श्री कृष्णाय नमः
★★★★ अथ सोलहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★
देव असुर सम्पदा विभाग- योग
श्री भगवानोवाच- हे अर्जुन और सुन- कई मनुष्य के स्वभाव देवताओं जैसे होते हैं कईयों के दैत्यों जैसे होते हैं प्रथम जिसमें देवताओं के स्वभाव है तिनकी सुन- निर्मल, किसी का डर ना होना अंतकरण अर्थात हृदय निर्मल अति शुद्ध होना और मेरे जानने का ज्ञान होना, मेरे समरण योग साथ जुड़े रहना तथा शक्त्ति दान करना, इंद्रिया जीतना, यज्ञ करना और मेरी महिमा जो वेदों में गाई है तिस को सुनना, पढ़ना सशस्त्र शास्त्रों, पुराणों के स्तोत्र पढ़ना, कीर्तन करना तपस्या करना, हे अर्जुन! तपस्या का महात्म्य मैं सतारहवें अध्याय में कहूंगा, अहिंसा अर्थात किसी जीव को न दुखाना, हृदय कोमल, सत्य वाणी बोलना, असत्य ना कहना, किसी से क्रोध ना करना, शरीर….
अहंकार नहीं राज्य में कष्ट नहीं मान।
क्रोध नहीं परिवार में रोगी कष्ट न जान।।
ऐसे नर वर धन्य है जपे जो मेरा नाम।
मैं उनका ही हो रहूं अर्जुन आठो याम।।
सुख-दुख जिनको सम सदा जपें निरंतर माहि।
वह मेरे हैं परम प्रिय सत्य कहूं मैं तोहि।।
संतोषी निसि दिन रहे मेरे पर विश्वास।
ऐसे भक्तों का रहूं अर्जुन में दास।।
…. की रक्षा मात्र भोजन छादन करना, इससे अधिक संचय न करना, इसका नाम त्यागी है। सदा संतोष में रहना, किसी की निंदा न करना, यथाशक्ति सबको सुख देना, निरलोभी लोग से रहित, पाप करने से लज्जा करना, चंचल स्वभाव से रहित होना, निश्चल आसन इंद्रियों और मन को निश्चल रखना और तेजस्वी क्या जो इसकी अवज्ञा कोई ना कर सके, सब कोई जिस को नमस्कार करें, जब कोई दुख दे क्षमा करें, कोई दुवचन कह जाए कोई दुख दे जाए सब सहारे, तिस को क्षमावान कहते हैं और धैर्य रखें, एक गोविंद की शरण रहे, जो कुछ भगवत इच्छा से हो भला मानना, यह बात समझ कर जो मेरी शरण में सदा संतुष्ट प्रसन्न रहें इसका नाम धैर्य है। देह को साध कर, पवित्र स्नान कर, अंतकरण ह्रदय से स्वास स्वास नाम स्मरण कर पवित्र रखें, किसी को कष्ठ ना देवे। अपनी पूजा मानता किसी से ना करावे, किसी का गुरु गुसाई न बन बैठे। हे अर्जुन! यह लक्षण मनुष्य में देवताओं के कहे है। अब असुरों के लक्षण सुन- प्रथम पाखण्ड से कई लोकों में अपने आप को धर्मात्मा दिखाना। मन से पाप चितवने यह पाखंड है। अब अतीत पाखंडियों के लक्षण सुन- जो संसार को त्याग मेरी शरण आए हैं सो मेरी शरण आके फिर मेरे चरणों को छोड़कर और बात की मन में चितवना करें और कहे कि मुझ जैसा और कोई नहीं, क्रोध और कठोर बोलने वाला हो, हे पार्थ! यह अतीत पाखंडी होते हैं। हे अर्जुन, इनकी दो प्रकार की प्रकृति होती है इनकी उत्पत्ति अज्ञान से है इन दोनों प्रकृतियों का फल सुन- जिस मनुष्य में देवताओं की प्रकृति है सो प्राणी संसार से सुक्त होते हैं, जिनकी दैत्यों की प्रकृति है प्राणी संसार के जन्म मरण के बन्धनों में पड़े रहते हैं जब यह वचन श्री कृष्ण भगवान जी के मुख से सुने तब अर्जुन अपने मन मे विचार करने लगा हे मन! दैत्यों का स्वभाव भी तेरे ‘मैं’कोई है ? इसको देखकर श्री कृष्ण जी सह न सके, तब कमलनयन केशव जी तत्काल बोले, हे अर्जुन! तू यह मत सोच तू देवताओं की प्रकृति लेकर जन्मा है, जन्म के साथ ही देवताओं की प्रकृति तेरे मन में आई है, हे अर्जुन! देवताओं के स्वभाव विस्तार से कहे हैं दैत्यों के स्वभाव थोड़े कहे हैं सो कुछ थोड़े और भी सुन- हे अर्जुन दैत्यों के स्वभाव वाले मनुष्य न तो गृहस्त में सुखी रहते हैं न अतीत होकर अतीत होने का मार्ग जानते हैं कि कैसे अतीत होते हैं, न पवित्रता को जानते हैं कि कैसे स्नान से पवित्रता होती है और मुख्य तत स्वरूप को भी नहीं देख सकते, परस्पर मिलते हैं तो यह कहते हैं कि परमेश्वर कहां है ? किसने देखा है। परमेश्वर नहीं संसार का कर्ता कोई नहीं और न संसार का कोई ईश्वर है, हम आप ही आप उत्पन्न हुए हैं हम ही परमेश्वर हैं, सो प्राणी मूर्ख अन्धमति आप ही को परमेश्वर कहते हैं और सब बातों में यह भली बात समझ रखी है कि उत्तम स्वादिष्ट भोजन भोग भोगिये, और अच्छे-अच्छे सुगन्धि वाले रंगीन वस्त्र पहनिये, सुंदर स्त्रियों के साथ सुख भोगिये, इन बातों को परम सुख रूप समझ रखा है। इसको लोभ समझने से दुष्ट बुद्धि तिनकी हुई, शुद्ध आत्मा तिनका नष्ट हुआ और यह थोड़ी मत वाले ऐसे कार्य आरम्भ करते हैं जिससे आप भी कष्ट पाते हैं व औरों को भी कष्ट देते हैं और जो कभी तार न सके ऐसे कर्मों का आश्रय पकड़ रखा है। पाखंड गर्व मदाधन्ता से अंधे हुए हैं सो तिस अन्धेरे साथ उन्मत मतवारे हो रहे हैं, माया के मोहे हुए मिथ्या वस्तु को पकड़ रहे हैं अति अपवित्र स्वभाव को बर्तते हैं। जब तक संसार की प्रलय नहीं तब तक नित्य ही चिन्ता में मगन रहते हैं। काम स्वार्थ का परम लोभ, काम की दृढ़ता में दृढ़,आशा से बंधे हुए काम क्रोध में दृढ़ है। नीच कर्म कर द्रव्य एकत्र करते हैं, छल बल झूठ से अपने आप को नाश करते हैं, कपट से द्रव्य इकट्ठा करने को बड़ा लाभ जानते हैं और कहते हैं कि मेरा मनोरथ पूरा हुआ, यह प्रातः मैं पाऊंगा, यह अगले दिन पाऊंगा, शत्रुओं के मारने को समर्थ हूं, वैरी को जितना जानता हूं, सिद्ध बलवान हूं, सुखी हूं, ततपुरुष हूं, सात पीढ़ियों से धनपात्र हूं, पुरातन साहूकार हूं, मेरे तुल्य दूसरा कोई नहीं मैं ही सबसे बड़ा ठाकुर हूं, कर्म करतूत का कर्ता हूं और सब मेरे दास है, अज्ञान मोह बहुत चितवना विषयों में निमग्न है। हे अर्जुन! अनेक प्रकार के विषयों में तिनका मन पड़ा भ्रमता है मोह के जाल में फंसे हुए काम भोगों में पड़े हुए उनकी दशा कैसी है यहां भी नर्क आगे भी नरक में पड़ेंगे। और यज्ञ महोत्सव श्राद्ध क्षय कार्य तिनके कैसे हैं सो सुन- प्रथम तो अहंकार करते हैं कि किसी को सिर नहीं निवाते, धन के घमण्ड में मतवारे हुए रहते हैं, लोगों से भला कहाने के निमित्त यह श्राद्ध यज्ञ करते हैं फिर अहंकार, बलगर्व, काम, क्रोध से भरे हुए हैं और मैं जो आत्माराम सब देहों में व्यापक हूं तिसको नहीं जानते सो दैत्य बुद्धि मनुष्य हैं। किसी देहधारी को दुख देते हैं, किसी की निन्दा करते हैं इत्यादि जो कठोर मनुष्य, नीच, पापी है तिनके लक्षण कहे हैं अब अर्जुन! मेरी बात सुन- तिनके साथ कैसा हूं ? तिनको दुखदायक गधे की योनि तथा कलह कलेश अज्ञान से भरी हुई कुत्ते इत्यादि की आसुरी योनियों में डालता हूं बारंबार ऐसा कुचील योनि में तिनको भरमाता हूं, हे कुंतीनन्दन! जिन्होंने मुझे नहीं पाया सो प्राणी बारम्बार इन कुचील योनियों में भरमते फिरते हैं, हे अर्जुन! इस आत्मा का नाश करने हारे काम, क्रोध, लोभ-मोह तीन द्वार नरक के हैं, हे सचेप्रीतम इनको त्याग कर जो तीनों से मुक्त है, तिन प्राणियों ने अपनी आत्मा को कल्याण की ओर लगाया है सो मनुष्य परम गति को प्राप्त होंगे। हे अर्जुन! जो शास्ज्ञ की मति त्याग कर अपने मन की बात पर चलते हैं और यज्ञ आदि महोत्सव, कार्य को करते हैं, शास्त्र विधि को त्याग के दान करते हैं सो मनुष्य किसी कर्म किए का फल नहीं पावेंगे और ना किसी प्रकार का तिन को सुख होगा और किसी समय भी परमगति को नहीं पावेंगे। इसलिए हे अर्जुन! जो भले पुरुष निर्मल आत्मा है, जो कुछ यज्ञ, तप, दान करते हैं शास्त्र विधि से करते हैं, सो प्राणी मेरी कृपा से मेरी परम गति को पावेंगे।
★★★★ अथ सोलहवें अध्याय का महात्म्य ★★★★
श्री नारायणोवाच- हे लक्ष्मी अध्याय का महात्म्य सुन। सोरठ देश में एक राजा का नाम खड़क बाहु था वह बड़ा धर्मात्मा था, तिसके राज्य में घर-घर ठाकुर जी के मंदिर थे। वहां बड़े-बड़े यज्ञ हुआ करते थे, वहां के घरों में स्वर्ण के जड़ाऊ थम्बे खड़े हुए थे, राजा बड़ा हरि भक़्त और संत सेवक था।
तिसकी प्रजा अति सुखी थी, राजा भी दयावान सर्व जीवों पर दया करता था। राजा के पास बहुत हाथी-घोड़े धन भी था, उन हाथियों में एक हाथी बड़ा मस्त था, तिसकी धूम मची रहती थी। वह हाथी महावतों को पास न आने देता जो महावत उस पर चढ़ता उसे मार डालता। हाथी के पांव में जंजीर डाले रहते, किस के खेद से राजा ने और देशों से महावत बुलाकर देखता कि कोई ऐसा हो जो इस हाथी को वश मे कर सके मैं उसे धन दूंगा। हे लक्ष्मी!पर उस हाथी को कोई वश मे न कर सका, उसके नजदीक भी कोई नही जा सकता था। वह हाथी राजा के मंदिर के आगे खड़ा रहता, जिधर जाता लोगों बड़ा दुख देता, जो भी उसके आगे आता उसे तुरंत मार डालता, वन में जाए तो वन के पशु-पक्षियों को मारता, नगर में लोगों को मारता जहां जाता बड़ा उपद्रव करता। राजा सुनकर बड़ा चिंतावान रहता, बहुत उपाय करके राजा थक गया हाथी वश में न आया। एक दिन हाथी
उपद्रव करता नगर मे चला जा रहा था, सामने से एक साधु भी चला आता था लोगों ने उस साधु को कहा- हे संत जी! यह हाथी आपको मार डालेगा। संत ने कहा- तुम श्री नारायण जी की शक्ति को नही जानते उसके सामने हाथी कि क्या शक्ति है जो यह मुझे मारे, मेरे नजदीक भी नही आ सकता। नगर वासियों ने कहा वह पशु तेरे भजन को क्या जाने यह तुम्हें मारेगा। साधु ने कहा- यह क्या मारेगा मैं परमेश्वर का प्यारा हूं, हरि भक्त हूं, जो परमेश्वर से विमुख है तिनको यह मारता है और यह मेरा एक ज्ञान है, जो मेरी मृत्यु इसी से है तो अवश्य मारूंगा बिना आई कोई नहीं मरता। हाथी साधु के पास पहुंचा, साधु ने नेत्र प्रसार कर देखा हाथी ने सूंड के साथ साधु को चरण वंदना की और खड़ा रहा, तब साधु ने कहा- हे गजेंद्र! मैं तुझे जानता हूं पिछले जन्म तू बड़ा पापी था, मैं तेरा उद्धार करूंगा चिंता मत कर, हाथी बारम्बार चरण छूता, माथा निवाता, हाथी ने आगे हो साधु की चरण वंदना की। लोगों ने यह खबर राजा को की तो तुरंत राजा भी वहां आया, देखा तो हाथी साधु के आगे खड़ा है तब साधु ने कहा- हे गजेंद्र! तू आगे आ, उस गीता पाठी साधु ने कमंडल से जल लेकर मुख से कहा मैंने अपना गीता के सोलहवें अध्याय के पाठ का फल इस हाथी को दिया, इतना कहकर जल छिड़कते उस हाथी की छूट गयी और देव देही पाई और एक देव रूप धर राजा के सम्मुख होकर कहा राजा मैं तुझको धर्मज्ञ जान तेरे नगर में रहता था कि कभी कोई संत यहां आएगा तब मेरी गति करेगा, इस संत के प्रताप से मेरी सदगति हुई है यह कहकर बैकुण्ठ को चला गया। राजा ने संत को दंडवत की और कहा संत जी आपने क्या मंत्र कहा जिससे इस अधम दुखदायक को सदगति प्राप्त हुई है। सुनते ही संत ने कहा- मैंने गीता जी के सोलहवें अध्याय का पाठ का फल दिया है मैं नित्य ही पाठ किया करता हूं, राजा ने पूछा हे संत जी! हाथी ने ऐसा क्या पाप किया जो इसने हाथी की जूनि पाई थी। साधु ने कहा- हे राजन! यह पिछले जन्म यह एक अतीत का बालक था, गुरु ने बहुत विद्या पढ़ाई और यह बड़ा पंडित हुआ। वह गुरू तीर्थ यात्रा को गया, पीछे उसकी शोभा बहुत हुई, अच्छे अच्छे सतसंगी उसके दर्शनों को आते थे। बारह वर्ष पीछे जब गुरु जी आए वह अतीत समाधि लगाए बैठा था, मन में सोचा अब इनके आदर को उठूंगा तो मेरी शोभा घटेगी। यह सोचकर नेत्र बंद कर चुप हो बैठा रहा, गुरु जी ने देखा मुझे देखकर इसने नेत्र बंद किये है यह देखकर गुरू ने शाप दिया, कहा हे मन्दमत! तू अंधा हुआ है मुझे देखकर सिर नहीं निवाया और ना उठकर दंडवत की है तूने अपनी प्रभुता का अभिमान किया है सो तू हाथी कि जून पावेगा। यह सुनकर वह बोला, हे संत जी! आपका वचन सत्य होवेगा पर मुझ पर दया कर यह कहो मेरा उद्धार कैसे होवेगा ? गुरु जी को दया आई और कहा जो कोई गीता के सोलहवें अध्याय का पाठ का फल तुझे दे देगा तब तेरा उद्धार होगा। यह बात कहकर साधु आगे की ओर चल दिया। यह बात सुनकर राजा भी नित्य गीता जी के अध्यायों का पाठ करने लगा और समय पा राजा भी सदगति को प्राप्त हुआ। श्री नारायण जी कहते हैं हे लक्ष्मी! यह सोलहवें अध्याय का फल है।
इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम षड़दशो अध्याय सम्पूर्णम्।।