कुबेर पुत्रों का उद्धार
भूमिका
श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कंध में वर्णित श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में एक अत्यंत मार्मिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से गहन कथा है — नलकूबर और मणिग्रीव के उद्धार की लीला। यह कथा केवल दैविक कृपा की अभिव्यक्ति नहीं है, अपितु यह यह भी दर्शाती है कि अहंकार, विषयासक्ति, तथा अधर्म पर अंततः भगवान की करुणा कैसे विजय प्राप्त करती है। इस कथा का संदर्भ ‘दामोदर लीला’ से भी संबद्ध है और इसे भगवान श्रीकृष्ण की मुक्तिदाता सत्ता का एक प्रमुख प्रमाण माना जाता है।
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कथा का प्रारंभ: बालकृष्ण और यशोदा का दैनिक जीवन
गोकुलधाम में जब भगवान श्रीकृष्ण बाल रूप में लीला कर रहे थे, तब उनके भोले, चपल, एवं नटखट व्यवहार से समस्त ब्रजवासियों के हृदय प्रफुल्लित रहते थे। यशोदा माता के लिए वे प्रिय पुत्र थे, किंतु उनका स्वभाव ऐसा था कि वे हर समय किसी न किसी चेष्टा में लगे रहते। मक्खन चोरी करना, गोपियों को तंग करना, गायों के साथ खेलना, बालसखाओं के संग लीलाओं में रत रहना — यह सब उनकी दिनचर्या का अंग था।
एक दिन की बात है जब यशोदा माता ने देखा कि श्रीकृष्ण बार-बार माखन चुराकर गोपियों के घरों में उपद्रव कर रहे हैं। उन्हें रोकने के लिए माता ने उन्हें रस्सी से बाँधने का निर्णय लिया। परंतु आश्चर्य की बात यह थी कि जितनी भी रस्सी लाई जाती, उतनी छोटी पड़ जाती। अंततः भगवान ने अपनी करुणा से माता की प्रेमपूर्ण सेवा को स्वीकार किया और स्वयं को बंधन में आने दिया। यही वह दामोदर लीला थी — “दम” अर्थात् रस्सी, और “उदर” अर्थात् पेट।
रस्सी से बाँधे हुए बालकृष्ण, ऊखल से बंधे हुए, आँगन में धीरे-धीरे रेंगते हुए एक विशेष स्थान पर पहुँचे जहाँ दो विशाल यमलार्जुन वृक्ष खड़े थे।
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यमलार्जुन वृक्षों की उत्पत्ति: नलकूबर और मणिग्रीव की कथा
इन दोनों वृक्षों के संबंध में एक अत्यंत प्राचीन और शिक्षाप्रद कथा है, जो त्रिलोकी के धनाध्यक्ष कुबेर से संबंधित है। कुबेर के दो पुत्र थे — नलकूबर और मणिग्रीव। दोनों अपार ऐश्वर्य, सौंदर्य और स्वर्गिक सुख-संपदा से युक्त थे। देवताओं में श्रेष्ठ, ये दोनों विद्याधरों के समान सौंदर्यशाली थे और ऐश्वर्य के मद में चूर रहते थे।
एक बार की बात है, ये दोनों पुत्र पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए मंदाकिनी नदी के तट पर अप्सराओं के संग जलक्रीड़ा कर रहे थे। मदिरा के प्रभाव और स्त्रीसंग के मोह में उन्होंने वस्त्र त्याग दिए थे और पूरी तरह नग्न होकर जल में क्रीड़ा कर रहे थे।
उसी समय ब्रह्मर्षि नारद का उस मार्ग से आगमन हुआ। वे तपस्वी, संयमी तथा योगबल से संपन्न थे। उनकी दृष्टि जैसे ही उन कुमारों पर पड़ी, उन्होंने देखा कि ये दोनों देवपुत्र न तो अपनी मर्यादा में हैं, न ही संयम में। अप्सराएं तुरंत लज्जा से वस्त्र धारण कर चली गईं, किंतु नलकूबर और मणिग्रीव मदांध होकर वहीं खड़े रहे।
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नारद मुनि का शाप – रूप में वरदान
नारद मुनि ने जब यह देखा कि ये दोनों अहंकारवश धर्माचरण का अपमान कर रहे हैं, तो उन्होंने उन्हें शाप दे दिया:
> “तुम दोनों देवकुमार मदांध होकर अपनी मर्यादा भूल गए हो। तुम्हें अपने व्यवहार पर लज्जा नहीं आई। अतः तुम दोनों वृक्ष रूप में जन्म लोगे और अत्यंत दीर्घकाल तक स्थिर रहोगे, जिससे तुम्हारे अहंकार का शमन हो।”
किंतु नारद मुनि की करुणा और दूरदृष्टि केवल शाप देने तक सीमित नहीं थी। वे एक सच्चे संत थे, जिन्होंने शाप के साथ-साथ उद्धार का मार्ग भी सुनिश्चित किया:
> “जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं व्रजभूमि में अवतरित होंगे, तब वे ही तुम्हारा उद्धार करेंगे। तुम्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त होगा और भगवान के चरणों में स्थायी भक्ति उत्पन्न होगी।”
इस प्रकार नारद मुनि के वचनों के अनुसार वे दोनों कुमार यमलार्जुन वृक्ष के रूप में नंदबाबा के आँगन में प्रकट हुए, जहाँ बालकृष्ण की दिव्य लीलाएं चल रही थीं।
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दामोदर लीला से यमलार्जुन उद्धार की ओर
जब श्रीकृष्ण ऊखल से बंधे हुए रेंगते-रेंगते वृक्षों के समीप पहुँचे, तो उन्होंने दो वृक्षों के मध्य से ऊखल को खींचने का प्रयास किया। उस बालरूप में भी उनकी शक्ति अपार थी। उन्होंने ऊखल सहित दोनों वृक्षों को बीच से खींच लिया और वहीँ एक जबरदस्त ध्वनि हुई — दोनों वृक्ष जड़ से उखड़कर भूमि पर गिर पड़े।
वृक्ष गिरते ही एक दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ। उन वृक्षों से दो तेजस्वी पुरुष प्रकट हुए, जिनके शरीर आभा से देदीप्यमान थे। वे folded hands से श्रीकृष्ण के सामने नतमस्तक हो गए। यह वही नलकूबर और मणिग्रीव थे, जो शापमुक्त होकर दिव्य रूप में प्रकट हुए थे।
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नलकूबर और मणिग्रीव की स्तुति
उद्धार के पश्चात उन दोनों कुमारों ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में दंडवत प्रणाम किया और भावविभोर होकर स्तुति करने लगे:
> “हे भगवान! आप समस्त प्राणियों के अंतर्यामी हैं। आपने हमारे जीवन को दिशा दी, हमारा अभिमान चूर्ण किया और हमें पुनः दिव्यता प्रदान की। हम मूर्ख थे, ऐश्वर्य के मद में चूर थे। परंतु आपकी करुणा से आज हमारा उद्धार हुआ।”
> “हे श्रीकृष्ण! हम यह प्रार्थना करते हैं कि हमें आपकी भक्ति में स्थायी स्थान प्राप्त हो। हम अब किसी भी सांसारिक सुख की अभिलाषा नहीं करते। केवल यह चाहते हैं कि हमारे हृदय में आपकी सेवा का भाव कभी क्षीण न हो।”
श्रीकृष्ण मुस्कराए। उनका बालरूप किंतु ईश्वरस्वरूप व्यक्तित्व उन दोनों को अंतःकरण से परिवर्तित कर चुका था। उन्होंने दोनों को मुक्ति प्रदान की और ब्रह्मलोक को लौट जाने की आज्ञा दी।
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कथा की अंतर्वस्तु और दार्शनिक विश्लेषण
यह कथा केवल एक रोचक बाललीला नहीं है, अपितु यह अत्यंत सूक्ष्म दार्शनिक संकेत भी देती है:
1. अहंकार का पतन: नलकूबर और मणिग्रीव अत्यंत योग्य होते हुए भी विषयासक्ति और मद में अपना विवेक खो बैठे। यही दर्शाता है कि जब तक विनय और संयम नहीं है, तब तक ऐश्वर्य भी विनाशकारी बन सकता है।
2. संत की कृपा और दृष्टि: नारद मुनि का शाप वास्तव में कृपा का ही एक रूप था। संत सदा जीव के कल्याण के लिए कार्य करते हैं, चाहे वह बाह्य रूप में कठोर प्रतीत हो।
3. भगवान की बाल-लीला में परिपूर्ण सत्ता: श्रीकृष्ण का यह रूप भले ही बालरूप हो, परंतु वह विश्वप्रभु की करुणा से परिपूर्ण था। उन्होंने दैवी शक्ति से उद्धार किया, जिससे यह प्रमाणित होता है कि उनका प्रत्येक कार्य दिव्य योजना का हिस्सा होता है।
4. भक्ति की उत्पत्ति: उद्धार के पश्चात दोनों कुमारों ने सांसारिक सुखों से विरक्त होकर केवल भगवान की भक्ति का वरण किया। यही आत्मोद्धार की चरम अवस्था मानी जाती है।
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समापन और संदेश
कुबेर के पुत्रों की यह कथा आज के युग में भी अत्यंत प्रासंगिक है। आधुनिक जीवन में जब मनुष्य भौतिक ऐश्वर्य, सत्ता और सुखों के पीछे भागता है, तब यह कथा उसे स्मरण कराती है कि यह सब क्षणभंगुर है। अहंकार और विषयासक्ति अंततः पतन की ओर ही ले जाते हैं।
यदि किसी को उद्धार प्राप्त करना है, तो उसे ईश्वर की शरण में जाना होगा। जैसे नारद मुनि जैसे संतों की दृष्टि से आत्मसाक्षात्कार की ओर मार्ग प्रशस्त होता है, वैसे ही श्रीकृष्ण जैसे सद्गुरु या ईश्वर की करुणा से जीवन में आध्यात्मिक मोक्ष संभव होता है।
नलकूबर और मणिग्रीव का वृक्ष रूप में जन्म लेना, दामोदर लीला के माध्यम से उद्धार प्राप्त करना, और अंत में दिव्य भक्ति की प्राप्ति — यह सब संकेत करता है कि भगवान किसी भी रूप में हों, उनका लक्ष्य केवल जीवों का कल्याण होता है।
