श्री कृष्णाय नमः
★★★★ अथ सतारहवां अध्याय प्रारम्भते ★★★★
त्रिविध श्रद्धा योग
अर्जुनोवाच- अर्जुन श्री कृष्ण भगवान जी से प्रशन करता है कि हे भगवान कृपा निधान जी! पुरुष अपनी बुद्धिमत्ता से शास्त्र विधि को समझ नहीं सकते और जो तुम अविनाशी परमानन्द का समुद्र ऐसा पहचान कर तुम्हारी शरण आये हैं, तुम्हारे भक्त हुए हैं…
अब अर्जुन मैं दान की व्याख्या कहूं सुनाय।
दान है तीन प्रकार का सुनिए ध्यान लगाय।।
सात्विक राजस तामसिक तीन दान के नाम।
नीनों में सात्विक भला यूं कहिते घनश्याम।।
फल की इच्छा त्याग कर करना चाहिए दान।
बेजऱ ऐसे दान से होता है कल्याण।।
पात्रन को जो दे दिया फल इच्छा को त्याग।
वही दान उत्तम सदा सुन मित्र महा भाग।।
….तुम्हारा भजन स्मरण किया, तिन पुरुषों ने शास्त्र की विधि को पहचाना और हे भगवान! जिन प्राणियों ने तुम परमानन्द अविनाशी समुद्र को नहीं पहिचाना, तिन पुरुषों ने शास्त्र की विधि नहीं पहचानी हे परम पवित्र पुरुषोत्तम जी! जिन मन्दभाग मनुष्य ने शास्त्र की विधि से जो तुम्हारा भजन है उनको त्याग कर श्रद्धा से ओर देवता की सेवा पूजा की सो हे कमल नयन कृपा निधान जी! वे प्राणी राजसी है या तामसी, यह मेरे प्रति कहिये। अर्जुन की विनती मान श्री कृष्ण भगवान जी कहते हैं श्री भगवानोवाच-
हे अर्जुन! पूजा करने की श्रद्धा तीन प्रकार की है जो बिना यत्न ही मनुष्य में जाग उठती है। राजसी, सात्विकी और तामसी मैं उनको भिन्न-भिन्न कहिता हूं, हे अर्जुन! जिनकी सात्विक प्रकृति है वह एक ही भगवान को सर्वव्यापी जान कर के सब के साथ श्रद्धा रखते हैं सबके सुह्रद मित्र होंय वरते हैं और राजस प्रकृति सुन- यज्ञों में देवता की पूजा में तिनका मन लगे हैं और तामसी प्रकृति सुन- प्रेत भूतगन इत्यादिक जो तामसी जन है तिन में उनका मन लगे हैं जो इस प्रकार तपस्या करते हैं सो असुर देवताओं की तपस्या है, जो शास्त्र में नहीं कही जिसके देखने से डर आता है ऐसे जो तपस्वी लोगों को दिखाने के लिए तप करते हैं और मन में फल की कामना करते हैं तिस को करते शरीर को कष्ट भी होवे, अर्जुन तिसकी देह में भी आत्माराम व्यापी हूं, सो मुझ को दुख देते हैं ऐसे जो अन्धमत अज्ञानी तप को करते हैं तिसको तू दैत्य तपस्वी जान,यह दैत्यों की प्रकृति है। हे अर्जुन! अब आहार के भेद सुन- आहार भी तीन प्रकार के होते हैं, यज्ञ भी तीन प्रकार के हैं और दान भी तीन प्रकार के हैं, इनके भेद भिन्न भिन्न है सुन- सात्विक पहले आहार मन, जिसके खाने से आयु बढ़ती है, ऐसा भोजन देवता का मिलता है तिसका पान करने से देवता अमर हो जाते हैं। मनुष्य का आहार सुन- जिसके खाने से देह में बल पुरुषार्थ हो, आरोग्यता हो, जिसके खाने से मन में प्रीति उपजे और रस स्वाद से भरा हुआ गृत साथ सिनग्ध दाल, चावल, कोमल फूल के घृत से चपड़े नरम यह आहार सात्विक कहावे है, जो मनुष्य को प्यारा है। अब राजसी आहार मीठा, खट्टा, सलूना, अति तता, जिनके खाने से मुख जले और रोग उपजे, दुख देवे, ऐसे बुरे फल जिनके खाने होते है यह आहार राजसी मनुष्य को प्यारा है। अब तामसी सुन- जिस आहार पर रात्रि व्यतीत हो गई अथवा रात्रि का बासा हो और स्वाद भी जिससे मिट गया हो, दुर्गंध आती हो और किसी का जूठा हो, यह भोजन तामस कहलाता है, तामसी मनुष्य को प्यारा है। अब तीन प्रकार के यज्ञ सुन- पहले सात्विक यज्ञ सुन- उस यज्ञ में फल पाने की कामना नहीं जैसे शास्त्र में विधि लिखी सो करनी चाहिए और यज्ञकर्ता कहे कि मुझको यह यज्ञ योग्य है, इस प्रकार सावधान होकर यज्ञ करे सो यह यज्ञ सात्विक कहलाता है। अब राजसी यज्ञ सुन- जिसके करने में फल की वांछा करता है या लोगों से भला कहलाने के निमित्त यज्ञ करता है। हे अर्जुन! ऐसे यज्ञ को तू राजसी यज्ञ जान और जिस यज्ञ में शास्त्र की विधि नहीं, मन भी पवित्र ना हो, वेद के मंत्र भी ना पढ़े जाए, साधु ब्राह्मणों को यज्ञ के पीछे दक्षिणा दे ऐसे यज्ञ में यज्ञकर्ता को श्रद्धा भी ना हो। अर्जुन! इस यज्ञ को तामसी जान, अब तीन प्रकार का तप सुन- एक देह का, दूसरा मन का, तीसरा बचपन का, यह तीन प्रकार के तप है। प्रथम देह का तप सुन- यहां कोई छोटा जीव हो तिसको देखकर पैर धरना, किसी जीव को खेद ना पहुंचाना, यह चरणों का तप है। हाथों से स्थावर जंगम किसी जीव को ना दुखावे यह हाथों का तप है। देह को जल मृतिका साथ स्वच्छ रखें, दातन करें, स्नान करें, आचमन करें, तिलक करें, शालिग्राम का पूजन करें और जो बुद्धि आप से अधिक हो परमेश्वर का रास्ता बतावे उसकी सम्मान करना, ब्रह्मचार्य रखना, ब्रह्मचार्य क्या सो सुन- हे अर्जुन! जो गृहस्थी हो तो पराई स्त्री को छुए नहीं, जो विरक्त वैरागी हो तो स्त्री का नाम भी ना लेवे, मन कर चितवे भी नहीं, यह ब्रह्मचर्य कहलाता है माता पिता की सेवा करें इस प्रकार शरीर का तप करना उचित है। अब वचनों का तप सुन- प्रथम तो सत्य बोलना कैसा सत्य ? जिसके बोलने से सुनने वाले को दुख ना होवे, मधुर वाणी बोले, मधुर स्वर से सब किसी को बुलावे भाई जी, संत जी, भगत जी, प्रभु जी, मित्र जी, जिस वचन से सुनने वाला प्रसन्न हो ऐसा वचन बोले और जो कोई पुरुष बुलाए उसे यूं कहा हां जी भाई, इस प्रकार वचन तपस्या है और वचन तप सुन- वेदमाता अर्थात गायत्री पढे, वेद पाठ करें, सहस्रशीर्ष, पुराणों के स्तोत्र पढ़े और कथा में जो मेरी लीला, अवतारों के चरित्र पढे, कीर्तन, विष्णु पद गावे, इस प्रकार तप करें। हे अर्जुन
मन का तप सुन- प्रथम मुख्य तप मन को प्रसन्न रखे। मेरी जो प्रीति अमृत रूप है मन की प्रीति मेरे में लगावे और चितवना से मन को हटा कर मन का निश्चल चेता मेरे मे लगावे और मन को शुद्ध करें, मेरे से श्रद्धा लगावे, मुझसे प्रीति करें यह मन की तपस्या कहलाती है। अब स्वासों की तपस्या सुन- स्वास-स्वास मेरा स्मरण करना, हरि राम, कृष्ण इत्यादिक मेरे नामों का जाप करना। सहस्त्र नाम शत नाम पढ़ना स्वासों का तप है। अब इस तपस्या के तीन प्रकार के भेद सुन- मैंने जो देह मन वचन स्वासों से तप करना कहां है जो प्राणी परम श्रद्धा से ऐसा करता है सो मुझको आ मिलता है और प्रीति से तपस्या करें और फल कुछ बांछे नहीं, मुझ ईश्वर अविनाशी मे समर्पण करे सो सात्विक तप कहलाता है और जो लोगों में भला कहाने के निमित्त तप करें अपनी पूजा प्रतिष्ठा करवावे, अपनी मानता करावे सो पाखंडी तपस्या, राजसी तपस्या कहावे है यह तप चलाए मान है स्थिर नहीं, अब तामसी तपस्या सुन- जो अज्ञान को लिए हुए तप करें और जिस तप से शरीर को कष्ट प्राप्त हो और किसी का बुरा करने के निमित तप करें सो तामसी तप कहावे है। अब तीन प्रकार का दान सुन- प्रथम सात्विक दान, सो इस प्रकार दान करें कि यह दान करना आवश्यक मुझको योग्य है, कैसे करें ? उत्तम ब्राह्मण गृहस्थी को दान दें, जिससे संसारी कामना की इच्छा ना हो, किसी संबंधी सगे का ब्राह्मण ना हो और अति पवित्र पृथ्वी हो, गो के गोबर के साथ लिपि और आसन एक सा हो, प्रात काल का समय हो, आप भी स्नान करके पवित्र हो, और ब्राह्मण भी पवित्र सुकर्मी हो तिसको दान देवें इसी विधि से सात्विक दान कहलाता है। अब राजसी दान सुन- ब्राह्मण को दान देना, जिससे अपना कुछ उपकार हो। दान करने से फल की वांछा करें, यह दान राजसी कहलाता है। तामसी दान यह है- स्थान भी पवित्र नहीं, समय भी ऐसा हो आप भोजन पाकर दान करें, ब्राह्मण भी ऐसा हो या किसी और जाति मलेच्छ आदिक को दान देवे, क्रोध से या गाली देकर दुर्वचन कह कर दान दे, यह तामसी दान कहावे है। अर्जुन! जिसको पारब्रह्म कहते हैं सो कौन पारब्रह्म ? जिस के रजोगुण से संसार की उत्पत्ति करने को ब्रह्मा, सात्विक गुण से संसार का पालन कर्ता विष्णु और तमोगुण से संसार के सहारने को महादेव प्रगट हुआ है ऐसे जिस पारब्रह्म से यह ब्राह्मण भी प्रगट किए हैं, उसी ने वेद प्रगट किए हैं, उसी ने यज्ञ बनाए हैं, हे अर्जुन! उस पारब्रह्म की आज्ञा से वेदो के भक़्त ब्राह्मण ही हैं, वेदों की विधि को समझकर ज्ञान, दान, तपस्या, स्नान और भी पवित्र कर्म इत्यादि जो हैं सब वेदों को समझ कर करते हैं। अब यज्ञ दान तपस्या का फल सुन- जो प्राणी इसका फल नहीं मांगते केवल मुक्ति की वांछा है सो प्राणी मुक्ति को पावेंगे। अब जो प्राणी किसी की कामना के लिए शुभ कर्म करते हैं सो प्राणी कामना को पावेंगे। हे अर्जुन! जो मेरा भक़्त प्रीति से पत्र, फल,पुष्प जो कुछ भी मुझ को समर्पण करें सो अंगीकार करता हूं, किस प्रकार ? सो सुन- प्रथम तो मुझको सत्य जाने कि यह जो कुछ मैं परमेश्वर को समर्पण करता हूं, गोविंद जी अंगीकार करें और आपको यह जाने कि मैं परमेश्वर का भक़्त हूं अपने में और मेरे में भेद न जाने और आपको यह कहे कि मन, वचन, कर्म से परमेश्वर का दास हूं, मेरा दास होकर मन, वचन, कर्म कर मुझे समर्पे सो मैं अंगीकार करता हूं, ऐसे भक़्त का दिया मुझको प्राप्त होता है और हे अर्जुन! जो कोई श्रद्धा से रहित होकर मेरे निमित्त कुछ पदार्थ अग्नि में होम करे, दान करे, तप करें और जो सत्य कर्म करें तिनको मैं अंगीकार नहीं करता और जो कोई अपने पितरों के निमित्त दान करता है उनको वह भी अंगीकार नहीं करते है, श्रद्धा प्रीति से रहित होकर दिया हुआ दान किन को प्राप्त होता है सो सुन- उसका फल भूतों की देह धार कर भुगतना पड़ता है भूतप्रेत उस फल को भोगते हैं मुझको नहीं प्राप्त होता और मैं भी उनको नहीं ग्रहण करता हूं।
इति श्री भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे विविध श्रद्धा योगो नाम सप्त दशो अध्याय
★★★★ अथ सतारहवें अध्याय प्रारम्भते ★★★★
श्री भगवानोवाच-हे लक्ष्मी! अब सतारहवें अध्याय का महात्म्य सुन- मंडली के नाम देश में एक दुशासन नाम राजा था उसने एक दूसरे देश के राजा के साथ आपस में शर्त बांधी कि दोनों देश आपस मे अपना अपना हाथी लड़ायें और कहा जिसका हाथी जीते तो वह अमुक धन लेवे, तब दूसरे राजा का हाथी जीत गया। दुशासन का हाथी हार गया। कुछ दिन पीछे दुशासन का हाथी मर गया। राजा को बड़ी चिंता हुई एक तो द्रव्य गया, दूसरा हाथी मरा, तीसरा लोगों की हंसी हुई। बहुत निन्दा हुई इस चिंता में राजा भी मर गया। यमदूत पकड़कर धर्मराज के पास ले गए, धर्मराज ने हुक्म दिया यह हाथी के मोह से मरा है इसको हाथी की योनि दो। हे लक्ष्मी! राजा दुशासन एक देश के राजा के यहां जाकर हाथी हुआ। वहां उस राजा के बहुत हाथी थे। तिनमें वह भी एक था। उसको पिछले जन्म की खबर थी, वह मन में बारम्बार यही पछताता कि मैं पिछले जन्म में कौन था। अब हाथी हुआ हूं, बहुत रुदन करता, खावे पीवे नहीं, इतने में एक ब्राह्मण आया उसने राजा को श्लोक सुनाया। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ। राजा ने पंडित जी से कहा- कुछ मांगो उसने कहा और मेरे पास सब कुछ है एक हाथी नहीं है। राजा ने सुनकर वही हाथी दे दिया। ब्राह्मण उस हाथी को अपने घर ले आया।ब्राह्मण ने रात को दाना दिया उसने न खाया, पानी भी नहीं पिया, रुदन करता, मन में चितवे कोई ऐसा होवे जो मुझे इस योनि से छुड़ावे। तब उस ब्राह्मण ने महावत को बुलाया पूछा कि इसको क्या दुख है ? खाता-पीता कुछ नहीं है, महावत ने कहा इस को दुख कुछ नहीं। तब ब्राह्मण ने राजा को कहा हाथी खाता-पीता कुछ नहीं, रुदन करता है। यह सुनकर राजा आप देखने को आया, राजा ने भले वैद और महावत बुलाये, सबको हाथी दिखाया, उन्होंने देखकर कहा राजा जी इसको मानसी दुख है, देह कोई दुख नहीं तब राजा ने कहा- हाथी तू ही बोल कर कह तुझे क्या दुख है परमेश्वर की शक्ति से मनुष्य की भाषा में हाथी ने कहा- हे राजन! तू बड़ा धर्मज्ञ है यह ब्राह्मण भी बड़ा बुद्धिमान है इसके घर का जो खाये सो बड़ा धर्मात्मा होवे। मुझको ब्राह्मण के घर का अन्न कहा मिलेगा। मिले तब ब्राह्मण ने कहा हे राजन अपना हाथी वापिस ले लो, तब राजा ने कहा मैं दान दिया हुआ नहीं फेरता, यह मेरे चाहे जहा जाए। तभी हाथी ने कहा- हे संत जी! तू मत कलप तेरे घर में गीता है तो मुझे गीता के सतारहवें अध्याय का पाठ सुनाओ। तब उस ब्राह्मण ने ऐसा ही किया। हे लक्ष्मी सतारहवें अध्याय का पाठ सुनते ही तत्काल हाथी की देह छूट गई और देवरूप राजा के सामने आ खड़ा हुआ।। राजा की स्तुति करी, राजन तू धन्य है तेरी कृपा से मैं इस योनि से छुटा हूं। राजा को अपनी पिछली कथा सुनाई- हे राजन मैं पिछले जन्म राजा था मैंने शर्त बांध हाथी लड़ाए, मेरा हाथी हार गया, मैं उसी चिंता में मर गया धर्मराज की आज्ञा से मैंने हाथी का जन्म पाया। मैंने प्रार्थना करी थी मेरा छुटकारा कहो कब होगा तब धर्मराज ने कहा गीता के सतारहवें अध्याय का पाठ सुनने से तेरी मुक्ति होवेगी। सो तेरी और पंडित जी की कृपा हुई जो मैं बैकुण्ठ को जाता हूं। हाथी देव देहि पाकर बैकुंठ को गया और राजा भी अपने महल वापिस आ गया। श्री नारायण जी कहते हे लक्ष्मी! सतारहवें अध्याय का महात्म्य है जो मैंने कहा और तुमने सुना है।
इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम सपतदशों अध्याय सम्पूर्णम्।।