गोवर्धन पर्वत का उल्लेख श्रीकृष्ण की लीलाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह पर्वत ब्रजभूमि में स्थित है और श्रीकृष्ण द्वारा इंद्र के घमंड को चूर करने के लिए उठाया गया था। गोवर्धन का मूल स्वरूप, उनकी बृज में उपस्थिति, और उनसे जुड़ी कथाएँ अत्यंत रोचक और भक्तिपूर्ण हैं।

गोवर्धन पर्वत का दिव्य स्वरूप

गोवर्धन पर्वत को भगवान का स्वरूप माना जाता है। शास्त्रों में इसे “हरिद्रानाथ” और “गिरिराज” भी कहा गया है। यह पर्वत समस्त जीवों का पालन करता है, जल, वनस्पति और गोचर भूमि प्रदान करता है। इसी कारण इसे “अन्नकूट पर्वत” भी कहा जाता है।

गोवर्धन की उत्पत्ति

गोवर्धन पर्वत की उत्पत्ति से संबंधित कथा विष्णु धर्मोत्तर पुराण, गर्ग संहिता, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में वर्णित है। इसके अनुसार—

त्रेतायुग में पुलस्त्य ऋषि, जो ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे, वे हिमालय गए और वहाँ से एक अत्यंत सुंदर पर्वत देखा। यह पर्वत समुद्र मंथन से निकला था और भगवान विष्णु के चरणों की रज से पवित्र हो चुका था। इस पर्वत का नाम गोवर्धन था। पुलस्त्य ऋषि को यह पर्वत अत्यंत प्रिय लगा और वे इसे काशी ले जाना चाहते थे। उन्होंने इस पर्वत से प्रार्थना की और उसके राजा से विनती की।

गोवर्धन को काशी ले जाने के लिए पुलस्त्य ऋषि ने अपनी तपस्या के बल पर अनुमति प्राप्त की, लेकिन एक शर्त रखी गई कि यदि रास्ते में कहीं भी उन्होंने इसे नीचे रखा, तो यह वहीं स्थायी रूप से स्थित हो जाएगा।

बृज में गोवर्धन का आगमन

जब पुलस्त्य ऋषि गोवर्धन को लेकर बृजधाम पहुँचे, तो उन्हें लघुशंका की इच्छा हुई। वे पर्वत को वहीं रखकर निवृत्त होने चले गए। भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से गोवर्धन पर्वत वहीं स्थिर हो गया और जब पुलस्त्य ऋषि वापस लौटे, तो वे इसे हिला न सके। वे क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि यह पर्वत प्रतिदिन एक तिल मात्र घटता जाएगा।

इसी कारण, यह माना जाता है कि गोवर्धन पर्वत का वास्तविक आकार पहले बहुत विशाल था, लेकिन अब यह छोटा होता जा रहा है।

श्रीकृष्ण और गोवर्धन लीला

जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि बृजवासी प्रति वर्ष इंद्रदेव की पूजा कर रहे हैं, तो उन्होंने इस पर विचार किया। श्रीकृष्ण ने यशोदा मैया और नंद बाबा से पूछा कि वे यह यज्ञ क्यों कर रहे हैं। नंद बाबा ने बताया कि इंद्रदेव वर्षा करते हैं, जिससे हमारी गौएँ और खेती फलती-फूलती हैं।

भगवान कृष्ण ने समझाया कि गोवर्धन पर्वत ही असली पालक है। यह नदियाँ, पेड़-पौधे और भोजन प्रदान करता है। अतः इसकी पूजा करनी चाहिए। सभी बृजवासियों ने श्रीकृष्ण के आदेशानुसार गोवर्धन की पूजा की और अन्नकूट महोत्सव मनाया।

इंद्र को यह अपमानजनक लगा और उन्होंने बृजभूमि पर प्रचंड वर्षा भेज दी। चारों ओर जल ही जल भर गया, लोग भयभीत हो गए। तब श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया और सात दिनों तक इसे छत्र के समान थामे रखा। सभी बृजवासी और गौमाता इसके नीचे सुरक्षित रहे। अंततः इंद्रदेव ने अपनी भूल स्वीकार की और भगवान कृष्ण के चरणों में क्षमा मांगी।

गोवर्धन पूजा और गिरिराज महाराज की महिमा

आज भी गोवर्धन पूजा बड़े धूमधाम से की जाती है। भक्तजन गोवर्धन परिक्रमा करते हैं और गिरिराज महाराज की शरण में आते हैं। गोवर्धन श्रीकृष्ण के विशेष प्रिय हैं और वे स्वयं कहते हैं:

“गिरिराज मेरी आत्मा हैं। जो इनकी शरण में आता है, वह मेरे हृदय में स्थान पाता है।”

गोवर्धन की कथा हमें सिखाती है कि अहंकार का अंत निश्चित है और सच्ची भक्ति से भगवान की कृपा प्राप्त होती है।