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वेद शास्त्रों में गीता-भागवत में तीन तरह के मार्ग बताये गए हैं परमेश्वर तक पहुंचने के लिए। पहला है ज्ञान मार्ग, दूसरा है ध्यान मार्ग, तीसरा है भक्ति मार्ग। एक मार्ग कर्म मार्ग भी बताया गया है किन्तु कर्म मार्ग की परमेश्वर तक पहुंच नही है, कर्म मार्ग से केवल स्वर्ग-ब्रह्मलोक इत्यादि प्राप्त हो सकते हैं भगवान का धाम नहीं भगवान का स्वरूप नहीं। भगवान गीता में कहते हैं "हे अर्जुन, पाताल से लेकर ब्रह्मलोक तक किसी भी लोक की प्राप्ति हो जाये जन्म मरण का चक्कर नहीं मिटता“। कर्म मार्ग भगवान की प्राप्ति में सक्षम नहीं है। वेदों में, उपनिषदों में, वेदांत में, गीता में, भागवत में सब में ...
ही तीन मार्गो की प्रशंसा है, ज्ञान मार्ग अर्थात ब्रह्म ज्ञान का मार्ग, ध्यान मार्ग जिसको योग मार्ग भी कह सकते हैं और भक्ति मार्ग। जो ज्ञान मार्ग का अध्ययन करता है जब वो परमेश्वर को जानना चाहता है पाना चाहता है, तो वो केवल परमेश्वर के ब्रह्म स्वरूप तक ही पहुंच पाता है । ब्रह्म की अनुभूति परमेश्वर की आंशिक अनुभूति है अर्थात पूर्ण अनुभूति नहीं है। ज्ञान मार्गी ने निराकार ब्रह्म तक ही पहुंच बनाई है। ज्ञानमार्गी भी अध्यात्म का पथिक है जिनका निष्कर्ष है कि भगवान का कोई रूप नहीं, आकार नहीं, भगवान की कोई सचिदानंद देह नहीं, भगवान निर्गुण है, निराकार है, ज्योति है, अखंड है, अलख है, निरंजन है । ज्ञानमार्गी साकार को भी मानते है उसके ज्ञान के अनुसार वो निर्गुण निराकार ही अपनी माया के द्वारा देह धारण करता है, अवतार लेता है, साकार बन कर आता है । उनके अनुसार निराकार ब्रह्म ही सभी देवी देवताओं और भगवान के रूप में धरती पर अवतार लेते है अर्थात उनके अनुसार जिसकी मर्ज़ी उपासना करलो लक्ष्य तो एक ही प्राप्त होगा । किंतु भगवत गीता इसका खंडन करती है । भगवत गीता में भगवान ने स्पष्ट किया है “ जो देवी देवताओं की पूजा करते हैं वो देवलोक में जाते हैं, जो पितरों को पूजते हैं वो पितृलोक को जाते हैं, जो भूतों को पूजते हैं वो भूत बनते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वो मेरे लोक में आकर वो जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।” जो देवलोक में, पितृलोक में, भूतलोक में जाते हैं उनकी मुक्ति नही होती । अगर सब की पूजा भगवान की पूजा है तो फिर भगवान ने सबकी पूजा के फल अलग अलग क्यों बताये हैं ? भगवत गीता, श्रीमद्भागवत, वेद पुराण कोई भी इस विचारधारा से सहमत नहीं है । यहां तक तो सहमत है कि निराकार स्वरूप है लेकिन इस बात से सहमत नहीं कि निराकार साकार बन सकता है। यजुर्वेद कहता है- हे प्रभु मैं आपके रूप का दर्शन करना चाहता हूँ लेकिन आपका मुखमंडल तो निराकार ज्योति से ढका हुआ है इस निराकार ज्योति को हटाकर मुझे अपने साकार रूप के दर्शन दो। “निराकार के क्षेत्र को पार करके ही साकार का क्षेत्र प्रारम्भ होता है।
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