वामन अवतार की कथा बहुत ही गूढ़, पौराणिक और भक्तिपूर्ण है। इसमें न केवल भगवान वामनदेव का प्राकट्य और उनकी बाल लीलाएँ आती हैं, बल्कि बलि महाराज की महानता, इन्द्र का भय, गुरु शुक्राचार्य का वचन, और भगवान की दिव्य करुणा भी समाहित है।
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वामनावतार महाकथा
प्रस्तावना
भगवान विष्णु जब-जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ता है और धर्म संकट में पड़ता है, तब-तब वे अवतार धारण करते हैं। सतयुग से कलियुग तक उनकी अनेक लीलाएँ वेद-पुराणों में वर्णित हैं। त्रेता युग में भगवान ने एक अनोखा स्वरूप धारण किया—वामन, अर्थात् एक बौने ब्राह्मण कुमार का रूप। इस अवतार में भगवान ने असुरराज बलि को पराजित नहीं किया, अपितु उसे धर्म का वास्तविक पथ दिखाया और अनुग्रह प्रदान किया।
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अध्याय १ : असुरों का प्रबल होना
समुद्र मंथन के पश्चात अनेक रत्न प्रकट हुए। उनमें से अमृत को असुरों ने भी पान किया। असुरराज बलि, जो प्रह्लाद का पौत्र और विरोचन का पुत्र था, बड़ा पराक्रमी और उदार था। उसने गुरु शुक्राचार्य की कृपा से ब्रह्मतेज पाया और अपनी वीरता से स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया।
इन्द्रादि देवता बलि से पराजित होकर दिशाओं में भाग गए। स्वर्गलक्ष्मी असुरों के पास चली गई और इन्द्रलोक पर असुरों का आधिपत्य स्थापित हो गया।
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अध्याय २ : देवताओं की व्यथा
इन्द्र और देवगण अत्यंत दुखी हुए। वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे उपाय पूछा। ब्रह्माजी ने कहा—”हे देवताओं! केवल भगवान विष्णु ही तुम्हारा रक्षण कर सकते हैं।”
तब सब देवगण मिलकर क्षीरसागर गए और वहाँ भगवान श्रीहरि की स्तुति की। उन्होंने करुणा प्रकट कर कहा—
“हे देवताओं! मैं त्रिविक्रम रूप धारण कर बलि को नम्र करूँगा। लेकिन उसे मारूँगा नहीं, क्योंकि वह प्रह्लाद का वंशज है।”
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अध्याय ३ : अदिति का व्रत और वामन का जन्म
देवमाता अदिति ने देवताओं की पीड़ा सुनकर पति कश्यप से कहा—”स्वर्ग की रक्षा करना मेरा भी कर्तव्य है। मुझे ऐसा उपाय बताइए जिससे देवता पुनः समृद्ध हों।”
कश्यप मुनि ने अदिति को “पयोव्रत” करने का उपदेश दिया। अदिति ने उस व्रत का पालन करते हुए भगवान विष्णु का ध्यान किया।
अंततः भगवान विष्णु ने अदिति के गर्भ से जन्म लिया। वे एक बौने ब्राह्मण बालक के रूप में प्रकट हुए। माता ने उन्हें गोद में लिया। देवताओं ने आनंद से उन्हें “वामन” नाम दिया।
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अध्याय ४ : वामन का ब्राह्मण रूप
बालक वामन का तेज ऐसा था कि उनके ललाट से सूर्य, उनकी आँखों से चंद्रमा और उनके चरणों से तीर्थ प्रकट होते प्रतीत होते थे। वे यज्ञोपवीत धारण करके, हाथ में कमंडल, दण्ड और छत्र लेकर ब्राह्मण कुमार बने।
देवताओं ने उन्हें ब्रह्मदंड, कुश, कमंडल, यज्ञसूत्र, तथा पवित्र वस्त्र अर्पित किए।
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अध्याय ५ : बलि का महान यज्ञ
उधर बलि ने अपने गुरु शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में विशाल अश्वमेध यज्ञ आरम्भ किया। ब्राह्मण, ऋषि, वेदज्ञ, और असंख्य दानवीर वहाँ उपस्थित हुए। बलि का वचन था कि यज्ञ में जो भी याचक आए, उसे दान अवश्य मिलेगा।
यज्ञभूमि पर दान की वर्षा हो रही थी।
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अध्याय ६ : वामन का आगमन
वामनदेव अपने लघु किंतु तेजस्वी स्वरूप में यज्ञमण्डप में पहुँचे। उनके सौंदर्य को देखकर सभी विस्मित हो उठे।
राजा बलि ने उनका आदरपूर्वक स्वागत किया और कहा—
“हे ब्रह्मचारी! आप किस उद्देश्य से आए हैं? यज्ञ में मांगने वाला खाली हाथ कभी नहीं जाता। जो चाहो वरदान मांगो।”
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अध्याय ७ : तीन पग भूमि का दान
भगवान वामन मुस्कुराए और बोले—
“हे दानवीर! मुझे अधिक कुछ नहीं चाहिए। केवल तीन पग भूमि मेरे चरण रखने योग्य दीजिए।”
बलि आश्चर्यचकित हुए। बोले—
“हे ब्रह्मचारी! आप इतने छोटे हैं, तीन पग भूमि से क्या करेंगे? स्वर्ण, रत्न, हाथी, घोड़े—सब कुछ ले सकते हैं।”
लेकिन वामन ने दृढ़ता से कहा—”मुझे केवल तीन पग भूमि चाहिए।”
राजा बलि ने प्रतिज्ञा की और जल से दान की पुष्टि करने लगे।
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अध्याय ८ : शुक्राचार्य का विरोध
गुरु शुक्राचार्य ने तुरंत पहचान लिया कि यह कोई साधारण ब्राह्मण नहीं, स्वयं विष्णु हैं। उन्होंने बलि को चेतावनी दी—
“हे बलि! यह विष्णु हैं। ये तुम्हें छल से सब कुछ छीन लेंगे। दान मत दो।”
परंतु बलि ने उत्तर दिया—
“गुरुदेव! यदि यह स्वयं भगवान हैं तो इन्हें दान देना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। मैं अपना वचन नहीं तोड़ूँगा।”
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अध्याय ९ : विराट रूप धारण
ज्यों ही बलि ने जल अर्पित किया, वामन का रूप विराट होने लगा। वे त्रिविक्रम बन गए।
पहले पग में उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी नाप ली।
दूसरे पग में उन्होंने समस्त स्वर्गलोक और आकाश को भर लिया।
अब तीसरे पग के लिए स्थान नहीं बचा।
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अध्याय १० : बलि का समर्पण
भगवान ने बलि से कहा—”अब तीसरा पग कहाँ रखूँ?”
बलि ने हाथ जोड़कर कहा—
“प्रभु! मेरे पास अब कुछ नहीं बचा। तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए।”
भगवान ने अपना चरण उसके सिर पर रख दिया। इस प्रकार बलि का अभिमान टूट गया और वह पूर्णतः भक्त बन गया।
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अध्याय ११ : बलि की परीक्षा और आशीर्वाद
बलि को नागपाश में बाँधा गया। देवता प्रसन्न हो उठे।
परंतु भगवान ने बलि की भक्ति और सत्यव्रत देखकर प्रसन्नता प्रकट की। उन्होंने कहा—
“हे बलि! तुमने अपना सब कुछ दान कर दिया। अब मैं तुम्हें सुतल लोक का अधिपति बनाता हूँ। वहाँ मैं स्वयं तुम्हारा द्वारपाल रहूँगा।”
इस प्रकार बलि को अमर कीर्ति मिली।
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अध्याय १२ : वामनावतार का महत्व
यह अवतार केवल देवताओं की रक्षा के लिए नहीं था, अपितु दान, धर्म, सत्य और भक्ति की महिमा स्थापित करने के लिए भी था।
बलि ने भले ही स्वर्ग खो दिया, परंतु उसने भगवान का हृदय जीत लिया।
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निष्कर्ष
वामनावतार हमें सिखाता है कि—
अहंकार कितना भी बड़ा क्यों न हो, ईश्वर के सामने टिक नहीं सकता।
सच्चा दान वही है जिसमें अहंकार न हो।
भगवान भक्त के समर्पण से बंध जाते हैं।
