वामन अवतार की कथा ।

वामन अवतार की कथा बहुत ही गूढ़, पौराणिक और भक्तिपूर्ण है। इसमें न केवल भगवान वामनदेव का प्राकट्य और उनकी बाल लीलाएँ आती हैं, बल्कि बलि महाराज की महानता, इन्द्र का भय, गुरु शुक्राचार्य का वचन, और भगवान की दिव्य करुणा भी समाहित है।

वामनावतार महाकथा

प्रस्तावना

भगवान विष्णु जब-जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ता है और धर्म संकट में पड़ता है, तब-तब वे अवतार धारण करते हैं। सतयुग से कलियुग तक उनकी अनेक लीलाएँ वेद-पुराणों में वर्णित हैं। त्रेता युग में भगवान ने एक अनोखा स्वरूप धारण किया—वामन, अर्थात् एक बौने ब्राह्मण कुमार का रूप। इस अवतार में भगवान ने असुरराज बलि को पराजित नहीं किया, अपितु उसे धर्म का वास्तविक पथ दिखाया और अनुग्रह प्रदान किया।

अध्याय १ : असुरों का प्रबल होना

समुद्र मंथन के पश्चात अनेक रत्न प्रकट हुए। उनमें से अमृत को असुरों ने भी पान किया। असुरराज बलि, जो प्रह्लाद का पौत्र और विरोचन का पुत्र था, बड़ा पराक्रमी और उदार था। उसने गुरु शुक्राचार्य की कृपा से ब्रह्मतेज पाया और अपनी वीरता से स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया।
इन्द्रादि देवता बलि से पराजित होकर दिशाओं में भाग गए। स्वर्गलक्ष्मी असुरों के पास चली गई और इन्द्रलोक पर असुरों का आधिपत्य स्थापित हो गया।

अध्याय २ : देवताओं की व्यथा

इन्द्र और देवगण अत्यंत दुखी हुए। वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे उपाय पूछा। ब्रह्माजी ने कहा—”हे देवताओं! केवल भगवान विष्णु ही तुम्हारा रक्षण कर सकते हैं।”
तब सब देवगण मिलकर क्षीरसागर गए और वहाँ भगवान श्रीहरि की स्तुति की। उन्होंने करुणा प्रकट कर कहा—
“हे देवताओं! मैं त्रिविक्रम रूप धारण कर बलि को नम्र करूँगा। लेकिन उसे मारूँगा नहीं, क्योंकि वह प्रह्लाद का वंशज है।”

अध्याय ३ : अदिति का व्रत और वामन का जन्म

देवमाता अदिति ने देवताओं की पीड़ा सुनकर पति कश्यप से कहा—”स्वर्ग की रक्षा करना मेरा भी कर्तव्य है। मुझे ऐसा उपाय बताइए जिससे देवता पुनः समृद्ध हों।”
कश्यप मुनि ने अदिति को “पयोव्रत” करने का उपदेश दिया। अदिति ने उस व्रत का पालन करते हुए भगवान विष्णु का ध्यान किया।
अंततः भगवान विष्णु ने अदिति के गर्भ से जन्म लिया। वे एक बौने ब्राह्मण बालक के रूप में प्रकट हुए। माता ने उन्हें गोद में लिया। देवताओं ने आनंद से उन्हें “वामन” नाम दिया।

अध्याय ४ : वामन का ब्राह्मण रूप

बालक वामन का तेज ऐसा था कि उनके ललाट से सूर्य, उनकी आँखों से चंद्रमा और उनके चरणों से तीर्थ प्रकट होते प्रतीत होते थे। वे यज्ञोपवीत धारण करके, हाथ में कमंडल, दण्ड और छत्र लेकर ब्राह्मण कुमार बने।
देवताओं ने उन्हें ब्रह्मदंड, कुश, कमंडल, यज्ञसूत्र, तथा पवित्र वस्त्र अर्पित किए।

अध्याय ५ : बलि का महान यज्ञ

उधर बलि ने अपने गुरु शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में विशाल अश्वमेध यज्ञ आरम्भ किया। ब्राह्मण, ऋषि, वेदज्ञ, और असंख्य दानवीर वहाँ उपस्थित हुए। बलि का वचन था कि यज्ञ में जो भी याचक आए, उसे दान अवश्य मिलेगा।
यज्ञभूमि पर दान की वर्षा हो रही थी।

अध्याय ६ : वामन का आगमन

वामनदेव अपने लघु किंतु तेजस्वी स्वरूप में यज्ञमण्डप में पहुँचे। उनके सौंदर्य को देखकर सभी विस्मित हो उठे।
राजा बलि ने उनका आदरपूर्वक स्वागत किया और कहा—
“हे ब्रह्मचारी! आप किस उद्देश्य से आए हैं? यज्ञ में मांगने वाला खाली हाथ कभी नहीं जाता। जो चाहो वरदान मांगो।”

अध्याय ७ : तीन पग भूमि का दान

भगवान वामन मुस्कुराए और बोले—
“हे दानवीर! मुझे अधिक कुछ नहीं चाहिए। केवल तीन पग भूमि मेरे चरण रखने योग्य दीजिए।”
बलि आश्चर्यचकित हुए। बोले—
“हे ब्रह्मचारी! आप इतने छोटे हैं, तीन पग भूमि से क्या करेंगे? स्वर्ण, रत्न, हाथी, घोड़े—सब कुछ ले सकते हैं।”
लेकिन वामन ने दृढ़ता से कहा—”मुझे केवल तीन पग भूमि चाहिए।”
राजा बलि ने प्रतिज्ञा की और जल से दान की पुष्टि करने लगे।

अध्याय ८ : शुक्राचार्य का विरोध

गुरु शुक्राचार्य ने तुरंत पहचान लिया कि यह कोई साधारण ब्राह्मण नहीं, स्वयं विष्णु हैं। उन्होंने बलि को चेतावनी दी—
“हे बलि! यह विष्णु हैं। ये तुम्हें छल से सब कुछ छीन लेंगे। दान मत दो।”
परंतु बलि ने उत्तर दिया—
“गुरुदेव! यदि यह स्वयं भगवान हैं तो इन्हें दान देना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। मैं अपना वचन नहीं तोड़ूँगा।”

अध्याय ९ : विराट रूप धारण

ज्यों ही बलि ने जल अर्पित किया, वामन का रूप विराट होने लगा। वे त्रिविक्रम बन गए।
पहले पग में उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी नाप ली।
दूसरे पग में उन्होंने समस्त स्वर्गलोक और आकाश को भर लिया।
अब तीसरे पग के लिए स्थान नहीं बचा।

अध्याय १० : बलि का समर्पण

भगवान ने बलि से कहा—”अब तीसरा पग कहाँ रखूँ?”
बलि ने हाथ जोड़कर कहा—
“प्रभु! मेरे पास अब कुछ नहीं बचा। तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए।”
भगवान ने अपना चरण उसके सिर पर रख दिया। इस प्रकार बलि का अभिमान टूट गया और वह पूर्णतः भक्त बन गया।

अध्याय ११ : बलि की परीक्षा और आशीर्वाद

बलि को नागपाश में बाँधा गया। देवता प्रसन्न हो उठे।
परंतु भगवान ने बलि की भक्ति और सत्यव्रत देखकर प्रसन्नता प्रकट की। उन्होंने कहा—
“हे बलि! तुमने अपना सब कुछ दान कर दिया। अब मैं तुम्हें सुतल लोक का अधिपति बनाता हूँ। वहाँ मैं स्वयं तुम्हारा द्वारपाल रहूँगा।”
इस प्रकार बलि को अमर कीर्ति मिली।

अध्याय १२ : वामनावतार का महत्व

यह अवतार केवल देवताओं की रक्षा के लिए नहीं था, अपितु दान, धर्म, सत्य और भक्ति की महिमा स्थापित करने के लिए भी था।
बलि ने भले ही स्वर्ग खो दिया, परंतु उसने भगवान का हृदय जीत लिया।

निष्कर्ष

वामनावतार हमें सिखाता है कि—

अहंकार कितना भी बड़ा क्यों न हो, ईश्वर के सामने टिक नहीं सकता।

सच्चा दान वही है जिसमें अहंकार न हो।

भगवान भक्त के समर्पण से बंध जाते हैं।

श्री कृष्ण भगवान ने वस्त्र हरण लीला क्यो की थी

भगवान श्रीकृष्ण की वस्त्राहरण लीला भागवत पुराण (दशम स्कंध) में वर्णित है। यह लीला केवल एक सामान्य घटना नहीं है, बल्कि इसके भीतर अत्यंत गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य और भक्ति का संदेश छिपा हुआ है। आइए इसे विस्तारपूर्वक समझते हैं—

1. प्रसंग

गोकुल की गोपिकाएँ भगवान श्रीकृष्ण को अपने पति के रूप में पाना चाहती थीं। वे नित्य कात्यायनी देवी की उपासना करती थीं और यमुना में स्नान कर कठोर व्रत करती थीं। उनका एकमात्र उद्देश्य था – “भगवान श्रीकृष्ण हमें पति रूप में स्वीकार करें।”

प्रातःकाल स्नान के लिए जाती हुई गोपिकाएँ अपने वस्त्र यमुना किनारे रखकर जल में प्रवेश करतीं और स्नान के बाद देवी से प्रार्थना करतीं। एक दिन श्रीकृष्ण ने उनकी मनोकामना को पूर्ण करने हेतु यह अद्भुत लीला रची।

2. वस्त्रहरण का उद्देश्य

(क) सांसारिक लज्जा का त्याग

मानव जीवन में भगवान की प्राप्ति के लिए सबसे पहली शर्त है – अहंकार और आडंबर का त्याग। वस्त्र यहाँ प्रतीक हैं उस बाहरी आवरण के, जो जीवात्मा को ईश्वर से दूर रखते हैं। श्रीकृष्ण ने वस्त्र हरकर यह संदेश दिया कि –

> “यदि तुम मुझे पाना चाहती हो तो संसार की झूठी लाज-शर्म, अहंकार और बाहरी बंधनों को त्यागना होगा।”

(ख) पूर्ण आत्मसमर्पण

गोपियाँ जल में खड़ी होकर वृक्ष पर बैठे श्रीकृष्ण से वस्त्र वापस माँगने लगीं। श्रीकृष्ण ने कहा –
“तुम सब हाथ जोड़कर पूर्ण आत्मसमर्पण करो, तभी मैं वस्त्र लौटाऊँगा।”
यहाँ भगवान का संकेत था कि भक्त को ईश्वर की शरण में शत-प्रतिशत समर्पण करना चाहिए, तभी उसकी कामना पूर्ण होती है।

(ग) भक्तों की कामना की सिद्धि

गोपियों की गहरी इच्छा थी कि श्रीकृष्ण उन्हें पति रूप में स्वीकार करें। हिन्दू शास्त्रों में पति-पत्नी का संबंध केवल शरीर का ही नहीं बल्कि आत्मिक और धार्मिक बंधन का प्रतीक माना गया है। इस लीला द्वारा श्रीकृष्ण ने गोपियों की मनोकामना को स्वीकार किया और उन्हें भविष्य में रासलीला का अधिकारी बनाया।

(घ) भक्ति की पराकाष्ठा

गोपियों ने लज्जा, डर और लोक-लाज सब त्यागकर केवल कृष्ण की आज्ञा मानी। यह दिखाता है कि सच्चा भक्त ईश्वर की आज्ञा को सर्वोपरि मानकर संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

3. आध्यात्मिक रहस्य

वस्त्र = माया (भ्रम का आवरण)।

जल = संसार-सागर।

गोपियाँ = जीवात्माएँ।

कृष्ण = परमात्मा।

जब तक जीवात्मा मायिक आवरण में बंधी रहती है, वह परमात्मा के साथ एकरूप नहीं हो सकती। परन्तु जब आत्मा (गोपियाँ) अपनी मायिक लज्जा और अहंकार (वस्त्र) त्यागकर पूर्ण समर्पण करती है, तब परमात्मा (कृष्ण) उसे स्वीकार कर लेता है।

4. परिणाम

श्रीकृष्ण ने वस्त्र लौटाए और गोपियों से वचन लिया कि वे उनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानेंगी।

इस घटना के बाद ही महान रासलीला का प्रारम्भ हुआ, जिसमें कृष्ण और गोपियाँ आत्मा और परमात्मा के दिव्य मिलन का प्रतीक बनीं।

✅ निष्कर्ष
भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के वस्त्र इसलिए चुराए क्योंकि यह कोई साधारण शरारत नहीं थी, बल्कि भक्त और भगवान के बीच परम रहस्य की लीला थी। इसका संदेश है –

ईश्वर की प्राप्ति हेतु संसार की झूठी लज्जा और अहंकार त्यागो।

पूर्ण आत्मसमर्पण करो।

तब ही भक्त और भगवान का दिव्य मिलन संभव है।

श्री कृष्ण भगवान के बाल रूप के दर्शन करने के लिए शिव शंकर जी गोकुल आए

भगवान शिव शंकर जी का नंदग्राम (गोकुल) में भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप के दर्शन करने का प्रसंग अत्यंत मधुर और भावपूर्ण है। यह लीला श्रीमद्भागवत, ब्रज की व्रज-वाणी और संतों की कथाओं में बड़े आदर और प्रेम से गाई जाती है। यहाँ मैं आपके लिए इस दिव्य प्रसंग को विस्तारपूर्वक हिंदी में प्रस्तुत कर रहा हूँ।

शिव शंकर द्वारा श्रीकृष्ण बाल रूप दर्शन की कथा

(एक भावपूर्ण विस्तृत वर्णन)

१. भूमिका

धर्मग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि जब-जब भगवान विष्णु धरती पर अवतार लेते हैं, तब देवता भी उनके दर्शन के लिए उत्सुक रहते हैं। श्रीकृष्ण के अवतार में भी यही हुआ। वेद-पुराणों में वर्णित है कि स्वयं ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण, यम, वायु, अग्नि आदि देवता गोकुल में आकर उस नन्हें श्यामसुंदर के दर्शन करते रहे। उन्हीं में से एक सबसे विलक्षण प्रसंग है भगवान शंकर का नंदग्राम आगमन।

भगवान शंकर, जो स्वयं योगेश्वर, महादेव और त्रिकालदर्शी हैं, उन्हें भी उस ब्रज में जन्मे नंदलाल श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का आकर्षण हुआ। कैलास पर विराजमान शिवजी जब यह समाचार सुनते हैं कि स्वयं परब्रह्म श्रीकृष्ण नंदबाबा के घर बालरूप में प्रकट हुए हैं, तब वे ध्यानमग्न हो जाते हैं। उनकी अंतरात्मा से यह आकांक्षा उठती है कि “मुझे भी उस नन्हें श्यामसुंदर का दर्शन करना चाहिए।”

२. कैलास से गोकुल की यात्रा

भगवान शंकर माता पार्वती के सामने अपनी इच्छा प्रकट करते हैं। वे कहते हैं –
“उमा! यह जानकर मेरा हृदय पुलकित हो रहा है कि स्वयं नारायण ने ब्रज में बालक रूप धारण किया है। उनकी लीला और सौंदर्य की झलक देखने के लिए मैं व्याकुल हूँ। मुझे गोकुल जाना ही होगा।”

पार्वतीजी भी इस विचार से आनंदित होती हैं और वे भी साथ चलना चाहती हैं। किन्तु शिवजी कहते हैं कि अभी केवल मैं ही जाऊँगा, क्योंकि यह दर्शन अत्यंत गोपनीय है।

शिवजी जटाजूट सजाकर, गले में सर्पों की माला धारण कर, भस्म रमाकर, डमरू और त्रिशूल लेकर गोकुल की ओर प्रस्थान करते हैं। उनके साथ नंदी बैल, गण और योगियों का समुदाय भी चलता है। उनके दर्शन से मार्ग के जीव-जंतु तक आनंदित हो उठते हैं।

३. नंदग्राम का प्रथम दृश्य

जब शंकरजी गोकुल के समीप पहुँचते हैं, तो वे देखते हैं कि सम्पूर्ण व्रजभूमि एक अनोखी दिव्य आभा से दीप्त हो रही है। यमुना का कलकल नाद, ग्वाल-बालों की हंसी, गोपियों के गीत और गायों की मधुर रंभाना — सब वातावरण को अद्वितीय बना रहे थे।

गोकुल का हर द्वार सजा हुआ था। घर-घर मंगलगीत गाए जा रहे थे। नंदबाबा के महल में माता यशोदा गोद में अपने नन्हें कृष्ण को लेकर बैठी थीं। उस समय भगवान कृष्ण खेल-खेल में अपनी माता की उँगली पकड़कर हँस रहे थे।

४. शिवजी का आगमन और अटकाव

शिवजी जब नंदभवन के द्वार पर पहुँचे, तो द्वारपालों ने उन्हें देखा। सामने खड़े महादेव भस्म रमाए, सर्पों को गले में धारण किए, रुद्राक्ष की माला पहने, जटाजूटवाले रूप में खड़े थे। द्वारपाल डर गए और वे भीतर जाकर यशोदा मैया से कहने लगे –
“मइया! बाहर एक अजीब साधु खड़ा है। शरीर पर भस्म लगी है, गले में नाग लटक रहे हैं। उसके साथ कुछ गण भी हैं। हमें लगता है कि यह कोई डरावना योगी है।”

यशोदा मैया माता का हृदय कोमल था। वे बाहर आकर देखने लगीं। उन्होंने शिवजी का स्वरूप देखा। साधारण स्त्रियों के लिए वह रूप भयप्रद प्रतीत होता है। इसलिए माता यशोदा ने कहा –
“बाबा! आप कौन हैं? आपसे मेरे नन्हें लाल को डर लग सकता है। कृपया आप दूर से ही आशीर्वाद दीजिए।”

५. शिवजी की करुण याचना

शिवजी ने folded hands यशोदा से विनम्रता से कहा –
“मइया! मैं कोई सामान्य योगी नहीं हूँ। मैं आपके लाल का दर्शन करने आया हूँ। मैं उनके चरणकमलों की एक झलक पाना चाहता हूँ। कृपा कर मुझे बालकृष्ण के दर्शन करा दीजिए।”

लेकिन यशोदा को भय था कि कहीं उनका लाल इस अजीब से साधु को देखकर रो न पड़े। अतः उन्होंने शिवजी से निवेदन किया –
“बाबा! मेरा बच्चा बहुत छोटा है। वह आपके इस भयानक रूप से डर जाएगा। कृपा कर आप अभी यहाँ से चले जाइए।”

शिवजी का हृदय विषाद से भर गया। वे उदास होकर नंदभवन के बाहर पीपल वृक्ष के नीचे बैठ गए। उन्होंने समाधि लगाई और अपने मन में श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगे।

६. बालकृष्ण का आग्रह

उधर महल के भीतर जब श्रीकृष्ण ने देखा कि उनकी मैया द्वार से आकर कुछ उदास हैं, तो उन्होंने बालभाषा में पूछा –
“मैया! कौन आया था?”

यशोदा ने उत्तर दिया – “बेटा, एक अजीब साधु आया था। उसने साँप गले में पहन रखे थे, सारा शरीर भस्म से ढका था। मैं डर गई कि तुझे कहीं भय न लगे, इसलिए मैंने उसे लौटा दिया।”

तब बालकृष्ण हँस पड़े और बोले –
“मैया! वह साधु कोई साधारण साधु नहीं, वह मेरे अपने शिव बाबा हैं। उन्होंने मेरे दर्शन के लिए बहुत तप किया है। आप उन्हें क्यों लौटा दीं? आप तुरंत उन्हें बुलाइए।”

यशोदा मैया को समझ में आ गया कि यह कोई साधारण प्रसंग नहीं है। उन्होंने तुरंत दूत भेजकर शिवजी को बुलवाया।

७. अद्भुत मिलन

जब शिवजी अंदर आए तो बालकृष्ण ने उन्हें देखकर हँसते हुए अपने दोनों नन्हें हाथ फैलाए। यह दृश्य देखकर समस्त गोकुलवासी स्तब्ध रह गए।

शिवजी नतमस्तक हो गए और उन्होंने बालकृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया। वे रो पड़े। उनके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। वे बोले –
“प्रभो! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मैं धन्य हुआ, क्योंकि आपने मुझे अपने इस अलौकिक बालरूप का दर्शन दिया।”

कृष्ण भी मुस्कराते हुए अपनी कोमल हथेलियों से शिवजी की जटाओं को पकड़ने लगे। कभी वे उनके गले के नाग से खेलने लगे, कभी उनके डमरू को खींचने लगे। यह दृश्य इतना मधुर था कि सबकी आँखें भर आईं।

८. शिवजी का आशीर्वाद

कुछ समय तक कृष्ण की गोद में खेलकर शिवजी ने माता यशोदा से कहा –
“मइया! आपका लाल ही समस्त ब्रह्मांड का पालनकर्ता है। यह सभी देवताओं का स्वामी है। आप बहुत भाग्यशाली हैं कि आपको इनकी माता बनने का अवसर मिला। मैं शिव होकर भी अपने आपको धन्य मानता हूँ कि इनके चरणों का स्पर्श मुझे प्राप्त हुआ।”

फिर शिवजी ने बालकृष्ण को आशीर्वाद दिया और बोले –
“नंदलाल! तुम्हारी लीलाएँ अनंत हैं। जब-जब कोई भक्त भाव से तुम्हें पुकारेगा, मैं भी वहाँ तुम्हारी सेवा में उपस्थित रहूँगा।”

९. गोकुलवासियों का भाव

गोकुल की गोपियाँ यह दृश्य देखकर मंत्रमुग्ध हो गईं। वे आपस में कहने लगीं –
“देखो! यह तो वही महादेव हैं, जिन्हें हम देवों के देव कहते हैं। वे भी हमारे नंदलाल के चरणों में लीन हैं।”

नंदबाबा भी बड़े आश्चर्य में थे। उन्होंने शिवजी को प्रणाम किया और उनके लिए नंदभवन में स्थान बनाया। तभी से गोकुल में “गोपेश्वर महादेव” की उपासना प्रचलित हुई।

११. आध्यात्मिक महत्व

इस पूरी लीला का भाव यह है कि ब्रह्मांड के अधिपति शिवशंकर भी श्रीकृष्ण के बालरूप के दर्शन के लिए लालायित होते हैं। यह घटना हमें सिखाती है कि श्रीकृष्ण के चरणों की भक्ति में कोई बड़ा-छोटा नहीं है। स्वयं महादेव भी कृष्णभक्ति के बिना अधूरे हैं।

१२. निष्कर्ष

इस प्रकार शिवजी का गोकुल आगमन और श्रीकृष्ण बालरूप दर्शन की कथा भक्तों को यह सिखाती है कि जब स्वयं देवाधिदेव भी श्रीकृष्ण के चरणों में झुकते हैं, तब हमें भी अहंकार छोड़कर सच्चे भाव से श्रीकृष्ण की शरण लेनी चाहिए।

भगवान श्री कृष्ण ने कुबेर के पुत्रों का कैसे उद्धार किया

कुबेर पुत्रों का उद्धार

भूमिका
श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कंध में वर्णित श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में एक अत्यंत मार्मिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से गहन कथा है — नलकूबर और मणिग्रीव के उद्धार की लीला। यह कथा केवल दैविक कृपा की अभिव्यक्ति नहीं है, अपितु यह यह भी दर्शाती है कि अहंकार, विषयासक्ति, तथा अधर्म पर अंततः भगवान की करुणा कैसे विजय प्राप्त करती है। इस कथा का संदर्भ ‘दामोदर लीला’ से भी संबद्ध है और इसे भगवान श्रीकृष्ण की मुक्तिदाता सत्ता का एक प्रमुख प्रमाण माना जाता है।

कथा का प्रारंभ: बालकृष्ण और यशोदा का दैनिक जीवन

गोकुलधाम में जब भगवान श्रीकृष्ण बाल रूप में लीला कर रहे थे, तब उनके भोले, चपल, एवं नटखट व्यवहार से समस्त ब्रजवासियों के हृदय प्रफुल्लित रहते थे। यशोदा माता के लिए वे प्रिय पुत्र थे, किंतु उनका स्वभाव ऐसा था कि वे हर समय किसी न किसी चेष्टा में लगे रहते। मक्खन चोरी करना, गोपियों को तंग करना, गायों के साथ खेलना, बालसखाओं के संग लीलाओं में रत रहना — यह सब उनकी दिनचर्या का अंग था।

एक दिन की बात है जब यशोदा माता ने देखा कि श्रीकृष्ण बार-बार माखन चुराकर गोपियों के घरों में उपद्रव कर रहे हैं। उन्हें रोकने के लिए माता ने उन्हें रस्सी से बाँधने का निर्णय लिया। परंतु आश्चर्य की बात यह थी कि जितनी भी रस्सी लाई जाती, उतनी छोटी पड़ जाती। अंततः भगवान ने अपनी करुणा से माता की प्रेमपूर्ण सेवा को स्वीकार किया और स्वयं को बंधन में आने दिया। यही वह दामोदर लीला थी — “दम” अर्थात् रस्सी, और “उदर” अर्थात् पेट।

रस्सी से बाँधे हुए बालकृष्ण, ऊखल से बंधे हुए, आँगन में धीरे-धीरे रेंगते हुए एक विशेष स्थान पर पहुँचे जहाँ दो विशाल यमलार्जुन वृक्ष खड़े थे।

यमलार्जुन वृक्षों की उत्पत्ति: नलकूबर और मणिग्रीव की कथा

इन दोनों वृक्षों के संबंध में एक अत्यंत प्राचीन और शिक्षाप्रद कथा है, जो त्रिलोकी के धनाध्यक्ष कुबेर से संबंधित है। कुबेर के दो पुत्र थे — नलकूबर और मणिग्रीव। दोनों अपार ऐश्वर्य, सौंदर्य और स्वर्गिक सुख-संपदा से युक्त थे। देवताओं में श्रेष्ठ, ये दोनों विद्याधरों के समान सौंदर्यशाली थे और ऐश्वर्य के मद में चूर रहते थे।

एक बार की बात है, ये दोनों पुत्र पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए मंदाकिनी नदी के तट पर अप्सराओं के संग जलक्रीड़ा कर रहे थे। मदिरा के प्रभाव और स्त्रीसंग के मोह में उन्होंने वस्त्र त्याग दिए थे और पूरी तरह नग्न होकर जल में क्रीड़ा कर रहे थे।

उसी समय ब्रह्मर्षि नारद का उस मार्ग से आगमन हुआ। वे तपस्वी, संयमी तथा योगबल से संपन्न थे। उनकी दृष्टि जैसे ही उन कुमारों पर पड़ी, उन्होंने देखा कि ये दोनों देवपुत्र न तो अपनी मर्यादा में हैं, न ही संयम में। अप्सराएं तुरंत लज्जा से वस्त्र धारण कर चली गईं, किंतु नलकूबर और मणिग्रीव मदांध होकर वहीं खड़े रहे।

नारद मुनि का शाप – रूप में वरदान

नारद मुनि ने जब यह देखा कि ये दोनों अहंकारवश धर्माचरण का अपमान कर रहे हैं, तो उन्होंने उन्हें शाप दे दिया:

> “तुम दोनों देवकुमार मदांध होकर अपनी मर्यादा भूल गए हो। तुम्हें अपने व्यवहार पर लज्जा नहीं आई। अतः तुम दोनों वृक्ष रूप में जन्म लोगे और अत्यंत दीर्घकाल तक स्थिर रहोगे, जिससे तुम्हारे अहंकार का शमन हो।”

किंतु नारद मुनि की करुणा और दूरदृष्टि केवल शाप देने तक सीमित नहीं थी। वे एक सच्चे संत थे, जिन्होंने शाप के साथ-साथ उद्धार का मार्ग भी सुनिश्चित किया:

> “जब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं व्रजभूमि में अवतरित होंगे, तब वे ही तुम्हारा उद्धार करेंगे। तुम्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त होगा और भगवान के चरणों में स्थायी भक्ति उत्पन्न होगी।”

इस प्रकार नारद मुनि के वचनों के अनुसार वे दोनों कुमार यमलार्जुन वृक्ष के रूप में नंदबाबा के आँगन में प्रकट हुए, जहाँ बालकृष्ण की दिव्य लीलाएं चल रही थीं।

दामोदर लीला से यमलार्जुन उद्धार की ओर

जब श्रीकृष्ण ऊखल से बंधे हुए रेंगते-रेंगते वृक्षों के समीप पहुँचे, तो उन्होंने दो वृक्षों के मध्य से ऊखल को खींचने का प्रयास किया। उस बालरूप में भी उनकी शक्ति अपार थी। उन्होंने ऊखल सहित दोनों वृक्षों को बीच से खींच लिया और वहीँ एक जबरदस्त ध्वनि हुई — दोनों वृक्ष जड़ से उखड़कर भूमि पर गिर पड़े।

वृक्ष गिरते ही एक दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ। उन वृक्षों से दो तेजस्वी पुरुष प्रकट हुए, जिनके शरीर आभा से देदीप्यमान थे। वे folded hands से श्रीकृष्ण के सामने नतमस्तक हो गए। यह वही नलकूबर और मणिग्रीव थे, जो शापमुक्त होकर दिव्य रूप में प्रकट हुए थे।

नलकूबर और मणिग्रीव की स्तुति

उद्धार के पश्चात उन दोनों कुमारों ने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में दंडवत प्रणाम किया और भावविभोर होकर स्तुति करने लगे:

> “हे भगवान! आप समस्त प्राणियों के अंतर्यामी हैं। आपने हमारे जीवन को दिशा दी, हमारा अभिमान चूर्ण किया और हमें पुनः दिव्यता प्रदान की। हम मूर्ख थे, ऐश्वर्य के मद में चूर थे। परंतु आपकी करुणा से आज हमारा उद्धार हुआ।”

> “हे श्रीकृष्ण! हम यह प्रार्थना करते हैं कि हमें आपकी भक्ति में स्थायी स्थान प्राप्त हो। हम अब किसी भी सांसारिक सुख की अभिलाषा नहीं करते। केवल यह चाहते हैं कि हमारे हृदय में आपकी सेवा का भाव कभी क्षीण न हो।”

श्रीकृष्ण मुस्कराए। उनका बालरूप किंतु ईश्वरस्वरूप व्यक्तित्व उन दोनों को अंतःकरण से परिवर्तित कर चुका था। उन्होंने दोनों को मुक्ति प्रदान की और ब्रह्मलोक को लौट जाने की आज्ञा दी।

कथा की अंतर्वस्तु और दार्शनिक विश्लेषण

यह कथा केवल एक रोचक बाललीला नहीं है, अपितु यह अत्यंत सूक्ष्म दार्शनिक संकेत भी देती है:

1. अहंकार का पतन: नलकूबर और मणिग्रीव अत्यंत योग्य होते हुए भी विषयासक्ति और मद में अपना विवेक खो बैठे। यही दर्शाता है कि जब तक विनय और संयम नहीं है, तब तक ऐश्वर्य भी विनाशकारी बन सकता है।

2. संत की कृपा और दृष्टि: नारद मुनि का शाप वास्तव में कृपा का ही एक रूप था। संत सदा जीव के कल्याण के लिए कार्य करते हैं, चाहे वह बाह्य रूप में कठोर प्रतीत हो।

3. भगवान की बाल-लीला में परिपूर्ण सत्ता: श्रीकृष्ण का यह रूप भले ही बालरूप हो, परंतु वह विश्वप्रभु की करुणा से परिपूर्ण था। उन्होंने दैवी शक्ति से उद्धार किया, जिससे यह प्रमाणित होता है कि उनका प्रत्येक कार्य दिव्य योजना का हिस्सा होता है।

4. भक्ति की उत्पत्ति: उद्धार के पश्चात दोनों कुमारों ने सांसारिक सुखों से विरक्त होकर केवल भगवान की भक्ति का वरण किया। यही आत्मोद्धार की चरम अवस्था मानी जाती है।

समापन और संदेश

कुबेर के पुत्रों की यह कथा आज के युग में भी अत्यंत प्रासंगिक है। आधुनिक जीवन में जब मनुष्य भौतिक ऐश्वर्य, सत्ता और सुखों के पीछे भागता है, तब यह कथा उसे स्मरण कराती है कि यह सब क्षणभंगुर है। अहंकार और विषयासक्ति अंततः पतन की ओर ही ले जाते हैं।

यदि किसी को उद्धार प्राप्त करना है, तो उसे ईश्वर की शरण में जाना होगा। जैसे नारद मुनि जैसे संतों की दृष्टि से आत्मसाक्षात्कार की ओर मार्ग प्रशस्त होता है, वैसे ही श्रीकृष्ण जैसे सद्गुरु या ईश्वर की करुणा से जीवन में आध्यात्मिक मोक्ष संभव होता है।

नलकूबर और मणिग्रीव का वृक्ष रूप में जन्म लेना, दामोदर लीला के माध्यम से उद्धार प्राप्त करना, और अंत में दिव्य भक्ति की प्राप्ति — यह सब संकेत करता है कि भगवान किसी भी रूप में हों, उनका लक्ष्य केवल जीवों का कल्याण होता है।

भगवान श्री कृष्ण द्वारा दामोदर लीला

“दामोदर लीला: एक दिव्य प्रेम कथा”।

भाग 1: नन्दलाल की बाललीलाओं की पृष्ठभूमि

वृन्दावन! वह पुण्य भूमि जहाँ गोवर्धन की छाया में यमुना कल-कल करती बहती है। वह भूमि जहाँ वनों में ग्वालबालों की हँसी गूंजती है, जहाँ गायों की घंटियों की मधुर ध्वनि और बांसुरी की तान में स्वयं आनंद नृत्य करता है।

और वहीं, उसी भूमि पर एक अद्भुत बालक जन्मा था—नन्दनन्दन श्रीकृष्ण।

यह लीला तब की है जब श्रीकृष्ण बाल रूप में गोकुल में नन्द बाबा के घर निवास कर रहे थे। उनके बालरूप की लीलाएँ इतनी मनमोहिनी थीं कि हर जीव उन पर मोहित था—गोपियाँ, ग्वालबाल, पशु-पक्षी, वृक्ष, वायु, अग्नि… सभी।

श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में एक विशेष लीला है — दामोदर लीला।

यह वह लीला है जिसमें स्वयं परमब्रह्म, अनंत, अजेय, अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्रेममयी माता यशोदा के हाथों रस्सियों से बंध जाते हैं। यह लीला हमें बताती है कि प्रेम से भी महान कोई शक्ति नहीं। भक्ति और प्रेम के आगे स्वयं ईश्वर भी बंध जाते हैं।

भाग 2: यशोदा माता का वात्सल्य

सुबह का समय था। गोकुल में सूर्य की प्रथम किरणें जैसे श्रीकृष्ण की सौम्य लीलाओं का स्वागत कर रही थीं। नन्द भवन में यशोदा माता अपने लाला के लिए मक्खन मथ रही थीं। बड़े प्रेम से वे चूर्णा (दही) को मथते हुए श्रीहरि का नाम गा रही थीं:

“गोविन्द दामोदर माधवेति…”

माथे पर पसीने की बूँदें थीं, किन्तु मुख पर वात्सल्य की दिव्य आभा थी। क्यों न हो, वे स्वयं उस भगवान की माता थीं जो समस्त सृष्टि के पालनहार हैं, फिर भी उनके लिए दूध-दही तैयार कर रही थीं।

तभी बालकृष्ण, जो कि बालरूप में थे, रेंगते हुए आए। उन्होंने अपनी माँ को देखा, और बाल भाव से गोद में चढ़ने की इच्छा की।

माता ने कहा, “लाला! अभी माखन बनाऊँ फिर खिलाऊँगी।”

किन्तु भगवान की इच्छा कुछ और ही थी — एक अद्भुत लीला रचनी थी, जिसमें माँ के प्रेम की महिमा संसार को ज्ञात हो।

भाग 3: श्रीकृष्ण का माखन चोरी और माता का क्रोध

बालकृष्ण को भूख लगी थी। उन्होंने अपने कमल समान नेत्रों से माँ की ओर देखा। पर जब माँ यशोदा ने उन्हें गोद नहीं लिया और चूर्णा मथती रहीं, तो बालकृष्ण रुष्ट हो गए।

वे चल पड़े—छोटे-छोटे पग धरते हुए, ग्वालिनों के घर। वहाँ जाकर उन्होंने माखन के मटकों को तोड़ा, माखन खाया और अपने ग्वाल बाल मित्रों तथा बंदरों को भी खिलाया।

जब माता यशोदा वापस आईं, तो देखा — सारा माखन गायब! और बालक कहीं दिखाई नहीं दे रहे!

वह अपने लाल को ढूँढते-ढूँढते जब पहुँची उस स्थान पर, जहाँ श्रीकृष्ण एक ओखली (जुते हुए दो बड़े पत्थर जिन्हें बैलों को बाँधते हैं) के पास माखन खाते पकड़े गए।

माता को क्रोध आ गया। उन्होंने सोचा — “यह मेरा लाला कितनी बार माखन चुराता है। इसे आज दंड देना होगा।”

भाग 4: रस्सियों से बाँधने की लीला

माता यशोदा ने श्रीकृष्ण को पकड़ लिया। और सोचा, “इसे बाँध दूँ ताकि दोबारा ऐसी शरारत न करे।”

पर क्या यह संभव था?

एक अद्भुत लीला घटित होने वाली थी — श्रीकृष्ण, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने उदर में धारण करते हैं, उन्हें एक साधारण रस्सी बाँध सकती है?

माता ने रस्सी लाई। और बांधने का प्रयास किया। पर हर बार रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ती!

फिर दूसरी रस्सी जोड़ी… फिर तीसरी… फिर चौथी… पर हर बार — दो अंगुल कम!

गोपियाँ हँसने लगीं, “माता! तुम्हारा लाल बँधने वाला नहीं है!”

पर माता यशोदा थककर बैठी नहीं। वह प्रेम से बंधी थीं, और उनका प्रेम किसी भी ब्रह्माण्ड से बड़ा था।

अंततः श्रीकृष्ण ने देखा — “मेरी माँ का श्रम और प्रेम अपरिमित है। अब मुझे बंध जाना चाहिए।”

और जैसे ही उन्होंने अपना संकल्प बदला, रस्सी पर्याप्त हो गई।

भगवान बँध गए — और इस प्रकार वे “दामोदर” कहलाए — जो उदर में बंधे हों।

द्वापर युग मे भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा रानी ने ब्रजवासियों के साथ किस प्रकार होली खेली।

भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा रानी की ब्रजभूमि में होली का उत्सव प्रेम, आनंद और भक्ति का अद्वितीय संगम था। द्वापर युग में, ब्रजवासियों के साथ मिलकर उन्होंने जिस प्रकार होली का आनंद लिया, वह आज भी हमारी संस्कृति और परंपराओं में जीवंत है। इस विस्तृत वर्णन को हम निम्नलिखित भागों में विभाजित करेंगे:

1. परिचय: ब्रजभूमि में होली का महत्व

2. श्रीकृष्ण और राधा रानी की होली की पौराणिक कथाएँ

3. ब्रज की होली की विशेष परंपराएँ

लट्ठमार होली

लड्डू होली

फूलों की होली

धुलेंडी और सोटे वाली होली

दाऊजी का हुरंगा

4. श्रीकृष्ण की लीलाओं में होली का स्थान

5. होली का आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व

6. निष्कर्ष: प्रेम और भक्ति का पर्व

1. परिचय: ब्रजभूमि में होली का महत्व

ब्रजभूमि, विशेषकर मथुरा, वृंदावन, नंदगांव और बरसाना, होली के उत्सव के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। यहाँ की होली केवल रंगों का खेल नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और आनंद का प्रतीक है। श्रीकृष्ण और राधा रानी की लीलाओं से समृद्ध यह भूमि होली के दौरान एक विशेष ऊर्जा और उत्साह से भर जाती है।

2. श्रीकृष्ण और राधा रानी की होली की पौराणिक कथाएँ

द्वापर युग में, श्रीकृष्ण का सांवला रंग उन्हें चिंतित करता था। एक दिन उन्होंने माता यशोदा से पूछा कि राधा इतनी गोरी क्यों हैं और वे इतने काले क्यों हैं। माता यशोदा ने मुस्कुराते हुए सुझाव दिया कि वे राधा के चेहरे पर रंग लगा दें, जिससे दोनों का रंग समान हो जाएगा। श्रीकृष्ण ने इस सुझाव को मानकर अपने सखाओं के साथ मिलकर रंग तैयार किए और राधा तथा उनकी सखियों पर रंग डाल दिया। इस प्रकार, ब्रज में रंगों की होली की परंपरा की शुरुआत हुई।

3. ब्रज की होली की विशेष परंपराएँ

ब्रज में होली की विभिन्न परंपराएँ हैं, जो इस उत्सव को और भी रोचक बनाती हैं:

लट्ठमार होली: बरसाना और नंदगांव में खेली जाने वाली यह होली विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इसमें नंदगांव के हुरियारे (पुरुष) बरसाना जाकर गोपियों (महिलाओं) के साथ होली खेलते हैं। गोपियाँ हुरियारों को लाठियों से मारती हैं, जबकि हुरियारे ढाल से अपना बचाव करते हैं। यह परंपरा श्रीकृष्ण और राधा के समय की याद दिलाती है, जब कृष्ण अपने सखाओं के साथ राधा और उनकी सखियों के साथ होली खेलने बरसाना जाते थे।

लड्डू होली: बरसाना में लड्डू होली की परंपरा है, जहाँ लोग एक-दूसरे पर लड्डू फेंकते हैं और इस मीठी होली का आनंद लेते हैं। यह परंपरा प्रेम और मिठास का प्रतीक है।

फूलों की होली: वृंदावन में फूलों की होली का विशेष महत्व है। फुलेरा दूज के दिन, राधा-कृष्ण पर फूलों की वर्षा की जाती है, जो उनके दिव्य प्रेम का प्रतीक है। यह परंपरा दर्शाती है कि प्रेम और भक्ति के रंग सबसे सुंदर होते हैं।

धुलेंडी और सोटे वाली होली: धुलेंडी के दिन देवर-भाभी के बीच रंगों की मस्ती होती है। देवर भाभियों पर रंग डालते हैं, जबकि भाभियाँ उन्हें रंग में भीगे कपड़ों से बने सोटे से मारती हैं। यह परंपरा पारिवारिक और सामाजिक संबंधों में प्रेम और सौहार्द को बढ़ाती है।

दाऊजी का हुरंगा: होली का समापन दाऊजी के हुरंगे से होता है, जो भगवान बलराम के सम्मान में खेला जाता है। इस दिन विशेष आयोजन होते हैं, जहाँ रंगों के साथ-साथ भक्ति और आनंद का माहौल होता है।

4. श्रीकृष्ण की लीलाओं में होली का स्थान

श्रीकृष्ण की लीलाओं में होली का विशेष स्थान है। उनकी चंचलता, सखाओं के साथ मस्ती, गोपियों के साथ रंग खेलना

5. होली का आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व

होली केवल रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि यह आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश भी देता है। यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है, जैसा कि प्रह्लाद और होलिका की कथा से पता चलता है। साथ ही, यह त्योहार सामाजिक समरसता को बढ़ावा देता है, जहाँ सभी लोग भेदभाव भूलकर एक साथ आनंद मनाते हैं।

6. निष्कर्ष: प्रेम और भक्ति का पर्व

ब्रज में श्रीकृष्ण और राधा रानी की होली प्रेम, भक्ति और आनंद का अद्वितीय संगम है। यह त्योहार हमें सिखाता है कि जीवन में प्रेम, समरसता और भक्ति का कितना महत्व है। रंगों के माध्यम से हम अपने जीवन को खुशियों से भर सकते हैं और सभी के साथ मिलकर इस उत्सव का आनंद ले सकते हैं।

यशोदा मईया का भगवान श्री कृष्ण के प्रति कैसा प्रेम था।

यशोदा मईया का भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम

भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यकाल उनके भक्तों के लिए दिव्य लीलाओं से भरा हुआ है। विशेष रूप से, उनकी माता यशोदा के साथ उनका संबंध भक्तों के लिए अनन्य प्रेम और वात्सल्य का सबसे पवित्र उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह प्रेम इतना प्रगाढ़ था कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी इसे सर्वोच्च मानते थे।

यशोदा मईया का प्रेम वात्सल्य भक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण है, जिसमें भगवान को माँ-बेटे के संबंध में बाँध लिया गया। इस विस्तृत लेख में हम यशोदा मईया के श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम को विभिन्न पहलुओं से समझने का प्रयास करेंगे:

1. यशोदा मईया का वात्सल्य प्रेम

यशोदा मईया का प्रेम सांसारिक माताओं के प्रेम से कई गुणा अधिक था क्योंकि उनका पुत्र स्वयं साक्षात भगवान था। किंतु भगवान ने अपने बालक स्वरूप में लीलाएं रचाकर अपने आपको एक सामान्य बालक के रूप में प्रकट किया, ताकि माता का स्नेह सहज बना रहे।

जब श्रीकृष्ण का जन्म गोकुल में हुआ, तब नंदबाबा और यशोदा मईया के घर आनंद की लहर दौड़ पड़ी। यशोदा मईया को श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से अपार सुख की अनुभूति होती थी। उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था कि उनका लाडला कोई साधारण बालक नहीं, बल्कि स्वयं परमब्रह्म है। उनके लिए श्रीकृष्ण उनके पुत्र थे, और वे उनकी रक्षा व देखभाल में कोई कमी नहीं छोड़ती थीं।

2. कृष्ण के बालस्वरूप में यशोदा का आनंद

बालक कृष्ण की क्रीड़ाएं नंद भवन में हर क्षण एक नया उत्सव लेकर आती थीं। श्रीकृष्ण जब रोते, तो यशोदा मईया उन्हें गोद में लेकर दुलारतीं, स्तनपान करातीं और अपनी ममता से उन्हें शांत कर देतीं। उनका प्रेम इतना निश्छल और गहरा था कि जब वे श्रीकृष्ण को गोद में लेकर झुलातीं, तब उन्हें संसार की किसी अन्य वस्तु का ध्यान नहीं रहता था।

वे श्रीकृष्ण को गोद में उठाकर कभी उनके मुख की सुंदरता निहारतीं, कभी उनके बालों को संवारतीं, और कभी उनके छोटे-छोटे हाथों और पैरों को चूमतीं। उनके लिए श्रीकृष्ण उनकी आत्मा का अंश थे, उनके जीवन का सार थे।

3. कृष्ण की शरारतें और यशोदा का प्रेमपूर्ण दंड

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बाल्यकाल में अनेक बाल लीलाएँ रचीं, जिनमें उनकी माखन चोरी की लीला सबसे प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण अपने ग्वाल-बाल मित्रों के साथ मिलकर गोकुल की गलियों में मक्खन चुराने जाते थे। जब यशोदा मईया को यह ज्ञात होता, तो वे श्रीकृष्ण को पकड़कर उन्हें प्रेम से डांटतीं।

कई बार यशोदा मईया ने श्रीकृष्ण को मक्खन चुराते हुए पकड़ा और गुस्से में उन्हें पकड़कर दंड देने की चेष्टा की। किंतु जब वे श्रीकृष्ण की भोली सूरत और मासूम हंसी देखतीं, तो उनका हृदय पिघल जाता और वे उन्हें गले से लगा लेतीं।

4. उखल बंधन लीला: यशोदा का अनन्य प्रेम

भगवान श्रीकृष्ण की ‘उखल बंधन लीला’ इस वात्सल्य प्रेम का एक अद्भुत उदाहरण है। एक दिन श्रीकृष्ण घर में माखन खा रहे थे, तभी यशोदा मईया ने उन्हें पकड़ने का प्रयास किया। श्रीकृष्ण अपनी चपलता से भाग गए, लेकिन यशोदा मईया ने उनका पीछा किया और अंततः उन्हें पकड़ लिया।

उन्होंने श्रीकृष्ण को ऊखल (जाँता) से बाँधने का प्रयास किया, लेकिन बार-बार रस्सी छोटी पड़ जाती। जब यशोदा मईया थक गईं और उनके नेत्रों में वात्सल्य के आँसू आ गए, तब श्रीकृष्ण ने स्वयं को बंधने की अनुमति दी। यह दर्शाता है कि भगवान भी भक्त के प्रेम के आगे झुक जाते हैं।

5. कृष्ण के मुख में ब्रह्मांड का दर्शन

एक अन्य प्रसंग में जब श्रीकृष्ण बालक थे, तब उनके मित्रों ने उनकी शिकायत की कि उन्होंने मिट्टी खा ली है। यशोदा मईया जब उनके मुख को खोलकर देखती हैं, तो वे उसमें संपूर्ण ब्रह्मांड का दर्शन करती हैं—सूर्य, चंद्र, तारे, सृष्टि के समस्त लोक, नदियाँ, पर्वत और यहाँ तक कि स्वयं को भी देखती हैं।

इस दृश्य को देखकर यशोदा मईया स्तब्ध रह जाती हैं, किंतु अगले ही क्षण वे इस घटना को भूलकर श्रीकृष्ण को अपने बालक रूप में ही स्वीकार कर लेती हैं। यह इस बात को दर्शाता है कि उनका प्रेम किसी लौकिक ज्ञान या तर्क से परे था।

6. यशोदा मईया का निःस्वार्थ प्रेम

यशोदा मईया का प्रेम निःस्वार्थ था। उन्हें कभी यह एहसास नहीं हुआ कि उनका पुत्र कोई महान शक्ति है या कोई दैवीय अवतार। उनके लिए श्रीकृष्ण केवल उनका पुत्र था, जिसे वे अपनी ममता से बड़ा करना चाहती थीं।

उनका प्रेम इस बात से भी प्रकट होता है कि जब श्रीकृष्ण वृंदावन छोड़कर मथुरा चले गए, तब यशोदा मईया अत्यंत दुःखी हो गईं। उनके हृदय में श्रीकृष्ण की यादें बस गई थीं और वे हर क्षण उनकी प्रतीक्षा करती थीं।

7. माता यशोदा की भक्ति का महत्व

भक्तियोग में चार प्रकार की भक्ति बताई गई है—दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। यशोदा मईया का प्रेम वात्सल्य भाव का सर्वोच्च उदाहरण है। भगवान श्रीकृष्ण भी माता यशोदा के इस प्रेम को सर्वोच्च मानते थे।

यशोदा मईया का प्रेम दर्शाता है कि भगवान को प्रेम के बंधन में बाँधना संभव है, लेकिन यह प्रेम निःस्वार्थ और निष्कपट होना चाहिए। श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है—

“नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद॥”

अर्थात्, “मैं न वैकुण्ठ में निवास करता हूँ, न योगियों के हृदय में। मैं वहीं रहता हूँ जहाँ मेरे भक्त प्रेम से मुझे पुकारते हैं।”

8. निष्कर्ष

यशोदा मईया और श्रीकृष्ण का संबंध प्रेम, वात्सल्य और भक्ति का आदर्श उदाहरण है। यशोदा का प्रेम न केवल श्रीकृष्ण को लुभाता है, बल्कि समस्त भक्तों को यह प्रेरणा देता है कि यदि प्रेम निश्छल हो, तो स्वयं परमात्मा भी उसके वश में हो जाते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण के प्रति यशोदा मईया का प्रेम अद्वितीय, आत्मीय और पवित्र था। यह प्रेम केवल माता-पुत्र के संबंध का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह दर्शाता है कि प्रेम और भक्ति से ईश्वर को भी जीता जा सकता है।

भगवान श्री कृष्ण की श्री राधा रानी संग बाल लीलाए ।

श्री कृष्ण और श्री राधा रानी की बाल लीलाएँ

भगवान श्री कृष्ण और श्री राधा रानी की बाल लीलाएँ प्रेम, भक्ति और अलौकिक आनंद से परिपूर्ण हैं। श्री कृष्ण की बाल लीलाएँ गोपियों, गोप-गोपियों, ब्रजवासियों और विशेष रूप से श्री राधा रानी के साथ अनेक मधुर प्रसंगों से ओतप्रोत हैं।

1. श्री राधा और श्री कृष्ण का जन्म एवं प्रारंभिक काल

श्री कृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ, लेकिन उनके पिता वसुदेव ने उन्हें यशोदा और नंद बाबा के यहाँ गोकुल में पहुँचा दिया। वहीं, दूसरी ओर श्री राधा रानी का जन्म वृषभानु जी और माता कीर्ति के यहाँ बरसाना में हुआ। मान्यता है कि श्री राधा जी बिना किसी शारीरिक जन्म के, दिव्य ज्योति रूप में प्रकट हुई थीं।

श्री राधा और श्री कृष्ण का प्रथम मिलन उनके बाल्यकाल में ही हुआ। जब श्री कृष्ण छोटे थे, तब वे गोकुल में अपनी बाल लीलाओं से सभी को आनंदित करते थे। जब वे अपने बाल्यकाल में गोचारण करने लगे, तब उनका सान्निध्य राधा रानी से बढ़ने लगा।

2. श्री कृष्ण और श्री राधा रानी का प्रथम मिलन

श्री कृष्ण और राधा रानी का प्रथम मिलन तब हुआ जब श्री कृष्ण ने पहली बार वृन्दावन में प्रवेश किया। यह वह समय था जब श्री राधा अपनी सखियों के साथ यमुना तट पर खेल रही थीं। जैसे ही उन्होंने श्री कृष्ण को देखा, वे उनकी ओर आकर्षित हो गईं। इसी समय से उनके बीच प्रेम और भक्ति का दिव्य संबंध स्थापित हुआ।

3. माखन चोरी और राधा रानी के संग हास-परिहास

श्री कृष्ण अपनी बाल्यकाल में माखन चोरी के लिए प्रसिद्ध थे। वे अपने सखाओं के साथ मिलकर ग्वालिनों के घरों से माखन चुराते और बाल सखाओं संग बाँटते। एक बार, जब श्री कृष्ण माखन चोरी करने गए, तब श्री राधा ने उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया। उन्होंने कृष्ण से पूछा कि वे चोरी क्यों करते हैं, जबकि उनकी माता यशोदा उन्हें बहुत सारा माखन देती हैं। इस पर श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “राधे! यह माखन तुम लोगों के प्रेम का प्रतीक है, जो मुझे सबसे प्रिय है।”

4. राधा-कृष्ण का कुंज बिहारी खेल

श्री राधा और श्री कृष्ण की बाल लीलाओं में कुंज बिहारी खेल विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। यह लीला वृन्दावन के निकुंजों में होती थी, जहाँ श्री कृष्ण और श्री राधा अपनी सखियों के साथ क्रीड़ा करते। कभी वे फूलों की वर्षा करते, कभी यमुना तट पर जल क्रीड़ा करते, तो कभी मधुर गीतों के माध्यम से एक-दूसरे से संवाद करते।

5. रास लीला की प्रारंभिक झलकियाँ

बाल्यावस्था में ही श्री कृष्ण ने अपनी मोहिनी मुरली से सम्पूर्ण ब्रज को मोहित कर दिया था। जब भी वे बंसी बजाते, समस्त गोपियाँ उनकी ओर आकर्षित हो जातीं। बाल्यकाल में भी श्री कृष्ण ने रास लीला का प्रारंभ किया था, जिसमें श्री राधा रानी उनके साथ नृत्य करती थीं।

6. राधा-कृष्ण की जल क्रीड़ा

एक बार श्री कृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी में जल क्रीड़ा कर रहे थे। श्री राधा अपनी सखियों के साथ वहाँ पहुँचीं। श्री कृष्ण ने राधा रानी को जल में खींच लिया और दोनों ने जल में एक-दूसरे पर छींटे मारकर खूब खेला। यह लीला ब्रजवासियों के लिए अत्यंत आनंदमय थी।

7. फूलों की होली और मधुर प्रेम प्रसंग

राधा-कृष्ण की बाल लीलाओं में एक और प्रमुख प्रसंग है—फूलों की होली। बसंत पंचमी के दिन श्री कृष्ण और श्री राधा अपनी सखियों संग फूलों की होली खेलते थे। श्री कृष्ण, राधा रानी पर रंग डालते और वे लजाते हुए उन्हें मारने का प्रयास करतीं। यह लीला अत्यंत मनोरम होती थी।

8. श्री कृष्ण की बाल गोपियों संग प्रेम भरी छेड़छाड़

श्री कृष्ण अपनी बाल सखाओं के साथ गोपियों को छेड़ने में भी बहुत निपुण थे। वे कभी उनकी मटकी तोड़ देते, तो कभी उनका घड़ा छुपा देते। श्री राधा जब श्री कृष्ण की शरारतों से परेशान हो जातीं, तब वे अपनी सखियों संग जाकर माता यशोदा से उनकी शिकायत कर देतीं।

9. बंसी की मधुर तान और राधा जी का रिझना

जब भी श्री कृष्ण अपनी बंसी बजाते, तो श्री राधा मंत्रमुग्ध होकर उनकी ओर खिंची चली आतीं। उनकी मुरली की तान इतनी मोहक थी कि ब्रज की गोपियाँ, ग्वाले और यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी ठहर जाते। श्री राधा इस तान को सुनकर स्वयं को रोक नहीं पातीं और श्री कृष्ण के पास पहुँच जातीं।

10. प्रेम और भक्ति का संदेश

श्री कृष्ण और श्री राधा की बाल लीलाएँ केवल प्रेम प्रसंगों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे भक्ति, समर्पण और दिव्य आनंद का संदेश देती हैं। उनका प्रेम लौकिक नहीं, बल्कि अलौकिक था, जो भक्ति मार्ग में हर भक्त के लिए प्रेरणा है।

निष्कर्ष

श्री राधा और श्री कृष्ण की बाल लीलाएँ उनके अद्भुत प्रेम, भक्ति और आनंद का प्रतीक हैं। इन लीलाओं में न केवल दिव्य प्रेम झलकता है, बल्कि भक्ति का मार्ग भी प्रशस्त होता है। ब्रज की भूमि में आज भी इन लीलाओं की स्मृतियाँ जीवंत हैं, और भक्तगण इन्हें सुनकर व स्मरण कर आत्मिक आनंद का अनुभव करते हैं।

भगवान श्री कृष्ण माखन चोरी क्यों करते थे?

भगवान श्री कृष्ण के माखन चोरी करने की कथा अत्यंत रोचक, गूढ़ रहस्यों से परिपूर्ण और भक्तों के हृदय को आनंदित करने वाली है। यह कथा केवल एक बालक के माखन चुराने की नहीं, बल्कि गहरे आध्यात्मिक रहस्यों को प्रकट करने वाली है। श्रीमद्भागवत महापुराण, हरिवंश पुराण, और विभिन्न संतों द्वारा रचित ग्रंथों में इस लीला का विस्तृत वर्णन मिलता है।

श्री कृष्ण की माखन चोरी लीला का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व

भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाएँ केवल मनोरंजन के लिए नहीं थीं, बल्कि उनमें गहरे आध्यात्मिक रहस्य छिपे हुए हैं। माखन चोरी की लीला का वर्णन हमें यह समझाने के लिए किया गया है कि भगवान भक्तों के प्रेम के भूखे होते हैं और भक्तों के हृदय रूपी माखन को ग्रहण करते हैं।

1. भगवान श्री कृष्ण के बाल्यकाल का परिचय

भगवान श्री कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ, लेकिन कंस के अत्याचारों से बचाने के लिए वसुदेव जी ने उन्हें यशोदा और नंद बाबा के पास गोकुल पहुँचा दिया। गोकुल में उनका बचपन बड़ी चंचलता और लीलाओं से भरा हुआ था। उनका मुख्य उद्देश्य भक्तों को आनंदित करना और धर्म की पुनर्स्थापना करना था।

श्रीकृष्ण का बचपन बड़ा ही अलौकिक था। वे साधारण बालकों की तरह नहीं थे, बल्कि अपनी अद्भुत लीलाओं के द्वारा उन्होंने गोकुलवासियों को प्रेम और भक्ति का मार्ग दिखाया। इसी क्रम में उन्होंने “माखन चोरी” की दिव्य लीला की, जो आज भी भक्तों के लिए भक्ति और प्रेम का प्रतीक बनी हुई है।

2. माखन चोरी की लीला का वर्णन

गोकुल में सभी ग्वाल-बालों और माता यशोदा को श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में विशेष आनंद आता था। नटखट श्रीकृष्ण को माखन और दही बहुत प्रिय था। माता यशोदा उनके लिए बड़े प्रेम से माखन तैयार करती थीं, लेकिन भगवान श्री कृष्ण केवल अपने घर का माखन नहीं खाते थे, बल्कि गोकुल की अन्य गोपियों के घर से भी माखन चुराकर खाते थे।

गोपियाँ अक्सर अपने घरों में माखन को ऊँचाई पर लटका कर रखती थीं ताकि श्री कृष्ण उसे न चुरा सकें, लेकिन श्रीकृष्ण अपनी बाल सखाओं के साथ मिलकर नई-नई युक्तियाँ लगाते और माखन चुरा ही लेते।

गोपियाँ जब देखतीं कि उनके घड़ों से माखन गायब है, तो वे एकत्र होकर माता यशोदा के पास शिकायत करने जातीं। वे कहतीं—

“यशोदा, तेरा लाला बड़ा शरारती है! वह हमारे घर में घुसकर माखन चुरा लेता है। हमने माखन ऊँचे घड़ों में बाँध दिया था, फिर भी उसने अपने मित्रों के साथ मिलकर उसे निकाल लिया।”

माता यशोदा जब श्रीकृष्ण को पकड़ने का प्रयास करतीं, तो वे अपनी तोतली बोली में कहते—

“मैया! मैंने माखन नहीं खाया, यह तो मेरे ग्वाल-बाल मित्रों ने खाया है।”

परंतु जब माता यशोदा उनके अधरों पर माखन लगा हुआ देखतीं, तो उनकी चतुराई समझ जातीं और प्रेम से श्रीकृष्ण को गले लगा लेतीं।

3. माखन चोरी के पीछे छिपा आध्यात्मिक रहस्य

(i) भक्तों के हृदय से प्रेमरूपी माखन ग्रहण करना

गोपियों का माखन श्रीकृष्ण के लिए केवल भोजन नहीं था, बल्कि वह प्रेम का प्रतीक था। गोपियाँ श्रीकृष्ण के लिए बड़े प्रेम से माखन तैयार करती थीं और जब श्रीकृष्ण उसे चोरी से खाते थे, तो गोपियों को आनंद आता था।

इसका अर्थ यह है कि भगवान भक्तों के निर्मल हृदय रूपी माखन को ग्रहण करते हैं। भक्त का हृदय जब माखन के समान कोमल, शुद्ध और निर्मल होता है, तभी भगवान उसे स्वीकार करते हैं।

(ii) गोपियों के साथ प्रेम भक्ति का प्रतीक

गोपियाँ भगवान की अनन्य भक्त थीं। वे श्रीकृष्ण को पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती थीं। जब श्रीकृष्ण उनके घरों में माखन चुराने जाते थे, तो इसका वास्तविक अर्थ यह था कि भगवान अपने भक्तों के प्रेम को स्वीकार करने के लिए स्वयं उनके घर जाते हैं।

(iii) सांसारिक मोह को तोड़ने की लीला

गोपियाँ अपने घरों में माखन को सुरक्षित रखने के लिए ऊँचाई पर रखती थीं। यह प्रतीकात्मक है कि मनुष्य अपने प्रेम और भक्ति को सांसारिक वस्तुओं के बंधन में बाँध कर रखता है। भगवान श्रीकृष्ण माखन चुराकर यह सिखाते हैं कि हमें अपने प्रेम और भक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर देना चाहिए।

4. माता यशोदा द्वारा श्रीकृष्ण को बांधने की लीला

माखन चोरी की लीलाओं से परेशान होकर एक दिन माता यशोदा ने श्रीकृष्ण को पकड़ लिया और ऊखल से बाँधने का प्रयास किया। परंतु जब वे रस्सी लेकर आईं, तो वह रस्सी हमेशा दो उंगलियाँ छोटी पड़ जाती थी। यह बताता है कि भगवान को केवल प्रयास और कृपा से बाँधा जा सकता है। जब माता यशोदा ने सच्चे प्रेम से प्रयास किया, तो भगवान ने अपनी कृपा से स्वयं को बंधने दिया।

5. संतों और भक्तों द्वारा माखन चोरी लीला की व्याख्या

(i) महाप्रभु वल्लभाचार्य की दृष्टि से

वल्लभ संप्रदाय के अनुसार, माखन चोरी की लीला भगवान की वात्सल्य भक्ति को प्रकट करती है। गोपियाँ स्वयं भगवान को खिलाना चाहती थीं और जब वे चोरी से खाते थे, तो उन्हें अधिक आनंद मिलता था।

(ii) चैतन्य महाप्रभु की व्याख्या

चैतन्य महाप्रभु के अनुसार, यह लीला दिखाती है कि भगवान केवल उन्हीं के पास जाते हैं जो अनन्य प्रेम से भरे होते हैं। वे बाहरी आडंबर से नहीं, बल्कि हृदय की शुद्धता से प्रसन्न होते हैं।

6. माखन चोरी की कथा का नैतिक संदेश

(i) भगवान प्रेम के भूखे होते हैं

वे किसी के धन, बल, बुद्धि के नहीं, बल्कि प्रेम के भूखे होते हैं।

(ii) निर्मल हृदय की महिमा

जिसका हृदय माखन की तरह कोमल और शुद्ध होगा, भगवान वहीं निवास करेंगे।

(iii) सांसारिक बंधनों से मुक्ति

हमें सांसारिक मोह को छोड़कर प्रेम और भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए।

7. निष्कर्ष

भगवान श्रीकृष्ण की माखन चोरी लीला केवल एक बालक के शरारती स्वभाव को दर्शाने वाली कथा नहीं है, बल्कि यह भक्तों को भक्ति का सर्वोच्च मार्ग दिखाने वाली एक अद्भुत लीला है। यह लीला बताती है कि भगवान का सच्चा स्वरूप प्रेम है, और वे केवल प्रेम से ही बाँधे जा सकते हैं।

इस कथा को सुनने और समझने से भक्तों के हृदय में प्रेम, भक्ति, और समर्पण की भावना जागृत होती है। यही कारण है कि युगों-युगों से श्रीकृष्ण की माखन चोरी लीला भक्तों के हृदय में विशेष स्थान बनाए हुए है।

भगवान श्री कृष्ण की माटी खाने की लीला

भगवान श्री कृष्ण की माटी खाने की लीला

भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में से एक अत्यंत प्रसिद्ध और मनोहर लीला है—माटी खाने की लीला। यह लीला न केवल बाल कृष्ण की मोहक चपलता को दर्शाती है, बल्कि इसके गहरे आध्यात्मिक अर्थ भी हैं। यह घटना श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में वर्णित है और भक्तों के लिए विशेष रूप से प्रेरणादायक है।

लीला का पृष्ठभूमि

गोकुल और वृंदावन में बालकृष्ण ने अनेकों बाल लीलाएँ रचीं, जिससे वे गोकुलवासियों के प्रिय बन गए। उनकी मधुर मुस्कान, भोला स्वभाव और अलौकिक खेल-खेल में उनके दिव्य रूप का दर्शन सभी को आनंदित कर देता था। श्रीकृष्ण की माताजी यशोदा अत्यंत स्नेहमयी थीं और वे अपने बालकृष्ण की हर चेष्टा पर मुग्ध रहती थीं।

श्रीकृष्ण का लालन-पालन गोपों के साथ हुआ, जो ग्वाल-बालों के साथ खेलते, दौड़ते और अनेक प्रकार की चंचल बाल लीलाएँ करते रहते थे। उन्हीं लीलाओं में एक दिन उन्होंने मिट्टी खाने की लीला रची। यह लीला कई महत्वपूर्ण संदेशों को समाहित किए हुए है, जिसे हमें समझने की आवश्यकता है।

लीला का वर्णन

1. ग्वाल-बालों के साथ खेलना

एक दिन श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ गोचारण के लिए गए। सभी ग्वाल-बाल आनंदपूर्वक खेल रहे थे, हँसी-ठिठोली कर रहे थे और श्रीकृष्ण के साथ प्रसन्नता से समय बिता रहे थे। खेलते-खेलते श्रीकृष्ण को भूख लग गई। उनके सखा तो अपने-अपने घर से लाया हुआ भोजन कर रहे थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने बालस्वभाव में अनोखी चेष्टा की और धरती की माटी उठा ली और खाने लगे।

2. सखाओं की शिकायत

यह देखकर उनके सखा अचंभित रह गए। गोपबालकों ने तुरंत जाकर माता यशोदा से शिकायत कर दी, “माँ यशोदा! देखो, कृष्ण ने माटी खा ली है।”

यशोदा मैया को पहले विश्वास नहीं हुआ। उन्हें लगा कि यह बालकों की शरारत हो सकती है। उन्होंने श्रीकृष्ण को बुलाया और पूछा,

“लल्ला! तूने माटी खाई?”

तब नटखट श्रीकृष्ण ने बड़ी भोली सूरत बनाकर उत्तर दिया,

“मैया! मैंने कोई माटी नहीं खाई। ये सब झूठ बोल रहे हैं।”

3. श्रीकृष्ण का मुख खोलना

माता यशोदा को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने सखाओं की बातों को गंभीरता से लिया और श्रीकृष्ण से कहा,

“लल्ला, यदि तूने माटी नहीं खाई तो अपना मुख खोलकर दिखा।”

श्रीकृष्ण ने सोचा कि अब माता यशोदा को अपनी दिव्य लीला दिखाने का समय आ गया है। उन्होंने धीरे-धीरे अपना मुख खोल दिया।

4. यशोदा माता को विराट दर्शन

जैसे ही माता यशोदा ने श्रीकृष्ण का मुख देखा, वे चकित रह गईं। उन्हें केवल माटी ही नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड के दर्शन हुए।

उन्होंने कृष्ण के छोटे से मुख में –

अनगिनत लोक-लोकांतर,

सूर्य, चंद्रमा, तारे, ग्रह-नक्षत्र,

विशाल पर्वत, नदियाँ, सागर,

सम्पूर्ण सृष्टि का चक्र,

ब्रह्मा, विष्णु, महेश,

और स्वयं को भी श्रीकृष्ण के मुख में देखा।

माता यशोदा यह सब देखकर स्तब्ध रह गईं। उनकी बुद्धि कुछ क्षण के लिए ठिठक गई, वे सोचने लगीं—

“क्या यह मेरा वही छोटा सा लल्ला है? क्या यह कोई साधारण बालक है या स्वयं साक्षात् नारायण हैं?”

वे विस्मय से भर गईं और उनकी ममता और प्रेम और भी बढ़ गया। तभी श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया से माता यशोदा की बुद्धि को लौकिक अवस्था में ला दिया, जिससे वे इस विराट दर्शन को भूल गईं और पुनः श्रीकृष्ण को गोद में लेकर प्रेमपूर्वक दुलारने लगीं।

लीला का आध्यात्मिक रहस्य

इस लीला में कई गहरे आध्यात्मिक संकेत छिपे हुए हैं—

1. भगवान ही संपूर्ण सृष्टि के अधिपति हैं

श्रीकृष्ण ने अपने मुख में सम्पूर्ण ब्रह्मांड को दिखाकर यह सिद्ध किया कि वे ही इस समस्त सृष्टि के कर्ता, पालक और संहारक हैं। समस्त लोक उन्हीं में स्थित हैं।

2. माया का प्रभाव

माता यशोदा को जब श्रीकृष्ण ने ब्रह्मांड के दर्शन कराए, तो उन्हें एक क्षण के लिए ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ। लेकिन कृष्ण ने तुरंत अपनी योगमाया से उन्हें लौकिक प्रेम की स्थिति में लौटा दिया। इससे यह सिद्ध होता है कि जब तक भगवान की कृपा नहीं होती, तब तक कोई भी जीव अपनी माया से मुक्त नहीं हो सकता।

3. बालकृष्ण की नटखट लीला

भगवान श्रीकृष्ण नटखट भी हैं और भोले भी। वे अपनी बाल्यावस्था में भी ऐसी लीलाएँ करते हैं जिससे भक्तगण उनके अद्भुत स्वरूप का अनुभव कर सकें। उनकी माटी खाने की लीला दर्शाती है कि वे प्रेम करने वाले भक्तों को समय-समय पर अपनी दिव्यता का आभास कराते रहते हैं।

4. सांसारिक सत्य की झलक

भगवान ने यह भी संकेत दिया कि यह संपूर्ण जगत, जिसे हम वास्तविक मानते हैं, वह भी एक मायारूप है। वास्तव में, यह सारा ब्रह्मांड भगवान के ही अधीन है और उनकी ही इच्छा से संचालित होता है।

उपसंहार

श्रीकृष्ण की माटी खाने की लीला केवल एक बाल-क्रीड़ा नहीं, बल्कि इसमें अद्भुत आध्यात्मिक रहस्य छिपे हुए हैं। यह लीला हमें यह सिखाती है कि भगवान की प्रत्येक लीला में अनंत रहस्य होते हैं, जिन्हें केवल भक्ति और प्रेम से समझा जा सकता है।

माता यशोदा के प्रेम में श्रीकृष्ण बंधे रहते हैं, परंतु समय-समय पर वे यह भी संकेत देते हैं कि वे अनंत ब्रह्मांडों के अधिपति हैं।

इसलिए, जो भी भक्त इस लीला का श्रवण और मनन करता है, उसे निश्चित रूप से श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। जय श्रीकृष्ण!