का मैं ही ठाकुर हूं, इन सब की शोभा में ही हूं, ब्रह्म सो कैसा हूं, अविनाशी हूं, ना मरता हूं, ना जन्मता हूं पुरातन सबसे पहले धर्म रूप इन तीनों लोकों में बसने हारा और इनसे अतीत भी मैं हूं, गुण ग्राहा सुख का समुद्र परमानन्द भगवान का प्यारा हूं।।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे गुणत्रय योगो नाम चौदहवां अध्याय।।

★★★★ अथ चौदहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी! उत्तर के देश सरस्वती क्षेत्र में एक बड़ा विद्वान राजा था, राजा का नाम सूर्यवर्मा था। संगलदीप के राजा के साथ उसकी प्रीति थी। एक समय संगलदीप के राजा ने संगलदीप से बड़े जवाहर, मोती, घोड़े बहुत कीमत के एक भेंट के रूप मे अपने मित्र को भेजे। तब उतर देश के राजा के मन में विचार आया कि मैं क्या भेजूं, एक दिन अपने मंत्री को बुलाकर उससे पूछा कि हम क्या भेजें, मंत्री ने कहा जो वस्तु वहा ना होवे सो भेजनी अच्छी है, तब राजा ने कहा और तो सब वस्तुओं वहां है एक शिकारी कुत्ते नहीं हैं सो वहां शिकारी कुत्ते भेजो। सोने की जंजीरों के साथ बंधे हुए कुत्ते मखमलों के गद्देले लगाकर डोलियों में बिठाकर उत्तर के राजा ने वहां भेंट रूप में पहुंचाये। उन्हें देखकर राजा अति प्रसन्न हुआ कहा यह शिकारी कुत्ते यहां नहीं थे यह मेरे मित्र ने बहुत भला किया हम शिकार खेला करेंगे। कई दिन गुजरे, एक दिन राजा शिकार खेलने चला और भी शिकारी साथ चले। उत्तर देश के राजा ने एक और राजा के साथ शर्त बांधी जिनका कुत्ता शिकार मरेगा सो वही उसे लेवेगा। दोनों राजाओं ने अपने अपने कुत्ते छोड़े, एक झुंड से एक ससा निकला, सभी कुत्ते उसके पीछे दौड़े ससा दूर निकल गया और कुत्ते पीछे दौड़ते रहे। उतर
देश के राजा का कुत्ता जैसे ही ससे को पकड़ने लगा तो लोगों ने शोर किया। ससा कुत्ता के पंजों से छूट गया और उत्तर के राजा का कुत्ता पीछे रह गया। ससा फिर भागा, कुत्ते के पंजे ससे को लगे थे,उसके शरीर से रुधिर टपकता जा रहा था। ससा भागता जा रहा था और संगल के राजा का शिकारी कुत्ता ही उसके पीछे दौड़ता रहा बाकि सब पीछे रह गए। जाते-जाते वन में एक कच्चा तालाब पानी का भरा था, उस तलाब पर एक कुटिया भी थी, वहां एक साधु रहता था। उस तालाब में ससा जा गिरा, कुत्ता भी उसके पीछे तालाब में जा घुसा। इतने में राजा भी घोड़ा दौड़ाकर वहां पहुंचा, क्या देखा दोनों मरे पड़े हैं और दिव्य देह पाकर बैकुंठ को चले हैं उन्होंने राजा को देखकर धन्यवाद किया और कहा राजा तुम धन्य हो तेरे प्रसाद से हमने देव देहि पाई, राजा ने पूछा वह कैसे ? उन दोनों ने कहा हम नहीं जानते। पर इस जल को छूने से देव देही मिली है राजा ने कहा धन्य मेरे भाग्य जो तुम्हारा उद्धार हुआ है। वह दोनों बैकुंठ को गए। तब राजा उस तलाब पर जो कुटिया थी उसमे गया और उसमे जो संत रहते थे उनको नमस्कार करके पूछा- हे संत जी, यह वार्ता कहो यह कौतुक मैंने आश्चर्य जनक देखा ससा और कुत्ता दोनों का इस जल के स्पर्श करने से उद्धार हो गया, यह जल कैसा है ? उस संत ने कहा- हे राजन! मेरा गुरु यहां रहता था नित्य स्नान करके गीता के चौदहवें अध्याय का पाठ किया करता था, मैं भी स्नान करके गीता का पाठ करता हूं, राजा ने कहा धन्य हो संत जी आपके प्रताप से ऐसी जूनों का उद्धार हुआ है मेरे भी धन्य भाग है जो आपका दर्शन हुआ है संत ने कहा राजा तुम कहां के राजा हो उसने कहा मैं इसी देश का राजा सूर्यवर्मा हूं, तब राजा ने कहा- हे संत जी! मुझको इन दोनों कि पिछली कथा सुनाओ इन्होंने क्यों यह जूनी पाई यह कौन थे। तब संत ने कहा- राजन! यह ससा पिछले जन्म में ब्राह्मण था, अपने जन्म से भ्रष्ट हुआ था। यह कुत्तिया इसकी पत्नी थी, यह स्त्रीयों को बहुत खीजाया करती थी। एक स्त्री ने इसे विष देकर मार दिया। कुछ समय पश्चात यह ब्राह्मण भी मर गया। जब दोनों मर कर यमलोक में गये तब धर्मराज ने हुक्म दिया कि इस ब्राह्मण को ससे का जन्म दे दो और इस स्त्री को कुत्ते का जन्म दे दो। इनके दोनों ने धर्मराज से पुकार की थी कि हमारा उद्धार कब होवेगा। तब धर्मराज ने कहा- जब श्री गीता जी के चौदहवें अध्याय का पाठ करने वाले संत के स्नान का जल स्पर्श होगा तब तुम्हारा उद्धार होगा, इन दोनों का धर्मराज के वर से उद्धार हुआ हैं तब राजा संत जी को नमस्कार करके अपने घर वापिस आया। अपने पंडित जी से नित्य प्रति श्री गीता जी के चौदहवें अध्याय का पाठ सुनने लगा। नित्य प्रति सुनने से राजा का भी उद्धार हुआ। देह त्याग कर राजा भी बैकुण्ठ को गया। श्री नारायण जी ने कहा- हे लक्ष्मी! यह चौदहवें अध्याय का महात्म्य है जो मैंने कहा तूने श्रवण किया है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम चौहदवाँ अध्याय संपूर्णम्।।

Geeta Part-13

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ तेरहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

क्षेय क्षेत्रज्ञ – ज्ञान – ज्ञेय प्रकृति जीव

अर्जुनोवाच- अर्जुन श्री कृष्ण भगवान जी से प्रश्न करता हैं प्रभु जी प्राकृति किसको कहते हैं, और पुरुष किसको, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ किसको कहते हैं, ज्ञान और ज्ञेय किसको कहते हैं, इनका उत्तर कहिये। श्री भगवानोवाच-
हे कुंती नन्दन अर्जुन मनुष्य की देह…..

स्वर्ग देख ललचे नहीं मठी से नहीं वैर।
ऊपर धरती जाहि को सम उपवन की सैर।।
सुंदर नारी रत नहीं नहीं मोह और काम।
शीत उष्ण सम है जिसे नहीं क्रोध का नाम।
जैसे सोवे पलंग पर तिमि धरती पर सोय।
रोग द्वेष से रहित जो भक्ति में दृढ़ होय।
हे अर्जुन! उस जीव को जानो ब्रह्मका ज्ञान।
अति प्यारा बेजऱ मुझे अर्जुन निश्चय जान।।

….को क्षेत्र कहते हैं, क्योंकि जब यह जीव फिर फिर कर चुरासी से मनुष्य देह में आता है तब चैतन्य होता है, कैसा चैतन्य ? परमेश्वर को भी पहचानता है, पाप पुण्य को भी समझें है क्योंकि जो इस देह को पाकर भला बुरा करता है व पाप पुण्य का फल भोगता है, दूसरे देह धारियों को न पाप है न पुण्य है। मनुष्य दे को पाप पुण्य उठते हैं और जितनी बातों का इस शरीर में ठाठ है उनको जो समझे सो सत्वेता पुरुष है। क्षेत्रज्ञ भी उसे कहते हैं जो शरीर रूपी क्षेत्र का जानने वाला हो। सो हे अर्जुन! क्षेत्रज्ञ मुझको जान, जिसके ज्ञान से क्षेत्रज्ञ दोनों जाने जाते हैं सो यह मेरे मन का ज्ञान है, अब क्षेत्र सो देह है तिसका वृतांत सुन- देह का ठाठ कितनी वस्तुओं से बना है ? जो कुछ इस क्षेत्र में वर्तमान है सो इसको ऋषियों ने बहुत भांति कर कहा है, वेदों ने भी कहा है भिन्न-भिन्न प्रकार सुन- हे अर्जुन! भली प्रकार कहता हूं, सो निश्चल जान जो मेरे मुख कमल से निकले है। शरीर क्षेत्र में पांच तत्व है पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन, आकाश, पृथ्वी का अंश इस देह में मांस है, जल का अंश रुधिर, अग्नि का अंश इस देह में जठराग्नि है जो भोजन आदि वस्तुओं को पचाता है, पवन का अंश स्वास है, आकाश का अंश पोलापन है। यह पांचों महाभूत देह में है और मन बुद्धि चित अहंकार दसों इन्द्रियां है पांच कर्म इंद्रियों और पांच ज्ञान इन्द्रियां, सो कौन सी है। नेत्र, नासिका, श्रवण, त्वचा, जीव्हा यह ज्ञान इंद्रियां हैं इन पांचों में ज्ञान है यह कर्म करना नहीं जानती। कर्म इंद्रियां कौन सी है ? हाथ, पांव, गुदा, लिंग, नाक यह पांच कर्म इन्द्रियां हैं, यह कर्म को ही करना जानती हैं। त्वचा स्पर्ष इंद्रियां जो है सो सब इंद्रियों में व्यापी है, जीव्हा में भी दो गुण है- जब स्वाद लेती है तब उस में ज्ञान गुण है, जब वचन बोलती है तब कर्म गुण है। लिंग में भी दो गुण है, जब भोग करता है तब ज्ञान, जब मूत्र करता है तब कर्म गुण है। यह तो दसों इन्द्रियां। इसी तरह पांच इंद्रियों के पांच आहार हैं, सो कौन है ? नेत्रों का आहार देखना, नासिका का वासना लेना, जिहवा का स्वाद लेना आहार है, श्रवण का शब्द सुनना और स्पर्श इंद्री त्वचा है तिसका आहार वस्त्र पहने, सुगन्ध लेपन करना, शीत उष्ण समझना। पांचों के आहार पांच हैं, इन्हीं सब वस्तुओं से शरीर बनता है, जो इस शरीर नगर में बसते हैं सो सुन- अच्छी वस्तु खाने की वांछा, बुरी वस्तु खाने की वांछा, कभी सुख कभी दुख यह चारों बातें इनमें तीन प्रकार हैं, इन चारों बातों को विश्व में बड़ी दृढता है और चारों कि इसमें चैतन्यता है, यह चारों बातें इसमें दृढ़ हैं, हे अर्जुन! इस शरीर क्षेत्र का वृतांत मैंने तुमको भली प्रकार कहा है और जिस साधना से मेरे जीवन का ज्ञान उपजे सो साधन सुन- मुख्य तो यह साधन है जो अपमानी होवे, निर्माण रहे, अपनी पूजा मानता ना करावे, गुरु गुसाई होकर न बैठे, मन, वचन, कर्म कर सबका सेवक बना रहे, पाखंडी भी ना होवे कि चौकड़ी मारकर नेत्र मून्द के बैठा रहे लोग जाने कोई बड़ा तपी है और मन में विषय-भोगों की वासना होवे, पाखंड से रहित हो, मन में किसी का बुरा ना चितवे, मन वचन कर्म से किसी को दुखावे नहीं, वाणी से दुर्वचन न कहे, हाथ से मारे नहीं, पैर से चलकर किसी का बुरा ना करें, किसी स्थावर जंगम को दुख न देवे इत्यादि कोई और इसको दुख देवे तो बुरा ना माने! क्षमा करें, सब किसी के साथ नम्र भाव से रहे और जो अच्छे मार्ग के उपदेश करने हारे गुरु हैं तिनकी सेवा करें, जल मृतिका से अपनी देह पवित्र रखें, धैर्य कर मन को निश्चल रखें, इन्द्रियों के भागों में उदास रहे, अंधकार से रहित हो। जो प्राणी यह साधन करें सो जन्म मरण के दुखों से रहित होकर मुक्त होगा। और साधन सुन- पुत्र, स्त्री और घर के संबंधियों से मोह ना लगावे और शत्रुता मित्रता से रहित रहे, सदा एक तार रहे, मेरे साथ आनन्द रहे, जैसे पतिब्रता स्त्री अपने भर्ता की सेवा करती है पराया पुरुष देखती नहीं, तैसे मेरा भक्त मुझे सिमरे, किसी दूसरे का नाम न लेवे, ऐसा मेरे साथ होवें और एकांत बैठ संसारी मनुष्य का संग ना करें। और मैं सब आत्माओं का ठाकुर अधिकारी हूं, जो मुझे ईश्वर अध्यात्मिक जानने को एकांत बैठे आप देखें कि अध्यात्मिक ईश्वर ठाकुर कैसा है, हे अर्जुन! यह सब साधन मैंने तुझे ज्ञान पाने के निमित्त कहे हैं इन साधनों बिना और जो कुछ करें सो अज्ञान जान! यह तो ज्ञान के साधन है। जैसे दीपक की सामग्री तेल रुई,अग्नि सब इकट्ठे कर दीपक जला घर में धरिये, उस उजाले में सब वस्तु घर में जो कुछ पड़ी है देखी जाती है सो ज्ञान तो दीपक है, और वस्तु देखना सुनना। हे अर्जुन तूने यज्ञ का प्रश्न जो किया है सो मैं ही हूं, इस कारण से मेरा नाम यज्ञ है। पहले तिसका का महात्म्य सुन- जिसके सुनने से जन्म मरण से मुक्त होगा। जैसे अमृतपान करने से देह आरोज्ञ होती है मृत्यु भी नहीं होती वैसे ही मेरा यज्ञ रूप अमृत पान करने से अजर-अमर होगा। सो सुन- ज्ञेय अनादि है, जिसका आदि नहीं सब से परे है इसी से वार ब्रह्म कहते हैं देव जीवन से परे हैं, और सब ठोर से नेत्र हाथ शिव, श्रवण इत्यादि अंगों में व्यापक है सब जगह में बस रहा है सब इन्द्रियों के गुणों का प्रकाश है सब इंद्रियों से रहित है। सब से मिला हुआ है, सब करने हारा है फिर आप निरगुण है और सब गुणों को भोगता है। स्थावर जंगम जो भूत प्राणी है तिनके बाहर भीतर व्यापक है और सूक्ष्म है, जाना नहीं जाता। इससे परमेश्वर को दूर कहते हैं, सब में व्यापक भी है, सबसे न्यारा भी है, तिसको हे अर्जुन! तू ज्ञेय जान, जब संसार को ग्रास लेता है तब उसका नाम ग्रासन होता है। जब संसार को अपने में से प्रगट करता है तब उसका नाम उत्पत्तिकर्ता है, जब संसार के अंदर बाहर व्यापता है तब उसको विष्णु कहते हैं, सूर्य्य से लेकर जितने ज्योति वाले हैं तिन सब की ज्योति मुझको जान और तुम जो अंधकार है अज्ञान इससे परे है हे अर्जुन! यह ज्ञेय के जानने का ज्ञान है, इस ज्ञान से ही जाना जाता हूं, हाथ से पकड़ा नहीं जाता, नेत्रों से दिखाई नहीं देता, सबके हृदय में बसता हूं। हे अर्जुन! क्षेत्र क्षेत्रय और ज्ञान ज्ञेय का वृतांत भिन्न-भिन्न कर कहा है। हे अर्जुन मेरे भक़्त इसी प्रकार मुझे समझ कर मेरे चरणकमलों में श्रद्धा प्रीति लगाते हैं। अब अर्जुन प्रकृति पुरुष का वृतांत सुन- प्रकृति जो माया और पुरुष जो जीव है इनको तू अनादि जान जैसे मेरा आदि अन्त नहीं, जब का मैं हूं तब के यह भी हैं। अब इनका वृतांत सुन- यह देह इंद्रियां तत्व जो है इन सब के उपजावन हारी माया है, कार्य कारण करता कार्य कहिये जो वस्तु उपजी और जिससे कार्य उपजा सो कारण और जिसने बनाई सो कर्ता है जैसे कार्य जो है माटी का बासन, तिस बासन का कारण माटी है जिससे बासन बना, सो तिस बासन का कर्ता कुम्हार है, सो हे अर्जुन! यह संसार जो कार्य है सो कार्य माया है। माया से संसार प्रकट हुआ है संसार के करने हारी भी माया, सो यह तीनों बातें माया से जान। हे अर्जुन यह सारा वृत्तांत माया का कहा। अब पुरुष जो जीव है तिसका अर्थ सुन- इस प्रकृति का जो उपजाया हुआ शरीर नामी नगर सो इस शरीर में दुख सुख भोगता जीव है। प्रकृति से उपजे हुए जो देह इन्द्रियां तीनों गुणों में भोगें हैं। तीनों गुण के संयोग का रंग इस जीव को लगता है। तिन रंगों से रंगा जाता है। गुणों की संगत का यह जीव भ्रमता फिरता है। अब अर्जुन मेरी बात सुन- मैं कैसा हूं, इस माया और जीव ने परस्पर मिलकर मेरे आगे एक कौतुक रचा है, सो इनके कौतुक को देखने हारा मैं हूं, जीव के और माया के निवारण हारा भी मैं हूं, हे अर्जुन! यह दोनों मुझ को नमस्कार करते हैं। इन दोनों का न्याय करने हारा भी मैं हूं, इस जीव और देह से परे हूं। हे अर्जुन! इस कारण से मैं परमात्मा कहाता हूं। जो कोई इस प्रकार दुख सुख को भोगता जीव को जाने और इंद्रियों के गुण से माया को जाने, इसका कौतुक को देखने हारा मुझे इनसे न्यारा जाने, इस जाने की फल क्या फल पावे ? सो सुन- संसार के जन्म मरण के बंधन से मुक्ति होती है हे अर्जुन! कई एक योगी ध्यान से अपने अंदर आत्मा का दर्शन पाते हैं, इस मार्ग से कृतार्थ होते हैं,इस सांख्य शास्त्र के मार्ग से सुख को देखते हैं, सो कहते हैं जो कुछ है परमेश्वर ही है दूसरा कुछ नहीं, एक मेरे स्वरूप की ही पूजा करते हैं तिस स्वरूप का दर्शन करते हैं। एक भक्तो से मेरी महिमा सुन के अपनी प्रीति मेरे में लगाते हैं मेरे नाम का स्मरण करते हैं, सो वे प्राणी मेरी परम गति को प्राप्त होंवेगें। हे भारतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! और सुन- जो कुछ स्थावर जंगम भूत प्राणी प्रगट है सो देह और जीव के एकत्र होने से प्रगटे हैं, तिन सब भूत प्राणियों में एक मैं परमेश्वर व्यापक हूं, देह के नाश हुए से तिसका नाश नहीं होता। तिन ऐसा अविनाशी परमेश्वर जाना और जिसने सब भूत प्राणियों में एक मुझे समीप देखा है और सब का सुखदायक सेवक हो रहे, दुखाय किसी को नहीं, सो मेरी परम गति को प्राप्त होगा। हे अर्जुन! जो कर्म होते हैं देह इन्द्रियां मन से होते हैं, यह प्रकृति माया की है जो कोई आत्मा को देखें सो अकर्ता देखें, आत्मा कुछ नहीं करता यह सब प्राणियों का विस्तार भिन्न-भिन्न देखता है यह दृष्टि दूर होवे, एक आत्मा ब्रह्म सब में दृष्टि आवे, अब ऐसा होवे तब तुरंत ही आत्म ब्रह्म को पाता है ब्रह्म मिला तो आत्म ब्रह्म अनादि हुआ जिसका आदि अन्त नहीं, सो अनादि निर्गुण गुणगीत परमात्मा अविनाशी है। कुंतीनन्दन! इस शरीर में ही आत्मा बसे हैं, कुछ कर्म नहीं करता निर्लेप सब दोनों में बसे हैं। देह के गुण तिस आत्मा को नहीं व्यापते, ज्यो आकाश सर्वव्यापी है, सब से न्यारा है। हे अर्जुन! एक मेरा महाप्रताप और सुन- जिसके आगे और प्रताप कोई नहीं जैसे सूर्य प्रातः काल को पूर्व से उदय होता है एक बार ही सब लोक में प्रकाश करता है ऐसा नहीं जो किसी देश में सूर्य का प्रकाश पहले ही और किसी देश में पीछे, सर्व लोकों में एक ही बार प्रगट हो जाता है वैसे ही ब्रह्म से लेकर चीटी प्रयन्त स्थावर जंगम जो संसार है उन सब जीवो के शरीर में एक बार ही प्रकाश करता हूं। हे अर्जुन यह क्षेत्र जो शरीर और क्षेत्री जो यह जीव है और क्षेत्रज्ञ मैं हूं सो कैसा हूं एक नेत्र के उठाने से सब संसार प्रकट करता हूं। जो कोई जीव ज्ञान नेत्र से मेरा प्रताप विचारे, मेरी स्तुति करें कि धन्य है श्री कृष्ण भगवान जी जिसको यह सामर्थ है और क्षण मात्र में सब संसार को प्रगट करता है। ऐसा जो परम पुरुष है तिसको मेरा बारम्बार नमस्कार है, कोटि कोटि मेरा नमस्कार है जो प्राणी इस प्रकार मुझको जाने, मेरी स्तुति करें, तिसका फल सुन- सो ऐसा प्राणी जन्म रूप संसार के दुखों को काटकर मेरे परम अविनाशी पद को निःसन्देह पाते हैं।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे क्षेय क्षेत्रज्ञ- ज्ञान-ज्ञेय प्रकृति जीव त्रोदशमो अध्याय।।

★★★★ अथ तेरहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी अब तेरहवें अध्याय का महात्म्य सुन- दक्षिण देश में हरिनाम नगर था। वहां एक व्यभिचारिणी स्त्री रहती थी, वह व्यभिचार करती, मांस मदिरा खाती थी, एक दिन एक पुरुष से उसने वचन किया कि वन मे अमुक स्थान पर मैं तेरे पास आऊंगी तुम वहां चलो। वह पुरुष रास्ता भटक किसी और वन में चला गया। वह स्त्री उसे ढूंढते-ढूंढते हैरान हो गई,पर वह आदमी ना मिला। वह भूलता फिरता रहा। वह गणिका थक कर बैठ कर उसकी राह देखने लगी, देखते देखते ही सारा दिन व्यतीत हुआ पर प्रीतम ना आया। सांझ पड़ गई वह गणिका प्रीतम का नाम लेकर पुकारने लगी, बावली होकर वृक्षों से पूछती, इतने में वह पुरुष आ मिला दोनों प्रसन्न होकर बैठे। उनको बैठे हुए कुछ ही क्षण हुए थे इतने में एक शेर वहां आ गया। सिंह में दिव्य स्वर आ- गणिका को डरी देख कर सिंह बोला- अरी गणिका मैं तुझे खाऊंगा। गणिका बोली तू मुझे क्यों खाएगा, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है, पहले यह बता तू कौन है और मुझे ही क्यों खाना चाहता है ? तब सिंह ने अपने पिछले जन्म की बात सुनाई। कहा हे गणिका! मैं पूर्व जन्म में ब्राह्मण था, झूठ बोला करता था बड़ा लोभी था जुआ खेलता था तथा दूसरे का धन हर लेता था। एक दिन प्रभात के समय घर से उठ कर चला, मार्ग में गिरा, गिरते ही देह छूट गई, यमों ने पकड़ लिया और धर्मराज के पास ले गए। देखते ही धर्मराज ने हुक्म दिया कि इसी घड़ी ब्राह्मण को सिंह का जन्म दे दो। सो यह देह मुझे मिली है और हुक्म दिया जो पापी प्राणी दुराचारी हो तिनको तू खाया कर। जो साधु वैष्णव हरि भक़्त हो उनके पास न जाना। हे गणिका मुझे धर्मराज की आज्ञा है तिनकी आज्ञा पाकर सिंह योनि में आया हूं, तू व्यभिचारिणी गणिका पापन है इसलिए तुमको खाऊंगा। इतना कह सिंह ने गणिका को खा लिया। तब यमदूत धर्मराज के पास गणिका को ले गए। धर्मराज ने हुक्म दिया इसको चंडालनी का जन्म दे दो। श्री नारायण जी ने कहा- हे लक्ष्मी उस गणिका ने देह त्याग चांडालनी की देह पाई। कई दिन के पीछे एक दिन नर्मदा नदी के तट पर चली जाती थी वहां क्या देखा कि एक साधु गीता के तेरहवें अध्याय का पाठ कर रहा है उसने पाठ सुन लिया। जैसे ही साधु ने अध्याय पढ़कर भोग पाया उस चांडालनी के प्राण छूट गए। देव देही पाई। जब वह आकाश मार्ग से आये विमान पर बैठकर बैकुण्ठ को चलने लगी तो साधु ने पूछा- अरी चांडालनी तूने कौन पुण्य किया जिसके करने से तू बैकुण्ठ को चली है चांडालनी ने कहा- हे संत जी! उस तेरे गीता पाठ के श्रवण कर मैं देवलोक को चली हूं। तब उस चांडालनी ने कहा- हे साधु जी! कोई ऐसा कर्म करो कि जिस सिंह ने मुझे पूर्व गणिका के जन्म में खाने से मेरा इस जन्म उद्धार हुआ है उसको भी साथ ले चलु, तब उस साधु ने प्रार्थना स्वीकार कर गीता जी के एक अध्याय के पाठ का फल उस सिंह निमित दिया। तत्काल उस सिंह की देह छुटी, देव देह पाई, दोनों बैकुण्ठ वाशी हुए और परम धाम को गये। तब श्री नारायण जी ने कहा- हे लक्ष्मी! प्रीति साथ पढ़ने की बात का फल क्या कहूं । अगर अनजानपने से पढ़े और श्रवण कर ले तो भी मेरे परम धाम को प्राप्त होता है और यह तेरहवें अध्याय का महात्म्य है जो तुमने श्रवण किया है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य तेरहवां अध्याय संपूर्णम्।।

Geeta Part-12

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ बारहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

मुक्त्ति योग

अर्जुनोवाच- अर्जुन श्री कृष्ण भगवान से प्रसन्न करता है, हे प्रभु जी तुम्हारे कुछ भक़्त तुम्हारे इस कमलनयन के उपासक हैं एक तुम्हारे आश्चर्य रूप के उपासक हैं और कोई तुम्हारे अक्षर अविनाशी रूप के और एक तुम्हारा रूप अनिर्देस जो मन बाणी से परे है कोई उस की उपासना करते हैं इन सब में चतुर उपासक कौन है? हे प्रभु….

मेरे भगत अनन्य जो जो निशदिनि ममदास।
जो आश्रित मेरे सदा मेरी जिनको आस।।
मुझे स्मर्ण करते सदा जो मेरे कहिलाएं।
मुझ ईश्वर को छोड़कर और कहीं नहिं जाएं।।
उनकी नैय्या को सदा करूं मित्र मैं पार।
जिनको है संसार में मेरा ही आधार।।
योग क्षेम उनको सदा देता हूं मैं मीत।
उनकी ही संसार में बेजऱ होती जीत।।

….जी यह कहो, अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान जी बोले श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन! जो मेरा कमलनयन प्रगट रूप है मन को एकाग्र करके परम श्रद्धा से जो इस रूप के उपासक हैं मेरे मत में यह भक़्त श्रेष्ठ है और चतुर है। अब दूसरे का वृतांत सुन- प्रथम रुप अक्षर अविनाशी है, तिनकी महिमा मन बाणी पर नहीं आती। जिहवा कह नहीं सकती। इसे अनिर्देश कहते हैं जो नेत्रों से देखा ना जाए तिसको अव्यक कहते हैं, सर्वव्यापी जो है मन से तिसका प्रताप चितवया नहीं जाता। इस कारण से अपिन्त है तिस में कोई विकार नहीं कभी घटता नहीं, बढ़ता नहीं, कभी स्थान से चलता फिरता नहीं इससे अचल है। फिर किसी का हिलाया हिले नहीं, इसी से ध्रुव कहलाता है यह आठ प्रताप मेरे अव्यक्त स्वरुप के हैं जो कोई इसकी उपासना करता है तिसके लक्षण सुन- जिन साधनों कर अव्यक्त रूप पा सकते हैं। तिन साधन करने योग्य है, मुख्य तो सब इंद्रियों का संयम करना, इंद्रिया जीतनी सब भूत प्राणियों के साथ ममता और सब के साथ प्रीति रखना और प्रार्थना करना कि है अविनाशी पुरुष। सब जीव सुखी रहे। इन साधनों कर अविगत स्वरूप उपासक अव्यक्त जो मैं ईश्वर हूं सो मुझको पावे अब और सुन- हे अर्जुन! अविगति स्वरूप के उपासक जो है तिनको अति कष्ट अर्थात क्लेश है और ममता दृष्टि भी कठिन है सो जो कोई पूजा करें तिसका भला बांछना, जो पूजा न करें तिसका भी भला वांछना। यह जितने जीवधारी हैं तिसको यह कठिन साधना है, तिनके पाने निमित्त यह कठिन साधना क्या है सो तू देखने का नहीं। देखकर क्या सुख पावे वचनों कर तिसकी महिमा कही नहीं जाती, सो जिवहा किस गुण को पाकर सुख पावे, मन कर चितवन का नहीं, मन किस स्वरूप को चितवे ? इससे जितने देहधारी हैं तिनको अव्यक्त को उपासना में कष्ट है। हे अर्जुन! मेरे कमलनयन के जो उपासक हैं तिनकी बात सुन- मैं जो देवकीनंदन, यशोदानंदन, नन्द का नन्द, परम सुन्दर आनन्द का समुद्र हूं। जो मेरे इस रूप के उपासक हैं और मेरी शरण आए हैं, जिन्होंने सब कर्म मुझ में समर्पे हैं कैसे ? यह घर जो है तेरा है, हे भगवान! तेरा मै दास हूं, दास भाव होकर मेरे शीत प्रसाद जानकर खाते हैं हर समय मेरा ही ध्यान मेरा ही स्मरण, हे गोविंद जी! विष्णुपदे गाना, मेरा कीर्तन करना, इस प्रकार आनन्द होकर मेरा भजन मेरी उपासना करते हैं। उनके साथ मैं कैसा हूं ? सो सुन- यह संसार दुख रूप जन्म मरण का घर है तिस से उद्धार करता हूं, तत्काल ही मुक्त करता हूं, जिन पुरुषों ने मेरे में मन का निश्चल चेता रखा है, हे अर्जुन! मेरे उपासक जो सेवक हैं तिनको यह साधन करने योग्य है, पहले तो मन का निश्चल चेता मेरे में रखना और बुद्धि को मेरे में रखना यह दोनों साधन मेरे भक्तों को करने योग्य है, इससे और कोई मेरे रिझाने का साधन नहीं इससे अधिक मेरे भक्तों को भक्ति करनी रही नहीं। हे अर्जुन! मन का निश्चल चेता मुझ में लगा, तुझे बाकि करना कुछ नहीं रहा, तू कृतार्थ हुआ। मेरे को त्याग कर मन किसी और बात को जपे, तब बुद्धि द्वारा मन को रोक मेरे मे निश्चल कर, इसका नाम अभ्यास है। हे अर्जुन! जो तेरे से अभ्यास योग किया न जाए और मन में मेरा ध्यान न लगे, प्रातः काल से लेकर रात्रि शयन प्रयन्त मेरी सेवा कर, पूजा कर। जब मेरे अर्थ मेरी पूजा करेगा तब तू संसार से मुक्त्त होवेगा। जो पूजा भी ना कर सके तो दोनों हाथ जोड़कर मेरे चरण कमलों को नमस्कार कर मुख से यह कहो हे श्री कृष्ण भगवान जी! मैं तेरी शरण हूं। जब इस प्रकार मेरी शरण आ और मन मेरे चरणों साथ निश्चल कर रखे। हे अर्जुन यह मार्ग बहुत कल्याण का है इसे अभ्यास योग कहते हैं, इस अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है कौन ज्ञान ? मेरी महिमा का जो कहना सुनना और इस ज्ञान से मेरे ध्यान साथ जुड़ना श्रेष्ठ है। जब मेरे ध्यान साथ जुड़ता है तब सभी कर्मों के फल त्यागे जाते हैं क्योंकि जो मेरा भक़्त होता है वह सतस्वरूप है और जो कोई मेरा भक़्त सत्य पद को पावे है तिसके लक्षण सुन- किसी भूत प्राणी का बुरा ना मनावे, सबका मित्र हो रहे। वह अहंकार ममता से रहित होकर कहे कि न कुछ मेरा है, न कुछ मै हूं सब परमेश्वर का है, सुख दुख में एक सा रहे, क्षमावन्त सदा संतुष्ट प्रसन्न निरंतर मेरे साथ जुड़ा हुआ संसार के विषयों से आत्मा जीत रखें। मेरे साथ दृढ़ निश्चल चेता रखना बुद्धि का भी मेरे में दृढ़ करना जो इस प्रकार मेरे भक़्त मेरा भजन करते हैं सो मुझे पा लेते हैं। यह किसी से डरते नहीं, भली बुरी वस्तु पाने से हर्ष शोक नहीं करते, ऐसा जो मुक्त्त रूप है सो मुझे प्यारा है। फिर कैसा है ? जिसको किसी वस्तु कि वांछा नहीं और देह को जल मृतिका से पवित्र रखें। अन्त:काल मेरे भजन से पवित्र रखें। उज्जवल मति से मुझे अविनाशी पहचान संसार के लोगों से उदास रहे। सदा सुखी जिसने सब कार्य संसार के जो हैं तिनका आरम्भ त्याग दिया है सो मुझे प्यारा है। फिर कैसा है ? गई वस्तु की चिंता नहीं मिली वस्तु की बांछा नहीं करता और संसार के भले पुरुष को त्याग दिया मेरे चरणों के साथ प्रीति है ऐसा भक़्त मुझे प्यारा है। फिर कैसा है ? शत्रु मित्र तिसको एक समान है आदर अनादर में एक सा, शीत, उषण, दुख सुख में एक रस है दूसरे का संग न करें, निरबंधन रहे। फिर स्तुति निंदा किये से एक सा है, मेरे नाम बिना जिहवा में कुछ बोले नहीं, हर प्रकार संतुष्ट रहे। घर बनाने आरम्भ न करें। बनी हुई जगह पर बैठकर भजन करें। संसार की तरफ से उदास रहे। मेरे चरणों साथ दृढ़ निश्चल हो मेरे साथ ही प्रीति करें ऐसा जो प्राणी है सो मुझे प्यारा है। हे अर्जुन! यह साधन मैंने अपने भक्तों को उपदेश किए हैं, उस साधनों का नाम अमृत धर्म है जैसे अमृत पान करने से कोई रोग नहीं रहता, जीव अमर हो जाता है तैसे ही यह अखंड ब्रह्म रूप मेरा है ऐसे ही अमृत रूपी साधन अपने भक्तों को यथार्थ धर्म कहे हैं

श्रद्धा से जो भजे मम सुने जो उत्तम उपदेश।
धर्म अमृत का पान करें वह प्रिय भगत नरेश।।

सो परम श्रद्धा से जो इन धर्मों की उपासना करें जो भक्त मेरे को प्यारा है।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे योगो नाम दुआदशो अध्याय।।

★★★★ अथ बारहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री भगवानोवाच- हे लक्ष्मी अब बारहवें अध्याय का महात्म्य सुन- दक्षिण देश में एक सुखा नन्द नामक राजा रहता था तिसके नगर में उतंग नाम लम्पट रहता था, एक गणिका से उसकी प्रीति थी, वह दोनों एक देवी के मंदिर में जाकर मदिरा पान किया करते मांस खाते,भोग भोगते, जो कोई पूछे तुम यहां क्या करते हो तो कहते हम यहां वैसे ही रहते हैं और देवी की सेवा करते हैं झूठ कह देते। इसी मंदिर में एक ब्राह्मण देवी की सेवा करता था, एक दिन उस ब्राह्मण ने देवी की स्तुति करी। देवी प्रसन्न हुई कहां वर मांग जो वर मांगेगा सो दूंगी फिर उसने धन, संतान, सुख मांगा देवी ने कहा हे ब्राह्मण अवश्य तुझे धन संतान सुख दूंगी पर एक कार्य तुम्हें पहले करना पड़ेगा। इन दोनों (लम्पट और गणिका) का उद्धार कर। क्योकि यह बुरे कर्मों के साथ-साथ मेरी सेवा भी करते है इसलिए मै इनको दण्ड भी नही दे सकती,कोई ऐसा उपाय कर तिससे इन दोनों का उद्धार हो जाए। तो ब्राह्मण ने देवी को नमस्कार किया और अपने गुरु के पास जाकर कहा हे गुरु जी! मैंने देवी की स्तुति करी थी देवी प्रसन्न हुई मेरे वर मांगने पर धन, संतान, सुख देती है पर पहले कोई ऐसा उपाय कर जिससे इन दोनों ( गणिका और लम्पट ) का उद्धार होवें। ब्राह्मण का गुरू बड़ा तपस्वी था। तब गुरु जी ने कहां- हे ब्राह्मण तुम अभी जाओ मै इस बात उपाय देखता हूं। तब गुरु जी ने श्री नारायण भगवान जी का तप किया,तीर्थ व्रत किए,तब भगवान जी प्रसन्न हुए आकाशवाणी हुई श्री नारायण जी गरुड़ पर सवार होकर आए और कहा तेरी क्या कामना है, गुरु जी! ने वही बात कही ब्राह्मण जी ने देवी जी की भक्त्ति करी थी। भगवती प्रसन्न हुई कहा- धन, संतान, सुख देती हूं पर इन दोनों का उद्धार कर जिस तरह कर सके सो मै और ब्राह्मण जानते नहीं। आप कृपा करके कहो उनका उद्धार किस प्रकार होगा तब नारायण जी ने कहा- ब्राह्मण को कहो उनको गीता के बारहवें अध्याय का पाठ सुनायें तो उन दोनों का उद्धार हो जायेगा तब ब्राह्मण ने अपने गुरू के कहे अनुसार उन दोनों को नित्य अपने पास बैठा कर श्री गीता जी के बारहवें अध्याय का पाठ सुनाना आरम्भ किया। कुछ समय व्यतीत होने पर दोनों की देह छूट गयी, दोनों ने देव देहि पाई और बैकुण्ठ को गए। यह देखकर देवी प्रसन्न हुई और कहा हे ब्राह्मण आज से मेरा नाम वैष्णव हुआ और इस पाठ को सुनकर ऐसे अपकर्मी भी तर गए है, देवी ने कहा हे ब्राह्मण! अब मै तुम्हारी इच्छाएं पूर्ण करती हूं आज से इस नगरी का राज्य तुमको दिया। इतना कहकर देवी अंतर्ध्यान हो गयी। ब्राह्मण जब घर गया। तब उस राज्य के राजा के सैनिक वहा खड़े थे और कहा-राजा ने तुम्हें तुरन्त बुलाया है ब्राह्मण उन सैनिकों के साथ राजमहल की तरफ चल दिया। राजा के कोई संतान न थी। राजा ने ब्राह्मण को कहा- हे ब्राह्मण आज से इस राज्य का राज मैंने तुमको दिया। यह कहकर राजा विरक्त होकर तप करने को वन मे चला गया। देवी के वर अनुसार ब्राह्मण की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हुई। श्री नारायण जी कहते हैं हे लक्ष्मी यह गीता जी के बारहवें अध्याय का महात्म्य है जो मैंने कहा तूने सुना है।

Geeta Part-11

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ ग्यारवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★

विराट रूप दर्शन

एकादश अध्याय में विराट रूप दर्शाय।
अर्जुन के सन्देह सब दूर किए यदुराय।।

अर्जुनोवाच- अर्जुन श्री कृष्ण भगवान से प्रशन करते हैं हे प्रभु जी। तुम ने अपना गुह्य प्रताप श्रवण कराया है सो आप महिमा सुनने से मेरा मोह दूर हो गया है। संसार उपजाना और प्रलय होना मैंने विस्तार पूर्वक सुना है, सो हे कमल लोचन! जो आपको अविनाशी आत्मा की महिमा मैंने श्रवण करी है, हे पुरुषोत्तम जी! अब आपकी अविनाशी आत्मा के साथ मेरी प्रीति है सो हे प्रभु जी! आप मेरी विनय मानकर अपने अविनाशी आत्मा का दर्शन कराइये। अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान जी बोले। श्री भगवानोवाच-

हे अर्जुन! संसार में मैं हूं इक सम्राट।
तुमको दृष्टि दिव्य, हूं देखो रूप विराट।।
सूर्य चंद्र दो नेत्र है सिर मेरा आकाश।
ब्रह्मादिक मुक्त में सभी करते वेद प्रकाश।।
सब योद्धा मारे हुए मेरे मुख के माहि।
देना चाहूं यश तुझे तुम मत करियो नाहि।।
हाथ जोड़ अर्जुन कहे प्रथम रूप लो धार।
प्रभु ने अद्भुत रूप का दीना पुर तुर्त विसार।।

हे अर्जुन! तू मेरा रूप भी देख और वर्णों के रूप भी देख, नाना प्रकार की प्रकृतियां देख। कई सूर्य, कई वसु, कई अश्विनी कुमार कई पवनदेव, जो तूने आगे नहीं देखे, हे भारत वासियों में श्रेष्ठ अर्जुन! बहुत भांति के आश्चर्य देख, हे गुडाकेश अर्जुन! सब संसार इकट्ठा देख, मेरी देह से स्थावर जंगम और जो कुछ देखने की इच्छा है सो देख, पर हे अर्जुन! इन नेत्रों से तू न देख सकेगा, इसलिए तुझको दिव्य नेत्र देता हूं इससे मेरा दिव्य ईश्वर योग देख। संजयोवाच-
संजय
धृतराष्ट्र को कहता है! हे राजन! महा योगीश्वरों के ईश्वर श्री कृष्ण भगवान जी ने यह वचन कह कर तत्काल ही अर्जुन को परम ईश्वर रूप दिखाया। जिस स्वरुप में अनेक ही मुख है और अनेक ही दिव्य नेत्र हैं, अनेक दिव्य अदभुत दर्शन है, अनेक भूषण पहरे हैं, अनेक प्रकार के वस्त्र गले मे माला, दिव्य सुगन्धियों के साथ लेपन किए हुए रूप सभी आश्चर्य और अनन्न सर्व ठोर में मुख, जो आकाश में एक ही बार बारह सहस्त्र सूर्य प्रकाश कर दिखाते हैं, सो तिन के प्रकाश से अधिक भगवान के विश्व रूप का प्रकाश हुआ, तहां सारा जगत इकट्ठा श्री विष्णु भगवान जी के देह मे है, पांडव अर्जुन के रोम खड़े हो गए, आश्चर्य हुआ, नमस्कार किया, दोनों हाथ जोड़कर कहता है। अर्जुनोवाच-
हे देवन के देव श्री कृष्ण भगवान जी! मैं तुम्हारी देह अनंत ही रूप देखता हूं और जो तुम्हारी देह के अंग है अनन्त ही देखता हूं और जो तुम्हारा अन्य नहीं दिखता विश्वेश्वर ऐसा तुम्हारा विश्वरूप है, अनन्त जो तुम्हारे सिर हैं तिनके ऊपर अति सुंदर मुकुट देखता हूं। हाथ जो है तिनमें में गदा, शंख, चक्र देखता हूं और मैं तुम्हारे तेज के प्रकाश को देखता हूं। इस तुम्हारे विश्वरूप को देख नहीं सकता, कैसा रूप। जैसे प्रबल अग्नि जलती है, जैसे असंख्य सूर्य चढ़े हैं तैसे अनन्त बे मर्यादा आपका तेज है और जो तुम अत्क्षर अविनाशी हो, सब से परे हो, तुम जानने योग्य हो अनेक-अनेक प्रकार की रचना से पूर्ण हो, पहले से पहले हो, धर्म की रक्षा करते हो, सनातन पुरुष हो, मेरे मत में तुम ऐसे ईश्वर हो अनादि हो, तुम्हारे बल का कोई अनन्त नहीं, इससे तुम्हारा नाम पराक्रम है। अनन्त ही तुम्हारी भुजा है, अनन्त ही नेत्र, अनन्त ही मुख हैं जिन मुखों में अग्नि जलती देखता हूं, तिस अपने तेज के प्रकाश से सारे विश्व को प्रकाशित करते हो और तुम्हारे अद्भुत भयानक रूप को देखकर तीनो लोक डरते हैं, कई कोटी देवता तुम्हारे में प्रवेश करते देखता हूं, कई कोटि देवता तुम्हारे सामने हाथ जोडे कांप रहे देखता हूं जो तुम्हारी स्तुति करते हैं, कई कोटि ऋषिवर और सिद्ध तुम्हारे से डरते हुए आशीर्वाद देते हैं कि हे ईश्वर! तुम्हारी जय हो तुम चिरंजीव होवो, कई ऋषिवर सिद्ध तुम्हारी स्तुति करते, कई पुष्प चढ़ाते हैं, कई पुष्पों की वर्षा करते हैं और तुम्हारे इस रूप को देखकर जो कई लोग डरते हैं तिनको कई मुनीश्वर कहते हैं, हे लोगों! तुम मत डरो, ईश्वर परम दयालु है और कई रुद्र देखता हूं और कई साधु देखता हूं, कई ब्राह्मण, कई प्रजापति, कई पवन, कई कोटि दैत्य, कई प्रकार के विश्व देखता हूं और कई इस तुम्हारे रूप को देखकर विस्मय हुए देखता हूं कई नेत्र और कई बड़ी भुजाएं बहुत ही तुम्हारे उर स्थल देखता हूं, बहुत ही तुम्हारे चरण बहुत ही उधर और मुख, तिनमें भयानक दाढ़े देखता हूं, इस रूप को देख कर बहुत डर गए हैं, मैं भी डरता हूं, फिर कैसे हो ? आकाश को छू रहे हो, ठोर ठोर कई सूर्य प्रकाश कर रहे हैं, अनेक तुम्हारे रंग है, अनेक ही नेत्र है जिनसे महाप्रलय की अग्नि के पर्वत जलते हैं, हे प्रभु जी! यह भयानक रूप देखकर मेरी आत्मा डर गई है, धर्य भी नहीं कर सकता हे भगवान! अब बस करो, अब प्रसन्न होवो, प्रभु जो महाप्रलय की अग्नि समान तुम्हारे मुंह में दाडे देखता हूं, अब मै दिशाए भी भूल गया हूं जानता नहीं पूर्व पश्चिम कहां है, शांति भी नहीं पाता हूं, हे जगन्निवास हे जगत के आश्रय! अब क्षमा करो मैंने तुम्हारा विश्वरूप देख लिया अब प्रसन्न हो जाइये, यह धृतराष्ट्र के पुत्रों की सेना के जो योद्धा राजे हैं इनमें मुख्य है भीष्म द्रोणाचार्य और कर्ण से आदि लेकर जो सभी अग्नि प्रजुलत जैसे तुम्हारे मुख में पढ़ते देखता हूं। महाभयानक जो तुम्हारे मुख में दाढे हैं सो कितने योद्धाओं के सिर उन दाढों में लटकते देखता हूं। फिर कैसे हैं ? जो नदी के प्रवाह बहुत वेग साथ समुद्र में आए पढ़ते हैं उसी भांति यह योद्धा तुम्हारे मुख में पढ़ते देखता हूं, जैसे प्रलय अग्नि जलती है तिसमें बड़े उतावले पतंग आ पड़ते हैं वैसे ही बड़े वेग के साथ योद्धा गिर रहे हैं। तिनको स्वासों से निगलते जाते हो, महा अग्नि से भरे हुए तुम्हारे जो मुख हैं उनसे संसार को उपजाते हो और तुम्हारे तेज से सारा विश्व भर रहा है। हे कृष्ण जी! मैं तुम्हारा विश्वरूप देखता हूं, तुम एक ही भयानक रूप धारकर सारे विश्व को भर रहे हो, हे देवों के देव! तुम को नमस्कार है, बस अब प्रसन्न होवो, मैं तुम्हारा आदि-अंत पाना चाहता था सो नहीं पा सकता तुम्हारा आदि-अंत हो तो पाये, आप अनन्त हो ? अर्जुन के वचन सुनकर श्री कृष्ण भगवान जी बोले श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन इस समय इन लोगों का काल रूप मैं ही हूं, मैंने यह बड़ा रूप इन लोगों के नाश के निमित्त धारा है जो दुर्योधन की सेना के योद्धा हैं जो सन्मुख देखते हो तुम एक के बिना यह नहीं होंगे, इनको ग्रास कर लूंगा। इस कारण से हे अर्जुन उठ खड़ा हो, यश ले इन सब शत्रुओं को जीतकर बड़े धर्म के साथ पृथ्वी का राज्य कर, दाएं बाएं हाथ से एक जैसा शत्रु को मार, यह सभी योद्धा मैंने पहले ही मार रखे हैं तू तो निमित्त मात्र है कि लोग कहे यह सभी योद्धा अर्जुन ने मारे हैं। यह योद्धा कैसे हैं ? सो पहले द्रोणाचार्य कैसे हैं ? जिससे तूने शस्त्र विद्या सीखी है जो बाल की चोटी से चूकते नहीं, देखो बाणों से मारते हैं शाप देकर भी मारते हैं, ऐसे द्रोण हैं और भीष्म कैसे हैं ? जिनको इसके पिता शान्तनु का वर है कि हे पुत्र! जब तेरी इच्छा होगी तब तू मरेगा, जयद्रथ कैसा है ? जिसका पिता तप करता है कुरुक्षेत्र के मंडल में, जहां परशुराम के कुण्ड है सो कैसे है ? कुंड जब इक्कीस बार परशुराम ने पृथ्वी को निक्षत्रायण करी है, तिन क्षत्रियों के रुधिर साथ कुण्ड भरे हैं तिन कुण्डों पर जयद्रथ का पिता तप करता है, यह वांछा करता है कि जो कोई मेरे पुत्र का सिर कटेगा उसका सिर भूमि पर गिर पड़ेगा और कल सूर्य के अवतार हैं इससे बिना और भी योद्धा है यह तेरे से नहीं मर सकते, यह मैंने पहले ही मार रखे हैं, मेरे मारे हुए को तू मार और डर मत। संजयोवाच-
संजय राजा धृतराष्ट्र को कहता है। हे राजा जी! क्रिटी जो अर्जुन मुकुट साथ जन्मा है तिससे अर्जुन का नाम क्रिटी है, सो भगवान के वचन सुनकर दोनों हाथ जोड़कर भयभीत होकर श्री कृष्ण भगवान के चरणों पर गिर पड़ा और प्रसन्न होकर बोला। अर्जुनोवाच-
हे भगवान जी! जो कुछ तुम्हारी देह में चरित्र देखा है सो कहता हूं –
तुम्हारे शरीर के जो अंग है तिन्हों में बहुत जगह पर साधू संतो महन्तों की मण्डलियां देखी हैं सो परस्पर तुम्हारी महिमा कहते हैं सुनते हैं, तुम्हारे प्रसाद से तुम्हारे नाम के प्रताप से तुम्हारे परमपद भक्ति पद को साधु संत महन्त प्राप्त होते देखता हूं, वैकुण्ठ भी तुम्हारी देह में देखता हूं और संसार भी तुम्हारी देह में देखता हूं। तुम्हारी महिमा करने हारे देखता हूं और जो कहीं राक्षसों की सेना इस तुम्हारे रूप को देखकर डरती है सो राक्षस डरकर दसों दिशाओं को भागते हैं, कई करोड़ साधु तुम को नमस्कार करते हैं। हे बड़ों से बड़े तुमको क्यों न नमस्कार करे, तुमको अवश्य नमस्कार करना चाहिए, तुम कैसे हो ? इस संसार करने हारे ब्रह्मा के भी कर्ता हो और अनन्त हो, सब देवताओं के पहिले ही प्रभु हो, इसी से सब देवता तुम्हारे किए हुए हैं, सारा संसार जो है जगत सो तुम में बसता है इस कारण से तुम जगन्निवास हो, अविनाशी हो, देह से परे हो, तुम देवताओं के आदि हो, अनेक प्रकार के विश्व साथ पूर्ण हो, इससे विश्व निधान हो, वेदों में जाने योग्य हो, तुम्हारा धाम ग्रह और तेज सबसे परे हैं, इस कारण से परमधाम हो, अनन्त प्रकार के संसार करता हो, हे प्रभु जी! विभूति रूप भी तुम हो, चंद्रमा भी तुम हो, प्रजा के पति भी तुम हो, पिता माता भी तुम हो दादा और परदादा भी तुम हो, हे प्रभु जी! तुम्हारे एक एक रूप को मेरा सहस्त्र सहस्त्र बार नमस्कार है, बार-बार नमस्कार है। हे प्रभु जी! तुम को नमस्कार, तुम्हारे मुख को नमस्कार, तुम्हारी पीठ को नमस्कार, तुम्हारे तले ऊपर को नमस्कार, तुम्हारे सर्व और को नमस्कार, तुम्हारे बल बीर्य का भी और पराक्रम का भी अंत नहीं, सब के भीतर भी तुम हो। हे प्रभु जी! मैंने अपना सखा जानकर कहने और ना कहने योग्य वचन कहे हैं, सो क्या वचन, कि हे कृष्ण मेरा रथ लाओ, हे देव! मेरा अमुक कार्य करो हे सखे मेरी अमुक टहल कर। इत्यादि जो मैंने आपकी अवज्ञा करी है हे प्रभु जी! आपको पहचाना नहीं था जो तुम ऐसे हो, मैं तुम्हारी महिमा के जानने को सावधान न था अचेत था, हे प्रभु जी! जो कुछ मैंने आपकी अवज्ञा की है और आपके साथ मार्ग चला हूं और आपके साथ बराबर शय्या पर शयन किया, आपके समान एक आसन पर बैठा हूं। अच्युत अविनाशी पुरुष जी मेरी अवज्ञा क्षमा करो प्रभु जी! तुम्हारी महिमा अप्रमेय में अप्रमाण है, लेखे से परे है, इस कारण से हे अप्रयेय प्रभु जी! स्थावर जो अपनी ठोर से ना चले वृक्ष पर्वत आदि तृण घास जैसे और जंगम जो चरणों से चलते हैं, इन सब के पिता हो, अवश्य कर तुम सबके पूज्य हो और सबके गुरु हो, तुम्हारे समान कोई नहीं इसी से तुम सबसे अधिक हो, त्रिलोकी में तुम्हारे समान कोई नहीं इसी से तुम ईश्वर हो, हे ईश्वर! तुम सर्व प्रकार स्तुति करने योग्य हो, मुझ पर कृपा करो, जैसे पुत्र का अपराध पिता क्षमा करता है, जैसे पतिव्रता का अपराध पति क्षमा करता है इसी प्रकार मुझे भी क्षमा करो। हे प्रभु जी! ऐसा रूप तुम्हारा मैंने आगे कभी नहीं देखा सो इस स्वरूप को देखकर मुझे डर आता है, हे जगन्निवास! हे देव! अब क्षमा करो, प्रसन्न होकर वही दिव्य स्वरूप दिखाओ मुझे वह स्वरूप देखने की इच्छा है सो कैसा स्वरूप ? परम सुंदर चिकने घुंगर वाले केश शोभा पा रहे हैं और अपने ऊपर पीतांबर पहरे हो, कंठ में बनमाला विराजे हैं, एक हाथ में कमोद की एक ही गदी, एक हाथ में शंख, चक्र सुदर्शन, एक हाथ में मेरे रथ के घोड़े का बाग, एक हाथ में चाबुक है। विश्वरूप सशस्त्र बाहों! अब मुझे वहीं चतुर्भुज रूप दिखाओ अर्जुन की विनय मानकर श्री भगवान जी बोले श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन यह विश्वरूप तुमको प्रसन्न होकर दिखाया है यह कैसा है ? अपने आत्मा का दर्शन तुझे दिखाया है फिर कैसा ? सब से परे है, अनन्त है- जिसका अंत नहीं, सो ऐसा परम ईश्वर रूप तुझको दिखाया है, जो कोई चारों वेद पढ़े तो भी यह रूप देखना दुर्लभ है, कई यज्ञ करे, अनेक पाठ करने से भी यह रूप नही देख सकता। तीर्थों के दर्शन से अनेक तपस्या करने से या दर्शन दूर है, हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! त्रिलोकी में कोई नहीं जो यह दर्शन देख सके तुझे ही दर्शन दिखाया है और किसी ने नहीं देखा। सो हे अर्जुन! भय को त्याग, डर कर जो मूढ सा हो रहा है सो डर को त्याग अभय हो, मन से मेरे साथ प्रीतिवान हो फिर वही मेरा रूप देख। संजयोवाच-
संजय धृतराष्ट्र को कहता हे राजा! श्री कृष्ण भगवान अर्जुन को यह वचन कह कर फिर वह सखा रूप दिखाते हैं जो सत स्वरूप था, सो अर्जुन को दिखाया भय उसका दूर किया। फिर अर्जुन बोला। अर्जुनोवाच-
हे जनार्दन! जो यह आपका स्वरूप देखा है सो अति दुर्गम है। इस मेरे रूप की देवता वांछा करते है यह रूप देवताओं को भी दुर्लभ है। इस मेरे रूप की देवता वांछा करते हैं जो रूप तुझे दिखाया है सो वेद पाठियों को भी दुर्लभ है। हे अर्जुन! वेद के पढ़ने से भी ये नहीं पाया जाता। और ना तपस्या से पाया जाता हूं ना कोई यज्ञ किये से पाता है अर्जुन अनेक प्रकार के जो धर्म है उनसे भी मुझे पाना कठिन है जैसे तुमने पाया है तैसे किसी ने नहीं पाया, क्योंकि तू मेरा अनन्य भक्त है मेरे बिना तू किसी का भजन नहीं करता, इसी से मुझको देखा है। इन नेत्रों ने ज्ञान नेत्रों से भी देखा है, प्रेम से तूने मुझे पाया है, मैं तेरे आधीन हूं और तू मेरे विखे प्राप्त हुआ है और मैं तेरे विखे। हे पांडवनन्दन अब जो तुझको करना उचित है सो सुन परम प्रीति से मेरी पूजा कर स्वास-स्वास मेरा नाम स्मरण कर। इस प्रकार मेरा भक्त हो, संसार के लोगों के साथ प्रीति न कर, सब भूत प्राणियों से निरवैर हो, जब ऐसा होवेगा तब मेरे विखे प्राप्त होवेगा, यह निश्चय जान।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रम्ह विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे विराट रूप योगो नाम एकदशमो अध्याय।।

★★★★ अथ ग्यारहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी! अब ग्यारहवें अध्याय का महात्म्य सुन। तुंगभद्र नामक एक नगर था, जिसके राजा का नाम सुखानंद था, श्री लक्ष्मी नारायण की सेवा बहुत करता था, वही पर मन्दिर में एक ब्राह्मण बड़ा धन पात्र विद्वान पंडित रहता था। इस ब्राह्मण का नियम नित्य गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ किया करना था। और वह राजा भी नित्य लक्ष्मी नारायण की सेवा किया करता था और वेदपाठ भी नित्य श्रवण किया करता था ऐसे ही सेवा करते बहुत काल व्यतीत हुआ। एक दिन राजा मंदिर से घर को जाता था उस दिन बहुत देशांतर फिरते फिरते कुछ अतीत गण उस नगर में आए अतीत गणों ने राजा से कोई जगह मांगी कहा हे राजन! हम कुछ दिन यहां रहेंगे हमें जगह दीजिये। राजा ने बड़ी हवेली खुलवा दी, वहां अतीत रहे, राजा ने सिध्धा दिया, रसोई कर अतीत बड़े प्रसन्न हुए। प्रातः काल राजा उनके दर्शनों को गए, राजा का पुत्र भी उनके साथ था, कई मित्र साथी राजा के साथ हवेली में आये, जो महंत था राजा उसके साथ बातचीत करने लगा और राजा का पुत्र खेलने लगा। वहां एक प्रेत रहता था उस प्रेत ने राजा के पुत्र को मार डाला, चाकरों ने राजा को खबर की। हे राजा जी! कुंवर को प्रेत ने मार डाला है तुम निवचिंत बैठे हो ? राजा यद्यपि सेवा करता, कथा श्रवण करता था, परंतु पुत्र के मोह से राजा के मन में दुर्बुद्धि आ गई, राजा बोला संत जी! आपके दर्शन का मुझको अच्छा फल मिला है एक पुत्र था सो भी प्रेत ने मार डाला। तब ब्राह्मण ने कहा हे राजा जी चलो देखें कहां है तेरा पुत्र ? राजा ब्राह्मण महंत सभी वहां आए जहां राजकुमार मरा पड़ा था, तब ब्राह्मण ने कहा अरे प्रेत इस लड़के पर कृपा-दृष्टि कर जो यह लड़का जी उठे और मैं तुझे गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ सुनाता हूं, तू श्रवण कर इससे तेरा कल्याण होगा, जितने जीव तूने पीछे मारे हैं तिनका भी उद्धार होगा। और तू अपने जन्म की बात कह क्यों कर प्रेत हुआ है इसके पीछे ही तेरा उद्धार करूंगा। तब प्रेत बोला मै पूर्व जन्म में ब्राह्मण था इस ग्राम के बाहर हल जोतता था, वहां एक दुर्बल ब्राह्मण आया था, जो इस खेत में गिर पड़ा और घायल हो गया, उसके अंगों से रूधिर निकला एक चील ने उसका मांस नोंच खाया, मैं यह देख रहा था मेरे मन में दया नहीं आई कि इस ब्राह्मण को छुड़ा दूं। इतने में एक और ब्राह्मण आया उसने देखा एक दुर्बल रोगी ब्राह्मण गिरा पड़ा है और चील नोच-नोच मांस खाती है उसने देख कर मुझे कहा ओ हल जोतने वाले ब्राह्मण तू यज्ञोपवीत धारण किए बैठा है कर्म तेरे चंडाल के हैं निर्दई तेरे खेत के पास ब्राह्मण का मांस चील तोड़ तोड़ कर खाती है क्या तू आंखों से अंधा है जो छुड़ाता नहीं। इस कारण से तू बड़ा पापी है यह दोनों कर्म तेरे नरक को जाते हैं, एक तो किसी को चोर लूटता मारता हो और साक्षी होकर भाग जावे, दूसरा रोगी हो तिसकी खबर न लेवे, तीसरे किसी को भूत लगा हो वह छुड़ाना जानता हो छुड़ावे नहीं यह तीनों पापी भी नरक को जाते हैं जो सर्व जीवों की सहायता और दया करते हैं तिनको अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है मेरे शाप से तू प्रेतयोनि पावेगा, तब मैंने उसके चरण पकड़ पकड़ कर कहां मेरा उद्धार कैसे होवेगा ? तब ब्राह्मण ने कहा जब तुमको कोई गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ सुनावेगा तब तेरा उद्धार होगा। प्रेत ने अपनी कथा सुनाई। तब ब्राह्मण ने राजा से पूछा राजन बताओ इसका क्या कीजिये, तब राजा ने कहा- इसका उद्धार कीजिए और मेरे पुत्र को जीवित करें। तब ब्राह्मण ने गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ किया और प्रेत पर जल छिड़का तत्काल प्रेत की देह छूटकर देव देही पाई, उसने पहले जो कई जीव खाए हुए थे तिनका भी उद्धार हुआ, राजा का पुत्र सावधान हुआ और कुछ पल के लिए श्याम सुंदर रूप धर खड़ा हुआ। तब प्रेत बोला- हे राजा अपने पुत्र को मिल, जब मिलने लगा वह बोला। हे राजा जिसके कुल में एक वैष्णव होवे उसकी कई कुलो का उद्धार होता है, तू बड़ा वैष्णव है। तब राजा ने मोह कर कहां- हे पुत्र तू मुझको आ गले मिल। पुत्र बोला- पुत्र तू किसको कहता है ? मैं कई बार तेरा पुत्र हुआ कई बार तेरा पिता भया, यह प्रेत धन्य है जिसने मुझे मारा और श्री गीता जी के ग्यारहवें अध्याय का पाठ मै श्रवण कर कृतार्थ हुआ हूं, अब मै भी बैकुण्ठ को जा रहा हु फिर राजा ने कहा- पुत्र! तू मेरे घर में एक ही पुत्र है मेरी अब कौन गति करावेगा ? और कोई संतान नहीं। तब पुत्र ने कहा- हे राजा जी! जिस कुल में एक वैष्णव होंवे उसका उद्धार हो जाता है। पिता तू चिंता ना कर अब मैं नारायण जी परायण हुआ हूं और अब जब मैं श्री नारायण जी का दर्शन करूंगा तब तेरे कुल का उद्धार होगा। इक्कीस कुल तेरी उधरेंगी, तब राजा ने कहा- अच्छा सिधारों, तब वह दोनों एक दिव्य विमान पर बैठकर बैकुंठ को गए। तब उस ब्राह्मण से राजा ने भी ग्यारहवें अध्याय का पाठ श्रवण किया। और मन में कहा अब पुत्र पुत्री की कोई नही, विरक्त होकर गीता का पाठ किया करूंगा और तुलसी में जल चढ़ाया करूंगा। ब्राह्मण साधु चले गए, राजा भी कुछ समय बाद परमगति का अधिकारी हुआ। श्री नारायण जी कहते हैं लक्ष्मी यह ग्यारहवें अध्याय का महात्म्य है जो तूने श्रवण किया है

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड महात्म्य नाम एकादसी अध्याय संपूर्णम्।।

Geeta Part-10

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ दशम अध्याय प्रारम्भते ★★★★

विभूति – योग

श्री भगवानोवाच- श्री कृष्ण जी अर्जुन से कहते हैं, महाभाव अर्जुन! फिर भी तू मेरा परम वचन सुन मैं तुझ को कहता हूं, क्योंकि तुम को सुनने के प्रीति है सो मैं तेरे कल्याण के निमित्त कहता…

मेरी दिव्य विभूतियें अर्जुन मित्र अपार।
उनके भीतर मुख्य जो सुन पांडव सरदार।।
पक्षी गण में गरुड़ मैं पशुओं में शेर।
देवां में मैं विष्णु हूं गिरीन में मैं हूं सुमेर।।
सशस्त्र धारियों में हूं मैं कौशल्या सुतराम।
बलधारिन में मित्रवर मैं हूं प्रिय बलराम।।
पांडवगण में पार्थ हूं यदुवन में घनश्याम।
मेरा शक्ल विभूति है बेजर षरम ललाम।।

….हूँ हे अर्जुन! मेरी प्रभुता, प्रभाव और प्रताप है जिसको तू भली प्रकार जानता है, ब्रह्मा से आदि लेकर महादेव जी और असंख्य मुनीश्वर भी नहीं जान सकते, क्योंकि सर्व देवताओं का आदि मैं हूं, यह देवता सब मेरा ही रूप है जो मेरे से उपजे हैं यह बात प्रगट है कि जो कोई किसी से उपजता है सो वह उपजाने वाले की बात को क्या जाने, इसका दृष्टांत सुन- जैसे माली बाग में वृक्ष लगाता है, वृक्ष माली का क्रम क्या जाने, ऐसे ही जो ऋषि मुनि और देवता है सो मेरे प्रताप को नहीं जानते, जिस मेरे प्रताप को देवता ऋषि मुनि नहीं जानते, सो तुझको सुनाता हूं- जन्म मरण से रहित हूं, अनादि हूं मेरा आदि नहीं, सबका आदि मैं हूं, जो पुरुष मुझको ऐसा जानते हैं तिस का क्या फल होता है ? हे अर्जुन! वह ज्ञानी सब पापों से मुक्त होगा। और सुन- बुद्धि, ज्ञान, निर्मोह, क्षमा, सत्य बोलना, इंद्रियों का जीतना, सुख-दुख में एक सा रहना,भय से निर्भय होना दया ममता में संतुष्ट, तपस्या, दान, यश, अपयश यह सभी लक्षण मनुष्य में पाए जाते हैं। हे अर्जुन! मैं इनसे न्यारा हूं और जिस प्रकार सब की उत्पत्ति करता हूं सो सुन- कमल नाम नारायण मैं हूं सो मेरे नाभि कमल में मेरा अंश ब्रह्मा उपजा है, तिन ब्रह्मा की इच्छा से सप्त ऋषि, चार मुनि उपजे है, फिर सप्तऋषि चार मुनि और देवता से मनुष्य, राक्षस असुर आदि सभी प्रजा सृष्टि हुई है। हे अर्जुन! सब संसार को अनेक भांति से पसारा है, इसका आदि करता मुझको जानने से निश्चल योग प्राप्त होता है। इससे संशय कुछ नहीं है। हे अर्जुन! सबका उत्पत्ति करता मुझको जान, पर कुम्हार की न्याई कर्ता नहीं, कुम्हार आदि तो बासन आदि बनाने के लिए माटी पृथ्वी से लेता है। पृथ्वी से माटी ना लेवे तो कुम्हार के बासन नहीं बनते। और मैं कैसा हूं ? मैंने सृष्टि की उत्पत्ति करी है, किसी दूसरे ठौर से लेकर नहीं उपजाई। आप से आप सृष्टि उपजाई है और आप ही आप सुधारी है, मेरे ज्ञानी भक्त ऐसा मुझे जान, भाव श्रद्धा साथ मेरा भजन करते हैं। हे अर्जुन! मुख्य तो मन का निश्चल चेता मेरे में विषय रखते हैं। मेरी प्रीति में तिनके प्राण भी चले जाते पर संसार की कोई बात तिनके चित नहीं आती और जो परस्पर एकांत बैठकर मेरी गोष्टी करते हैं। नित्य मेरी कथा सुनते हैं जो मेरी कथा सुनाते हैं। उसी में जाकर रमते हैं मेरे गुणो को सुनकर संतोष सुख पाते हैं निरंतर मेरा भजन प्रीति करते हैं और मैं तिनको बुद्धि योग दान करता हूं। सो कौन बुद्धियोग जिनको पाकर मुझ को मिलते हैं। हे अर्जुन! तिन पर एक और भी कृपा करता हूं, क्या ? तिनके हृदय में अपनी महिमा का ज्ञान रूप दीप जलाकर प्रकाश करता हूं, उस प्रकाश के होने पर उनकी जीव बुद्धि का नष्ट हो जाता है। यह वचन श्री कृष्ण जी के मुख से सुनकर अर्जुन पूछता है, श्री कृष्ण भगवान जी! तुम पार ब्रह्म हो अर्थात सब से परे हो, प्रभु जी! तुम परमधाम हो, परमधाम क्या ? धाम नाम घर का है, सो जिसका धाम बैकुंठ सब से परे है और धाम नाम तेज का भी है और जो तुम पवित्र हो, क्योंकि आपके चरणों से गंगा आदि तीर्थ प्रगटे हैं। जो सब को पवित्र करते हैं, ऐसे तुम परम पवित्र हो, सर्वव्यापी हो पुरातन हो पूर्वजों से भी पहले हो दिव्य हो, किसी ने तुझको किया नहीं, तुमने सबको किया। प्रभु जी! यह महिमा आपकी सर्व ऋषि-मुनि करते हैं, प्रभु जी! तुम अपने सुख कीर्ति को सर्व प्रकार ही जानते हो, अपना ताप सब कह सुनाओ। पीछे कुछ ना रखो, अपनी आत्म की दिव्य विभूति श्रवण कराओ।
जिस विभूति से विस्तारपूर्वक व्यापक होकर विराज रहे हो। हे महाप्रभु! किन-किन भावों चेतावनी करें। यह सारे ब्रह्मांड जो है तिनमें स्थावर, जङ्गम भूत प्राणी विचरते हैं, खेलते हैं सो यह तुम्हारी रचना को देखकर मैं तुम्हारा भजन करता हूं, प्रभु जी! आप के मुख कमल से आप की महिमा जो अमृत रूप है, सुनकर मुझको शांति आती है, अपनी महिमा दिखाओ, हे केशव जी! महान भाव से जो तुम्हारी महिमा करते हैं, सो मुझको श्रवण करवाओ। हे भगवान! जितनी किसी की बुद्धि है उतना ही कहता है पर जैसी तुम्हारी महिमा मर्यादा प्रभुता है तैसे तिनके जानने को ना देवता ऋषि मुनि ना कोई और सामर्थ है। हे पुरुषोत्तम जी! अपने आप को और मर्यादा को जो तुम आप ही जानते हो, सो तुम कैसे हो ? सर्व भूतों के उत्पत्ति करता हो, सबके ठाकुर हो, सब के देव हो, सब संसार के प्रभु हो, हे प्रभु जी! तुम्हारी शक्ति सुनके तृप्त नहीं होते, कृपा कर अपनी विभूति महिमा को श्रवण करवाओ, मैं देखूं कितनी तुम्हारी प्रभुता है और कितनी प्रभुता के तुम प्रभु हो ? अर्जुन की विनय मानकर श्री कृष्ण भगवान बोले- पांडवों में श्रेष्ठ अर्जुन! मैं तुझको दिव्य विभूति कहता हूं परंतु सारे विस्तार का अंत कुछ नहीं। अब दिव्य दिव्य विभूति कहता हूं तिसका का दृष्टांत सुन- जैसा किसी चक्रवर्ती राजा का नगर द्वीप होय उस बड़े नगर के मनुष्य गिने नहीं जाते, तिस सारे नगर से दस बीस घर परिवार समेत चुनने लेवें तिन घरों में श्रेष्ठ एक मनुष्य चुन लेवे, इस प्रकार मैं कहता हूं। हे अर्जुन! सारे शरीर के विस्तार का कुछ अंत नहीं, थोड़े विस्तार सुन- हे अर्जुन! सारे संसार की आत्मा तू मुझको जान और सब भूत प्राणियों के हृदय में मैं ही बसता हूं, आप सबका आदि मध्य अंत मुझको जान, यह प्रभुता थोड़े में कही। अब दिव्या और प्रधान प्रताप सुन- बारह सूर्य जो प्रति मास में प्रकाशते हैं उन पौष मास का विष्णु नाम सूर्य मैं हूं। जितने प्रकाश करने वाली वस्तु है। तिन सब में सूर्य मैं हूं। उनचास पवनों में महाराचि नाम पवन मैं हूं,
अठाईस नक्षत्रों में चंद्रमा मैं हूं। चार वेदों में सामवेद मैं हूं, तैतीस कोटि देवताओं में इंद्र मैं हूं, इंद्रियों में ग्यारहवां मन मैं हूं और जो कुछ भूत प्राणियों में चैतन्यता है सो मेरा है, ग्यारह रुद्रों में शंकर नाम रुद्र मैं हूं, दानियों में कुबेर मैं हूं, आठों वसु जो है तिन में अग्नि मैं हूं, सर्व पर्वतों में चार लाख कोस ऊंचा सोने का सुमेरु पर्वत मैं हूं, पुरोहितों में देवताओं का पुरोहित बृहस्पति मैं हूं, सब सेना के नायकों में शिव जी का पुत्र स्वामी कार्तिक मैं हूं, सरोवरों में सागर मैं हूं, सप्त ऋषियों में भृगु मैं हूं, अंगिरा भी मैं हूं, जितने बोलने वाले वचन है तिनमें ओं कार मैं हूं, और मेरे प्रसन्न करने पोषण हारे जो सभी यज्ञ है तिनमें में स्वास स्वास मेरा भजन करना जो जाप यज्ञ सो मैं हूं, जितने स्थावर ठौर से ना चलने वाले हैं उनमें हिमाचल मैं हूं, वृक्षों में पीपल मैं हूं, नव ऋषियों में नारद मैं हूं, और गन्धर्वों में चित्ररथ मैं हूं, और सिद्धो में कपिल मुनि मैं हूं, और अश्वों खीर में समुद्र के मंथन से जो अमृत के साथ निकला, जिसका नाम उच्च श्रवा है सो घोड़ा मैं हूं, और हाथियों में एरावत मैं हूं, नागों में आनन्त जो शेषनाग है सो मैं हूं, नदियों में गंगा मैं हूं, सप्त समुद्रों में खीर समुद्र मैं हूं, सब जलों में जल का राजा वरुण जो है सो मैं हूं, और मनुष्य विषय राजा मैं हूं, शास्त्रों में वज्ज मैं हूं, और गौओ में कामधेनु मैं हूं, और जितने पदार्थ प्रजा के उपजाने हारे हैं तिन्हों में काम मैं हूं, और सर्पों में बासुक नाग मैं हूं, दण्ड दायकों में यम मैं हूं, और मृगों में सिंह मैं हूं! पितरों में आत्मा आयमा मैं हूं, दैत्यों में प्रह्लाद मैं हूं, निगलने हारों में काल मैं हूं, सर्व के पखेरुओं में गरुड़ मैं हूं, पवित्र करने हारों में पवन मैं हूं, शस्त्र धारियों में परशुराम मैं हूं, नदियों में मूल, जो गंगा गोमुखी है सो मैं हूं, हे अर्जुन! सर्व संसार का मूल आदि-अंत मुझको ही जान और सब विद्याओं में अध्यात्म विद्या मैं हूं, अध्यात्म विद्या कौन है सो सुन- सब आत्माओं का अधिकारी मैं हूं। इससे मेरा नाम अध्यात्म विद्या है सबका अधिकारी ठाकुर मैं हूं। यह अध्यातम विद्या तू मुझको जान, जितने गोष्ट करने हारे, झगड़ा करने हारे, जहां मेरा गोष्ट चर्चा करें तहां तू मुझको जान। व्याकरण में जो समास है तिनमें द्वन्दु समास मैं हूं, अक्षर अविनाशी मैं हूं, काल का भी काल हूं, और संसार की अनेक प्रकार की रचना रचने हारा मैं हूं, जो सब के हरने वाली हैं तिनमें मृत्यु मैं हूं, जो सबके देखते ही जीव हर ले जाता है और स्त्रियों में जो कीर्ति, श्रीवाणी, स्मृति मेधा धृतिक्षमा और शांति यह सब स्त्रियां मैं हूं, सामगान में वृहत्साम सब मैं हूं, छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूं, बारह मासों में मग्घर मास मैं हूं, छः रितुओं में बसंत रितु मैं हूं, कपट में जुआ मैं हूं, तेजस्वीयों में जो तेज है सो मैं हूं, जहां दो दल इकट्ठे होते हैं युद्ध करने को जहां जीत होवे तहां मैं हूं, उधमियों में उधम मैं हूं, बलवानों में बलवान मैं हूं, और चन्द्रवंशी जो यादव है तिनमें वासुदेव मैं हूं, पांडव में जो हे अर्जुन! तू है सो मैं हूं, कवि जो चतुर तिनमें में सुकदेव मैं हूं, जितने निबावन हारे है तिनमें दंड मैं हूं, जो जीतने की इच्छा वाले हैं तिनमें धर्म युद्ध मैं हूं। अधर्म वाले की कभी जीत नहीं होती, जो पाने की वस्तु है तिनमें, में मौन मैं हूं, और जो सर्व ज्ञान रूप है सो मैं हूं, सब अन्नों में ज्यों मैं हूं, तृण की जो सर्व जाति है दर्भ अर्थात उषा मैं हूं। हे अर्जुन! जो भूत प्राणी है तिनका बीज मैं सब कुछ तू मुझको जान मुझ बिना कुछ नहीं, मैं सर्वव्यापी हूं। हे अर्जुन! मैं तुझको प्रधान और दिव्य विभूति कहता हूं। तिसका अंत कोई नहीं यह विभूति तुझको इसलिए कहीं है जैसे सब धागे जोड़े पहिरने वाले में से एक तन्त काढ दिखाए। अब अर्जुन और सुन- जो कोई विभूति वन्त है, शोभा वन्त प्रतापवान जीव है तिनका तेज मेरे तेज से उपजा जान। हे अर्जुन! यह थोड़ा सा ज्ञान है और जानना क्या वस्तु ? यह तो एक ब्रह्मांड की विभूति कहीं सो सब की सामग्री कहीं नहीं गई, ऐसे ही असंख्य ब्रह्मांड है। नाना प्रकार की विभूतियों से भरे हुए मेरे से इस प्रकार निकले जान जैसे जल के पूर्ण समुद्र से एक बूंद निकले वह बूंद रेत के दाने पर पड़े सो उसी दाने को भिगोवे, पीछे समुद्र पूर्ण भरा रहे। इस भांति अनेक ब्रह्मांड मेरे से निकले हैं, मैं फिर भी पूर्ण हूं, यह तो विभूति कही अब अर्जुन मैं तेरे रथ पर विराजता हूं, इस मेरे स्वरूप की महिमा बड़ाई सुन- मेरा आदि मध्य अंत नहीं, पूर्ण ब्रह्म परमधाम पुरुष रूप तेरे रथ पर विराजता हूं।।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे विभूति योगो नाम दशमो अध्याय।।

★★★★ अथ दसवें अध्याय का महात्म्य ★★★★

श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी! अब दसवें अध्याय का महात्म्य कहता हूं तू श्रवण कर जिसके सुनने से महा पापियों की गति हो जाती है बनारस नगर में एक धीरजी नाम का ब्राह्मण रहता था। धर्मात्मा और हरि भक़्त था, एक दिन वह महादेव जी के दर्शन को जा रहा था। गर्मी की ऋतु थी उसको धूप लगी घबराहट होने से उसका दिल घटने लगा। अंधाली खाकर मंदिर के निकट गिर पड़ा। इतने में भृंगी नामक एक गण वहा आया, देखा तो ब्राह्मण अचेत मूर्छित पड़ा है, उसने जाकर शिव जी से कहा- हे महादेव जी! एक ब्राह्मण आपके दर्शन को आया था, वह मूर्छा में पड़ा है। महादेव जी सुनकर चुप रहे। फिर उस गण ने ब्राह्मण को फिर जाकर देखा वह मरा पड़ा था। फिर जाकर कहा- हे स्वामिन्! यह चरित्र मैंने देखा कि वह मृत पड़ा है। इसनें कौन पुण्य किया है जिसने भली जगह मृत्यु पाई है ? चारों बातें इसकी भली आबनी है एक तो बनारस क्षेत्र श्री काशी जी, गंगा जी स्नान, संतो को और महादेव जी का दर्शन, अन्न का छोड़ना एकादशी का दिन, यह बात कह सुनाओ इसने कौन सा पुण्य किया था ? तब महादेव जी ने कहा- हे भृंगी इसके पिछले जन्म की कथा मैं कहता हूं सो सुन- एक समय कैलाश पर्वत पर (गौरी) पार्वती और हम बैठे थे, कुछ गण भी हमारे पास थे, फुलवाडी की शोभा देख रहे थे, एक हंस मेरे दर्शन को आया, वह ब्रह्मा का वाहन था और ब्रह्मलोक से मानसरोवर को जा रहा था, उस सरोवर में सुंदर कमल फूल थे, जब वह एक कमल को लांघने लगा, उस कमल का पर्छावा पड़ा तो वह हंस अचेत होते ही काला हो गया। आकाश से गिरा, तब उस समय उसी मार्ग में एक गण और आया, उसे मूर्छित देख मेरे पास आया और विनय करी। एक हंस आपके दर्शन को आया था तो श्याम होकर गिर पड़ा है, गण मेरी आज्ञा से हंस को ले आए, हमने पूछा हे हंस! तू श्याम वर्ण क्यों कर हुआ ? हंस ने कहा- प्रभु जी! मैं आपके दर्शन के लिए आया था, मानसरोवर में कमल फूल थे जब मैं एक कमल को लांग रहा था तो उसको लांघते ही मेरी देह श्याम हो गई आकाश से गिर पड़ा कारण जानता नहीं क्या हुआ है यह सुनकर शिव जी हंसे, आकाशवाणी हुई कि हे शंभू जी! आप क्या सोचते हैं ? इसका प्रसंग मैं कह सुनाता हूं तब शिव जी ने कहा- हे आकाशवाणी! तुम मेरे पास आओ मैं तुमको देखूं तुम कौन हो ? तब चतुर्भुज स्वरूप धारे श्याम सुंदर एक पाखर्द आया, कहा हे स्वामिन्! तुम इस कमलनी से पूछो यह कमलनी सच कहेगी। कमलनी ने कहा- हे शिवजी महाराज! मैं अपने पिछले जन्म की कथा कहती हूं। पिछले जन्म में मै अप्सरा थी, नाम पदमावती था, श्री गंगा जी के किनारे एक ब्राह्मण स्नान करके गीता जी के दसवें अध्याय का पाठ किया करता था, एक दिन राजा इंद्र का आसन चला, इंद्र ने देखा कि ब्राह्मण गीता पाठी है तब इंद्र ने मुझे आज्ञा कि तू जाकर उस ब्राह्मण की तपस्या भंग कर। मैं आज्ञा पाकर उस ब्राह्मण के पास गई, जाकर देखा वह ब्राह्मण एकांत में बैठा था, अचानक ही मेरी उस ब्राह्मण से भेंट हुई, जैसे ही उस ब्राह्मण को मेरा अंग लगा उस ब्राह्मण ने मुझे शाप दिया, हे पापनी! कमलनी हो और जैसे सर्प के अंग है वैसे तेरे भी पांच अंग होंगे, दो कमल चरणों के, दो हाथों के, एक कमल मुख की जगह, उसी समय मै कमलनी हो गई। इस मानसरोवर में साठ हजार भंवरा रहते है सो मेरी सुगंधी से तृप्त हुए रहते है, पर यह बात कही नहीं जाती कि मेरा प्रकाश क्यों हो रहा है जो पंछी मेरे ऊपर से लांघता है वह भस्म क्यो हो जाता है। उसी समय चतुर्भुज पाखर्द ने कहा-जिस सरोवर के किनारे यह कमलनी है उसी तट के किनारे पर एक ब्राह्मण गीता जी के अध्यायों का पाठ किया करता है उसी से इसका यह प्रकाश है यह बात कहते ही चतुर्भज पाखर्द अंतर्ध्यान हो गए। तब कमलनी ने कहा- हे हंस तू कौन है यहां क्यों आया है ? हंस ने कहा हम चार हंस हैं ब्रह्मा के वाहन, तिनमें एक मैं हूं, मानसरोवर के मोती चुगने की आज्ञा हुई थी, वहां को जाता था मार्ग में मैंने सोचा शिव जी के दर्शन करता चलूं, तेरे ऊपर से लगा तो स्वेत से काला हो गया,और आकाश से गिर पड़ा, इस बात का वृतांत खत्म होते ही मेरे सम्मुख (शिव शम्भु) हंस और कमलनी ने आग्रह किया हे प्रभु जी! फिर क्या उपाय करें जिससे हम दोनों उधार होवें, मै श्याम से स्वेत और यह कमलनी देह से छुटे। तब शम्भु जी ने गीता जी के दसवें अध्याय का पाठ श्रवण करो तब तुम्हारा उद्धार होगा। तब उन्होंने एक ब्राह्मण जो सरोवर में स्नान कर शालिग्राम की पूजा कर गीता जी के दसवें अध्याय का पाठ किया करता था उस हंस और कमलनी ने पाठ श्रवण किया तो तत्काल उनका उद्धार हो गया हंस स्वेत हुआ कमलनी देवकन्या हुई दोनों ने हाथ जोड़कर नम्र होकर ब्राह्मण को नमस्कार किया। तब शिव ने उस भृंगी को उस मृत ब्राह्मण की मृत्यु की चार बातों का वर्णन कर उसके उधार होने की कथा सुनाकर अंतर्ध्यान हो गए। उस दिन से वह भृंगी भी गीता जी के अध्यायों का नित्य पाठ करने लगा। तब श्री नारायण जी ने कहते हैं लक्ष्मी यह दसवें अध्याय का महात्म्य है जो तूने सुना है।

Geeta Part-9

श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ नवम अध्याय प्रारम्भते ★★★★

राज विद्या अथवा राजगुय्हा – योग

श्री भगवानोवाच- श्री कृष्ण भगवान जी अर्जुन को कहते हे अर्जुन! मैं गुय्हा से परम गुय्हा ज्ञान तेरे प्रति कहता हूं तू सुन, तेरे प्रति क्यों कहता हूं तू मेरे वचनों की निंदा नहीं करता, सत्य कर मानता है इसी से वह ज्ञान जिनके जानने से तू संसार से निर्लेप रहेगा। जितनी विद्या है और जो गुहथा वस्तु है तिनका भी राजा है और पवित्र से अति पवित्र है, उत्तम से अति उत्तम है और…..

मुझ को ईश्वर जानकर मेरे भक़्त सुजान।
निशि बासर को मोह जपें मेरा करते ध्यान।।
गावत नाचन प्रेम से कुदत दे दे ताल।
ढोल मृदंग बजावते अति उत्तम स्वरें निकाल।।
तन की होश बिसार कर होवत मुझ में लीन।
हे अर्जुन मैं होत हूं उनके तुरत अधीन।।
जो योगी मम भक्त हैं मोहे अति प्रिय वे जान।
बेजर अर्जुन के प्रति यूं कहते भगवान।।

….. अगम पुरुष जो किसी के कहे जाना नहीं जाता तिसको प्रत्यक्ष दिखाऊंगा, जिस ज्ञान के जाने से अति सुन्दर अविनाशी पुरुष प्राप्त होता है। जो ऐसे ज्ञान को पावे है उसकी बात सुन- हे पवन्तप अर्जुन! जो ऐसे ज्ञान को नहीं जानते सो प्राणी मुझको नहीं पाते बारम्बार संसार में जन्मते हैं। अब अर्जुन और सुन- जिन ज्ञान की पीछे महिमा कही है सो सुन- हे अर्जुन! मेरा जो अव्यक्त स्वरुप है तिससे सारा जगत प्रकट हुआ है और दूसरा जो मेरा विराट स्वरूप है जिस पर ब्रह्मा से आदि लेकर च्यूटी पर्यन्त जो बसे हैं सो किसी भांति विराट स्वरूप पर लोक बसे हैं सो सुन- जैसे एक बड़े वृक्ष पर असंख्य पक्षी बसते हैं वैसे ही मेरे विराट रुप में लोक देहधारी भूतप्राणी बसते हैं और सबके हृदय में आत्माराम मैं ही बसता हूं, एक रूप तेरे रथ पर तेरे साथ कौतुक करता हूं। हे अर्जुन! यह मैंने तुमको अपनी प्रभुताई, बडाई ऐश्वर्या योग कहा है। सब के मरण-पोषण हारा भी मैं हूं, सबसे न्यारा भी मैं हूं, सब का उपजावन हारा भी मैं ही हूं और निर्लेप कैसा हूं, इसका दृष्टांत सुन- जैसे नित्य पवन का निवास आकाश में रहता है और आकाश का स्पर्श नहीं करता है तैसे सभी भूत प्राणी मेरे से ही उत्पन्न हुए हैं मेरे में ही बसते हैं और मैं ही सब के भीतर हूं और सबसे न्यारा हूं ऐसा निर्लेप हूं, हे कुन्तिनन्दन! जब यह संसार अपनी मर्यादा को पहुँचता है तब संसार प्रलय होकर मेरी प्रकृति अर्थात माया में जा लीन होता है, फिर इस माया और संसार का आदि मैं ही हूं फिर संसार को प्रगट करता हूं और अपनी जो प्रकृति माया है तिस से मैं बारम्बार संसार को प्रगट पालन और प्रलय करता हूं और किसी जो सब भूत प्राणियों का गाव चौरासी लाख जीव की योनि है यह अपने बस में नहीं माया के बस है, अब अर्जुन और सुन- मैं संसार को उपजाता हूं, संहार करता हूं, पर इस कर्म किए का मुझको लांछन दोष नहीं लगता, क्योंकि मैं किसी के साथ ममता मोह नहीं रखता मैं निर्मोही उदासीन हूं, इन सब से उदास हूं, इस कारण से मुझको कोई बन्धन नहीं बांध सकता। हे कुन्ति नन्दन अर्जुन मेरी कृपा दृष्टि को पाकर तू निर्लेप न्यारा हो। अपने आपको निर्लेप जान, अब अर्जुन और सुन- यह जो मेरी प्रकृति माया है सो संसार जड़ जंग सो उग जाती है प्रगट करती है। दूसरा प्रकार संसार के उपजाने का तू मत जान, ऐसा ईश्वर मैं ही हूं। हे अर्जुन! यह जो मनुष्य देह मैंने धारण की है सो मूढ़ अज्ञानी मुझको समझते नहीं मुझे पहचानते नहीं जो श्री कृष्ण जी ऐसे प्रभु है, सो प्राणी मेरे प्रताप को नहीं जानते कि मैं कैसा हूं, सब भूत प्राणियों का ठाकुर प्रभु हूं। जो पुरुष मुझको नहीं जानते सो क्या फल पाते हैं सो सुन- उनकी आशा सब निष्फल है, वह जो कुछ भले कर्म दान पुण्य आदि करते हैं सब निष्फल है। फिर कैसे है ? राक्षसों जैसे तिनके स्वभाव हैं, वह प्रकृति के मोहे हुए मुझे नहीं पहचानते। जो भले पुरुष महात्मा भक्तजन मेरा भजन करते हैं, वह कैसे हैं तिनकी बात सुन- तिनकी देवताओं जैसी प्रकृति है, मेरा भजन मुझको यह पहचान कर करते हैं कि श्री कृष्ण जी सब के आदी हैं। निरंतर मेरी ही महिमा को गाते हैं, पढ़ते हैं कथा कीर्तन करते हैं दृढ़ निश्चय से मेरी पूजा करते हैं बारम्बार मुझको नमस्कार करते हैं, इस प्रकार मेरे भजन करते हैं दूसरे ज्ञानी जो मेरे भक़्त हैं मुझ को किस प्रकार पूजते हैं वह भी सुन- ज्ञानी मुझको जानते हैं कि एक परमेश्वर पारब्रह्म है जो अनेक रूप होकर पसरिया है दूसरा भेद कोई नहीं, एक है और कहां-कहां वह मुझको जानते है, हे अर्जुन! प्रकृति भी मैं हूं, यज्ञ भी मैं ही हूं, सो प्रकृति यज्ञ का नाम तिन में कुछ भेद है, स्वाहा और स्वधा वचनों से जो कुछ अग्नि में होमते हैं यह वचन भी मैं हूं, खीर से आदि लेकर जो अन्न है सो मैं हूं, यज्ञों में जो मंत्र पढ़ते हैं सो मैं हूं, विधाता भी मैं हूं! वेदों में ओं कार भी मैं हूं, ऋग, यजुर, साम्यह वेद भी मैं हूं, उसका गति करता भी मैं हूं, सखा मैं हूं, निवास सोने की ठाहर भी मैं हूं, और संसार मेरी शरण है मैं ही सब का मित्र हूं, सब का प्रलय और उत्पत्ति करता भी मैं हूं और विश्व मेरे मे लीन होता है, सब बातों से मैं पूर्ण हूं, इस कारण से मेरा नाम निधि निधान कहा है। सर्व का अविनाश बीज हूं, सूर्या होकर मैं ही तपता हूं प्रलय होकर प्रलय भी मैं ही करता हूं, मैंने ही देवता अमर किए और मनुष्य से आदि लेकर सब शरीरों को मैंने ही मृत्यु लगाई है। हे अर्जुन जो मनुष्य मुझको इस विधि से पूजते हैं तिनके पाप काटे जाते हैं। जो प्राणी यज्ञ करके स्वर्ग पाने की कामना करते हैं वह अपने पुण्य की मर्यादा तक स्वर्ग में दिव्य भोग भोगकर जब अपने पुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग से गिरते हैं फिर मनुष्य लोक में जन्म पाते हैं। जो इस प्रकाश स्वर्ग की कामना के लिए त्रिविध यज्ञ करें है सो स्वर्ग के सुख भोगते हैं। पुण्य भोगकर वहां से गिरकर फिर गर्भ में आते हैं। बहुत दुख पाते हैं और यह बात निश्चय है कि कामना वाले को सुख नहीं। अब अर्जुन मेरे भक्तों की बात सुन- मेरे भक़्त मन का निश्चल चेता मेरे में रखकर स्वास स्वास मेरा स्मरण करते हैं तिनके कल्याण निमित्त मैं चारों ओर सावधान होकर फिरता रहता हूं, इस प्रकार जैसे धनपात्र मनुष्य के घर के चारों तरफ़ चौकीदार पहरा देता है। सो अर्जुन! तू मेरा भक़्त है, इसलिये मैं तेरे देह की रक्षा करता हूं। सो देख कैसा सावधान हो कर तेरे रथ की रक्षा करता हूं और अपनी महिमा कह कर तेरे मन को अपने साथ दृढ़ करता हूं और परम प्रीति के साथ तेरे रथ के घोड़े हांकता हूं मैं ऐसे अपने भक्तों के साथ प्रीति करता हूं, हे कुन्तिनन्दन! मैं जैसा तेरे आधीन हूं ऐसा और किसी के साथ नहीं। हे अर्जुन! और मुझ को छोड़ किसी और देवता की प्रीति से उपासना करते हैं सो भी मेरी पूजा करते हैं पर भूलकर करते हैं, क्योंकि अर्जुन सर्व यज्ञ भोगता मैं ही हूं और सर्व यज्ञों का प्रभु हूं, जो मुझको ऐसा प्रभु ईश्वर नहीं जानते हैं, वह जन्मते मरते हैं, जो देवताओं के उपासक हैं सो देव लोक में जा प्राप्त होते हैं। जो प्राणी पितरों के उपासक होते है सो पितर लोक में जा प्राप्त होता है, जो कोई मनुष्य देवता का उपासक है सो देव लोक में जा प्राप्त होता है। जो मुझ पारब्रह्म का उपासक है सो मुझे आ मिलता है। हे अर्जुन मैं सालिग्राम हूं सो मेरी पाषाण की प्रतिमा अथवा धातु की जैसे चतुर्भुज लक्ष्मी नारायण बैकुंठ में विराजते हैं सो इनमें मेरे भक्त प्रीति साथ पुष्प पत्र जल समर्पण करते हैं सो अपने भक्तों का दया प्रीति साथ लेता हूं, जो तू भोजन करता हुआ पहिले अग्नि में होमे है सो सब मेरे में समर्पण करें तिनका फल क्या मिलता है ? संसार के सब भले बुरे कर्मों का फल सुख-दुख के बन्धन को काट देता है।हे अर्जुन! सब भूत प्राणियों के साथ एक सा हूं किसी देवता के भक़्त के साथ मोह नहीं, पर जो कोई भक़्त मुझे स्मरण करते हैं तैसे ही मैं तिनका स्मरण भजन करता हूं। अब अर्जुन और सुन- जो कोई अज्ञानी दुराचार पापी है, किसी समय आनन्द होकर मेरा स्मरण करता है कि हे कृष्ण जी! मैं जैसा कैसा हूं, आप की शरण हूं, मैं तुम्हारा हूं, हे अर्जुन! तिसको भी तू साधु ही जान! जिस प्राणी ने मेरे साथ निश्चय किया है तिसका साधु होते क्या लगता है। मेरे भजन के आगे पाप क्या वस्तु है ? जैसे लकड़ियों की पोट को एक और से अग्नि लगावे तो एक घड़ी में सब भस्म हो जाती हैं इसी प्रकार मेरे भजन के आगे पाप क्या वस्तु है वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है, शांति पद को प्राप्त होता है, हे कुन्ति नन्दन जो मुझको पाप योनि भी होकर सिमरे, कौन पाप योनि ? वैश्य शूद्र सो प्राणी भी परमगति के अधिकारी होंगे। यह निश्चय जान जो मेरे भक़्त है तिनका नाश नहीं होता। हे अर्जुन! ब्राह्मण का पूण्य जन्म है सो मेरा मुख है और क्षत्रिय मेरी भुजा है तिसका कृतार्थ होना कुछ आश्चर्य नहीं, तिस कारण हे अर्जुन! मनुष्य देह तुझ को प्राप्त हुई है ऐसी देह को पाकर मेरा भजन कर। अब मनुष्य देह वृतांत सुन- जो कैसी मनुष्य देह है सदा नहीं क्षण भंगुर है, तत्काल नाश हो जाती है, रोगों का घर हाड मांस आदि अपवित्र वस्तुओं से पूर्ण है। यह तो मनुष्य देह के अवगुण कहे हैं। अब इस देह की बड़ाई सुन- जब यह जीव भ्रमते-भ्रमते मनुष्य देह में आता है तब मेरे भजन का ज्ञान पता है मुझे पहचान कर मेरा स्मरण करता है, मेरे जानने के प्रताप से मेरे अविनाशी परमानन्द पद में आ प्राप्त होता है। मेरे पद का दाता यह मनुष्य देह ही है,यह इसकी बढ़ाई कही है। इस कारण से हे अर्जुन! यह देह तुझे प्राप्त हुई है। इस को पाकर मेरा भजन कर और भजन सुन, मन का दृढ़ निश्चय मुझ में रख, मेरे भक़्त हो मेरी पूजा कर, मुझको नमस्कार कर, इस प्रकार निश्चय कर भजन कर।

पार्थ ऐसे होए के आए बसे मम लोक।
मुझ में प्राप्त होय कर हर जायें सब शोक।।

“ओं नमो भगवते वासुदेवाय” ऐसा मेरा भजन स्मरण कर। मेरे साथ ऐसा मिलेगा जैसे पानी के साथ पानी मिल जाता है। इसी प्रकार मेरे साथ अभेद हो ‘ओं’ नमो नारायण’ कहो।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे प्रकृति भेदो योगो नाम नवमो अध्याय।।

★★★ अथ नवम अध्याय का महात्म्य ★★★

श्री भगवानोवाच- हे लक्ष्मी! तू श्रवण कर, दक्षिण देश में एक नामी शूद्र रहता था, बड़ा पापी मांस मदिरा आहारी था, जुआ खेलता, चोरी करता, परस्त्री रमता ऐसा पाप कर्मी था। एक दिन मदिरापान से तिसकी देह छुटी। वह मर कर प्रेत हुआ। एक वृक्ष पर रहने लगा, एक ब्राह्मण भी उसी नगर में रहता था दिन को भिक्षा मांगकर स्त्री को देवें उसकी स्त्री बड़ी कुलैहणी थी, वह कभी कोई दान पुण्य नहीं किया करती थी, समय पाकर उन दोनों ने प्राण त्यागे वह दोनों मरकर प्रेत हुए। वह भी एक वृक्ष के तले आ रहे जहां प्रेत रहता था, वहां रहते रहते कुछ काल व्यतीत हुआ। एक दिन उसकी स्त्री पिशाचणी ने कहा- हे पुरुष पिशाच तुझको कुछ पिछले जन्म की खबर है ? तब पिशाच ने कहा- सब खबर है, मै पिछले जन्म ब्राह्मण था। तब पिशाचणी ने कहा- तूने पिछले जन्म क्या साधना करी थी, जिससे तुझको पिछले जन्म की खबर है ? तब उसने कहा- मैंने पिछले जन्म ब्राह्मण से अध्यातम कर्म सुना था। तब फिर पिशाचणी ने कहा- वह ब्राह्मण कौन था और वह अध्यात्म कर्म क्या है जिसके सुनने से तुझे पिछले जन्म की खबर रही ? पिशाच ने कहा मैंने और पुण्य नहीं किया, गीता जी का अर्ध श्लोक श्रवण किया है उसका प्रयोजन यह है = एक समय अर्जुन ने श्रीकृष्ण जी से तीन बातें पूछी जो श्री गीता जी के अध्याय में लिखी हैं वह तीन बातें पिशाच से पिशाचणी ने श्रवण करी। पिशाचणी उन बातों को दोहराने लगी। इन बातों की सुनते ही वह प्रेत जो पिछले जन्म मे शुद्र था वृक्ष से बाहर निकला और पिशाचणी से कहने लगा- हे पिशाचणी! यह बात फिर कहो जो तुम अब कह रही थी पिशाचणी ने कहा- तू कौन है मैं तुझे नहीं जानती, तब प्रेत ने कहा- मैं पिछले जन्म में शूद्र था और अपने बुरे कर्मों के अनुसार मैंने प्रेत योनि पाई है। यह सुनते ही पिशाचणी उन बातों को कहने लगी जो उसने अपने भर्ता से सुनी। उन बातों के सुनते ही वह प्रेत की योनि से छूट गया। उसी समय उस अर्ध श्लोक को कहते कहते पिशाच और पिशाचणी की देह भी छूट गई। तत्काल आकाश मार्ग से विमान आए, विमान पर चढ़कर जब वह बैकुंठ की ओर जा रहे थे तब देवताओं ने रास्ते में रोक लिया और कहने लगे तुमने ऐसे कौन उग्र पुण्य किए जिनके करने से इतनी जल्दी बैकुण्ठ को चले हो, तीर्थ स्थान, व्रत, तपस्या, दान पुण्य ऐसा कोई कर्म नहीं हुआ जिसका यह फल तुमको मिला है। श्री नारायण जी की भक्ति नहीं करी, किस करनी के बल से बैकुंठ को जाते हो ? तब उन्होंने कहा एक ब्राह्मण के मुख से श्री गीता जी के अर्ध श्लोक श्रवण करने के प्रताप से बैकुण्ठ को जाते हैं। तब देवताओं ने सुन के कहा- श्री गीता जी का ऐसा प्रताप है जिसके आधे श्लोक श्रवण करने से ऐसे जीव बैकुण्ठ वासी हुए हैं वह तीनों बैकुंठ में जा प्राप्त हुए। श्री नारायण जी ने कहा- हे लक्ष्मी! यह नवम अध्याय का महात्म्य है जो तूने श्रवण किया है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम नवमो अध्याय संपूर्णम्।।