श्री कृष्णाय नमः

★★★★ अथ नवम अध्याय प्रारम्भते ★★★★

राज विद्या अथवा राजगुय्हा – योग

श्री भगवानोवाच- श्री कृष्ण भगवान जी अर्जुन को कहते हे अर्जुन! मैं गुय्हा से परम गुय्हा ज्ञान तेरे प्रति कहता हूं तू सुन, तेरे प्रति क्यों कहता हूं तू मेरे वचनों की निंदा नहीं करता, सत्य कर मानता है इसी से वह ज्ञान जिनके जानने से तू संसार से निर्लेप रहेगा। जितनी विद्या है और जो गुहथा वस्तु है तिनका भी राजा है और पवित्र से अति पवित्र है, उत्तम से अति उत्तम है और…..

मुझ को ईश्वर जानकर मेरे भक़्त सुजान।
निशि बासर को मोह जपें मेरा करते ध्यान।।
गावत नाचन प्रेम से कुदत दे दे ताल।
ढोल मृदंग बजावते अति उत्तम स्वरें निकाल।।
तन की होश बिसार कर होवत मुझ में लीन।
हे अर्जुन मैं होत हूं उनके तुरत अधीन।।
जो योगी मम भक्त हैं मोहे अति प्रिय वे जान।
बेजर अर्जुन के प्रति यूं कहते भगवान।।

….. अगम पुरुष जो किसी के कहे जाना नहीं जाता तिसको प्रत्यक्ष दिखाऊंगा, जिस ज्ञान के जाने से अति सुन्दर अविनाशी पुरुष प्राप्त होता है। जो ऐसे ज्ञान को पावे है उसकी बात सुन- हे पवन्तप अर्जुन! जो ऐसे ज्ञान को नहीं जानते सो प्राणी मुझको नहीं पाते बारम्बार संसार में जन्मते हैं। अब अर्जुन और सुन- जिन ज्ञान की पीछे महिमा कही है सो सुन- हे अर्जुन! मेरा जो अव्यक्त स्वरुप है तिससे सारा जगत प्रकट हुआ है और दूसरा जो मेरा विराट स्वरूप है जिस पर ब्रह्मा से आदि लेकर च्यूटी पर्यन्त जो बसे हैं सो किसी भांति विराट स्वरूप पर लोक बसे हैं सो सुन- जैसे एक बड़े वृक्ष पर असंख्य पक्षी बसते हैं वैसे ही मेरे विराट रुप में लोक देहधारी भूतप्राणी बसते हैं और सबके हृदय में आत्माराम मैं ही बसता हूं, एक रूप तेरे रथ पर तेरे साथ कौतुक करता हूं। हे अर्जुन! यह मैंने तुमको अपनी प्रभुताई, बडाई ऐश्वर्या योग कहा है। सब के मरण-पोषण हारा भी मैं हूं, सबसे न्यारा भी मैं हूं, सब का उपजावन हारा भी मैं ही हूं और निर्लेप कैसा हूं, इसका दृष्टांत सुन- जैसे नित्य पवन का निवास आकाश में रहता है और आकाश का स्पर्श नहीं करता है तैसे सभी भूत प्राणी मेरे से ही उत्पन्न हुए हैं मेरे में ही बसते हैं और मैं ही सब के भीतर हूं और सबसे न्यारा हूं ऐसा निर्लेप हूं, हे कुन्तिनन्दन! जब यह संसार अपनी मर्यादा को पहुँचता है तब संसार प्रलय होकर मेरी प्रकृति अर्थात माया में जा लीन होता है, फिर इस माया और संसार का आदि मैं ही हूं फिर संसार को प्रगट करता हूं और अपनी जो प्रकृति माया है तिस से मैं बारम्बार संसार को प्रगट पालन और प्रलय करता हूं और किसी जो सब भूत प्राणियों का गाव चौरासी लाख जीव की योनि है यह अपने बस में नहीं माया के बस है, अब अर्जुन और सुन- मैं संसार को उपजाता हूं, संहार करता हूं, पर इस कर्म किए का मुझको लांछन दोष नहीं लगता, क्योंकि मैं किसी के साथ ममता मोह नहीं रखता मैं निर्मोही उदासीन हूं, इन सब से उदास हूं, इस कारण से मुझको कोई बन्धन नहीं बांध सकता। हे कुन्ति नन्दन अर्जुन मेरी कृपा दृष्टि को पाकर तू निर्लेप न्यारा हो। अपने आपको निर्लेप जान, अब अर्जुन और सुन- यह जो मेरी प्रकृति माया है सो संसार जड़ जंग सो उग जाती है प्रगट करती है। दूसरा प्रकार संसार के उपजाने का तू मत जान, ऐसा ईश्वर मैं ही हूं। हे अर्जुन! यह जो मनुष्य देह मैंने धारण की है सो मूढ़ अज्ञानी मुझको समझते नहीं मुझे पहचानते नहीं जो श्री कृष्ण जी ऐसे प्रभु है, सो प्राणी मेरे प्रताप को नहीं जानते कि मैं कैसा हूं, सब भूत प्राणियों का ठाकुर प्रभु हूं। जो पुरुष मुझको नहीं जानते सो क्या फल पाते हैं सो सुन- उनकी आशा सब निष्फल है, वह जो कुछ भले कर्म दान पुण्य आदि करते हैं सब निष्फल है। फिर कैसे है ? राक्षसों जैसे तिनके स्वभाव हैं, वह प्रकृति के मोहे हुए मुझे नहीं पहचानते। जो भले पुरुष महात्मा भक्तजन मेरा भजन करते हैं, वह कैसे हैं तिनकी बात सुन- तिनकी देवताओं जैसी प्रकृति है, मेरा भजन मुझको यह पहचान कर करते हैं कि श्री कृष्ण जी सब के आदी हैं। निरंतर मेरी ही महिमा को गाते हैं, पढ़ते हैं कथा कीर्तन करते हैं दृढ़ निश्चय से मेरी पूजा करते हैं बारम्बार मुझको नमस्कार करते हैं, इस प्रकार मेरे भजन करते हैं दूसरे ज्ञानी जो मेरे भक़्त हैं मुझ को किस प्रकार पूजते हैं वह भी सुन- ज्ञानी मुझको जानते हैं कि एक परमेश्वर पारब्रह्म है जो अनेक रूप होकर पसरिया है दूसरा भेद कोई नहीं, एक है और कहां-कहां वह मुझको जानते है, हे अर्जुन! प्रकृति भी मैं हूं, यज्ञ भी मैं ही हूं, सो प्रकृति यज्ञ का नाम तिन में कुछ भेद है, स्वाहा और स्वधा वचनों से जो कुछ अग्नि में होमते हैं यह वचन भी मैं हूं, खीर से आदि लेकर जो अन्न है सो मैं हूं, यज्ञों में जो मंत्र पढ़ते हैं सो मैं हूं, विधाता भी मैं हूं! वेदों में ओं कार भी मैं हूं, ऋग, यजुर, साम्यह वेद भी मैं हूं, उसका गति करता भी मैं हूं, सखा मैं हूं, निवास सोने की ठाहर भी मैं हूं, और संसार मेरी शरण है मैं ही सब का मित्र हूं, सब का प्रलय और उत्पत्ति करता भी मैं हूं और विश्व मेरे मे लीन होता है, सब बातों से मैं पूर्ण हूं, इस कारण से मेरा नाम निधि निधान कहा है। सर्व का अविनाश बीज हूं, सूर्या होकर मैं ही तपता हूं प्रलय होकर प्रलय भी मैं ही करता हूं, मैंने ही देवता अमर किए और मनुष्य से आदि लेकर सब शरीरों को मैंने ही मृत्यु लगाई है। हे अर्जुन जो मनुष्य मुझको इस विधि से पूजते हैं तिनके पाप काटे जाते हैं। जो प्राणी यज्ञ करके स्वर्ग पाने की कामना करते हैं वह अपने पुण्य की मर्यादा तक स्वर्ग में दिव्य भोग भोगकर जब अपने पुण्य क्षीण होने पर स्वर्ग से गिरते हैं फिर मनुष्य लोक में जन्म पाते हैं। जो इस प्रकाश स्वर्ग की कामना के लिए त्रिविध यज्ञ करें है सो स्वर्ग के सुख भोगते हैं। पुण्य भोगकर वहां से गिरकर फिर गर्भ में आते हैं। बहुत दुख पाते हैं और यह बात निश्चय है कि कामना वाले को सुख नहीं। अब अर्जुन मेरे भक्तों की बात सुन- मेरे भक़्त मन का निश्चल चेता मेरे में रखकर स्वास स्वास मेरा स्मरण करते हैं तिनके कल्याण निमित्त मैं चारों ओर सावधान होकर फिरता रहता हूं, इस प्रकार जैसे धनपात्र मनुष्य के घर के चारों तरफ़ चौकीदार पहरा देता है। सो अर्जुन! तू मेरा भक़्त है, इसलिये मैं तेरे देह की रक्षा करता हूं। सो देख कैसा सावधान हो कर तेरे रथ की रक्षा करता हूं और अपनी महिमा कह कर तेरे मन को अपने साथ दृढ़ करता हूं और परम प्रीति के साथ तेरे रथ के घोड़े हांकता हूं मैं ऐसे अपने भक्तों के साथ प्रीति करता हूं, हे कुन्तिनन्दन! मैं जैसा तेरे आधीन हूं ऐसा और किसी के साथ नहीं। हे अर्जुन! और मुझ को छोड़ किसी और देवता की प्रीति से उपासना करते हैं सो भी मेरी पूजा करते हैं पर भूलकर करते हैं, क्योंकि अर्जुन सर्व यज्ञ भोगता मैं ही हूं और सर्व यज्ञों का प्रभु हूं, जो मुझको ऐसा प्रभु ईश्वर नहीं जानते हैं, वह जन्मते मरते हैं, जो देवताओं के उपासक हैं सो देव लोक में जा प्राप्त होते हैं। जो प्राणी पितरों के उपासक होते है सो पितर लोक में जा प्राप्त होता है, जो कोई मनुष्य देवता का उपासक है सो देव लोक में जा प्राप्त होता है। जो मुझ पारब्रह्म का उपासक है सो मुझे आ मिलता है। हे अर्जुन मैं सालिग्राम हूं सो मेरी पाषाण की प्रतिमा अथवा धातु की जैसे चतुर्भुज लक्ष्मी नारायण बैकुंठ में विराजते हैं सो इनमें मेरे भक्त प्रीति साथ पुष्प पत्र जल समर्पण करते हैं सो अपने भक्तों का दया प्रीति साथ लेता हूं, जो तू भोजन करता हुआ पहिले अग्नि में होमे है सो सब मेरे में समर्पण करें तिनका फल क्या मिलता है ? संसार के सब भले बुरे कर्मों का फल सुख-दुख के बन्धन को काट देता है।हे अर्जुन! सब भूत प्राणियों के साथ एक सा हूं किसी देवता के भक़्त के साथ मोह नहीं, पर जो कोई भक़्त मुझे स्मरण करते हैं तैसे ही मैं तिनका स्मरण भजन करता हूं। अब अर्जुन और सुन- जो कोई अज्ञानी दुराचार पापी है, किसी समय आनन्द होकर मेरा स्मरण करता है कि हे कृष्ण जी! मैं जैसा कैसा हूं, आप की शरण हूं, मैं तुम्हारा हूं, हे अर्जुन! तिसको भी तू साधु ही जान! जिस प्राणी ने मेरे साथ निश्चय किया है तिसका साधु होते क्या लगता है। मेरे भजन के आगे पाप क्या वस्तु है ? जैसे लकड़ियों की पोट को एक और से अग्नि लगावे तो एक घड़ी में सब भस्म हो जाती हैं इसी प्रकार मेरे भजन के आगे पाप क्या वस्तु है वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है, शांति पद को प्राप्त होता है, हे कुन्ति नन्दन जो मुझको पाप योनि भी होकर सिमरे, कौन पाप योनि ? वैश्य शूद्र सो प्राणी भी परमगति के अधिकारी होंगे। यह निश्चय जान जो मेरे भक़्त है तिनका नाश नहीं होता। हे अर्जुन! ब्राह्मण का पूण्य जन्म है सो मेरा मुख है और क्षत्रिय मेरी भुजा है तिसका कृतार्थ होना कुछ आश्चर्य नहीं, तिस कारण हे अर्जुन! मनुष्य देह तुझ को प्राप्त हुई है ऐसी देह को पाकर मेरा भजन कर। अब मनुष्य देह वृतांत सुन- जो कैसी मनुष्य देह है सदा नहीं क्षण भंगुर है, तत्काल नाश हो जाती है, रोगों का घर हाड मांस आदि अपवित्र वस्तुओं से पूर्ण है। यह तो मनुष्य देह के अवगुण कहे हैं। अब इस देह की बड़ाई सुन- जब यह जीव भ्रमते-भ्रमते मनुष्य देह में आता है तब मेरे भजन का ज्ञान पता है मुझे पहचान कर मेरा स्मरण करता है, मेरे जानने के प्रताप से मेरे अविनाशी परमानन्द पद में आ प्राप्त होता है। मेरे पद का दाता यह मनुष्य देह ही है,यह इसकी बढ़ाई कही है। इस कारण से हे अर्जुन! यह देह तुझे प्राप्त हुई है। इस को पाकर मेरा भजन कर और भजन सुन, मन का दृढ़ निश्चय मुझ में रख, मेरे भक़्त हो मेरी पूजा कर, मुझको नमस्कार कर, इस प्रकार निश्चय कर भजन कर।

पार्थ ऐसे होए के आए बसे मम लोक।
मुझ में प्राप्त होय कर हर जायें सब शोक।।

“ओं नमो भगवते वासुदेवाय” ऐसा मेरा भजन स्मरण कर। मेरे साथ ऐसा मिलेगा जैसे पानी के साथ पानी मिल जाता है। इसी प्रकार मेरे साथ अभेद हो ‘ओं’ नमो नारायण’ कहो।

इति श्री मद् भगवद् गीता सुपनिषद सुब्रह्म विद्या योग शास्त्रे श्री कृष्ण अर्जुन सम्बादे प्रकृति भेदो योगो नाम नवमो अध्याय।।

★★★ अथ नवम अध्याय का महात्म्य ★★★

श्री भगवानोवाच- हे लक्ष्मी! तू श्रवण कर, दक्षिण देश में एक नामी शूद्र रहता था, बड़ा पापी मांस मदिरा आहारी था, जुआ खेलता, चोरी करता, परस्त्री रमता ऐसा पाप कर्मी था। एक दिन मदिरापान से तिसकी देह छुटी। वह मर कर प्रेत हुआ। एक वृक्ष पर रहने लगा, एक ब्राह्मण भी उसी नगर में रहता था दिन को भिक्षा मांगकर स्त्री को देवें उसकी स्त्री बड़ी कुलैहणी थी, वह कभी कोई दान पुण्य नहीं किया करती थी, समय पाकर उन दोनों ने प्राण त्यागे वह दोनों मरकर प्रेत हुए। वह भी एक वृक्ष के तले आ रहे जहां प्रेत रहता था, वहां रहते रहते कुछ काल व्यतीत हुआ। एक दिन उसकी स्त्री पिशाचणी ने कहा- हे पुरुष पिशाच तुझको कुछ पिछले जन्म की खबर है ? तब पिशाच ने कहा- सब खबर है, मै पिछले जन्म ब्राह्मण था। तब पिशाचणी ने कहा- तूने पिछले जन्म क्या साधना करी थी, जिससे तुझको पिछले जन्म की खबर है ? तब उसने कहा- मैंने पिछले जन्म ब्राह्मण से अध्यातम कर्म सुना था। तब फिर पिशाचणी ने कहा- वह ब्राह्मण कौन था और वह अध्यात्म कर्म क्या है जिसके सुनने से तुझे पिछले जन्म की खबर रही ? पिशाच ने कहा मैंने और पुण्य नहीं किया, गीता जी का अर्ध श्लोक श्रवण किया है उसका प्रयोजन यह है = एक समय अर्जुन ने श्रीकृष्ण जी से तीन बातें पूछी जो श्री गीता जी के अध्याय में लिखी हैं वह तीन बातें पिशाच से पिशाचणी ने श्रवण करी। पिशाचणी उन बातों को दोहराने लगी। इन बातों की सुनते ही वह प्रेत जो पिछले जन्म मे शुद्र था वृक्ष से बाहर निकला और पिशाचणी से कहने लगा- हे पिशाचणी! यह बात फिर कहो जो तुम अब कह रही थी पिशाचणी ने कहा- तू कौन है मैं तुझे नहीं जानती, तब प्रेत ने कहा- मैं पिछले जन्म में शूद्र था और अपने बुरे कर्मों के अनुसार मैंने प्रेत योनि पाई है। यह सुनते ही पिशाचणी उन बातों को कहने लगी जो उसने अपने भर्ता से सुनी। उन बातों के सुनते ही वह प्रेत की योनि से छूट गया। उसी समय उस अर्ध श्लोक को कहते कहते पिशाच और पिशाचणी की देह भी छूट गई। तत्काल आकाश मार्ग से विमान आए, विमान पर चढ़कर जब वह बैकुंठ की ओर जा रहे थे तब देवताओं ने रास्ते में रोक लिया और कहने लगे तुमने ऐसे कौन उग्र पुण्य किए जिनके करने से इतनी जल्दी बैकुण्ठ को चले हो, तीर्थ स्थान, व्रत, तपस्या, दान पुण्य ऐसा कोई कर्म नहीं हुआ जिसका यह फल तुमको मिला है। श्री नारायण जी की भक्ति नहीं करी, किस करनी के बल से बैकुंठ को जाते हो ? तब उन्होंने कहा एक ब्राह्मण के मुख से श्री गीता जी के अर्ध श्लोक श्रवण करने के प्रताप से बैकुण्ठ को जाते हैं। तब देवताओं ने सुन के कहा- श्री गीता जी का ऐसा प्रताप है जिसके आधे श्लोक श्रवण करने से ऐसे जीव बैकुण्ठ वासी हुए हैं वह तीनों बैकुंठ में जा प्राप्त हुए। श्री नारायण जी ने कहा- हे लक्ष्मी! यह नवम अध्याय का महात्म्य है जो तूने श्रवण किया है।

इति श्री पदम् पुराणे सति ईश्वर सम्बादे उतरा खण्ड गीता महात्म्य नाम नवमो अध्याय संपूर्णम्।।