द्वापर युग मे भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा रानी ने ब्रजवासियों के साथ किस प्रकार होली खेली।

भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा रानी की ब्रजभूमि में होली का उत्सव प्रेम, आनंद और भक्ति का अद्वितीय संगम था। द्वापर युग में, ब्रजवासियों के साथ मिलकर उन्होंने जिस प्रकार होली का आनंद लिया, वह आज भी हमारी संस्कृति और परंपराओं में जीवंत है। इस विस्तृत वर्णन को हम निम्नलिखित भागों में विभाजित करेंगे:

1. परिचय: ब्रजभूमि में होली का महत्व

2. श्रीकृष्ण और राधा रानी की होली की पौराणिक कथाएँ

3. ब्रज की होली की विशेष परंपराएँ

लट्ठमार होली

लड्डू होली

फूलों की होली

धुलेंडी और सोटे वाली होली

दाऊजी का हुरंगा

4. श्रीकृष्ण की लीलाओं में होली का स्थान

5. होली का आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व

6. निष्कर्ष: प्रेम और भक्ति का पर्व

1. परिचय: ब्रजभूमि में होली का महत्व

ब्रजभूमि, विशेषकर मथुरा, वृंदावन, नंदगांव और बरसाना, होली के उत्सव के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। यहाँ की होली केवल रंगों का खेल नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और आनंद का प्रतीक है। श्रीकृष्ण और राधा रानी की लीलाओं से समृद्ध यह भूमि होली के दौरान एक विशेष ऊर्जा और उत्साह से भर जाती है।

2. श्रीकृष्ण और राधा रानी की होली की पौराणिक कथाएँ

द्वापर युग में, श्रीकृष्ण का सांवला रंग उन्हें चिंतित करता था। एक दिन उन्होंने माता यशोदा से पूछा कि राधा इतनी गोरी क्यों हैं और वे इतने काले क्यों हैं। माता यशोदा ने मुस्कुराते हुए सुझाव दिया कि वे राधा के चेहरे पर रंग लगा दें, जिससे दोनों का रंग समान हो जाएगा। श्रीकृष्ण ने इस सुझाव को मानकर अपने सखाओं के साथ मिलकर रंग तैयार किए और राधा तथा उनकी सखियों पर रंग डाल दिया। इस प्रकार, ब्रज में रंगों की होली की परंपरा की शुरुआत हुई।

3. ब्रज की होली की विशेष परंपराएँ

ब्रज में होली की विभिन्न परंपराएँ हैं, जो इस उत्सव को और भी रोचक बनाती हैं:

लट्ठमार होली: बरसाना और नंदगांव में खेली जाने वाली यह होली विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इसमें नंदगांव के हुरियारे (पुरुष) बरसाना जाकर गोपियों (महिलाओं) के साथ होली खेलते हैं। गोपियाँ हुरियारों को लाठियों से मारती हैं, जबकि हुरियारे ढाल से अपना बचाव करते हैं। यह परंपरा श्रीकृष्ण और राधा के समय की याद दिलाती है, जब कृष्ण अपने सखाओं के साथ राधा और उनकी सखियों के साथ होली खेलने बरसाना जाते थे।

लड्डू होली: बरसाना में लड्डू होली की परंपरा है, जहाँ लोग एक-दूसरे पर लड्डू फेंकते हैं और इस मीठी होली का आनंद लेते हैं। यह परंपरा प्रेम और मिठास का प्रतीक है।

फूलों की होली: वृंदावन में फूलों की होली का विशेष महत्व है। फुलेरा दूज के दिन, राधा-कृष्ण पर फूलों की वर्षा की जाती है, जो उनके दिव्य प्रेम का प्रतीक है। यह परंपरा दर्शाती है कि प्रेम और भक्ति के रंग सबसे सुंदर होते हैं।

धुलेंडी और सोटे वाली होली: धुलेंडी के दिन देवर-भाभी के बीच रंगों की मस्ती होती है। देवर भाभियों पर रंग डालते हैं, जबकि भाभियाँ उन्हें रंग में भीगे कपड़ों से बने सोटे से मारती हैं। यह परंपरा पारिवारिक और सामाजिक संबंधों में प्रेम और सौहार्द को बढ़ाती है।

दाऊजी का हुरंगा: होली का समापन दाऊजी के हुरंगे से होता है, जो भगवान बलराम के सम्मान में खेला जाता है। इस दिन विशेष आयोजन होते हैं, जहाँ रंगों के साथ-साथ भक्ति और आनंद का माहौल होता है।

4. श्रीकृष्ण की लीलाओं में होली का स्थान

श्रीकृष्ण की लीलाओं में होली का विशेष स्थान है। उनकी चंचलता, सखाओं के साथ मस्ती, गोपियों के साथ रंग खेलना

5. होली का आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व

होली केवल रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि यह आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश भी देता है। यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है, जैसा कि प्रह्लाद और होलिका की कथा से पता चलता है। साथ ही, यह त्योहार सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है, जहाँ सभी लोग भेदभाव भूलकर एक साथ आनंद मनाते हैं।

6. निष्कर्ष: प्रेम और भक्ति का पर्व

ब्रज में श्रीकृष्ण और राधा रानी की होली प्रेम, भक्ति और आनंद का अद्वितीय संगम है। यह त्योहार हमें सिखाता है कि जीवन में प्रेम, समरसता और भक्ति का कितना महत्व है। रंगों के माध्यम से हम अपने जीवन को खुशियों से भर सकते हैं और सभी के साथ मिलकर इस उत्सव का आनंद ले सकते हैं।

यशोदा मईया का भगवान श्री कृष्ण के प्रति कैसा प्रेम था।

यशोदा मईया का भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम

भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यकाल उनके भक्तों के लिए दिव्य लीलाओं से भरा हुआ है। विशेष रूप से, उनकी माता यशोदा के साथ उनका संबंध भक्तों के लिए अनन्य प्रेम और वात्सल्य का सबसे पवित्र उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह प्रेम इतना प्रगाढ़ था कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी इसे सर्वोच्च मानते थे।

यशोदा मईया का प्रेम वात्सल्य भक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण है, जिसमें भगवान को माँ-बेटे के संबंध में बाँध लिया गया। इस विस्तृत लेख में हम यशोदा मईया के श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम को विभिन्न पहलुओं से समझने का प्रयास करेंगे:

1. यशोदा मईया का वात्सल्य प्रेम

यशोदा मईया का प्रेम सांसारिक माताओं के प्रेम से कई गुणा अधिक था क्योंकि उनका पुत्र स्वयं साक्षात भगवान था। किंतु भगवान ने अपने बालक स्वरूप में लीलाएं रचाकर अपने आपको एक सामान्य बालक के रूप में प्रकट किया, ताकि माता का स्नेह सहज बना रहे।

जब श्रीकृष्ण का जन्म गोकुल में हुआ, तब नंदबाबा और यशोदा मईया के घर आनंद की लहर दौड़ पड़ी। यशोदा मईया को श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से अपार सुख की अनुभूति होती थी। उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था कि उनका लाडला कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं परमब्रह्म है। उनके लिए श्रीकृष्ण उनके पुत्र थे, और वे उनकी रक्षा व देखभाल में कोई कमी नहीं छोड़ती थीं।

2. कृष्ण के बालस्वरूप में यशोदा का आनंद

बालक कृष्ण की क्रीड़ाएं नंद भवन में हर क्षण एक नया उत्सव लेकर आती थीं। श्रीकृष्ण जब रोते, तो यशोदा मईया उन्हें गोद में लेकर दुलारतीं, स्तनपान करातीं और अपनी ममता से उन्हें शांत कर देतीं। उनका प्रेम इतना निश्छल और गहरा था कि जब वे श्रीकृष्ण को गोद में लेकर झुलातीं, तब उन्हें संसार की किसी अन्य वस्तु का ध्यान नहीं रहता था।

वे श्रीकृष्ण को गोद में उठाकर कभी उनके मुख की सुंदरता निहारतीं, कभी उनके बालों को संवारतीं, और कभी उनके छोटे-छोटे हाथों और पैरों को चूमतीं। उनके लिए श्रीकृष्ण उनकी आत्मा का अंश थे, उनके जीवन का सार थे।

3. कृष्ण की शरारतें और यशोदा का प्रेमपूर्ण दंड

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बाल्यकाल में अनेक बाल लीलाएँ रचीं, जिनमें उनकी माखन चोरी की लीला सबसे प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण अपने ग्वाल-बाल मित्रों के साथ मिलकर गोकुल की गलियों में मक्खन चुराने जाते थे। जब यशोदा मईया को यह ज्ञात होता, तो वे श्रीकृष्ण को पकड़कर उन्हें प्रेम से डांटतीं।

कई बार यशोदा मईया ने श्रीकृष्ण को मक्खन चुराते हुए पकड़ा और गुस्से में उन्हें पकड़कर दंड देने की चेष्टा की। किंतु जब वे श्रीकृष्ण की भोली सूरत और मासूम हंसी देखतीं, तो उनका हृदय पिघल जाता और वे उन्हें गले से लगा लेतीं।

4. उखल बंधन लीला: यशोदा का अनन्य प्रेम

भगवान श्रीकृष्ण की ‘उखल बंधन लीला’ इस वात्सल्य प्रेम का एक अद्भुत उदाहरण है। एक दिन श्रीकृष्ण घर में माखन खा रहे थे, तभी यशोदा मईया ने उन्हें पकड़ने का प्रयास किया। श्रीकृष्ण अपनी चपलता से भाग गए, लेकिन यशोदा मईया ने उनका पीछा किया और अंततः उन्हें पकड़ लिया।

उन्होंने श्रीकृष्ण को ऊखल (जाँता) से बाँधने का प्रयास किया, लेकिन बार-बार रस्सी छोटी पड़ जाती। जब यशोदा मईया थक गईं और उनके नेत्रों में वात्सल्य के आँसू आ गए, तब श्रीकृष्ण ने स्वयं को बंधने की अनुमति दी। यह दर्शाता है कि भगवान भी भक्त के प्रेम के आगे झुक जाते हैं।

5. कृष्ण के मुख में ब्रह्मांड का दर्शन

एक अन्य प्रसंग में जब श्रीकृष्ण बालक थे, तब उनके मित्रों ने उनकी शिकायत की कि उन्होंने मिट्टी खा ली है। यशोदा मईया जब उनके मुख को खोलकर देखती हैं, तो वे उसमें संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्शन करती हैं—सूर्य, चंद्र, तारे, सृष्टि के समस्त लोक, नदियाँ, पर्वत और यहाँ तक कि स्वयं को भी देखती हैं।

इस दृश्य को देखकर यशोदा मईया स्तब्ध रह जाती हैं, किंतु अगले ही क्षण वे इस घटना को भूलकर श्रीकृष्ण को अपने बालक रूप में ही स्वीकार कर लेती हैं। यह इस बात को दर्शाता है कि उनका प्रेम किसी लौकिक ज्ञान या तर्क से परे था।

6. यशोदा मईया का निःस्वार्थ प्रेम

यशोदा मईया का प्रेम निःस्वार्थ था। उन्हें कभी यह एहसास नहीं हुआ कि उनका पुत्र कोई महान शक्ति है या कोई दैवीय अवतार। उनके लिए श्रीकृष्ण केवल उनका पुत्र था, जिसे वे अपनी ममता से बड़ा करना चाहती थीं।

उनका प्रेम इस बात से भी प्रकट होता है कि जब श्रीकृष्ण वृंदावन छोड़कर मथुरा चले गए, तब यशोदा मईया अत्यंत दुःखी हो गईं। उनके हृदय में श्रीकृष्ण की यादें बस गई थीं और वे हर क्षण उनकी प्रतीक्षा करती थीं।

7. माता यशोदा की भक्ति का महत्व

भक्तियोग में चार प्रकार की भक्ति बताई गई है—दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। यशोदा मईया का प्रेम वात्सल्य भाव का सर्वोच्च उदाहरण है। भगवान श्रीकृष्ण भी माता यशोदा के इस प्रेम को सर्वोच्च मानते थे।

यशोदा मईया का प्रेम दर्शाता है कि भगवान को प्रेम के बंधन में बाँधना संभव है, लेकिन यह प्रेम निःस्वार्थ और निष्कपट होना चाहिए। श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है—

“नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद॥”

अर्थात्, “मैं न वैकुण्ठ में निवास करता हूँ, न योगियों के हृदय में। मैं वहीं रहता हूँ जहाँ मेरे भक्त प्रेम से मुझे पुकारते हैं।”

8. निष्कर्ष

यशोदा मईया और श्रीकृष्ण का संबंध प्रेम, वात्सल्य और भक्ति का आदर्श उदाहरण है। यशोदा का प्रेम न केवल श्रीकृष्ण को लुभाता है, बल्कि समस्त भक्तों को यह प्रेरणा देता है कि यदि प्रेम निश्छल हो, तो स्वयं परमात्मा भी उसके वश में हो जाते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के प्रति यशोदा मईया का प्रेम अद्वितीय, आत्मीय और पवित्र था। यह प्रेम केवल माता-पुत्र के संबंध का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह दर्शाता है कि प्रेम और भक्ति से ईश्वर को भी जीता जा सकता है।

भगवान श्री कृष्ण की श्री राधा रानी संग बाल लीलाए ।

श्री कृष्ण और श्री राधा रानी की बाल लीलाएँ

भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा रानी की बाल लीलाएँ प्रेम, भक्ति और अलौकिक आनंद से परिपूर्ण हैं। श्री कृष्ण की बाल लीलाएँ गोपियों, गोप-गोपियों, ब्रजवासियों और विशेष रूप से श्री राधा रानी के साथ अनेक मधुर प्रसंगों से ओतप्रोत हैं।

1. श्री राधा और श्री कृष्ण का जन्म एवं प्रारंभिक काल

श्री कृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ, लेकिन उनके पिता वसुदेव ने उन्हें यशोदा और नंद बाबा के यहाँ गोकुल में पहुँचा दिया। वहीं, दूसरी ओर श्री राधा रानी का जन्म वृषभानु जी और माता कीर्ति के यहाँ बरसाना में हुआ। मान्यता है कि श्री राधा जी बिना किसी शारीरिक जन्म के, दिव्य ज्योति रूप में प्रकट हुई थीं।

श्री राधा और श्री कृष्ण का प्रथम मिलन उनके बाल्यकाल में ही हुआ। जब श्री कृष्ण छोटे थे, तब वे गोकुल में अपनी बाल लीलाओं से सभी को आनंदित करते थे। जब वे अपने बाल्यकाल में गोचारण करने लगे, तब उनका सान्निध्य राधा रानी से बढ़ने लगा।

2. श्री कृष्ण और श्री राधा रानी का प्रथम मिलन

श्री कृष्ण और राधा रानी का प्रथम मिलन तब हुआ जब श्री कृष्ण ने पहली बार वृन्दावन में प्रवेश किया। यह वह समय था जब श्री राधा अपनी सखियों के साथ यमुना तट पर खेल रही थीं। जैसे ही उन्होंने श्री कृष्ण को देखा, वे उनकी ओर आकर्षित हो गईं। इसी समय से उनके बीच प्रेम और भक्ति का दिव्य संबंध स्थापित हुआ।

3. माखन चोरी और राधा रानी के संग हास-परिहास

श्री कृष्ण अपनी बाल्यकाल में माखन चोरी के लिए प्रसिद्ध थे। वे अपने सखाओं के साथ मिलकर ग्वालिनों के घरों से माखन चुराते और बाल सखाओं संग बाँटते। एक बार, जब श्री कृष्ण माखन चोरी करने गए, तब श्री राधा ने उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया। उन्होंने कृष्ण से पूछा कि वे चोरी क्यों करते हैं, जबकि उनकी माता यशोदा उन्हें बहुत सारा माखन देती हैं। इस पर श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “राधे! यह माखन तुम लोगों के प्रेम का प्रतीक है, जो मुझे सबसे प्रिय है।”

4. राधा-कृष्ण का कुंज बिहारी खेल

श्री राधा और श्री कृष्ण की बाल लीलाओं में कुंज बिहारी खेल विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। यह लीला वृन्दावन के निकुंजों में होती थी, जहाँ श्री कृष्ण और श्री राधा अपनी सखियों के साथ क्रीड़ा करते। कभी वे फूलों की वर्षा करते, कभी यमुना तट पर जल क्रीड़ा करते, तो कभी मधुर गीतों के माध्यम से एक-दूसरे से संवाद करते।

5. रास लीला की प्रारंभिक झलकियाँ

बाल्यावस्था में ही श्री कृष्ण ने अपनी मोहिनी मुरली से सम्पूर्ण ब्रज को मोहित कर दिया था। जब भी वे बंसी बजाते, समस्त गोपियाँ उनकी ओर आकर्षित हो जातीं। बाल्यकाल में भी श्री कृष्ण ने रास लीला का प्रारंभ किया था, जिसमें श्री राधा रानी उनके साथ नृत्य करती थीं।

6. राधा-कृष्ण की जल क्रीड़ा

एक बार श्री कृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी में जल क्रीड़ा कर रहे थे। श्री राधा अपनी सखियों के साथ वहाँ पहुँचीं। श्री कृष्ण ने राधा रानी को जल में खींच लिया और दोनों ने जल में एक-दूसरे पर छींटे मारकर खूब खेला। यह लीला ब्रजवासियों के लिए अत्यंत आनंदमय थी।

7. फूलों की होली और मधुर प्रेम प्रसंग

राधा-कृष्ण की बाल लीलाओं में एक और प्रमुख प्रसंग है—फूलों की होली। बसंत पंचमी के दिन श्री कृष्ण और श्री राधा अपनी सखियों संग फूलों की होली खेलते थे। श्री कृष्ण, राधा रानी पर रंग डालते और वे लजाते हुए उन्हें मारने का प्रयास करतीं। यह लीला अत्यंत मनोरम होती थी।

8. श्री कृष्ण की बाल गोपियों संग प्रेम भरी छेड़छाड़

श्री कृष्ण अपनी बाल सखाओं के साथ गोपियों को छेड़ने में भी बहुत निपुण थे। वे कभी उनकी मटकी तोड़ देते, तो कभी उनका घड़ा छुपा देते। श्री राधा जब श्री कृष्ण की शरारतों से परेशान हो जातीं, तब वे अपनी सखियों संग जाकर माता यशोदा से उनकी शिकायत कर देतीं।

9. बंसी की मधुर तान और राधा जी का रिझना

जब भी श्री कृष्ण अपनी बंसी बजाते, तो श्री राधा मंत्रमुग्ध होकर उनकी ओर खिंची चली आतीं। उनकी मुरली की तान इतनी मोहक थी कि ब्रज की गोपियाँ, ग्वाले और यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी ठहर जाते। श्री राधा इस तान को सुनकर स्वयं को रोक नहीं पातीं और श्री कृष्ण के पास पहुँच जातीं।

10. प्रेम और भक्ति का संदेश

श्री कृष्ण और श्री राधा की बाल लीलाएँ केवल प्रेम प्रसंगों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे भक्ति, समर्पण और दिव्य आनंद का संदेश देती हैं। उनका प्रेम लौकिक नहीं, बल्कि अलौकिक था, जो भक्ति मार्ग में हर भक्त के लिए प्रेरणा है।

निष्कर्ष

श्री राधा और श्री कृष्ण की बाल लीलाएँ उनके अद्भुत प्रेम, भक्ति और आनंद का प्रतीक हैं। इन लीलाओं में न केवल दिव्य प्रेम झलकता है, बल्कि भक्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है। ब्रज की भूमि में आज भी इन लीलाओं की स्मृतियाँ जीवंत हैं, और भक्तगण इन्हें सुनकर व स्मरण कर आत्मिक आनंद का अनुभव करते हैं।

भगवान श्री कृष्ण माखन चोरी क्यों करते थे?

भगवान श्री कृष्ण के माखन चोरी करने की कथा अत्यंत रोचक, गूढ़ रहस्यों से परिपूर्ण और भक्तों के हृदय को आनंदित करने वाली है। यह कथा केवल एक बालक के माखन चुराने की नहीं, बल्कि गहरे आध्यात्मिक रहस्यों को प्रकट करने वाली है। श्रीमद्भागवत महापुराण, हरिवंश पुराण, और विभिन्न संतों द्वारा रचित ग्रंथों में इस लीला का विस्तृत वर्णन मिलता है।

श्री कृष्ण की माखन चोरी लीला का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व

भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाएँ केवल मनोरंजन के लिए नहीं थीं, बल्कि उनमें गहरे आध्यात्मिक रहस्य छिपे हुए हैं। माखन चोरी की लीला का वर्णन हमें यह समझाने के लिए किया गया है कि भगवान भक्तों के प्रेम के भूखे होते हैं और भक्तों के हृदय रूपी माखन को ग्रहण करते हैं।

1. भगवान श्री कृष्ण के बाल्यकाल का परिचय

भगवान श्री कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ, लेकिन कंस के अत्याचारों से बचाने के लिए वसुदेव जी ने उन्हें यशोदा और नंद बाबा के पास गोकुल पहुँचा दिया। गोकुल में उनका बचपन बड़ी चंचलता और लीलाओं से भरा हुआ था। उनका मुख्य उद्देश्य भक्तों को आनंदित करना और धर्म की पुनर्स्थापना करना था।

श्रीकृष्ण का बचपन बड़ा ही अलौकिक था। वे साधारण बालकों की तरह नहीं थे, बल्कि अपनी अद्भुत लीलाओं के द्वारा उन्होंने गोकुलवासियों को प्रेम और भक्ति का मार्ग दिखाया। इसी क्रम में उन्होंने “माखन चोरी” की दिव्य लीला की, जो आज भी भक्तों के लिए भक्ति और प्रेम का प्रतीक बनी हुई है।

2. माखन चोरी की लीला का वर्णन

गोकुल में सभी ग्वाल-बालों और माता यशोदा को श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में विशेष आनंद आता था। नटखट श्रीकृष्ण को माखन और दही बहुत प्रिय था। माता यशोदा उनके लिए बड़े प्रेम से माखन तैयार करती थीं, लेकिन भगवान श्री कृष्ण केवल अपने घर का माखन नहीं खाते थे, बल्कि गोकुल की अन्य गोपियों के घर से भी माखन चुराकर खाते थे।

गोपियाँ अक्सर अपने घरों में माखन को ऊँचाई पर लटका कर रखती थीं ताकि श्री कृष्ण उसे न चुरा सकें, लेकिन श्रीकृष्ण अपनी बाल सखाओं के साथ मिलकर नई-नई युक्तियाँ लगाते और माखन चुरा ही लेते।

गोपियाँ जब देखतीं कि उनके घड़ों से माखन गायब है, तो वे एकत्र होकर माता यशोदा के पास शिकायत करने जातीं। वे कहतीं—

“यशोदा, तेरा लाला बड़ा शरारती है! वह हमारे घर में घुसकर माखन चुरा लेता है। हमने माखन ऊँचे घड़ों में बाँध दिया था, फिर भी उसने अपने मित्रों के साथ मिलकर उसे निकाल लिया।”

माता यशोदा जब श्रीकृष्ण को पकड़ने का प्रयास करतीं, तो वे अपनी तोतली बोली में कहते—

“मैया! मैंने माखन नहीं खाया, यह तो मेरे ग्वाल-बाल मित्रों ने खाया है।”

परंतु जब माता यशोदा उनके अधरों पर माखन लगा हुआ देखतीं, तो उनकी चतुराई समझ जातीं और प्रेम से श्रीकृष्ण को गले लगा लेतीं।

3. माखन चोरी के पीछे छिपा आध्यात्मिक रहस्य

(i) भक्तों के हृदय से प्रेमरूपी माखन ग्रहण करना

गोपियों का माखन श्रीकृष्ण के लिए केवल भोजन नहीं था, बल्कि वह प्रेम का प्रतीक था। गोपियाँ श्रीकृष्ण के लिए बड़े प्रेम से माखन तैयार करती थीं और जब श्रीकृष्ण उसे चोरी से खाते थे, तो गोपियों को आनंद आता था।

इसका अर्थ यह है कि भगवान भक्तों के निर्मल हृदय रूपी माखन को ग्रहण करते हैं। भक्त का हृदय जब माखन के समान कोमल, शुद्ध और निर्मल होता है, तभी भगवान उसे स्वीकार करते हैं।

(ii) गोपियों के साथ प्रेम भक्ति का प्रतीक

गोपियाँ भगवान की अनन्य भक्त थीं। वे श्रीकृष्ण को पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती थीं। जब श्रीकृष्ण उनके घरों में माखन चुराने जाते थे, तो इसका वास्तविक अर्थ यह था कि भगवान अपने भक्तों के प्रेम को स्वीकार करने के लिए स्वयं उनके घर जाते हैं।

(iii) सांसारिक मोह को तोड़ने की लीला

गोपियाँ अपने घरों में माखन को सुरक्षित रखने के लिए ऊँचाई पर रखती थीं। यह प्रतीकात्मक है कि मनुष्य अपने प्रेम और भक्ति को सांसारिक वस्तुओं के बंधन में बाँध कर रखता है। भगवान श्रीकृष्ण माखन चुराकर यह सिखाते हैं कि हमें अपने प्रेम और भक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर देना चाहिए।

4. माता यशोदा द्वारा श्रीकृष्ण को बांधने की लीला

माखन चोरी की लीलाओं से परेशान होकर एक दिन माता यशोदा ने श्रीकृष्ण को पकड़ लिया और ऊखल से बाँधने का प्रयास किया। परंतु जब वे रस्सी लेकर आईं, तो वह रस्सी हमेशा दो उंगलियाँ छोटी पड़ जाती थी। यह बताता है कि भगवान को केवल प्रयास और कृपा से बाँधा जा सकता है। जब माता यशोदा ने सच्चे प्रेम से प्रयास किया, तो भगवान ने अपनी कृपा से स्वयं को बंधने दिया।

5. संतों और भक्तों द्वारा माखन चोरी लीला की व्याख्या

(i) महाप्रभु वल्लभाचार्य की दृष्टि से

वल्लभ संप्रदाय के अनुसार, माखन चोरी की लीला भगवान की वात्सल्य भक्ति को प्रकट करती है। गोपियाँ स्वयं भगवान को खिलाना चाहती थीं और जब वे चोरी से खाते थे, तो उन्हें अधिक आनंद मिलता था।

(ii) चैतन्य महाप्रभु की व्याख्या

चैतन्य महाप्रभु के अनुसार, यह लीला दिखाती है कि भगवान केवल उन्हीं के पास जाते हैं जो अनन्य प्रेम से भरे होते हैं। वे बाहरी आडंबर से नहीं, बल्कि हृदय की शुद्धता से प्रसन्न होते हैं।

6. माखन चोरी की कथा का नैतिक संदेश

(i) भगवान प्रेम के भूखे होते हैं

वे किसी के धन, बल, बुद्धि के नहीं, बल्कि प्रेम के भूखे होते हैं।

(ii) निर्मल हृदय की महिमा

जिसका हृदय माखन की तरह कोमल और शुद्ध होगा, भगवान वहीं निवास करेंगे।

(iii) सांसारिक बंधनों से मुक्ति

हमें सांसारिक मोह को छोड़कर प्रेम और भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए।

7. निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण की माखन चोरी लीला केवल एक बालक के शरारती स्वभाव को दर्शाने वाली कथा नहीं है, बल्कि यह भक्तों को भक्ति का सर्वोच्च मार्ग दिखाने वाली एक अद्भुत लीला है। यह लीला बताती है कि भगवान का सच्चा स्वरूप प्रेम है, और वे केवल प्रेम से ही बाँधे जा सकते हैं।

इस कथा को सुनने और समझने से भक्तों के हृदय में प्रेम, भक्ति, और समर्पण की भावना जागृत होती है। यही कारण है कि युगों-युगों से श्रीकृष्ण की माखन चोरी लीला भक्तों के हृदय में विशेष स्थान बनाए हुए है।

भगवान श्री कृष्ण की माटी खाने की लीला

भगवान श्री कृष्ण की माटी खाने की लीला

भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में से एक अत्यंत प्रसिद्ध और मनोहर लीला है—माटी खाने की लीला। यह लीला न केवल बाल कृष्ण की मोहक चपलता को दर्शाती है, बल्कि इसके गहरे आध्यात्मिक अर्थ भी हैं। यह घटना श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में वर्णित है और भक्तों के लिए विशेष रूप से प्रेरणादायक है।

लीला का पृष्ठभूमि

गोकुल और वृंदावन में बालकृष्ण ने अनेकों बाल लीलाएँ रचीं, जिससे वे गोकुलवासियों के प्रिय बन गए। उनकी मधुर मुस्कान, भोला स्वभाव और अलौकिक खेल-खेल में उनके दिव्य रूप का दर्शन सभी को आनंदित कर देता था। श्रीकृष्ण की माताजी यशोदा अत्यंत स्नेहमयी थीं और वे अपने बालकृष्ण की हर चेष्टा पर मुग्ध रहती थीं।

श्रीकृष्ण का लालन-पालन गोपों के साथ हुआ, जो ग्वाल-बालों के साथ खेलते, दौड़ते और अनेक प्रकार की चंचल बाल लीलाएँ करते रहते थे। उन्हीं लीलाओं में एक दिन उन्होंने मिट्टी खाने की लीला रची। यह लीला कई महत्वपूर्ण संदेशों को समाहित किए हुए है, जिसे हमें समझने की आवश्यकता है।

लीला का वर्णन

1. ग्वाल-बालों के साथ खेलना

एक दिन श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ गोचारण के लिए गए। सभी ग्वाल-बाल आनंदपूर्वक खेल रहे थे, हँसी-ठिठोली कर रहे थे और श्रीकृष्ण के साथ प्रसन्नता से समय बिता रहे थे। खेलते-खेलते श्रीकृष्ण को भूख लग गई। उनके सखा तो अपने-अपने घर से लाया हुआ भोजन कर रहे थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने बालस्वभाव में अनोखी चेष्टा की और धरती की माटी उठा ली और खाने लगे।

2. सखाओं की शिकायत

यह देखकर उनके सखा अचंभित रह गए। गोपबालकों ने तुरंत जाकर माता यशोदा से शिकायत कर दी, “माँ यशोदा! देखो, कृष्ण ने माटी खा ली है।”

यशोदा मैया को पहले विश्वास नहीं हुआ। उन्हें लगा कि यह बालकों की शरारत हो सकती है। उन्होंने श्रीकृष्ण को बुलाया और पूछा,

“लल्ला! तूने माटी खाई?”

तब नटखट श्रीकृष्ण ने बड़ी भोली सूरत बनाकर उत्तर दिया,

“मैया! मैंने कोई माटी नहीं खाई। ये सब झूठ बोल रहे हैं।”

3. श्रीकृष्ण का मुख खोलना

माता यशोदा को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने सखाओं की बातों को गंभीरता से लिया और श्रीकृष्ण से कहा,

“लल्ला, यदि तूने माटी नहीं खाई तो अपना मुख खोलकर दिखा।”

श्रीकृष्ण ने सोचा कि अब माता यशोदा को अपनी दिव्य लीला दिखाने का समय आ गया है। उन्होंने धीरे-धीरे अपना मुख खोल दिया।

4. यशोदा माता को विराट दर्शन

जैसे ही माता यशोदा ने श्रीकृष्ण का मुख देखा, वे चकित रह गईं। उन्हें केवल माटी ही नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड के दर्शन हुए।

उन्होंने कृष्ण के छोटे से मुख में –

अनगिनत लोक-लोकांतर,

सूर्य, चंद्रमा, तारे, ग्रह-नक्षत्र,

विशाल पर्वत, नदियाँ, सागर,

सम्पूर्ण सृष्टि का चक्र,

ब्रह्मा, विष्णु, महेश,

और स्वयं को भी श्रीकृष्ण के मुख में देखा।

माता यशोदा यह सब देखकर स्तब्ध रह गईं। उनकी बुद्धि कुछ क्षण के लिए ठिठक गई, वे सोचने लगीं—

“क्या यह मेरा वही छोटा सा लल्ला है? क्या यह कोई साधारण बालक है या स्वयं साक्षात् नारायण हैं?”

वे विस्मय से भर गईं और उनकी ममता और प्रेम और भी बढ़ गया। तभी श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया से माता यशोदा की बुद्धि को लौकिक अवस्था में ला दिया, जिससे वे इस विराट दर्शन को भूल गईं और पुनः श्रीकृष्ण को गोद में लेकर प्रेमपूर्वक दुलारने लगीं।

लीला का आध्यात्मिक रहस्य

इस लीला में कई गहरे आध्यात्मिक संकेत छिपे हुए हैं—

1. भगवान ही संपूर्ण सृष्टि के अधिपति हैं

श्रीकृष्ण ने अपने मुख में सम्पूर्ण ब्रह्मांड को दिखाकर यह सिद्ध किया कि वे ही इस समस्त सृष्टि के कर्ता, पालक और संहारक हैं। समस्त लोक उन्हीं में स्थित हैं।

2. माया का प्रभाव

माता यशोदा को जब श्रीकृष्ण ने ब्रह्मांड के दर्शन कराए, तो उन्हें एक क्षण के लिए ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ। लेकिन कृष्ण ने तुरंत अपनी योगमाया से उन्हें लौकिक प्रेम की स्थिति में लौटा दिया। इससे यह सिद्ध होता है कि जब तक भगवान की कृपा नहीं होती, तब तक कोई भी जीव अपनी माया से मुक्त नहीं हो सकता।

3. बालकृष्ण की नटखट लीला

भगवान श्रीकृष्ण नटखट भी हैं और भोले भी। वे अपनी बाल्यावस्था में भी ऐसी लीलाएँ करते हैं जिससे भक्तगण उनके अद्भुत स्वरूप का अनुभव कर सकें। उनकी माटी खाने की लीला दर्शाती है कि वे प्रेम करने वाले भक्तों को समय-समय पर अपनी दिव्यता का आभास कराते रहते हैं।

4. सांसारिक सत्य की झलक

भगवान ने यह भी संकेत दिया कि यह संपूर्ण जगत, जिसे हम वास्तविक मानते हैं, वह भी एक मायारूप है। वास्तव में, यह सारा ब्रह्मांड भगवान के ही अधीन है और उनकी ही इच्छा से संचालित होता है।

उपसंहार

श्रीकृष्ण की माटी खाने की लीला केवल एक बाल-क्रीड़ा नहीं, बल्कि इसमें अद्भुत आध्यात्मिक रहस्य छिपे हुए हैं। यह लीला हमें यह सिखाती है कि भगवान की प्रत्येक लीला में अनंत रहस्य होते हैं, जिन्हें केवल भक्ति और प्रेम से समझा जा सकता है।

माता यशोदा के प्रेम में श्रीकृष्ण बंधे रहते हैं, परंतु समय-समय पर वे यह भी संकेत देते हैं कि वे अनंत ब्रह्मांडों के अधिपति हैं।

इसलिए, जो भी भक्त इस लीला का श्रवण और मनन करता है, उसे निश्चित रूप से श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। जय श्रीकृष्ण!

गोवर्धन कौन थे और वह बृज में कैसे पहुँचे?

गोवर्धन पर्वत का उल्लेख श्रीकृष्ण की लीलाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह पर्वत ब्रजभूमि में स्थित है और श्रीकृष्ण द्वारा इंद्र के घमंड को चूर करने के लिए उठाया गया था। गोवर्धन का मूल स्वरूप, उनकी बृज में उपस्थिति, और उनसे जुड़ी कथाएँ अत्यंत रोचक और भक्तिपूर्ण हैं।

गोवर्धन पर्वत का दिव्य स्वरूप

गोवर्धन पर्वत को भगवान का स्वरूप माना जाता है। शास्त्रों में इसे “हरिद्रानाथ” और “गिरिराज” भी कहा गया है। यह पर्वत समस्त जीवों का पालन करता है, जल, वनस्पति और गोचर भूमि प्रदान करता है। इसी कारण इसे “अन्नकूट पर्वत” भी कहा जाता है।

गोवर्धन की उत्पत्ति

गोवर्धन पर्वत की उत्पत्ति से संबंधित कथा विष्णु धर्मोत्तर पुराण, गर्ग संहिता, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में वर्णित है। इसके अनुसार—

त्रेतायुग में पुलस्त्य ऋषि, जो ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे, वे हिमालय गए और वहाँ से एक अत्यंत सुंदर पर्वत देखा। यह पर्वत समुद्र मंथन से निकला था और भगवान विष्णु के चरणों की रज से पवित्र हो चुका था। इस पर्वत का नाम गोवर्धन था। पुलस्त्य ऋषि को यह पर्वत अत्यंत प्रिय लगा और वे इसे काशी ले जाना चाहते थे। उन्होंने इस पर्वत से प्रार्थना की और उसके राजा से विनती की।

गोवर्धन को काशी ले जाने के लिए पुलस्त्य ऋषि ने अपनी तपस्या के बल पर अनुमति प्राप्त की, लेकिन एक शर्त रखी गई कि यदि रास्ते में कहीं भी उन्होंने इसे नीचे रखा, तो यह वहीं स्थायी रूप से स्थित हो जाएगा।

बृज में गोवर्धन का आगमन

जब पुलस्त्य ऋषि गोवर्धन को लेकर बृजधाम पहुँचे, तो उन्हें लघुशंका की इच्छा हुई। वे पर्वत को वहीं रखकर निवृत्त होने चले गए। भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से गोवर्धन पर्वत वहीं स्थिर हो गया और जब पुलस्त्य ऋषि वापस लौटे, तो वे इसे हिला न सके। वे क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि यह पर्वत प्रतिदिन एक तिल मात्र घटता जाएगा।

इसी कारण, यह माना जाता है कि गोवर्धन पर्वत का वास्तविक आकार पहले बहुत विशाल था, लेकिन अब यह छोटा होता जा रहा है।

श्रीकृष्ण और गोवर्धन लीला

जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि बृजवासी प्रति वर्ष इंद्रदेव की पूजा कर रहे हैं, तो उन्होंने इस पर विचार किया। श्रीकृष्ण ने यशोदा मैया और नंद बाबा से पूछा कि वे यह यज्ञ क्यों कर रहे हैं। नंद बाबा ने बताया कि इंद्रदेव वर्षा करते हैं, जिससे हमारी गौएँ और खेती फलती-फूलती हैं।

भगवान कृष्ण ने समझाया कि गोवर्धन पर्वत ही असली पालक है। यह नदियाँ, पेड़-पौधे और भोजन प्रदान करता है। अतः इसकी पूजा करनी चाहिए। सभी बृजवासियों ने श्रीकृष्ण के आदेशानुसार गोवर्धन की पूजा की और अन्नकूट महोत्सव मनाया।

इंद्र को यह अपमानजनक लगा और उन्होंने बृजभूमि पर प्रचंड वर्षा भेज दी। चारों ओर जल ही जल भर गया, लोग भयभीत हो गए। तब श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया और सात दिनों तक इसे छत्र के समान थामे रखा। सभी बृजवासी और गौमाता इसके नीचे सुरक्षित रहे। अंततः इंद्रदेव ने अपनी भूल स्वीकार की और भगवान कृष्ण के चरणों में क्षमा मांगी।

गोवर्धन पूजा और गिरिराज महाराज की महिमा

आज भी गोवर्धन पूजा बड़े धूमधाम से की जाती है। भक्तजन गोवर्धन परिक्रमा करते हैं और गिरिराज महाराज की शरण में आते हैं। गोवर्धन श्रीकृष्ण के विशेष प्रिय हैं और वे स्वयं कहते हैं:

“गिरिराज मेरी आत्मा हैं। जो इनकी शरण में आता है, वह मेरे हृदय में स्थान पाता है।”

गोवर्धन की कथा हमें सिखाती है कि अहंकार का अंत निश्चित है और सच्ची भक्ति से भगवान की कृपा प्राप्त होती है।

दावानल की कथा?

दावानल की कथा

भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं में “दावानल” (जंगल की अग्नि) की कथा अत्यंत रोचक और रहस्यमय है। यह कथा वृंदावन के गोकुलवासियों के उद्धार और भगवान के दिव्य पराक्रम को दर्शाती है।

भूमिका

जब श्रीकृष्ण गोकुल में बाल लीलाएँ कर चुके, तब माता यशोदा और नंद बाबा ने उन्हें गोकुल से वृंदावन ले जाने का निर्णय लिया। वृंदावन का वन अत्यंत रमणीय था, जहाँ श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ गौचारण करते और असुरों का संहार कर भक्तों की रक्षा करते थे।

एक दिन, जब श्रीकृष्ण और बलराम अपने सखाओं के साथ वन में गौचारण कर रहे थे, तब उन्होंने कई अद्भुत लीलाएँ कीं। उस दिन उन्होंने कालिय नाग का दमन किया था, जिससे समस्त ग्वालबाल प्रसन्न थे और आनंदित होकर खेल रहे थे। उसी रात, जब सभी ग्वालबाल थककर एक वृक्ष के नीचे सो गए, तब एक भीषण घटना घटी—वृंदावन के वन में भीषण दावानल (जंगल की आग) प्रकट हुई।

दावानल का प्रकट होना

रात्रि का समय था। घना अंधकार चारों ओर फैल चुका था। सभी ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ थककर गहरी नींद में सो गए थे। उसी समय, तेज़ हवा के झोंकों के साथ वृंदावन के वन में अचानक भयंकर आग प्रज्वलित हो उठी। यह दावानल एक प्राकृतिक घटना नहीं थी, बल्कि यह अग्निदेव का ही रूप था, जो भगवान की लीलाओं में सम्मिलित होने के लिए आया था।

यह अग्नि चारों ओर फैल गई और धीरे-धीरे उस स्थान की ओर बढ़ने लगी, जहाँ श्रीकृष्ण और उनके सखा सो रहे थे। अग्नि की लपटें विशाल वृक्षों को जलाने लगीं, पक्षी भयभीत होकर आकाश में उड़ने लगे, और वन्य जीव इधर-उधर भागने लगे। वातावरण में धुआँ और लपटों का तांडव था।

गोपबालकों की नींद खुल गई। वे घबराकर इधर-उधर देखने लगे। उन्होंने देखा कि चारों ओर अग्नि की प्रचंड लपटें उठ रही हैं। भय और चिंता से व्याकुल होकर वे श्रीकृष्ण और बलराम के पास दौड़े और उनसे प्रार्थना करने लगे—

“हे कृष्ण! हे बलराम! इस अग्नि से हमारी रक्षा करें। हम शरणागत हैं, हमें बचाइए!”

श्रीकृष्ण का आश्वासन

श्रीकृष्ण ने अपने सखाओं को धैर्य बंधाया और प्रेमपूर्वक कहा—

“डरो मत, यह अग्नि तुम्हारा कुछ भी अहित नहीं कर सकेगी। मेरी शरण में आने वाले भक्तों की रक्षा करना मेरा धर्म है। यह दावानल भी मेरे ही आदेश से प्रकट हुआ है और अब मैं ही इसे अपने में समाहित कर लूँगा।”

भगवान के वचन सुनकर गोपबालकों का भय समाप्त हो गया। वे सभी श्रीकृष्ण के आदेश की प्रतीक्षा करने लगे।

भगवान की अद्भुत लीला

श्रीकृष्ण ने अपने ईश्वरीय सामर्थ्य से संपूर्ण दावानल को अपनी लीलामयी शक्ति से अपने मुख में समाहित कर लिया। वे धीरे-धीरे गहरी साँस लेने लगे, और जैसे-जैसे उन्होंने श्वास ग्रहण किया, वैसे-वैसे वह भयंकर अग्नि उनकी ओर आकर्षित होती चली गई। कुछ ही क्षणों में संपूर्ण जंगल की अग्नि भगवान के मुख में प्रवेश कर गई और सम्पूर्ण वन पुनः शीतल और शांत हो गया।

यह दृश्य देखकर ग्वालबाल आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने अपने प्रिय सखा श्रीकृष्ण की जय-जयकार की।

दावानल का आध्यात्मिक रहस्य

यह लीला केवल बाह्य रूप से अग्नि शांत करने की नहीं थी, बल्कि इसका गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य भी है। दावानल उस सांसारिक ताप और क्लेश का प्रतीक है, जो भौतिक संसार में जीव को सताता है। भगवान श्रीकृष्ण उस दावानल को समाप्त कर यह दर्शाते हैं कि जो भी उनकी शरण में आता है, वह सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है।

इस कथा का सार यही है कि जो भी श्रीकृष्ण की भक्ति करता है, उसके जीवन के समस्त संकट स्वयं भगवान हर लेते हैं।

भगवान श्री कृष्ण की अपने बाल सखाओं के साथ नृत्य लीला।

भगवान श्रीकृष्ण की अपने बाल सखाओं के साथ नृत्य लीला

भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाएँ अत्यंत मनोहर, मधुर और भक्तों को आनंद देने वाली हैं। उन्होंने नंदगांव और वृंदावन में अपने ग्वाल बाल सखाओं के साथ अनेक प्रकार की लीलाएँ कीं, जिनमें नृत्य लीला भी विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यह लीला केवल एक मनोरंजन या खेल नहीं था, बल्कि इसमें गहरे आध्यात्मिक रहस्य छिपे थे।

इस लेख में हम भगवान श्रीकृष्ण की बाल सखाओं के साथ की गई नृत्य लीला का विस्तारपूर्वक वर्णन करेंगे।

1. नृत्य लीला का प्रारंभ: बाल्यावस्था की सरलता

भगवान श्रीकृष्ण जब छोटे थे, तो वे गोकुल में अपने मित्रों के साथ खेला करते थे। उनके मित्रों में बलराम, श्रीदामा, सुभाष, माधुमंगल, उद्धव, और अन्य कई ग्वाल बाल थे। ये सभी श्रीकृष्ण के अत्यंत प्रिय सखा थे और उनके साथ दिन-रात खेलते, हँसते और आनंद में डूबे रहते थे।

नंदगांव और वृंदावन के हरे-भरे कुंजों में, यमुना के किनारे और गोचारण भूमि में श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ आनंदपूर्वक नृत्य करते थे। यह नृत्य कभी-कभी खेल के रूप में होता था, तो कभी किसी उत्सव या खुशी के अवसर पर किया जाता था।

2. नृत्य लीला का विशेष अवसर

भगवान श्रीकृष्ण की नृत्य लीला कई अवसरों पर हुई, जिनमें कुछ विशेष प्रसंग प्रमुख हैं—

(क) माखन चोरी के बाद नृत्य

गोपियाँ जब श्रीकृष्ण की माखन चोरी की शिकायत नंद बाबा और यशोदा मैया से करतीं, तब कृष्ण अपनी सरल मुस्कान से सबको मोहित कर देते। कई बार जब वे अपने सखाओं के साथ माखन चोरी करते और पकड़े जाते, तो गोपियाँ उनसे दंडस्वरूप नृत्य करवातीं।

गोपियाँ कहतीं—
“अरे नंदलाल! यदि तुमने हमारे घर से माखन चुराया है, तो तुम्हें दंड स्वरूप हमारे कहने पर नृत्य करना होगा।”

भगवान श्रीकृष्ण अपनी बालसुलभ चतुराई से मुस्कुराते और अपनी आँखें इधर-उधर घुमाकर अपने सखाओं को संकेत देते कि वे भी इसमें भाग लें। फिर कृष्ण, बलराम और उनके सखा मिलकर नृत्य करने लगते। उनके नृत्य को देखकर गोपियाँ भी आनंद विभोर हो जातीं और अपने सारे क्रोध को भूलकर ताली बजाने लगतीं।

(ख) वन में गाय चराते समय नृत्य लीला

वृंदावन की हरियाली में जब श्रीकृष्ण और उनके सखा अपनी गायों को चराने ले जाते, तब वे वहाँ तरह-तरह के खेल खेलते। कभी वे एक-दूसरे पर फूलों की वर्षा करते, तो कभी वृक्षों की शाखाओं पर झूलते। इसी बीच श्रीकृष्ण की मुरली बज उठती, जिसकी ध्वनि सुनकर सभी सखा झूम उठते और आनंद में नृत्य करने लगते।

सुभाष, श्रीदामा और माधुमंगल नृत्य में सबसे आगे होते। बलराम जी भी अपनी अद्भुत शक्ति से नृत्य करते और पूरी ग्वाल मंडली उल्लास से भर जाती। कभी-कभी वे अपनी लाठी उठाकर नृत्य करते, तो कभी एक-दूसरे के कंधों पर चढ़कर हँसी-ठिठोली करते।

(ग) जल विहार के समय नृत्य

एक दिन की बात है, जब श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ यमुना किनारे पहुँचे। वहाँ जल में कमल खिले हुए थे और पक्षियों की चहचहाहट हो रही थी। कृष्ण और उनके सखा जलक्रीड़ा करने लगे। जब वे जल से बाहर निकले, तो कृष्ण ने अपनी मुरली बजानी शुरू की।

उस मधुर संगीत को सुनकर सभी सखा नाचने लगे। वे कभी तालियाँ बजाते, कभी हाथ पकड़कर वृत्ताकार नृत्य करते। भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनके साथ अद्भुत नृत्य किया। यह दृश्य इतना मनोरम था कि देवताओं ने भी स्वर्ग से पुष्प वर्षा की।

(घ) पर्वों और उत्सवों पर नृत्य

ब्रज में अनेक पर्व मनाए जाते थे, जैसे रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, होली, गोवर्धन पूजा आदि। इन उत्सवों पर ग्वाल बाल समूह बनाकर आनंदपूर्वक नृत्य करते। श्रीकृष्ण स्वयं सबसे आगे रहकर अपने सखाओं के साथ नृत्य करते और उनकी ऊर्जा से पूरा ब्रजमंडल आनंद में डूब जाता।

3. नृत्य लीला के गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य

भगवान श्रीकृष्ण की यह नृत्य लीला केवल खेल नहीं थी, बल्कि इसमें गहरे आध्यात्मिक अर्थ छिपे थे—

(क) भक्ति का संदेश

श्रीकृष्ण की नृत्य लीला यह दर्शाती है कि जब मनुष्य प्रेम और भक्ति से पूर्ण होता है, तो वह संसार के बंधनों से मुक्त होकर आनंद में मग्न हो सकता है। उनके सखा कोई साधारण बालक नहीं थे, वे उच्च कोटि के भक्त थे, जिन्होंने कृष्ण के साथ अपनी भक्ति को व्यक्त करने के लिए नृत्य को माध्यम बनाया।

(ख) सखा भाव की प्रधानता

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सखाओं के साथ नृत्य कर यह दिखाया कि ईश्वर केवल पूजनीय ही नहीं, बल्कि मित्र भी हो सकते हैं। यह लीला सखा भाव की उच्चता को प्रकट करती है।

(ग) समर्पण और आनंद

जब कृष्ण और उनके सखा नृत्य करते थे, तो वे अपनी सारी चिंताओं को भूल जाते थे। यह संदेश है कि यदि मनुष्य अपने हृदय में पूर्ण समर्पण और प्रेम रखे, तो वह भी जीवन में आनंद और शांति प्राप्त कर सकता है।

4. नृत्य लीला का आधुनिक संदर्भ

आज भी वृंदावन और गोकुल में श्रीकृष्ण की नृत्य लीला को भक्ति रूप में प्रस्तुत किया जाता है। मथुरा-वृंदावन में नंदोत्सव, होली और अन्य उत्सवों में श्रद्धालु ग्वाल बालों की भाँति नृत्य करते हैं और भगवान की भक्ति में मग्न हो जाते हैं।

निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण की नृत्य लीला केवल एक मनोरंजक घटना नहीं थी, बल्कि यह प्रेम, भक्ति और आनंद का एक अनोखा उदाहरण थी। इस लीला में उन्होंने अपने सखाओं के साथ अद्भुत आनंद का अनुभव किया और संसार को यह सिखाया कि भक्ति का मार्ग केवल ध्यान और तपस्या तक सीमित नहीं, बल्कि उसमें प्रेम, आनंद और उल्लास का भी स्थान है।

उनकी यह लीला हमें यह भी सिखाती है कि यदि हम भगवान के प्रति निष्कपट प्रेम रखें और उन्हें अपने जीवन का मित्र बनाएँ, तो हमें भी वही दिव्य आनंद प्राप्त हो सकता है जो उनके सखा बाल्यकाल में अनुभव करते थे।

यदि आप इस विषय को और विस्तार से पढ़ना चाहते हैं, तो कृपया बताइए, मैं इसे और अधिक विस्तृत रूप से लिख सकता हूँ।

यशोदा मईया और गोकुल की गोपियों ने श्री कृष्ण के जन्म लेने पर उनका किस प्रकार सिंगार किया।

श्रीकृष्ण जन्मोत्सव और उनका दिव्य श्रृंगार

भूमिका

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म केवल यशोदा और नंद बाबा के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त गोकुल और ब्रह्मांड के लिए आनंद और उल्लास का संदेश लेकर आया। उनके जन्म की खबर सुनते ही पूरे गोकुल में खुशी की लहर दौड़ गई। गोपियाँ और ग्वाल-बाल आनंदित हो उठे। यशोदा मईया और गोपियों ने नन्हें कान्हा का बड़े प्रेम और भक्ति से श्रृंगार किया, जिससे उनका रूप और भी दिव्य प्रतीत होने लगा।

1. यशोदा मईया का वात्सल्य और कान्हा का प्रथम स्पर्श

रात्रि के अंतिम प्रहर में जब श्रीकृष्ण का जन्म हुआ, तो नंद भवन में दिव्य प्रकाश फैल गया। यशोदा मईया को जब होश आया, तो उन्होंने अपने श्यामसुंदर बालक को अपनी गोद में पाया। उनके कोमल तन को देखकर माता का हृदय वात्सल्य से भर गया। उन्होंने कृष्ण को अपनी छाती से लगाया और अपनी गोद में रखकर प्रेमपूर्वक निहारा।

गोपियों को जैसे ही खबर मिली कि यशोदा मईया के घर एक अद्भुत बालक ने जन्म लिया है, वे आनंदित होकर दौड़ती हुईं आईं। वे अपने हाथों में दूध, दही, माखन, मिठाई, हल्दी, चंदन और अन्य श्रृंगार सामग्री लेकर आईं, ताकि अपने लाडले गोपाल का सुंदर श्रृंगार कर सकें।

2. गंगाजल और पंचामृत से स्नान

नवजात श्रीकृष्ण के तन पर जन्म के समय की कुछ धूल और दिव्य कण लगे हुए थे। यशोदा मईया और गोपियों ने मिलकर उनका पवित्र जल से स्नान कराया।

गंगाजल और यमुना जल: गोपियाँ स्वर्ण कलशों में गंगाजल और यमुना जल लेकर आईं और उससे बालकृष्ण का अभिषेक किया।

पंचामृत स्नान: दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से पंचामृत तैयार किया गया और उससे श्रीकृष्ण का स्नान कराया गया।

गुलाब और केवड़ा जल: स्नान के बाद सुगंधित गुलाब और केवड़ा जल से कान्हा को स्नान कराया गया, जिससे उनका शरीर सुगंधित हो उठा।

गोपियाँ मंत्रोच्चार और मंगलगीत गाती रहीं। वे हर्षित होकर भगवान के इस दिव्य रूप का अवलोकन कर रही थीं।

3. उबटन और चंदन का लेप

स्नान के बाद श्रीकृष्ण के तन को और अधिक सुंदर बनाने के लिए उबटन और चंदन का लेप किया गया।

हल्दी और चंदन: गोपियों ने हल्दी, चंदन और केसर को दूध में मिलाकर एक विशेष उबटन तैयार किया।

केसर का लेप: श्रीकृष्ण के कोमल अंगों पर केसर और चंदन का लेप किया गया, जिससे उनका तन सुवर्ण के समान दमक उठा।

सुगंधित तेल: उनके बालों और शरीर पर विशेष सुगंधित तेल लगाया गया, जिससे उनका तन कोमल और सुगंधमय हो गया।

गोपियाँ यह कार्य बड़े प्रेम और भक्ति भाव से कर रही थीं। वे बार-बार कान्हा की चंचल आँखों और उनकी मधुर मुस्कान को निहार रही थीं।

4. दिव्य वस्त्र और रत्नजड़ित आभूषण

अब श्रीकृष्ण को सुंदर वस्त्र पहनाने की बारी आई।

पीतांबर वस्त्र: गोपियों ने भगवान को पीतांबर (पीले रंग के वस्त्र) पहनाए, जो उनके श्याम रंग के तन पर अत्यंत मनोहारी लग रहे थे।

रेशमी उपवस्त्र: उनके शरीर को ढकने के लिए हल्के रेशमी वस्त्र लपेटे गए, जो अत्यंत कोमल और सुगंधित थे।

रत्नजड़ित कंठहार: श्रीकृष्ण के गले में सोने और मोतियों का हार पहनाया गया, जो उनकी दिव्यता को और बढ़ा रहा था।

कानों में कुण्डल: कानों में झुमके डाले गए, जो उनकी चंचलता के साथ झूलते हुए अद्भुत छटा बिखेर रहे थे।

हाथों में कंगन और बाजूबंद: उनके नन्हे-नन्हे हाथों में स्वर्ण और रत्नों से जड़े कंगन और बाजूबंद पहनाए गए।

कमरबंद: उनकी कमर में एक सुंदर स्वर्ण कमरबंद पहनाया गया, जो उनकी चाल में और अधिक शोभा जोड़ रहा था।

पैरों में नूपुर: उनके नन्हे चरणों में चाँदी के पायजेब और घुँघरू बाँधे गए, जिनकी झंकार पूरे नंदगांव में गूँज उठी।

5. मुकुट और मोरपंख का अलंकरण

अब बारी आई मुकुट और मोरपंख धारण कराने की।

मोरपंख मुकुट: गोपियों ने श्रीकृष्ण के सिर पर एक सुंदर मुकुट रखा, जिसमें चमकीले मोरपंख सजे हुए थे। यह मुकुट उनके बालस्वरूप को दिव्यता प्रदान कर रहा था।

तुलसी माला: श्रीकृष्ण के गले में विशेष तुलसी की माला पहनाई गई, जिससे उनकी शोभा और अधिक बढ़ गई।

6. गोपियों का आनंद उत्सव और नृत्य

जब श्रीकृष्ण का श्रृंगार पूर्ण हुआ, तब गोपियाँ खुशी से झूम उठीं। वे मंगल गीत गाने लगीं—

“नंद घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की!”

गोपियाँ ढोलक, मृदंग, मंजीरा और करताल बजाने लगीं।

कुछ गोपियाँ आनंद से झूमने लगीं और कुछ कृष्ण को देख-देखकर प्रेममग्न हो गईं।

चारों ओर बधाइयाँ गूँज उठीं।

7. नंद बाबा का दान और उत्सव का समापन

नंद बाबा ने पुत्र जन्म की खुशी में अपार दान दिया। उन्होंने ब्राह्मणों को स्वर्ण, गौ, अन्न और वस्त्र प्रदान किए। पूरे नंदगांव में दूध-दही की नदियाँ बहा दी गईं।

गोकुलवासियों ने अपने घरों को दीपों से सजाया।

घर-घर में माखन-मिश्री बाँटी गई।

संपूर्ण गोकुल में आनंद और उल्लास का वातावरण छा गया।

निष्कर्ष

श्रीकृष्ण के जन्म का यह उत्सव केवल एक पर्व नहीं था, बल्कि यह भक्ति, प्रेम और आनंद का महासागर था। यशोदा मईया और गोपियों ने श्रीकृष्ण के श्रृंगार को केवल एक साधारण प्रक्रिया के रूप में नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुष्ठान के रूप में संपन्न किया। यह श्रृंगार उनके प्रति अनन्य प्रेम, वात्सल्य और भक्ति का प्रतीक था।

श्रीकृष्ण के इस दिव्य श्रृंगार का वर्णन जितना किया जाए, उतना कम है, क्योंकि उनका रूप स्वयं ब्रह्मांड की शोभा को पार कर जाता है।

भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन लीला क्यो की थी? श्री कृष्ण भगवान का गोवर्धन लीला करने का क्या कारण था।

भगवान श्रीकृष्ण की गोवर्धन लीला: एक दिव्य गाथा

भगवान श्रीकृष्ण की गोवर्धन लीला भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह केवल एक पौराणिक कथा नहीं है, बल्कि इसमें गहरे आध्यात्मिक, नैतिक और पर्यावरणीय संदेश छिपे हुए हैं। इस लीला के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने न केवल इन्द्रदेव के अहंकार को नष्ट किया, बल्कि भक्तों को यह शिक्षा भी दी कि सच्ची भक्ति प्रेम और सेवा में निहित होती है, न कि किसी देवता की महिमा के अंधे अनुसरण में।

यह कथा श्रीमद्भागवत महापुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण और अन्य ग्रंथों में विस्तार से वर्णित है। गोवर्धन लीला के दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर ब्रजवासियों को इन्द्रदेव के प्रकोप से बचाया और यह संदेश दिया कि परमात्मा ही अपने भक्तों के सच्चे रक्षक होते हैं।

इस विस्तृत लेख में हम निम्नलिखित बिंदुओं पर गहराई से चर्चा करेंगे:

1. गोवर्धन लीला की पृष्ठभूमि

2. भगवान श्रीकृष्ण का उद्देश्य

3. इन्द्रयज्ञ का निषेध और गोवर्धन पूजा

4. इन्द्र का क्रोध और प्रलयंकारी वर्षा

5. भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाना

6. इन्द्र का अहंकार नष्ट होना

7. गोवर्धन लीला का आध्यात्मिक संदेश

8. गोवर्धन लीला का आधुनिक संदर्भ और प्रासंगिकता

9. निष्कर्ष

1. गोवर्धन लीला की पृष्ठभूमि

ब्रजभूमि अपने प्राकृतिक सौंदर्य, हरियाली और गौ-पालन के लिए प्रसिद्ध थी। वहाँ के लोग कृषि और पशुपालन पर निर्भर थे। प्रत्येक वर्ष ब्रजवासी इन्द्रदेव की पूजा करते थे, ताकि उन्हें पर्याप्त वर्षा प्राप्त हो और उनकी कृषि तथा गौ-धन सुरक्षित रहे।

भगवान श्रीकृष्ण, जो नंद बाबा के घर जन्मे थे, अपने बाल्यकाल में ग्वालों और ग्वाल-बालाओं के साथ खेलते-कूदते ब्रजभूमि में विचरण करते थे। उन्होंने देखा कि ब्रजवासी अत्यधिक भयभीत होकर इन्द्र की पूजा कर रहे हैं, मानो यदि वे ऐसा न करें तो इन्द्र उन्हें दंडित कर देंगे।

भगवान श्रीकृष्ण को यह अहसास हुआ कि इन्द्रदेव का यह सम्मान ब्रजवासियों की श्रद्धा से अधिक उनके भय पर आधारित है। अतः उन्होंने न केवल इन्द्रयज्ञ को रोकने का निर्णय लिया, बल्कि ब्रजवासियों को यह सिखाने का भी प्रयास किया कि उन्हें अपनी श्रद्धा और भक्ति को सही दिशा में केंद्रित करना चाहिए।

2. भगवान श्रीकृष्ण का उद्देश्य

भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन लीला करने के पीछे कई महत्वपूर्ण उद्देश्य रखे:

1. इन्द्र के अहंकार को नष्ट करना
इन्द्र स्वयं को स्वर्ग का राजा मानते थे और उन्हें अपनी शक्ति और महत्व का अत्यधिक अभिमान था। वे सोचते थे कि संपूर्ण पृथ्वी और उसके निवासी उनके अधीन हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने उनके इस अहंकार को चूर-चूर करने के लिए यह लीला रची।

2. भक्तों की रक्षा
ब्रजवासी सच्चे हृदय से भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे। भगवान ने अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए गोवर्धन पर्वत उठाया, जिससे यह सिद्ध हुआ कि ईश्वर अपने भक्तों को कभी भी कष्ट में नहीं छोड़ते।

3. प्राकृतिक संतुलन का संदेश
भगवान श्रीकृष्ण ने यह संदेश दिया कि वर्षा किसी एक देवता की कृपा पर निर्भर नहीं होती, बल्कि प्रकृति के अपने नियम होते हैं। हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए।

4. गौ-सेवा और पर्यावरण संरक्षण का महत्व
गोवर्धन पर्वत की पूजा करके श्रीकृष्ण ने यह सिखाया कि हमें प्रकृति, गौमाता और पर्यावरण का सम्मान करना चाहिए।

3. इन्द्रयज्ञ का निषेध और गोवर्धन पूजा

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पिता नंद बाबा से पूछा कि वे इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं। जब नंद बाबा ने उत्तर दिया कि इन्द्र वर्षा करते हैं और हमारी गौ-धन तथा कृषि की रक्षा होती है, तो श्रीकृष्ण ने तर्क दिया:

वर्षा का कारण इन्द्र नहीं, बल्कि प्राकृतिक नियम हैं।

गोवर्धन पर्वत हमें हरी-भरी चरागाहें देता है, जहाँ हमारी गायें चरती हैं।

हमारी असली पूजा गौमाता, गोवर्धन पर्वत और प्रकृति की होनी चाहिए।

नंद बाबा और अन्य ग्वालों ने श्रीकृष्ण की बात मानकर इन्द्रयज्ञ को रोक दिया और गोवर्धन पर्वत की पूजा की।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य रूप में प्रकट होकर गोवर्धन पर्वत के रूप में भक्तों का अन्न-भोग स्वीकार किया। यह देखकर ब्रजवासी अति प्रसन्न हुए।

4. इन्द्र का क्रोध और प्रलयंकारी वर्षा

जब इन्द्रदेव को पता चला कि ब्रजवासियों ने उनकी पूजा छोड़ दी है और एक पर्वत की पूजा कर रहे हैं, तो उनका अहंकार आहत हुआ। उन्होंने ब्रजभूमि पर प्रलयंकारी वर्षा करने का आदेश दिया।

घनघोर बारिश और आँधी-तूफान से ब्रज में हाहाकार मच गया।

चारों ओर जलभराव होने लगा, जिससे गौमाता और अन्य जीव संकट में आ गए।

भयभीत ब्रजवासी श्रीकृष्ण की शरण में पहुँचे।

5. भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाना

भगवान श्रीकृष्ण ने भक्तों की रक्षा के लिए अपनी छोटी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया और सभी को उसके नीचे शरण लेने को कहा।

सात दिनों तक श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को धारण किया।

ब्रजवासी पर्वत के नीचे सुरक्षित रहे, जबकि बाहर मूसलधार वर्षा होती रही।

भगवान ने बिना थके यह कार्य किया, जिससे इन्द्र को अहसास हुआ कि यह कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं विष्णु हैं।

6. इन्द्र का अहंकार नष्ट होना

सात दिनों बाद इन्द्र ने अपनी हार स्वीकार की और वर्षा रोक दी। वे श्रीकृष्ण के पास गए और क्षमा मांगी।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा:
“अहंकार व्यक्ति के विनाश का कारण बनता है। सच्ची भक्ति बिना अहंकार के होनी चाहिए।”

इन्द्र ने भगवान को “गोविंद” की उपाधि दी, जिसका अर्थ है “गौओं के रक्षक”।

7. गोवर्धन लीला का आध्यात्मिक संदेश

1. अहंकार का नाश – अहंकार का अंत अनिवार्य है।

2. प्रकृति का सम्मान – हमें प्रकृति के नियमों का पालन करना चाहिए।

3. सच्ची भक्ति – भक्ति प्रेम और सेवा में होती है।

4. भगवान भक्तों के रक्षक हैं – जब भी भक्त संकट में होते हैं, भगवान उनकी रक्षा अवश्य करते हैं।

8. निष्कर्ष

गोवर्धन लीला केवल एक पौराणिक कथा नहीं, बल्कि गहरा आध्यात्मिक संदेश देती है। यह भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं में से एक है, जो भक्तों को प्रेम, भक्ति, अहंकार-त्याग, प्रकृति-संरक्षण और गौ-रक्षा का महत्वपूर्ण संदेश देती है।

भगवान श्रीकृष्ण की यह लीला आज भी श्रद्धालुओं के लिए प्रेरणादायक है और प्रत्येक वर्ष गोवर्धन पूजा के रूप में इसे धूमधाम से मनाया जाता है।