एक दिन राजा परीक्षित वन में आखेट के लिए जाते हैं जहाँ अचानक उनका सामना कली पुरूष (कलयुग) से होता है, जो राजा परीक्षित को कलयुग के गुण बताकर उनसे अपने रहने के लिए स्थान मांगता है। राजा परीक्षित ने उसे पांच स्थान में ही रहने की इजाजत दे दी। जहाँ शराब का सेवन हो, जहां जुआ खेला जाता हो, परस्त्री/परपुरुष गमन , क्लेश-लड़ाई झगड़ा तथा अवैध रूप से अर्जित धन । इतनी इजाजत मिलते ही कलयुग, राजा परीक्षित के मुकुट पर विराजित हो जाता है। क्योंकि राजा परीक्षित उस समय जरासंध का मुकुट धारण किये हुए थे । जब भीम ने जरासंध का वध किया तो नियमानुसार उसका मुकुट उसके पुत्र को मिलना चहिये था परंतु भीम द्वारा मुकुट उसके पुत्र को न देकर अपने राजकोष में रखा जो अवैध धन हुआ । राजा परीक्षित उस समय वही मुकूट धारण किये हुए थे जिस कारण कलयुग, राजा परीक्षित के मुकुट पर बैठ गया। उसके बाद राजा परीक्षित शिकार की तलाश में वन में आगे बढ़े। प्यास से व्याकुल राजा को एक कुटिया दिखाई दी। राजा ने वहां पहुंच कर देखा कि वहां शमीक ऋषि ध्यान में लीन होकर बैठा है राजा ने उस ऋषि से पानी मांगा तो ऋषि ने कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि ऋषि ध्यानस्थ थे। राजा ने कलयुग से दुष्प्रेरित होकर इसको अपना अपमान समझा व आश्रम के समीप एक मरा हुआ सर्प पड़ा था जो राजा ने शमीक ऋषि के गले मे डाल दिया। आश्रम के पास खेल रहे बालको ने शमीक ऋषि के किशोर पुत्र श्रृंगी को जाकर सूचित किया । श्रृंगी को जब ज्ञात हुआ कि राजा परीक्षित ने उसके पिता का अपमान किया है तो उसने राजा को श्राप दिया कि जिसने मेरे पिता का अपमान किया है आज से सातवें दिन उसकी तक्षक सर्प के डसने से मृत्यु हो जाएगी। बाद में शमीक ऋषि को ज्ञात हुआ कि उसके पुत्र ने राजा को श्राप दिया तो उसे बहुत बुरा लगा कि राजा परीक्षित तो धर्मात्मा राजा है ये सब तो उसने कलयुग के दुष्प्रभाव में किया , राजा परीक्षित को सूचित करना चाहिए जब राजा हस्तिनापुर अपने महल में आकर जैसे ही मुकुट उतारा, कलयुग का दुष्प्रभाव दूर हुआ तब उनको आत्म गिलानी हुई कि मैंने ये क्या कर दिया जिन महात्मन के गले मे माला डाल कर सम्मान करना चाहिए था उनके गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया, धिक्कार है मुझे, मैने तो अपने पूर्वजों की कीर्ति को कलंकित कर दिया है, मैं यह कलंकित जीवन धारण नहीं कर सकता , मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं आज से अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगा। आमरण अनशन व्रत स्वीकार करता हूं। परीक्षित ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी राजा घोषित कर दिया किन्तु अभी राजमहल में ही थे। द्वारपाल ने आकर सूचित किया कि एक ऋषि आपसे भेंट करना चाहते हैं द्वारपालों की सूचना पर राजा परीक्षित ने आकर देखा ये तो शमिक ऋषि है, परीक्षित ने ऋषि की चरण वन्दना की, उनके चरण पखारे, स्वागत किया, सत्कार किया किन्तु न तो क्षमा याचना करी और न ही इस बात के लिए प्रार्थना की कि आप मुझे कोई दण्ड मत देना अपितु बोले हे ऋषि मैं आपका अपराधी हुँ आप मुझे कठोर से कठोर दण्ड दीजिये ताकि मेरे इस पाप का निराकरण हो सके । ऋषि शमिक ने कहा राजन मैं आपको क्या कठोर दण्ड दूंगा आपके भाग्य ने आपको कठोर दण्ड दे दिया है मेरे पुत्र ने अज्ञानतावश क्रुद्ध होकर के आपको श्राप दिया है । आप सातवें दिन तक्षक नाग द्वारा डसे जाएंगे और आपका देहान्त हो जायेगा तब परीक्षीत ने चैन की साँस ली, हे कृष्ण आपकी बड़ी अहेतुकी कृपा है जो मुझे मेरे किये का दण्ड तत्काल ही दे दिया अब मैं इस राजपाट इस गृहस्थ आश्रम से मुक्त होकर के एकमात्र आपकी भक्ति करूँगा और संसार छोड़ने से पहले जैसा कि श्री उधव जी ने कहा था, श्री शुकदेव जी के मुखारविंद से श्रीमद्भागवत कथा सुनुगा। ये कहकर के चक्करवर्ती सम्राट परीक्षीत ने अपना राजसी वेश त्याग दिया और वानप्रस्थी वेश स्वीकार कर लिया, राजा से राजऋषि बन गये । सभी रिस्तेदारों व प्रजा जनो को अपने पीछे आने से मना किया, उन्हें रोक दिया और स्वयम् गंगा के किनारे-किनारे चल पड़े